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पञ्चमोऽधिकारः
हे सेठ ! यहाँ संसार रूप वन में वे आप जैसे धन्य है जो जिनदीक्षा से निजात्मा की पवित्र करते हैं || ८३ ||
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अनन्तर अत्यन्त हर्षित आत्मावाला सेठ जिनाभिषेक और पूजन कर बन्धुओं से विनय घुक्त मधुर उक्तियों से पूछकर वाह्य और आभ्यन्तर जन्य परिग्रह का त्याग कर सुदर्शन को शीघ्र धन-धान्यादिक देकर तथा अपना श्रेष्ठी पद भी देकर, सबसे क्षमा कर दीक्षा लेकर शल्परहित विचक्षण मुनि हो गया ।। ८४-८५-८६ ॥
जनमती नामक सेठानी ने भी तब उन गुरु चरणयुगल में प्रणाम कर मोहादि परिग्रह से पराङ्मुख होकर, वस्त्र मात्र ग्रहण कर यथायोग्य दीक्षा लेकर भक्तिपूर्वक शुभ मन वाली किसी आर्यिका का आश्रय लिया ।। ८७-८८ ।।
इस प्रकार समय पाकर दोनों ने जिनेन्द्रोक्त सुनिर्मल तप कर समाधिपूर्वक स्वर्ग के सुख का आश्रय लिया ।। ८९ ।।
वहाँ पर दोनों अपने पुण्य से परम आनन्द से भरे हुए ठहरे। जिनेन्द्र के तप से लोक में कौन-सा उत्तम सुख असाध्य है ? कोई नहीं है ॥ ९० ॥
इधर बुद्धिमान् सुदर्शन शुभ श्रेष्ठि के पद को पाकर राजमान्य होकर सत्य शौचादि गुणों से युक्त होकर, पिता की सत्सम्पदा पाकर तथा विशेष रूप से अपने द्वारा उपार्जित सम्पदा पाकर पुण्य रहित लोगों के लिए दुर्लभ, मन को अभीष्ट भोगों को भोगते हुए, मनोरमा प्रिया से युक्त सज्जनों से घिरा हुआ वह ऐसा लगता था मानों अपने पुत्र से सुशोभित इन्द्रप्रतीन्द्र से घिरा हुआ हो ।। ९१-९२-९३ ।।
वह श्रीमज्जिनेन्द्र के पद कमल के पूजन में एक मात्र पवित्र बुद्धि वाला सम्यग्दृष्टि था तथा जिनेन्द्रोक्त श्रावकाचार का पालन करने में
तत्पर था ।। ९४ ।।
पात्रदान के प्रभाव से वह दूसरा कल्याण रूप राजा था । बह दयालु, परम उदार और सागर से भी अधिक गम्भीर था ।। ९५ ।।
मनोरमा रूपी लता से युक्त, पुत्र रूपी पल्लवों के समूह से युक्त परोपकार करता हुआ, वह कल्पवृक्ष के समान सुशोभित हुआ ।। ९६ ।।