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द्वितीयोऽधिकारः
संसार कमल के हेतु सूर्य श्री जिनेश्वर जयशील हो । वे केवलज्ञानरूपी साम्राज्य से युक्त हैं तथा उन्होंने लोगों के समूह को सम्बोधित किया है ॥ १॥
अनन्तर श्री श्रेणिक राजा ने विनय से मस्तक झुका कर श्री गौतम देव को नमस्कार कर आदरपूर्वक धर्म को पूछा ।। २ ॥
अनन्तर सत्कृपा के सागर गणनायक गौतम बोले। प्राणियों पर कृपा करना उनका स्वभाव है ।। ३ ॥
हे भावि तीर्थंकरों में अग्रणी (प्रथम ) श्रेणिक ! तुम स्पष्ट रूप से सुनो। वस्तु का स्वभाव धर्म है। वह दो चेतन और अचेतन लक्षण वाला है ।। ४ ।।
जिनेश्वर ने कहा है कि धर्म क्षमादि दस रूप है, रत्नत्रयात्मक है और जीवों की रक्षा करना धर्म है ।। ५ ॥
निश्चय से जिनोक्त सप्त तत्वों का श्रद्धान करना यथार्थ रूप से सम्यग्दर्शन जानना चाहिए, जो कि संसार परिभ्रमण का नाश करने वाला है ।। ६ ।।.
सर्वज्ञ देव के द्वारा कहे हुए द्वादशाङ्ग को ही ज्ञान जानो। यह ज्ञान जगत्पूज्य है और विरोधरहित है ॥ ७ ॥
मुनि और श्रावक के भेद से चारित्र दो प्रकार का कहा गया है । मुनि का चारित्र महानत और श्रावक का चारित्र अणुव्रत रूप होता है। यह मद रहित और सुगति को प्रदान करने वाला होता है ।। ८॥
मन, वचन, काय तीन प्रकार से हिंसादि पांच पापों का त्याग करना मूल भेद की अपेक्षा मुनियों का महायत है ॥ ६ ॥
उस चारित्र के मूल और उत्तर गुण अनेक होते हैं। जिन गुणों से वे मुनि स्वर्ग और मोक्ष से उत्पन्न सुख को प्राप्त होते हैं ।। १० ॥
हे राजा श्रेणिक ! तुम श्रावकों के चारित्र को सुभो। सम्यक्त्व पूर्वक विद्वानों को नित्य से आदि में अष्टमूलगुणों का पालन करना चाहिए । आठ मूलगुणों से विशुद्ध होना स्वर्ग लक्ष्मी के लिए होता है।
चर्ममिश्रित हींग अथवा हींग से बने पदार्थ तथा जलादिक छोड़ना चाहिए ।। ११-१२ ।।