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धत्तमोऽधिकारः
७३ शुभ लग्न, रम्य दिन में कुलाचार के विधानानुसार भोजनादिक सद्दान और चित्त को अनुरंजित करने वाले दान मान से सागरदत्त नामक सेठ ने भार्यादि से युक्त पूर्ण शृङ्गार कर सुदर्शनके शुभ हाथ में चिरकाल तक जियो ऐसा कहकर पुण्यधारा के समान उज्ज्वल यह मैंने तुम्हें दो, यह कहकर प्रसन्नता पूर्वक जलधारा दो ॥ ११२-११३-११४ ॥
उस बुद्धिमान् सुदर्शन ने भी समस्त सज्जनों की साक्षो में प्रकृष्ट मद को प्रदान करने वाले उसके हस्तकमल को ग्रहग किया |११५।।
इस प्रकार वहाँ पर उन दोनों का पुण्य योग से सज्जनों के आनन्द का कारण दिव्य विवाह मंगल हुआ ॥११६।।
इस प्रकार सार विभूति रूप सैकड़ों मंगलों से शुभ सुमान-दान से नित्य पूर्ण मनोरथों के साथ सम्पूर्ण विवाहोत्सव हुआ। तीनों भुवनों में सभी लोगों के प्रचुर प्रमोद का जनक, सन्तान की वृद्धि करने वाला, मंगल शुभ देह वालों के सत्सुण्य से होता है ॥११७।
इस प्रकार पञ्जनमस्कार माहात्म्य प्रदर्शक सुदर्शनचरित में मुमुक्षु विद्यानन्दविरचित सुदर्वानमनोरमा विवाह मंगल व्यावर्णननामक चतुर्थ अधिकार समाप्त हुआ।