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चतुर्थोऽधिकारः अनन्तर निकटवर्ती समय में उसकी पत्नी सती सागरसेना ने अपने घर शुभ पुत्री को उत्पन्न किया ।। ३० ।।
उसका नाम मनोरमा था। नव यौवन से मण्डित होकर वह रूप और सौभाग्य से कामदेव की रति के समान सम्पन्न थी॥ ४१ ।।
वस्त्र और आभरण से संयुक्त वह सुमनोरमा कोमल कल्पलता के समान तथा लोगों को मोहित करने के लिए औषधि के समान सुशोभित हुई ॥ ४२ ।।
उसके सार नूपुर से युक्त अङ्गुलियों सहित दो कोमल पैर थे। जो कि कमल को जीतते थे ।। ४३ ।।
सार लक्षण से लक्षित उसकी दोनों जंधायें सुशोभित होती थीं। वे नित्य चरणकमल के नाल की शोभा को धारण कर रही थीं ।। ४४ ।।
यौवन के उत्मव पर दर्प से युक्त सुन्दर कामदेव रूपी राजा के गृह तोरण पर उसकी दोनों जंबायें केले के स्तम्भ जैसा आचरण करती थीं ।। ४५ ॥ - इसका नितम्ब स्थल कामदेव को मनोभूमि थी। क्योंकि सदैव यहाँ पर निवास करना तीनों लोकों के प्रति आसक्ति की रक्षा करता है || ४६ ।। ___ इस दुर्बल उदर वाली का मध्यभाग कृश होने पर भी बलिष्ठ था जो कि त्रिवली से आक्रान्त होने पर भी अत्यधिक शोभा को धारण करता था ।। ४७ ।।
उसका हृदय स्तनद्वय से युक्त हुआ सुशोभित था । वह कामदेव रूपी प्रभु का हार सहित अथवा कुम्भ सहित तोरणद्वार था । ४८।।।
इसकी सरल, काली रोमराजि अत्यधिक सुशोभित होती थी। वह कामदेव रूपी हाथी के बन्धस्तम्भ के बिनभ को धारण करती थी ।। ४९॥
उसकी दोनों भुजायें कोमल, रम्य करपल्लव से युक्त थीं। उत्तम रत्न कंगन से युक्त बे भुजायें मालतीलता को जीतती थीं ।। ५० ॥
उसका सुन्दर स्वर से युक्त कण्ठ तीन रेखाओं वाला तथा हार से मण्डित था। वह सज्जनों को आनन्द प्रदान करने वाली शस्त्र की शोभा को अत्यधिक रूप से धारण करता था ।। ५१ ॥
उसका मुखकमल नाक की कणिका से युक्त सुशोभित होता था। सुगन्धित दाँतों के किरण रूप धागे कोमल और शुभ थे ।। ५२॥
कान की समाप्ति तक भौंहों से युक्त दोनों नेत्र कामदेव के बाण से शोभित कामियों के वेधने योग्य चित्तों में सुशोभित होते थे ।। ५३ ।।