________________
चतुर्थोऽधिकारः उसके मुख में सज्जनों को आनन्द देने वाली वाणी उत्पन्न हुई। उस वाणी के विषय में आगे क्या कहा जाय, जो कि समस्त नत्त्वार्थ का कथन करने पार की , २ ।। __ अनन्तर बुद्धिमान् पिता ने पुत्र को महोत्सवों के साथ जैन उपाध्याय के समीप पढ़ने के लिए रखा ।। २७ ।।
विनय से हाथ जोड़ें कपिल नामक पुरोहित सुत मित्र के साथ वह पठन क्रिया करते हुए पूर्व पुण्य से समस्त विद्याओं को जानने वाला हो गया। वह भव्य विद्वानों के द्वारा संस्कृत मणि के समान सुशोभित हुआ ।। २८-२९ ।।
वह निर्मल विचित्र अक्षर, उत्तम गणित शास्त्र, तक, व्याकरण, अत्यधिक काव्य, छन्द, ज्योतिष, वैद्य शास्त्र, सैकड़ों जैन शास्त्र, श्राबका-- चार आदि यथाक्रम पढ़ता था । ३०-३१ ।।
विद्या दोनों लोकों में माता है, विद्या सुख और यश को करने वाली, विद्या नित्य लक्ष्मी को उत्पन्न करने वाली तथा विद्या हितकारी चिन्तामणि है ।। ३२ ।।
विद्या रमणीय कल्पवृक्ष है, विद्या काम दुहा गौ है, विद्या लोक में सार रूप धन है, विद्या स्वर्म और मोक्ष का साधन करने वाली है ।। ३३ ।।
अतः भव्य जनों को सदा संसार का हितकारी विद्याभ्यास कष्ट रूप प्रमाद छोड़कर सद्गुरु की चरण सेवा के साथ करना चाहिए ।' ३४ ।।
इस प्रकार विद्या रूप, गुण, दान, मान और भव्य जनों को अनूरजित करता हुआ, सज्जनों को प्रिय वह यौवन पाकर अत्यधिक सुशोभित हुआ ।। ३५॥
वहाँ पर एक दूसरा बुद्धिमान सागरदत्त नामक सेठ था । उसकी प्राणवल्लभा सागरसेना पत्नी थी। ३६ ।।
सेठ सागर दत्त ने कभी प्रमोद में वृषभदास नामक सेठ से प्रीतिपूर्वक कहा कि यदि मेरे पुत्री होगी, तो मैं उस पुत्री को तुम्हारे इस सुदर्शन नामक पुत्र को प्रदान करूँगा, जिससे हम दोनों में सदा प्रीति रहे ॥ ३७-३८।।
ठीक हो है, सज्जनों को निश्चित रूप से गुणों के प्रति प्रेम प्रिय होता है । अथवा विद्वानों की वाणो इस लोक और परलोक दोनों जगह सुख को लाने वाली होती है ।। ३९ ।।