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चतुर्थोऽधिकारः उसके दोनों कान लक्षणों से सम्पूर्ण दो कुण्डलों से सुन्दर थे। वे उसकी रूप लक्ष्मी को नित्य झुलाने वाली लक्ष्मी के आश्रित थे ॥ ५४॥ .
उसके निर्मल कपोल गोलाकार को धारण कर रहे थे । वे नित्य संसार के चित्त को हरने वाले चन्द्रमा के समान हो रहे थे ।। ५५ ।।
उसका ललाटपट्ट निर्मल तिलक से युक्त था। यह कलङ्क से युक्त १६ शुभ चन्द्रमा के बिन्ध को जीतता था ।। ५६ ।।
उस सुकेशी के कबरीबन्ध की किससे उपमा दी जा सकती है ? वह अत्यधिक रूप से कामराज के कामियों के पाश के समान सुशोभित हो रही थी॥ ५७॥
इत्यादि रूप सम्पत्ति और वस्त्राभरण से शोभित वह मनोरमा गुणों में देवाङ्गनाओं को भी जीतती थी ॥५८||
एक बार नगर के मध्य में कामदेव की स्त्री रति के रूप रूपी सर्प के दर्प का सपेरा सुदर्शन, कपिल नामक मित्र के साथ दिव्य आभरण और वसा को धारण कर भ्रमण कर रहा था। वह याचकों को प्रसन्न करने में समर्थ कल्पवृक्ष था॥ ५९-६० ॥
वह समस्त लक्षणों से सम्पूर्ण था, कलागुण विशारद था, समस्त स्त्रो समूह के नेत्र रूपी नीलकमल की लक्ष्मी का पूर्ण चन्द्र था, पुण्य से सम्पूर्ण था, अपनी कान्ति रूपी चाँदनी से युक्त था। अपने सौभाग्य से समस्त लोगों को मोहित करते हुए, कहीं जाते हुए, उस सागरदत की पुत्री कुलदीपिका मनोरमा को देखकर अत्यन्त विस्मित हुआ। वह वस्त्र और आभूषणों के समूह से मण्डित थी, पवित्र थी, सखियों के साथ पूजा के लिए अपनी लीला से जिनालय को जा रही थी ।। ६१-६४ ||
उसने कपिल से कहा-मित्र ! क्या यह सुरकन्या है ? क्या यह किन्नरी है, रम्भा है या तिलोत्तमा है ।। ६५ ।।
क्या रम्य विद्याधरी है अथवा नागेन्द्र कन्या पृथ्वीतल पर आयी है ? हे विचक्षण ! तुम मुझसे सत्य कहो ।। ६६ ॥
उसे सुनकर बुद्धिमान् वह कपिल ब्राह्मण बोला--हे मित्र ! तुम सुनो । तुमसे सन्देहनाशक वचन बोलता हूँ॥ ६७ ॥
सु०-५