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चतुर्थोऽधिकारः
६९ जब वृषभदास नामक सेठ उसके घर गया, तब तक उसके घर भी मनोरमा नामक पुत्री सुदर्शन को देखकर काम के बाणों से विद्ध हो गई। घर जाकर वह पिशाच के द्वारा ग्रहण की गई हो, इस प्रकार विह्वल हो गई ।। ८२-८३ ।।
हे मन को अभीष्ट मेरे प्राणवल्लभ । तुम्हारे बिना मेरी घड़ी भी सैकड़ों कल्पों के समान बीतती है ।। ८४ ।। ___ निमेष भी मास के समान लगता है, घर कारागृह जैसा लगता है। हे नाथ ! मेरे प्राण धारण का वचन दो ।। ८५ ।।
संसार में वही नरशार्दूल परम उदय वाला है, जो मेरे को दर्शन मात्र से यहाँ कामदेव पीड़ित कर रहा है ।। ८६ ॥ ___ इत्यादिक प्रलाप को उसके प्रति संसक्त मन वाली वह भोजनादिक छोड़कर निरन्तर करती थी ।। ८७ ॥
ठीक ही है, दुष्ट काम के द्वारा पृथ्वी तल पर बड़े-बड़े रुद्रादि भी जल गए, अन्य भोलेभालों की तो कथा ही क्या है ? || ८८॥
तभी वहाँ पर वह मेठ आया। उसे देखकर सागरदत्त ने भी उठकर आदर कर स्थान, आसन और शुभ वाक्यों से उत्तम सम्मान किया। सज्जनों का यह नित्य स्वभाव होता है कि वे सज्जनों के प्रति अत्यधिक विनययुक्त होते हैं ।। ८९-९० ।।
अनन्तर साधर्मियों के योग्य कुशल वार्ता कर कन्या के पिता ने प्रसन्न होकर कहा । हे सज्जनोत्तम सेठ ! ॥ ९१ ॥
आज मेरा मन्दिर विशेष रूप से पवित्र हो गया, जो कि पवित्र गुणों के सागर आप आ गए ।। १२ ॥
कृपाकर प्रीतिपूर्वक कुछ कार्य के विषय में कहिए । अनन्तर वृषभवास ने भी अपने मन की बात कही ।। २३ ॥ __आपकी मनोरमा नाम की पुण्य से पवित्र पुत्री है । आप परम आदरपूर्वक सुदर्शन के लिए दीजिए ॥ ९४ ॥ __सागरदत्त नामक बुद्धिमान सेठ उसे सुनकर सन्तुष्ट हुआ । वह बोलाहे बुद्धिमान सेठ ! साररूप स्वर्ण और मणि का सम्भव हुआ सुखदायक संयोग किसके लिए सुखदायो नहीं होता है ? अतः मैं प्रसन्नतापूर्वक तुम्हारे पुत्र के लिए कन्या दे रहा हूँ ।। ९५-९६ ।।