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तृतीयोऽधिकारः अनन्तर राजा श्रेणिक ने गुरु को नमस्कार कर पुनः अंजलि बाँधकर कहा-हे स्वामी ! आप कारण के बिना सदा जगबन्धु है ।। १ ।।
मेघ, कल्पवृक्ष अथवा दिव्य चिन्तामणि जिस प्रकार परोपकार करने में तत्पर रहते हैं, उसी प्रकार तुम तीनों लोकों के भव्यों का परोपकार करने में तत्पर हो ।। २ ।। ___ जो यहाँ पर वीरनाथ का पञ्चम अन्तकुत् केवली है, उस सुदर्शन मुनि का चरित्र भुवनों में उत्तम है ।। ३ ।। __श्रीमानों की सूकृपा से उसे में सुनना चाहता है। हे देव ! करुणा कर उस चरित्र को तुम मुझसे कहने के योग्य हा ।। ४॥ . __उसे सुनकर चार ज्ञान से सुशोभित गणधर देव परम आनन्द देने वाली शुभ वाणी में बोले ॥ ५ ॥
हे उत्तम बुद्धि वाले राजन् सुनो ! तीर्थंकरों के जन्म से पवित्र परमोदय भरत नाम के क्षेत्र में ।। ६ ।। सार रूप सम्पत्तियों से भरा हुआ विख्यात अङ्गदेश है। वह नित्य भव्यजनों से व्याप्त नगर आदि से सुशोभित है ।। ७ || ___जहाँ पर विशिष्ट कही हुई अठारह अठारह धान्य की उन्नत राशियाँ सुशोभित होती हैं । मानों वे सज्जनों की पुण्य राशियाँ हों ।। ८ ।। ___जहाँ सैकड़ों सुखों को प्रदान करने वाला श्रीमजिनेन्द्रों का भुवनों में उत्तम दशलाक्षणिक धर्म नित्य विद्यमान है ।।९।। ___ जहाँ पर धान्यों की निष्पत्ति का स्थान खल नामका हुआ। अन्य
कोई परपीड़ादायक खल पुरुष नहीं है ।। १० ।। ___जहाँ पर यदि कठिनता है तो व्रतों के पालन और स्त्रियों के स्तनद्वय में हैं । लोगों के पुण्य कर्म में काठिन्म नहीं है ।। ११ ॥
जहाँ पर कज्जल लेखन में और नारियों के लोचनों में है। प्राणियों के कुल और गोत्र में कालिमा नहीं है ॥ १२ ॥
उपभोग की हुई पुष्प मालाओं में जहाँ म्लानता दिखाई देती है। पूर्व पुण्य के प्रभाव से प्रजाओं के मुखों पर अत्यधिक म्लानता नहीं दिखाई देती है ॥ १३ ॥