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वह कामभोग रूपी वाली, मधुरस्वरा और थी ॥ ५४ ॥
तृतीयोऽधिकारः
रस की आधारभूत कूपी, कमल के समान नेत्र राजा के चित्तरूपी मृग को बांधने की रस्सी
उसके साथ मन को प्रिय लगने वाला यथाइष्ट भोगों को भोगता हुआ वह राजा सुखपूर्वक स्थित था, जिस प्रकार लक्ष्मी के साथ पुरुषोत्तम सुखपूर्वक रहता है ।। ५५ ।।
उसका समस्त कार्यों को जानने वाला वृषभदास श्रेष्ठी था। उत्तम सेठ से राजा का राज्य स्थिर होता है || ५६ ॥
बह सेठ श्रीमज्जिनेन्द्र के चरणकमल के सेवन का एकमात्र भ्रमर था। तह सम्यग्दृष्टि, सदगुरु का भक्त तथा श्रावकाचार में तत्पर
था ॥ ७ ॥
वह जिनेन्द्र भवन, प्रतिमा, पुस्तकादिक का उद्धार करता था और यथार्थ रूप से चार प्रकार के संघ के प्रति वात्सल्यभाव से युक्त था । ५८॥
इस प्रकार शुद्ध बुद्धिवाला वह श्री जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए सुख रूपी धान्य को देने वाले अपने चित्तरूपी अमृत की धारा से सबको
सन्तुष्ट करता था ।। ५९ ।।
जो भव्य स्वर्ग और मोक्ष के एकमात्र कारण चित्त को रंजित करने वाले जिनेन्द्र भगवान् के चरणकमल की पूजा सदा करता था । ६० ॥ जो पवित्रात्मा सदा नव पुण्यों से, दाता के सात गुणों से युक्त होकर - पात्रदान से पवित्रात्मा होकर मानों दूसरा ही श्रेयांस राजा था ।। ६१ । वह श्रेष्ठि याचकों के प्रति दयालु था, दान से सुशोभित था अथवा - परम आनन्द का देनेवाला कल्पवृक्ष उत्पन्न हुआ था ।। ६२ ।।
उसकी रूप और सौभाग्य से युक्त, सतोश्रत की पताका स्वरूप, कुल मन्दिर की दीपिका निमती नामक प्रिया थी || ६३ ॥ श्री जिनेन्द्र भगवान् के प्रति उसको बुद्धि अत्यन्त निर्मला हुई, अतः इसका शुभप्रद जनमती नाम सार्थक हुआ || ६४ ॥
संसार को प्रीति उत्पन्न करने वाली जिसकी रूप सम्पदा को देखकर रहित हुई ।। ६५ ।। अथवा जिनराज की
निश्चित रूप से देवाङ्गना निमेष की वह परम आनन्ददायिनी कल्पलता के पूजा से भक्तितत्परा शची थी ॥ ६६ ॥
टिमकार समान थी।
से
जिसने पृथ्वी तल को पवित्र किया है ऐसी श्रावकाचार से पवित्र आत्मा वाली वह दया, क्षमा, रूप, गुग से मुनि की बुद्धि के समान सुशोभित हुई ॥ ६७ ॥