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द्वितीयोऽधिकारः
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कहा भी है
मिथ्यात्व, अविरति कषाय और योग ये आस्रव होते हैं । उस आत्रक के भेद पाँच, बारह, पच्चीस तथा पन्द्रह होते हैं ॥ ६७ ॥
प्रमाद होने पर जन्तु के कर्मों का आलव नित्य होता है। जिस प्रकार टूटी हुई कुण्डी में नित्य जल का भरना विनाशकारी है ॥ ६८ ॥
कषाय के वश जीव नित्य अनन्त कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है । बहु बन्ध चार प्रकार का होता है ॥ ६९ ॥
१. प्रकृति बन्ध २. स्थिति बन्ध और ३ अनुभाग बन्ध ४. प्रदेश
बन्ध ॥ ७० ॥
कहा भी है
प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश, 'इस प्रकार चार तरह का बन्ध होता है। योग से प्रकृति और प्रदेशबन्ध तथा कषाय से स्थिति और अनुभाग बन्ध होते हैं ॥ ७१ ॥
व्रत, समिति, गुप्ति आदि से, अनुप्रेक्षाओं के षहों के जय से, चारित्र से आस्रव का जो घातक है,
प्रकृष्ट चिन्तन से, परीवह संवर है ॥७२॥
कर्मों का एकदेश तय होना निर्जरा मानी गई है। वह सकाम निर्जरा और अकाम निर्जरा के भेद से दो प्रकार की कहो गई है || ७३ ॥
जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए तपोयोग से मुनि आदि के द्वारा जो कर्मों का क्षरण किया जाता है, उसे विद्वानों ने अविपाक निर्जरा माना है ॥ ७४ ॥
बलात्
संसार में भ्रमण करने वाले जीवों की दुःखादिक से स्वयं कर्मों को निर्जरा होती है, वह सविपाक नामक निर्जरा है ।। ७५ ।।
भव्यजीवों का समस्त कर्मों के नाश का कारण रूप जो परिणाम है, उसे जिनेन्द्रों ने भावमोक्ष माना है ।। ७६ ।।
जिनभाषित सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से शुक्लध्यान के प्रभाव से समस्त कर्मों का जो क्षय होना है ॥ ७७ ॥ वह द्रव्यमोक्ष जानना चाहिए, वह अनन्तानन्त सुख को देने वाला है। शाश्वत, परम उत्कृष्ट, विशिष्ट आठ गुणों का सागर || ७८ ॥ मुक्ति क्षेत्र जिनों ने कहा है । वह तीनों लोकों के शिखर पर प्रारभार नामक शिला के मध्य, छत्राकार और मनोहर रूप में स्थित है ॥ ७९ ॥