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द्वितीयोऽधिकारः
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जीव दो प्रकार का जानना चाहिए - १. मुक्त, २ . संसारी । सब कर्मों से रहित मुक्त, सिंद्ध और निरंजन है ॥ ५४ ॥
वह शरीर रहित, निराबाध, निर्मल और अनन्त सुख वाला है, वह विशिष्ट आठ गुणों से युक्त है और तीनों लोकों के शिखर पर स्थित है ।। ५५ ।।
वह साकार होने पर भी निराकार है, निष्ठित अर्थ वाला है, समस्त लोगों के द्वारा स्तुत्य है । इसके स्मरण मात्र से भव्य उसके पद को प्राप्त हो जाते हैं । ५६ ॥
संसारी जीव दो प्रकार के हैं - १. भव्य और २. अभव्य । जिस प्रकार स्वर्ण पाषाण स्वर्ण बनने के योग्य होता है, उसी प्रकार भव्य रत्नत्रय के योग्य है ।। ५७ ।।
मुनियों ने अभव्य को अन्ध पाषाण के समान माना है। वह अनन्तानन्त काल में भी संसार को नहीं छोड़ता है । ५८ ॥
कोई भव्य कर्मठ अपने कर्मों से भव्यराशि के साथ संसार में सदा शुभ और अशुभ कर्मों से सुख और दुःख को भोगते हुए कालादि लब्धि पाकर जिनेन्द्रों के द्वारा कथित ( निश्चय और व्यवहार) दो प्रकार के सम्यक् रत्नत्रय की आराधना करके, निर्मल शुक्लध्यान के प्रभाव से कर्मों का नाश कर शाश्वत उत्तम मोक्ष को चले गए हैं, चले जा रहे हैं और चले जायेंगे || ५९-६०-६१ ।।
हे राजन् ! तुम अजीब पुद्गल द्रव्य को जानो, जो कि पृथिव्यादि छह भेदों के रूप में आगम के अनुसार निरूपित है ॥ ६२ ॥
कहा भी है
जिनेन्द्र भगवान् ने छह प्रकार का पुद्गल द्रव्य कहा है-अतिस्थूल, स्थूल, स्थूल सूक्ष्म, सूक्ष्म स्थूल, सूक्ष्म, सुक्ष्म सूक्ष्म इनके उदाहरण क्रमशः पृथ्वी, जल, छाया, चतुरिन्द्रिय विषय, कर्म तथा परमाणु हैं ।। ६३-६४ ।।
आठ स्पर्शादि के भेद से पुद्गल बीस प्रकार का होता है तथा विभाव रूप से अनेक प्रकार का होता है || ६५ ॥
पांच प्रकार का मिथ्यात्व बारह प्रकार का अविरति पच्चीस प्रकार की कषाय तथा पन्द्रह प्रकार के योगों से || ६६ ॥
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