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द्वितीयोऽधिकारः
दान, पूजादि में तत्पर, व्रतों से मण्डित जो सम्यग्दृष्टि श्रावक मुरु का भक्त है, वह मध्यम पात्र है ।। २७ ।।
केवलीप्रणोत दर्शन और जिनधर्म में जो महारुचि रखता है, मिथ्यात्व रूपी विष को जिसने छोड़ दिया है, वह बुद्धिमान् जघन्य पात्र है ।। २८ ।।
इस प्रकार संसार में जिन भन्यों ने प्रीतिपूर्वक तीन प्रकार के पात्रों के लिए चार प्रकार का दान दिया है, उन्होंने धर्म रूपी वृक्ष का सिञ्चन किया है ।। २२ ॥
दयालुओं को दीन, अन्धे और बधिरादि याचकों को महोत्सव में कारुण्य नामक दान देना चाहिए ।। ३० ।।
जैन पण्डितों ने त्याग, दान और पूजा कही है। सुधावक जैनों को भक्तिपर्वक शुभ जैन भवन बनवाकर तथा पापनाशक जिनेन्द्र प्रतिमा शास्त्र के अनुसार पंचकल्याणक में कही गई विधि के अनुमार प्रतिष्ठापित कर स्वर्ग व मोक्षरूपी लक्ष्मी की प्राप्ति महाभव्यों को विशिष्ट दधि आदि के द्वारा सुख कारक महा-अभिषेक करके विशिष्ट जल आदि अष्टमहाद्रव्यों से नित्य पूजा करना चाहिये तथा दुर्गति का विनाश करने के लिए सिद्धक्षेत्रों की यात्रा करना चाहिए ।। ३१-३२-३३-३४ ॥
और जिनेन्द्रों की सुखप्रद भली भांति स्तुति कर एक सौ आठ बार जाप देना चाहिए। यह सैकड़ों सुखों को प्रदान करने वाली कही गई है॥ ३५ ॥
३५ अक्षरों वाला यह णमोकार मन्त्र तीनों लोकों में पूज्य है और पाप संताप रूपी दावाग्नि को शमन करने के लिए मेघ है ।। ३६ ।।
सुख, दुःस्त्र, घर, जंगल, व्याधि, राजाल तथा जल में, सिंह व्यान, कर शत्रु, सपं तथा अग्नि का भय होने पर ।। ३७ ।।
बुद्धिमान् को समस्त शान्ति को लाने वाले इस मन्त्र का पान करना चाहिए। यह बात उत्रित ही है कि सूर्य का उद्योत होने पर समस्त अन्धकार भाग जाता है।॥ ३८।।
तथा गुरु के उपदेश से पंच परमेष्ठियों का सोलह आदि अक्षरों वाले मन्त्र का समूह सुख का साधक जानना चाहिए ।। ३९ ।। ___ शुद्ध स्फटिक के समान शुभ जिनेन्द्र प्रतिमा का सम्यग्दृष्टि को सदा ध्यान करना चाहिए । यह समस्प पापों का नाश करने वाली है ।। ४० ॥