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प्रथमोऽविकारः
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चारों दिशाओं में ऊंचे महामान स्तम्भ से युक्त जिनके दर्शनमात्र से मिथ्यादृष्टि लोग मान को छोड़ देते हैं ॥ ९० ॥
उस समवशरण की समस्त दिशाओं में सोलह स्वच्छ जल से पूर्ण, सज्जनों के चित्र के समान ( निर्मल ) तालाब थे ॥ ९१ ॥
रत्नों के तटों से सुशोभित जल से समान सन्ताप को नष्ट करने वाली हुआ ॥ ९२ ॥
भरी हुई सज्जनों के चरित्र के खाई को देखकर वह हर्षित
चमेली, चम्पा, पुन्नाग तथा पारिजात आदि से उत्पन्न नाना प्रकार के पुष्पों से युक्त मनोहर पुष्पवाटिका को ॥ २३ ॥
चार गोपुरों से युक्त स्वर्ण के ऊँचे प्राकार को अथवा मानुषोत्तर पर्वत को देखकर वे प्रभु प्रीति को प्राप्त हुए ॥ ९४ ॥
देवों आदि से देखने योग्य, रम्य दो नाट्यशालाओं को, देव देवासनाओं के गीत, नृत्य तथा वादित्र के शोभित ॥ २५ ॥
अशोक, सप्तपर्ण तथा चम्पा नामक नाना प्रकार के सैकड़ों वृक्षों से व्याप्त चार वनों को ॥ ९६ ॥
वार गोपुरों से युक्त स्वर्ण वेदिका को अथवा समवशरण रूप लक्ष्मी की मेखला को उसने देखा ।। ९७ ।।
वायु से कम्पित स्वर्ण के स्तम्भों के अग्रभाग में लगी हुई ध्वजाओं के समूह से उस देवसभा को बुलाने वाली को देखकर वह सन्तुष्ट हुआ ।। ९८ ।।
रत्नमय तोरणों वाले गोपुरों से विशाल रजत भवन को मानों वह जिनेन्द्र भगवान् के यश की राशि हो, देखकर वह सन्तुष्ट हुआ ।। ९९ ॥
सार रूप सुख को देने वाले कल्पवृक्षों के वन को चारों ओर से देखकर सन्तुष्ट हुए राजा का हर्ष हृदय में सभा नहीं सका || १०० ॥
देवादि के विश्राम के लिए स्वर्ण तथा रत्न से निर्मित शुभ नाना भवनों के समूह को देखकर राजा हर्षित हुआ ॥ १०२ ॥
रत्न तोरण से संयुक्त, सुरों और असुरों से पूजित पद्मरागमणि से निर्मित, जिनेन्द्र प्रतिमाओं से युक्त छत्तीस सुमनोहर महास्तूपों की राजा ने सज्जनों सहित अनेक वस्तुओं से पूजा की ।। १०२ - १०३ ॥
सु०-२