Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
२१
षट्खंडागमको प्रस्तावना इस सूत्रकी व्याख्यामें कहा गया है कि कोई मिथ्यादृष्टि जीव तीनों करणोंको करके प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्रहण कर अन्तर्मुहूर्तकालके बाद वेदकसम्यक्त्यको प्राप्त होकर उसमें तीन पूर्वकोटियोंसे अधिक व्यालीस सागरोपम बिताकर बादमें क्षायिकसम्यक्त्वको धारणकर और चौवीस सागरोपमवाले देवोंमें उत्पन्न होकर पुनः पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले जीवके साधिक ६६ सागरकाल सिद्ध हो जाता है।
किंतु बेदकसम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति बतलाते हुए पूरे ६६ सागर ही दिये हैं, यथा-- वेदगसम्माइट्ठी केवचिरं कालादो होति ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उकस्सेण छावहिसागरोवमाणि ।
(धवला. अ. प, ५०७) इस सूत्रकी व्याख्या करते हुए कहा गया है कि मनुष्यभवकी आयुसे कम देवायुवाले जीवोमें उत्पन्न कराना चाहिए और इसी प्रकारसे पूरे ६६ सागर काल वेदकसम्यक्त्वकी स्थिति पूरी करना चाहिए।
उक्त सारे कथनका भाव यह हुआ कि सम्यग्दर्शनसामान्यकी अपेक्षा साधिक ६६ सागर, वेदकसम्यक्त्वकी अपेक्षा पूरे ६६ सागर, और मंगलपर्यायकी अपेक्षा देशोन ६६ सागरकी स्थिति कही है, इसलिए उनमें परस्पर कोई मत-भेद नहीं है।
पृष्ठ ४२ ११. शंका--णमो अरिहंताणमित्यत्र अरिमोहस्तस्य हननात् अरिहंता शेषघातिनामविनाभाविस्वात् अरिहंता इति प्रतिपादितम् । तदभीष्टमाचार्यैः । पुनः अस्वरसात् उच्चते वा 'रनो ज्ञानहगावरणादयः मोहोऽपि रजः, तेषां हननात् अरिहंता, इति लिखितम् तदत्र अरहंता इति पदं प्रतीयते । भवद्भिरपि श्रीमूलाचारादिग्रंथानां गाथाटिप्पण्णौ निन्ने लिखितं तत्र गाथायामपि अरहंता लिखितम् । आचार्याणामुभयमभीष्टं प्रतीयते णमो अरिहंताणं, णमो अरहंताणं' परन्तु उभयत्र कथने णमो अरिहंताणं ' लिखितम् । इत्यत्र लेखकविस्मृतिस्तु नास्ति वान्यत् प्रयोजनम् ?
(पं० झम्मनलालजी, पत्र ४.१.४१) __ अर्थात् धवलाकारने णमोकारमंत्रके प्रथम चरणके जो विविध अर्थ किये हैं उनसे अनुमान होता है कि आचार्यको अरिहंत और अरहंत दोनो पाठ अभीष्ट हैं । किन्तु आपने केवल ' अरिहंता' पाठ ही क्यों लिखा ?
समाधान- णमोकारमंत्रके पाठमें तो एकही प्रकारका पाठ रखा जा सकता है । तो भी ' णमो अरिहंताणं पाठ रखनेमें यह विशेषता है कि उससे अरिहंता और अर्हत् दोनो प्रकारके अर्थ लिये जा सकते हैं। प्राकृत व्याकरणानुसार अर्हत् शब्दके अरहंत, अरुहंत व अरिहंत तीनों प्रकारके पाठ हो सकते है। अतएव अरिहंत पाठ रखनेसे उक्त दोनों प्रकारके अर्थों की गुंजाइश रहती है । यह बात अरहंत पाठ रखनेसे नहीं रहती ( देखो परिशिष्ट पृ. ३८)
१२ शंका-'अपरिवाडीए पुण सयलसुदपारगा संखज्जसहस्सा। और यदि परिपाटी क्रमकी अपेक्षा न की जाय तो उस समय संख्यात हजार सकल श्रुतके धारी हुए। भगवान् महावीरके
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org