Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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षट्खंडागमकी प्रस्तावना
कापिष्ठ कल्पवासी देवोंमें उत्पन्न हुआ । वहाँपर एक सागरोपम काल बिताकर दूसरे सागरोपमके आदि समय में सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और तेरह सागरोपम तक वहां रहकर सम्यक्त्व के साथ ही च्युत होकर मनुष्य हो गया । उस मनुष्यभवमें संयमको अथवा संयमासंयमको परिपालनकर इस मनुष्यभवसम्बन्धी आयुसे कम बाईस सागरोपम आयुकी स्थितिवाले आरण - अच्युत कल्पके देवोंमें उत्पन्न हुआ | वहांसे च्युत होकर पुनः मनुष्य हुआ । इस मनुष्य भवमें संयमको धारण कर उपरिम ग्रैवेयक में मनुष्य आयुसे कम इकतीस सागरोपम आयुकी स्थितिवाले अहमिन्द्र देवों में उत्पन्न हुआ । वहां पर अन्तर्मुहूर्त कम छयासठ सागरोपमके अन्तिम समयमें परिणामों के निमित्तसे सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ । x x x यह उत्पत्तिक्रम अव्युत्पन्नजनोंके व्युत्पादनार्थ कहा है । परमार्थसे तो जिस किसी भी प्रकारसे छयासठ सागरोपमकालको पूरा करना चाहिए ।
सर्वार्थसिद्धिकार जो क्षायोपशमिकसम्यक्त्वकी स्थिति पूरे ६६ सागर बता रहे हैं, वह षट्खंडागम के दूसरे खंड खुद्द बंधके आगे बताये जानेवाले सूत्रों के अनुसार ही है, उसमें धवला से कोई मतभेद नहीं है । भेद केवल धवलाके प्रथम भाग पृ. ३९ पर बताई गई देशोन ६६ सागरकी स्थिति से है । सो यहां पर ध्यान देनेकी बात यह है कि धवलाकार वेदकसम्यक्त्व या सम्यक्त्वसामान्यकी स्थिति नहीं बता रहे हैं, किन्तु मंगलकी उत्कृष्ट स्थिति बता रहे हैं, और वह भी सम्यग्दर्शनकी अपेक्षासे, जिसका अभिप्राय यह समझ में आता है कि सम्यक्त्व होने पर जो असंख्यातगुणश्रेणी कर्म - निर्जरा सम्यक्त्वी जीवके हुआ करती है, उसीकी अपेक्षा मं+गल अर्थात् पापको गलानेवाला होनेसे वह सम्यक्त्व मंगलरूप है, ऐसा कहा गया है । किन्तु जो जीव ६६ सागर पूर्ण होनेके अन्तिम मुहूर्तमें सम्यक्त्वको छोड़कर नीचे के गुणस्थानों में जा रहा है, उसके सम्यक्त्वकालमें होनेवाली निर्जरा बंद हो जाती है, क्योंकि परिणामों में संक्लेशकी वृद्धि होनेसे वह सम्यक्त्वसे पतनोन्मुख हो रहा है । अतएव इस अन्तिम अन्तर्मुहूर्तसे कम ६६ सागर मंगलकी उत्कृष्ट स्थिति बताई गई प्रतीत होती है ।
अब रही राजवार्त्तिकमें बताये गये साधिक ६६ सागरोपमकालकी बात सो उस विषय में एक बात खास ध्यान देनेकी है कि राजवार्त्तिककार जो साधिक छ्यासठ सागरकी स्थिति बता रहे हैं वह क्षायोपशमिकसम्यक्त्वकी नहीं बता रहे हैं किन्तु सम्यग्दर्शनसामान्यको ही बता रहे हैं, और सम्यग्दर्शनसामान्यकी अपेक्षा वह अधिकता बन भी जाती है । उसका कारण यह है कि एकबार अनुत्तरादिकमें जाकर आये हुए जीवके मनुष्यभवमें क्षायिकसम्यकत्वकी उत्पत्तिकी भी संभावना है । पुनः क्षायिकसम्यक्त्वको प्राप्तकर संयमी हो अनुत्तरादिकमें उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त हुआ। ऐसे जीवके साधिक छयासठ सागर काल बन जाता है, और क्षायोपशमिकसे क्षायिक सम्यक्त्वको उत्पन्न कर लेनेपर भी सम्यग्दर्शनसामान्य बराबर बना ही रहता है । इसकी पुष्टि जीवस्थान खंडकी अन्तर प्ररूपणा के निम्न अवतरणसे भी होती है :
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