Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
धवलाके अन्तकी प्रशस्ति चामुंडराय पुराणके ' असिधारा व्रतदिदे' आदि एक पद्यसे अवगत होता है कि तत्कालीन जैनी कोपर्णमें सल्लेखना पूर्वक देहत्याग करना विशेष पुण्यप्रद मानते थे । श्रवणबेलगोलके अनेक लेखोंमें इस पुण्य भूमिका उल्लेख पाया जाता है । लेख नं० ४७ ( १२७ ) शक संवत् १०३७ का है। इसके एक पद्यमें कहा गया है कि सेनापति गंगने असंख्य जीर्ण जैनमंदिरोंका उद्धार कराकर तथा उत्तम पात्रोंको उदार दान देकर गंगवाडिदेश को 'कोपण' तीर्थ बना दिया। यथा
मत्तिन मातवन्तिरलि जीर्ण जिनाश्रयकोरिय क्रम बेत्तिरे मुन्निनन्तिरनितूगर्गलोलं नेरे माडिसुत्तमत्युचमपात्रदानदोदवं मेरेवुशिरे गणवाडितो
म्बचरु सासिरं कोपणमादुदु गङ्गणदण्डनाथनि ॥ ३९ ॥ इससे कोपण तीर्थकी भारी महिमाका परिचय मिलता है।
लगभग शक सं० १०८७ के लेख नं. १३७ ( ३४५) में हुल्ल सेनापतिद्वारा कोपण महातीर्थमें जैन मुनिसंघके निश्चिन्त अक्षय दानके लिये बहुत सुवर्ण व्ययसे खरीदकर एक क्षेत्रकी वृत्ति लगाई जानेका उल्लेख है । यथा
प्रियदिन्द हुलसेनापति कोपणमहातीर्थदोळधात्रियुवाद्धियमल्लनं चतुविंशति-जिन-मुनि संघक्के निश्चिन्तमाग क्षय दानं सल्व पाङ्गि बहु-कनक-मना-क्षेत्र-जिर्गतु सङ्क
त्तियनिन्तीलोक मेल्लम्पोगळे विडिसिदं पुण्यपुंजैकधामं ॥ २७ ॥ इससे ज्ञात होता है कि यहां मुनि आचायोंका अच्छा जुटाव रहा करता था और संभवतः कोई जैन शिक्षालय भी रहा होगा ।
लगभग १०५७ के लेख नं. १४४ (३८४) के एक पद्यम सेनापति एच द्वारा कोपण व अन्य तीर्थस्थानोंमें जिनमंदिर बनवाये जाने का उल्लेख है । यथा -
माडिसिदं जिनेन्द्रभवनङ्गलना कोपणादि तीर्थदळु रूढियिनेल्दो-वेसेसेव बेल्गोलदळु बहुचित्रभिसियं । नोडिदरं मनकोळि पुवेम्बिनमेच-चमूपनथि कै
गूडे धारित्रिकोण्डु कोनेदाडे जसम्नलिदाडे लीलेयिं ॥ १३ ॥ निजाम हैद्राबाद स्टेटके रायचूर जिलेमें एक कोप्पल नामका ग्राम है, यही प्राचीन कोपण सिद्ध होता है। वर्तमानमें वहां एक दुर्ग तथा चहार दीवाली है जो चालुक्य कालीन कलाके द्योतक समझे जाते हैं । इनके निर्माणमें प्राचीन जैन मंदिरोंके चित्रित पाषाण आदिका उपयोग दिखाई दे रहा है। एक जगह दीवालमें कोई बीस शिलालेखोंके टुकड़े चुने हुए पाये
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org