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संक्षिप्त जैन इतिहास |
- बतलाते हैं। वस्तुतः जैन अहिंसा प्रत्येक श्रेणीके मनुष्य के लिये व्यवहार्य है । वह मनुष्य के जीवन मार्गका निर्मल और निशङ्क बनाती है ! जबतक जैनी उसके वास्तविक स्वरूपको ग्रहण किये रहे वह खूब फले फूले ।
भ० महावीर के निकट प्रायः सार भारतने अहिंसा धर्मकी दीक्षा ली थी। भारतीय राष्ट्र सच्चा अहिंसक इतिहास सुधार और वीर बन गया था। फलतः भ० महावीरका शौर्यका प्रवर्तक है । धर्म विशेष उन्नत हुआ था और विदेशी लोग भी भारत विजयकी लालसासे हताश होकर अपने२ देशों को लौट गये थे । प्रस्तुत ग्रन्थ में जो इतिहास संकलित हैं, वह इस व्याख्याको दर्पण-वत् स्पष्ट करता है | हिंदू ग्रंथोंकी साक्षी भी इस कालमें जैन धर्मात्कर्पका समर्थन करती है । यवन. शक आदि विदेशी लोग तक जैनधर्मकी शरण में आये थे । हिंदू शास्त्रकारोंने इन्हें 'वृषल' कहकर अपने धर्मसे बाह्य प्रकट किया है। इन सब बातोंसे स्पष्ट है कि जैनधर्म वस्तुतः एक शक्तिझाली धर्म हैं और उसके द्वारा जगतका कल्याण विशेष हुआ है ।
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अर्थ - " जो रणाङ्गण में युद्ध करनेको सन्मुख हों अथवा अपने देशके कण्टक- उसकी उन्नतिमें बाधक हों क्षत्रिय वीर उन्हींके ऊपर शस्त्र उठाते हैं - दीनहीन और साधु आशयवालोंके प्रति नहीं " विशेष के लिये देखो जन अहिंसा और भारतके राज्यों पर उसका प्रभाव ।” १ - 'गर्गसंहिता' के उल्लेखसे कि 'वृषल भिक्षुक होंगे' (भिक्षुका वृषला लोके भविष्यन्ति न संशयः ' उस समय ब्राह्मणोतर साधुओ की बाहुल्यता स्पष्ट है। २ - 'मानवधर्मशास्त्र' (१०।४३ - ४४ ) में पौण्ड़, उड़, द्रविड़, कम्बोज, यवन, शक आदिको ब्राह्मण विमुख 'वृषल' हुआ लिखा है।
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