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गुप्त साम्राज्य और जैनधर्म । [९७ पारंगत ब्राह्मण विद्वान् एक ऐसे ही वादमें पराजित होकर जैन होगये थे। उनके उद्गारोंसे पता लगता है कि “ उस समय सरल वाद-पद्धति और आकर्षक शांतिवृत्तिका लोगोंपर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता था । निर्ग्रन्थ अकेले दुकेले ही ऐसे स्थलोंपर जापहुंचते थे, और ब्राह्मणादि परवादी विस्तृत-शिष्यसमूह और जनसमुदायके सहित राजसी ठाटवाटके साथ पेश आते थे, तोभी जो यश निग्रन्थोंको मिलता था वह उन प्रतिवादियोंको. अप्राप्य था। लोग ब्राह्मणोंके जत्पवितण्डा-परिपूर्ण शुष्क वाद और कर्मकांडके प्रपंचसे ऊब गये थे और शांतिपूर्ण सात्विक मार्गके. उत्सुक बन गये थे।" जैन ऋषियोंकी प्रतिभाशाली पवित्र लेखनी. इन्हीं गुणोंको परिपुष्ट करनेवाली ग्रंथ रचनामें प्रवर्त हुई थी। जैना-- चार्योंमें इस समय प्रायः सब ही आचार्य दक्षिगभारत अथवा मालवा
और गुजरातकी ओरके निवामी थे। इनका विशद वर्णन हम तीसरे खंडमें करेंगे । इनमें भी कुन्दकुन्दाचार्य, रविषेणाचार्य, उमास्वाति, यतिवृषम, वण्णदेव, केशवचंद्र, सिद्धसेन दिवाकर इत्यादि आचार्य विशेष उल्लेखनीय हैं । इनकी मूल्यमय रचनाओंसे मानवोंका बडा उपकार हुवा था। अध्यात्मवाद. दर्शन, ज्योतिष, इतिहास, काव्य आदि विषयोंमें अपूर्व रचनायें हुई थी। विमलमूरिका 'पउमचरिय ' जैनरामायणकी एक बहुप्राचीन और मूल्यमई आवृत्तिः है। यह आचार्य नागिलवंशके विजय नामक आचार्य के शिष्य थे। गुरूशिष्य परंपरासे चले आये हुये रामचरितको इन्होंने वी. नि. सं०
१-जैहि० भा० १४ पृ० १५६-१५७
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