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उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। [१७? ९१८ के मिले हैं, जिनसे प्रगट होता है कि उसने अपने सच्चारित्रसे मरु, माड़, वल्ल, तमणी, अज्ज (आर्य) एवं गुर्जरत्राके लोगोंका अनुराग प्राप्त किया, बडणाणय मण्डलमें पहाइपरकी पल्लियों (पालों, भीलोंके गांवों) को जलाया, रोहित्सकूप (घटियाले ) के निकट गांवमें हट्ट (हाट) बनवाकर महाजनोंको वसवाया,
और मड्डोअर ( मंडोर ) तथा रोहिन्सकूप गावोंमें जयस्तंभ स्थापित किये । कक्कुक न्यायी प्रजापालक एवं विद्वान था । और संस्कृतमें काव्य रचना करता था। उसके लेखके प्रारम्भमें श्री जिननाथ ( जिनेन्द्रदेव ) को नमस्कार किया गया है और उसमें एक जैन मंदिर बनवानेका उल्लेख है । इस कारण इस राजाका जैन धर्मानुयायी होना प्रगट है। सं० १२०० के लगभग नाडौलके चौहान राजाओंने मंडोरपर अधिकार जमा लिया था। मालवेके परमार राजा वाक्पतिराजके दूसरे पुत्र डम्बरसिंहके
वंशमें वागड़के परमार हैं। उनके अधिकावागड़ प्रांतमें जैनधर्म । रमें वांसवाड़ा और डूंगरपुरके राज्य थे।
उनकी राजधानी उत्थूणक नगर ( अथूर्णा ) था । यहांके संवत ११६६ के एक जैन शिलालेखसे प्रगट है कि वागड़ प्रांतमें भी जैनधर्म अच्छी उन्नत दशापर था । सं० ११६६ में परमार वंशी विजयराजका राज्य था। नागरवंशी भूषण नामक जैन
१-राइ०, भा० १ पृ० १५१-१५२। २-ॐ सग्गापवग्गमग्गं पदमं सयलाण कारणं देवं । णीसेस दुरिअदलणं परमगुरुं णमह जिणणाहं ॥'-प्राचीन लिपिमाला, पृ० ६५ । ३-भाप्रारा०, भा० १ पृ० १७४ ।
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