Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 02 Khand 02
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી યશોવિજયજી જૈન ગ્રંથમાળા દાદાસાહેબ, ભાવનગર, ફોન : ૦૨૭૮-૨૪૨૫૩૨૨ 2.300४८४ संक्षिप्त जैन इतिहास। द्वितीय भाग द्वि० खंड। स्वर्गीय सौ० सविताबाई, धर्मपत्नी मूलचंद किसनवास कापडियाके स्मरणार्थ 'दिगंबर जैन' के २७वें वर्षके ग्राहकोंको भेंट। लेखकबाबू कामताप्रसाद जैन। QWlam WBGDRISTERIES Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com | Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौ० सविताबाई स्मारक ग्रन्थमाला नं० ४.. संक्षिप्त जैन इतिहास। द्वितीय भाग-द्वितीय खंड। लेखक:श्रीमान् बाबू कामताप्रसादजी जैन एम. आर. ए. एस. ऑ. संपादक वीर' और जैन ऐन्टिक्वेरी तथा भगवन् पार्श्वनाथ, भगवान महावीर, सत्यमार्ग, लॉर्ड महावीर, चेलनी आदि ग्रन्योंके रचयिता। प्रकाशक: मूलचंद किसनदास कापडिया, संपादक “दिगंबर जैन" व मालिक 'दगंबर जैन पुस्तकालय, _____ कापडियाभवन-सूरत। स्वर्गीय सौ. सविताबाई, धर्मपली मूलचंद किसनदास कापरियाके स्मरण.ये 'दिगंबर जैन ' के २७७ वर्षके ग्राहकेंको भेंट। प्रथमावृत्त] [प्रति १००० वीर सं० २४६० मूल्य-रु. १-२-०। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4AAAAE "जैनविजय प्रिन्टिंग प्रेस-सूरत में मूलचंद किसनदास कापडियाने मुद्रित किया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौ० सविताबाई - हमारी धर्मपत्नी सविताबाईका स्वर्गवास सिर्फ २२ वर्षकी युवान वयमें एक २ पुत्र-पुत्रीको छोडकर वीर सं० २४५६ में हुआ तब हमने उनके स्मरणार्थ २०००) इस लिये निकाले थे कि यह रकम स्थायी रखकर इसके सूदसे 'सविताबाई स्मारक ग्रन्थमाला' प्रतिवर्ष निकाली जाय और उसका दिगंबर जैन " या जैन महिलादर्श द्वारा विना मूल्य प्रचार किया जाय । 66 - स्मारक ग्रंथमाला नं. ४ इस प्रकार यह ग्रन्थमाला चालू होकर आज तक निम्नलिखित ग्रन्थ इस माला में प्रकट हो चुके हैं १ - ऐतिहासिक स्त्रियाँ | २ - संक्षिप्त जैन इतिहास द्वि० भाग म० खंड । ३ - पंचरत्न | और चौथा यह सं० जैन इतिहास द्वि० भाग- दू० खंड प्रकट किया जाता है और 'दिगम्बर जैन' के २७ वे वर्षके ग्राहकों को भेटमें दिया जाता है । जैन समाज में दान तो अनेक भाई बहिन निकालते हैं परंतु उसका यथेष्ट उपयोग नहीं होता । यदि उपरोक्त प्रकारके दानकी रकमको स्थायी रखकर स्मारक ग्रंथमाला निकाली जानेका प्रचार हो जाबे तो जैन समाज में अनेक जैन ग्रन्थोंका सुलभतया प्रचार हो सकेगा । बीर सं० २४६० ज्येष्ठ सुदी ६. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat मूलचंद किसनदास कापडिया | संपादक, दिगम्बर जैन - सूरत । www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O INHIED INHI.DAININAHI - भूमिका र Sili|||IQIII कुछ समयसे जैन संप्रदायके कई विभागोंमें अहिंसावादने ऐसा भ्रान्त रूप धारण कर लिया है कि लोगोंकी दृष्टिमें वह उपहासास्पद होरहा है। इसी भ्रमको दूर करनेके लिये यह " संक्षिप्त जैन इतिहास" लिखा गया है। इसे हम उक्त संप्रदायकी जागृतिका शुभ लक्षण अनुमान करते हैं । यद्यपि " संक्षिप्त जैन इतिहास" के इस खण्डमें प्रामाणिक ऐतिहासिक सामग्रीके साथ साथ 'जैन कथाओं' और 'जनश्रुतियों' का उपभोग किये जानेसे अनेक स्थलोंपर मतभेद होनेकी सम्भावना भी होसकती है, तथापि इसमें इतिहास-प्रेमियोंके और विशेषकर जैन संप्रदायके अनुयायियोंके मनन करनेके लिये बहुत कुछ सामग्री उपस्थित कीगई है। इसके अलावा इसकी लेखनशैली भी संकुचित सांप्रदायिकताकी मनोवृत्तिसे परे होनेके कारण समयोपयोगी और उपादेय है। हम, इस सुन्दर संक्षिप्त इतिहासको लिखकर प्रकाशित करनेके लिये, श्रीयुत बाबू कामताप्रसादजी जैनका हृदयसे स्वागत करते हैं। इस इतिहासके पूर्ण होनेपर हिन्दी भाषाके भंडार में एक ग्रन्थरत्नकी वृद्धि होने के साथ ही जैन संप्रदायका भी विशेष उपकार होगा। आशा है इस इतिहासके द्वितीय संस्करणमें इसकी भाषाको और भी परिमार्जित करनेका प्रयत्न किया जायगा। भाकियालाजिकल डिपार्टमेंट, विश्वेश्वरनाथ रेउ । जोधपुर। विवश्वरनाथ रउ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लीजिये। se=aGHBG= प्रिय मित्र प्रा० हीरालालजी ! अपने प्रिय विषयकी यह एकमात्र कृति-प्रेम___ भेंट स्वीकार कीजिये और इससे भी सुन्दरश्रेष्ठ स्वकीय कृतिसे साहित्य-उदनको समुन्नत बनाइये। -कामताप्रसाद जैन। - = - : Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार । I " संक्षिप्त जैन इतिहास" के दूसरे भागका यह दूसरा खण्ड पाठकों के हाथमें देते हुए हमें हर्ष है। ऐसा करने में हमारा एकमात्र उद्देश्य ज्ञानोद्योत करना है । इसलिए हमें विश्वास है कि पाठकगण हमारे इस सदप्रयास से समुचित लाभ उठावेंगे और भारतीय जैनोंके -पूर्व गौरवको जानकर अपने जीवनको समुन्नत बनानेके लिए उत्साहको ग्रहण करेंगे । इस ग्रन्थनिर्माण में हमें बहुतसे साहित्यकी प्राप्ति और सहायता हमारे मित्र और इस ग्रंथ के सुयोग्य प्रकाशक श्रीयुत सेठ मूलचंद किसनदासजी कापड़िया; अध्यक्षगण, श्री इम्पीरियल · लायब्रेरी कलकत्ता और जैन ओरियंटल लायब्रेरी आरासे हुई है, जिसके लिये हम उनका आभार स्वीकार करते हैं । प्रूफ-संशोधन - आदि कार्य कापड़ियाजीने स्वयं करके जो हमारी सहायता की है, वह हम भूल नहीं सक्ते । उसके लिये भी कापड़ियाजी धन्यबादके पात्र हैं । ' श्रीमान् साहित्याच. ये पं० विश्वेश्वरनाथजी रेड, एम० आर० ए०एस०, क्यूरेटर, सरदार म्युजियम - जोधपुर ने इस खंडकी भूमिका लिखने की कृपा की है, हम उनके इस अनुग्रहके लिये उपकृत हैं । इतिहास के प्रस्तुत खंड में हमने वर्णितकालकी प्रायः सब ही मुख्य घटनाओंको प्रगट करनेका प्रयत्न किया है । ऐतिहासिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्ताके साथ जनश्रुतियों और कथाओंकों भी समावेश हमने इस भावसे कर दिया है कि आगामी ऐतिहासिक खोजमें वह संभवतः उपयोगी सिद्ध हों। किन्तु जो बात मात्र जनश्रुति या कथा ही पर अवलम्बित है, उसका हमने स्पष्ट शब्दोंमें उल्लेव कर दिया है। इसलिए किसी प्रकारका भ्रम होनेका भय नहीं है। इतनेपर भी हम नहीं कह सक्ते कि इस खंडमें वर्णितकालकी सब ही घटनाओंका ठीक-ठीक उल्लेख हुआ है। पर जो कुछ लिखा गया है वह एकमात्र ऐतिहासिक दृष्टिकोणसे । अतः संभव है कि किन्हीं स्थलोपर मतभेदका अनुभव प्रबुद्ध पाठक करें। ऐसे अवसरपर निष्पक्ष तर्क और प्रमाण ही कार्यकारी होसक्त हैं। उनके आलोकमें समुचित सुधार भी किये जासक्ते हैं। इस दिशामें कर्मशील होनेवाले समालोचकोंका आभार हम पहले ही स्वीकार किये लेते हैं। नसवन्तनगर (इटावा) । २४ मई १९३४ । विनीत- . कामताप्रसाद जैन। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन | ED जैन समाज में ऐतिहासिक खोजपूर्ण पुस्तकों के सुप्रसिद्ध लेखकश्री० बा० कामताप्रसादजी जैन कृत - "संक्षिप्त जैन इतिहास दूसरा भाग-प्रथम खंड” तीसरे वर्ष हमने प्रकट किया था और इस वर्ष यह दूसरे भागका दूसरा खंड प्रगट किया जाता है जिसमें इस्वीसन पूर्व २५० वर्षसे इस्वीसन् १३०० तकका जैनोंका प्राचीन इतिहास संक्षिप्त रूपसे वर्णित है । बा० कामताप्रसादजीकी ऐतिहासिक खोजकी हम कहांतक प्रशंसा करें ! आज ज़ैन समाजमें तुलनात्मक द्दृष्टिसे जैन इतिहासकी खोज करने व उसको प्रकाशमें लानेवाले यह एक ही व्यक्ति हैं। यदि आपकी लेखनी को उत्तेजित की जाय तो आपके द्वारा और भी अनेक ऐतिहासिक ग्रन्थ लिखे व प्रकट किये जा सकेंगे । यह ग्रन्थ ' दिगम्बर जैन' (सूरत) के २७ वें वर्षके ग्राहकोंको भेंट में दिया जायगा तथा जो 'दिगंबर जैन' के ग्राहक नहीं हैं उनके लिये कुछ प्रतियां विक्रयार्थ भी निकाली गई हैं । आशाह है कि ऐसे ऐतिहासिक ग्रन्थका अच्छा प्रचार होगा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat -प्रकाशक । www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +* विषयसूची। प्राक्कथन......पृ० १। जैन गाथाओंका शक राजा। इतिहासका महत्व । कुशन साम्राज्यका पतन । कथा और जनश्रुति । (२) सम्राट् खारवेल........३१ प्रस्तुत इतिहासका महत्व। । कलिंगका ऐल चेदिवंश । चौवीस तीर्थकर । खारवेलका राज्याभिषेक। जैनधर्मकी विशेषता। खारवेल राज्यका प्रथम वर्ष । इतिहास सुधार व शोर्य प्रवर्तक है। खारवेलकी प्रथम दिग्विजय । (१) इन्डो वैक्ट्रियन व पार्थियन राजधानीमें उत्सव। राज्य...................पृष्ठ ९ खारवेलका आक्रमण। वैक्ट्रियन पार्थियन राज्य ।। तन सुतियनहर व जनपद संख्या। राजा मेनेन्डर व जैनधर्म । खारवेलकी रानियां व पुत्रलाभ। शक व कुशन आक्रमण। खारवेलका मगधपर माक्रमण । महाराज अजेस व जैनधर्म । खारवेलका दान वईत् पूजा । काल्काचार्य । . खारवेलका भारतपर आक्रमण । सम्राट् कनिष्क। मगधपर आक्रमण व विजय । विदेशी आक्रमणोंका प्रभाव । पांड्यदेशके नरेशकी भेंट। कुशन साम्राज्यमें जैनधर्म । तत्कालीन दशा। जैनधर्मका विशाल रूप। खारवेलका राज्य प्रबंध । छत्रप राजवंश। खारवेलका राजनैतिक जीवन । छत्रप नहपान। खारवेलका गार्हस्थ्य जीवन । नहपान व जैनशास्त्र । ,, जैनधर्म प्रभावनाके कार्य। नहपान ही भूतबलि दुमा था।। जिनवाणीका उद्धार। . छत्रप रुद्रसिंह जैनी। खारवेलका शिलालेख । शक सम्वत। नन्दाब्द। २पाना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रणा (१०) कलिंगमें जैनधर्म । (४). गुप्त साम्राज्य व जैनधर्म८८ खारवेलका अंतिम जीवन। । गुप्तवंशका चन्द्रगुप्त प्रथम । खारवेलका गर्दभिल्ल वंश है। समुद्रगुप्त । उडिया ग्रन्थों में खारवेल। चन्द्रगुप्त द्वितीय। संवतवार विवरण। चीनी यात्री फाह्यान । (३) अन्य राजा व जैनधर्म....५७ चन्द्रगुप्त और जैनधर्म । तत्कालीन जैनधर्म । गुप्तवंशके अंतिम राजा। अहिच्छत्रके वंशमें जैनधर्म। गुप्त राज्यकी अवनति । मथुराका नागवंश और जैनधर्म । तत्कालीन धर्म व साहित्य । पांचाल राज्यमें जैनधर्म । दिगम्बर जैन संघ । कोसाम्बी राज्यमें जैनधर्म। बंगकलिंगमें जैनधर्म । जैन राजा पुष्पमित्र । गुप्तकालकी कला । उस समयके व्यापारी। राजा विक्रमादित्य । हूण राज्या विक्रमादित्य व जैनधर्म । यशोधर्मा। विक्रम संवत् । (६) हर्षवर्धनव हुएनसांग-१०४ विक्रम व वीरसंवत्। हर्षवर्धन । दिगम्बर श्वेतांबर संघभेद। धार्मिक उदारता। दि० जैन संघ व उसके प्रभेद । सामाजिक परिस्थिति । दि० मतानुसार श्वे.की उत्पत्ति । चीनी यात्री हुयेनत्सांग। तत्कालीन जैनधर्म। तत्कालीन शिक्षाप्रणाली। उपजातियोंकी उत्पत्ति । (६) गुजरात जैनधर्म और श्वे० अग्रवाट वैश्य जाति। आगम ग्रंथोंकी उत्पत्ति-११२ खंडेलवालकी उत्पत्ति। प्रा. गुजरातमें जैनधर्म । मोसवाल जातिका प्रादुर्भाव । । इतिहासकालमें गु०का जैनधर्म । लम्बकंचुक जातिका जन्म । । मध्यकाल में गु० में जैनधर्म । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) श्वे० आगमकी उत्पत्ति श्वे० बौद्ध ग्रंथोका सादृश्य | हैहय व कलचूरी राजा । चालुक्य राजा व जैनधर्म । राष्ट्रकूट वंश में जैनधर्म । चावड़ राजाओंके जैन कार्य । सोलंकी राजा व जनधर्म | सम्राट् कुमारपाल | कुमारपालकी साम्राज्यवृद्ध | जैन मंत्री वाहड़ | कुमारपाल व जैनधर्म | कुमारपाल व साहित्यवृद्धि । कुमारपालका गार्हस्थ्य जीवन । सोलंकी राज्यका पतन । वाघेल वंश और जैनधर्म । वस्तुपाल और तेजपाल । याबूके जैन मंदिर | वस्तुपालका अंतिम जीवन । श्वे० धर्मका अभ्युदय । दिगम्बर धर्मका उत्कर्ष । (७) उत्तरी भारत के राज्य व जैन धर्म............ राजपूत और जनधर्म । . १४४ कन्नौज के राजा भोज परिहार | विविध राजवंशों में जैनधर्म । ग्वालियर के राजा व जैनधर्म | मध्यभारतमें जैनधर्म । राजा ईल और जेनधर्म । मध्य प्रान्त में जैनधर्म । धाराका राजवंश और जैनधर्मव राजा मुँज और जैन विद्वान | अमितगति आचार्य | राजा भोज और जैनधर्म । दूवकुंड के कच्छवाहे । नरवर्मा और जैनधर्म । कविवर आशाधर । बंगाल ओड़ीसा में जैनधर्म । ओड़ीसा के अंतिम राजा । राजपूताना में जनधर्म मेवाड राणावंश में जैनधर्म । मारवाड में जैनधर्म | नाटके चौहान व जैनधर्म । राठौड़ों में जेनवर्म । मंडोर के प्रतिहार व जेनधर्म । वागड़ प्रान्त में जैनधर्म | अजमेर के चौहान व जनधर्म | सिंधु - पंजाब में जैनधर्म । तत्कालीन दि० जैन संघ । उज्जैन व वाराका संघ । प्रसिद्ध दिगम्बराचार्य । मुनिधर्म | गृहस्थ धर्म । जैनों की शुद्धि | जैनधर्मकी उपयोगिता । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंक्ति शुद्धाशुद्धिपत्र । अशुद्ध जनश्रति जनश्रुति अवज्ञात अवगत मूर्तियाँ मुर्तियों 1932 1932, pp. 159-160 इंटिक्का० इंहिका० २२ : CWN : c do is ऋतु 22 22 २३ م Salisaka Salieuka Jaio Antiquary 'मिलिन्दपाह' 'मिलिन्द-पण्ह' कालाचार्य काल्काचार्य आगे पढ़ो 'पृ० २३३ a Ancient India, p. 143. 'शाउनानुशाउ' 'शाहनानु शाह' मंदिरादि मंदिरादिको २८९ २४९ Jabors Jbors. XVI. P. 249. ४५९ ४५-४५९ रुद्रसिंह रुद्रसिंहका की थी। रक्खी थी। م نننا لن ا 4141220 am س م شذ गये م من ه Dameterioo जनपद س ममा م Deweterios जानपद मना जाउगढ़ शिलालेख www.umaragyanbhandar.com जाडगढ़ शीलारेख Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) और विरुद्ध विरुद नागवंश नागवशी ५५-५६ ५२-५६ शास्त्रोंको शास्त्रोंके नहपानको किशा किया २७५-२७९ २७८-२७९ १८ वें ___Shulbhadra's Sthulbhadra's १७ 'कठिन है' शब्दके आगे पढ़ों "मूलमें दिगंबर जैनी अपने प्राचीन नाम निर्ग्रन्थ से ही प्रसिद्ध रहे। श्वेतांबर अपनेको 'श्वेतपट' कहते थे, परन्तु दिगंबर तब 'निग्रंथ ' नामके ही अभिहित थे; जैसे कि कादंबर वंशी राजाओंके ताम्रपत्र आदिसे प्रगट है।" १९ (१४८-४९) (१। ४८-४९) भूमूर्ति __ मुर्ति " सेषित से भूषित वर्णनने वर्णनसे प्रन Matbera Mathura तथापि तथा ७४ ७६ २३ उन श्री ८८ १६ होना २७९७ वण्णदेव ९८१ मल्लिषेषण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat होता २७९) वप्पदेव मल्लिषेण www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९ "" ९९ "" " "" १०३ 33 "" १०७ "" १२५ १ १३३ १३८ १४५ १४७ १४ १५ १६ २० M 30 २३ १०८ २३ १०९ २१ ११५ ११६ १२१ ४ २ २२ १३ २४ ११ २३ २२ १९ २१ ( १४ ) ८ जैनधर्म भी उसमें भी घरों के उपर सरकारी किंतु .... आया है । कल्किा उखका भा० ५२२ संस्था में पृ० ६७१ १-१२ निर्मित सब संघेहि वीम्बर ११९ बारय्या तत्कालीक २ ८९ सचमुख २९२ ज्ञानावर्णव "" १५३ १९ १५५ २२-२३ १७४ २२ १७७ २१ १८१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat माप्राए० ६-७-८ एडिनेवा० शास्त्रविद्या जैनधर्म उसमें घरों से अपर यद्यपि सरकारी X कल्किका उसका भा० १३ पृ० ५२२. संस्थायें कंजाएई पृ० ६७१ १-७२ निर्मित हुआ सयलसंघेि धीश्वर ११४ बाप्पा तात्कालीन . १ ८४ सचमुच २४२ ज्ञानार्णव भावारा० ६ अंक ७-८ एडिजेवा ० शस्त्रविद्या www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेताक्षर सूची | प्रस्तुत ग्रंथके संकलन में निम्न ग्रन्थों से सहायता ग्रहण की गई है, जिनका उल्लेख निम्न संकेतरूप में यथास्थान किया गया हैअध० = अशौक के धर्मलेख - लेखक श्री० जनार्दन भट्ट एम० ए० ( काशी, सं० १९८० ) । महिइ० = 'अर्ली हिस्ट्री आफ इन्डिया' - सर विंसेन्ट स्मिथ एम० ए० ( चौथी आवृत्ति ) । अशोक ० = अशोक' ले० सर विन्सेन्ट स्मिथ एम० ए० । आक०=' आराधना कथाकोष ' ले० ब्र० नेमिदत्त (जैनमित्र आफिस, सुरत ) । आजी ० = आजीविक्स - भाग १ डॉ० वेनी माधव बारुआ ० डी० लिट् ( कलकत्ता १९२० ) । आसू०='आचाराङ्ग सूत्र' मूल ( श्वेताम्बर आगम ग्रंथ ) । अहिइ० = ऑक्सफर्ड हिस्ट्री ऑफ इन्डिया - विसेन्ट स्मिथ एम. ए. ' इंऐ० - इन्डियन ऐन्टीकेरी ( त्रैमासिक पत्रिका ) । इरिई० – इन्सायक्लोपेडिया आफ रिलीजन एण्ड इथिक्स है स्ट्रिग्स । इंसेजै० = 'इन्डियन सेक्ट ऑफ दी जैन्स' बुल्हर । इंहिकबा० - इंडियन हिस्टोरीकल क्वार्टली सं० डॉ० नरेन्द्रनाथ लॉ-कलकत्ता । उद० = ' उवास गदसाओ सुत्त०' - डा० हार्णले ( Biblo Indica). उपु०व० उ. पु. = ' उत्तरपुराण' श्री गुणभद्राचार्य व पं. लालारामजी । उसू० = ' उत्तराध्ययन सूत्र ' ( श्वेताम्बरीय आगम ग्रंथ ) जाल कापेंटियर ( उपसला ) । एइ० = ' एपिनेफिया इंडिका' | Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) एइमे० या मेएइ० एन्शियेन्ट इन्डिया एजडिस्क्राइब्ड बाई मेगस्थनीज एण्ड ऐरियन'-(१८७७)। एइजै० एन इपीटोम ऑफ जैनीज्म-श्री पूर्णचन्द्र नाहर एम०ए०। एमिक्षदा०= एन्शियेन्ट मिड इंडियन क्षत्रिय ट्राइन्स ' डॉ० विमलाचरण ला (कलकत्ता)। ऐरि०=ऐशियाटिक रिसर्चेज-सर विलियम जोन्स (सन् १७९९ व १९०९)। एइ० एन्शियेन्ट इंडिया एजडिस्काइन्ड बाई स्ट्रैबो मैक किंडल (१८०१)। कजाइ० कनिंघम, जागरफी ऑफ एंशियेन्ट इंडिया-(कलकत्ता १९२४)। कलि०= ए हिस्ट्री ऑफ कनारीज लिट्रेचर । ई० पी० राइस (H. L. S. 1921 ). कसू० कल्पसूत्र मूल (श्वेताम्बरी आगम प्रन्थ)। काले० कारमाइकल लेक्वस डॉ० डी० आर० भाण्डारकार । कैहिइ० कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इंडिया ऐन्शियेन्ट इंडिया, भा० १-रैपसन सा० (१९२२)। गुसापरि०-गुजराती साहित्य परिषद् रिपोर्ट-सातवीं । (भावनगर सं० १९८२)। गौबु०='गौतमबुद्ध' के. जे. सान्डर्स (H. L. S.)। चमभ०='चद्रराज भडारी कृत भगवान महावीर' । जवि मोसो० जनरल आफ दी बिहार एण्ड ओडीसा रिसच सोसाइटी'। जम्बू०=जम्बूकुमार चरित्र (सूरत वीराब्द २४४०)। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) जमीसो० जनल आफ दी मीथिक सोसाइटी-बंगलोर । जर।एसा० जनरल ऑफ दी रायल ऐसियाटिक सोसायटी-लंदन। जैका०= जैन कानून ' (श्री. चम्पतराय जैन विद्याबा. विजनौर १९२८)। जैग०=" जैन गजट ' अंग्रेजी (मद्रास )। जैप्र०=जैनधर्म प्रकाश ब्र० शीतलप्रसादजी (बिजनौर १९२७)। जैस्तू०-जैनस्तूप एण्ड मदर एण्टीकटीज ऑफ मथुरा-स्मिथ । जैसासं०='जैन साहित्य संशोधक' मु० जिनविजयजी (पूना)। जेसिभा०-जन सिद्धान्त भास्कर श्री पद्मराज जैन (कलकत्ता)। जैशि सं०='जैन शिलालेख संग्रह'-प्रो० हीरालाल जैन (माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला। जैहि० जैन हितैषी सं० पं० नाथूरामजी व पं० जुगलकिशोरजी (बम्बई )। जैसू०(Js.) जैन सूत्राज (S. E. Series, Tols. XXII & XLV ). टॉरा०-टॉडसा० कृत राजस्थानका इतिहास (वेड्केटेश्वर प्रेस)। डिजैवा०= ए डिक्शनरी ऑफ जैन बायोग्रफी' श्री उमरावसिंह टॉक (आरा)। तक्ष०='ए गाइड टू तक्षशिला'-सर जान मारशल (१९१८)। तत्वार्थ-तत्वार्थाधिगम् सूत्र श्री उमास्वाति S. B. J. Vol. I तिप०= तिल्लोय पण्णत्ति' श्री यति वृषभाचार्य (जैन हितैषी भा० १३ अंक १२)। दिजै०='दि० जैन मासिक पत्र सं० श्री. मूलचन्द किसनदास कापड़िया (सूरत)। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) दीनि०='दीघनिकाय' (P. T. S.)। परि० परिशिष्ट पर्व-श्री हेमचन्द्राचार्य । प्राजलेस०प्राचीन जैन लेख संग्रह कामताप्रसाद जैन (वा)। बविओ जेस्मा ०- बंगाल, बिहार, ओड़ीसा जैन स्मारेक-श्री ब्रह्म'चारी शीतलप्रसादजी। जैस्मा० बम्बई प्रांतके प्राचीन जन स्मारक ब्र० शीतलप्रसादजी। बुइ-बुद्धिष्ट इन्डिया-प्रो० ह्रीस डेविड्स । भाषा०=भगवान् प्राश्वनाथ-ले० कामताप्रसाद जैन (सूरत)। भम०-भगवान महावीर- , " " भमबु० भगवान महावीर और म०बुद्ध कामताप्रसाद्र जैन (सूरत)। भमी०=भट्टारक मीमांसा (गुजराती) सूरत । भाई०-भारतवर्षका इतिहास-डा० ईश्वरीप्रसाद डी० लिट (प्रयाग १९२७)। भाअशो०=अशौक-डॉ० भण्डारक ( कलकत्ता)। भावारा० - भारतके प्राचीन राजवंश श्री. विश्वेश्वरनाथ रेउ (वंबई)। भाषासइ०=भारतकी प्राचीन सम्यताका इतिहास,सर रमेशचंद्र दत्त। मनैइ० माठी जैन इतिहास । मनि०= 1 मजिसमनिकाय P. T. S. मज्झिम०= ममप्रजैस्मा०-मद्रास मैसूरके प्रा० जैन स्मारक ब्रशीतलप्रसादजी। महा०=महावग्ग (S. B. E. Vol. XVII). मिलिन्द्र० मिलिन्द पन्ह (S. B Vol. XXXV.) मुरा०-मुद्राराक्षस नाटक-इन दी हिन्दू डामेटिस दस, विलसन। मूला० मुलाचार वट्टकेर स्वामी (हिन्दी भाषा सहित बम्बई)। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) मैमशो०-अशोक मैकफैल कृत ( H. L.S.). मैबु० मैन्युल आफ बुद्धिज्म- स्पेनहार्डी)। रमा० रत्नकरण्ड श्रावकाचार सं०प० जुगलकिशोरजी (बम्बई)। राइ० राजपूतानेका इतिहास भाग १-१० ब० पं० गोरीशंकर हीराचंद ओझा । रिइ० रिलिजम ऑफ दी इम्पायर-( लन्दन )। लामाम०=लाइफ आफ महावीर ला० माणिकचंद्रजी (इलाहाबाद)। लाभाइ०=भारतवर्षका इतिहास ला० लाजपतराय कृत (लाहौर)। लाम० लार्ड महावीर एण्ड अधर टीचस आफ हिज टाइम-कामताप्रसाद (दिल्ली)। लावबु०-लाइफ एण्ड वस आफ बुद्ध घोष-डॉ० विमलाचरण लॉ० (कलकत्ता)। वृजेश०-बृहद् जैन शब्दार्णव-पं० बिहारीलालजी चैतन्य । विर० विद्वद् रत्नमाला-पं० नाथूरामजी प्रेमी ( बंबई )। अव० श्रवणबेलगोला, रा० ब० प्रो० नरसिंहाचार एम० ए० (मद्रास)। श्रेच श्रेणिक चरित्र (सुरत)। सनामिवा० सर आशुतोष मेमोरियल वॉल्यूम (पटना)। सकौ० सम्यक्तत्र कौमुदी (बंबई)। सजै०=सनातन जैन धर्म-अनु०-कामताप्रसाद ( कलकत्ता)। संजैह० संक्षिप्त जैन इतिहास प्र म भाग कामताप्रसाद (सूरत)। सडिजै०=सम डिस्टिन्गुइस्ड जैन्स उमरावसिंह टांक (आगरा)। संप्राजैस्मा० संयुक्त प्रन्तके प्र चीन जैन स्मारक-ब्र० शीतल। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) ससाइजै० स्टडीज इन साउथ इंडियन जैनिज्म प्रो. रामास्वामी मायंगर । ससू० सम्राट अकबर और सूरीश्वर-मुनि विद्याविजयजी (मागरा)। सक्षट्राएइ०=सम क्षत्री ट्राइब्स इन एन्शियन्ट इंडिया-डा० विमलाचरण ला० । साम्स =साम्स आफ दी ब्रदरेन । सुनि० सुत्तनिपात (S. B. E.)। हरि हरिवंशपुराण-श्री जिनसेनाचार्य (कलकत्ता)। हॉजै० हॉर्ट आफ जैनीज्म मिसेज स्टीवेन्सन (लंदन)। हिआइ०= ASHIREET हिस्ट्री आफ दी आर्यन रूल इन इंडिया-हैवेल । हिग्ली०=हिस्टोरीकल ग्लीनिन्गस-डॉ. विमलाचरण लो। हिटे०=हिन्दू टेल्स-जे० जे० मेयर्स । हिड्राव०=हिन्दू ड्रामेटिक वक्स विलसन् । हिप्रीइफि०=हिस्ट्री आफ दी प्री-बुद्धिस्टिक इंडियन फिलासफी बारमा (कलकत्ता)। हिलिन०=हिस्ट्री एण्ड लिट्रेचर ऑफ जैनीज्म-बारौदिया (१८०९)। हिवि० हिन्दी विश्वकोष नागेन्द्रनाथ वसु (कलकत्ता)। क्षत्रोक्लेन्स क्षत्रीक्लेन्स इन बुद्धिष्ट इंडिया-डा. विमलाचरण लो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास। द्वितीय भाग-द्वितीय खंड। ( सन् २५० ई० पूर्वसे सन् १३०० ई० तक ) प्राक्कथन । इतिहासका कार्य सत्य घटनाको प्रकट करना है । जो बात जैसे घटित होचुकी है. उसका वैसा ही इतिहासका महत्व । वर्णन करना इतिहास है । साहित्य जगतमें पुरातन कथा, पुराण. जनश्रुति आदिका संग्रह इतिहास कहलाता है। सत्य उसका मूलाधार है । सत्य इतिहास ही सजीव इतिहास है और वहीं इतिहास अपने उद्देश्यमें सफल होता है। मानव जगत सत्य इतिहाससे ही ठीकर शिक्षा ग्रहण कर सकता है। अतएव मानव हितके लिये यथार्थ इतिहासका निरूपण होना अत्यन्त आवश्यक है । प्रत्येक र टू और जातिको अपने पूर्वजोंका वास्तविक इतिहास ज्ञात होनेसे. वह अपने गौरव, प्रतिष्ठा और शक्तिको प्राप्त करनेके लिये सचेष्ट होता है। इतिहास उस राष्ट्र और जातिमें नया जीवन, नई स्फूर्ति और नये भावोंको जन्म देता है। वह शिक्षित समाजमें एक युग प्रवर्तकका कार्य करता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] संक्षिप्त जैन इतिहास । इतिहासके महत्वको भुलाकर कोई भी राष्ट्र या जाति जीवित नहीं रह सकती । जैनाचार्य इतिहासके महकथा ओर जनश्रति । त्यसे अवज्ञात रहे हैं । जैन वाङ्गमयमें ___ प्रथमानुयोग ' का अस्तित्व इसी बातका द्योतक है। किंतु कहाजासकता है कि कथाओं और जनश्रुतियोंको वास्तविक इतिहास कसे माना जाय ? यह शङ्का तथ्यहीन नहीं है; किंतु किसी राष्ट्र या जातिके इतिहासको प्रकट करनेवाली कथाओं और जनश्रुतियोंको यदि एकदम ठुकरा दिया जाय , तो फिर उस राष्ट्र या जातिका इतिहास किस आधारसे लिखा जाय ? अतएव श्रेयमागे यह है कि इतिहास-विषयक कथाओं और जनश्रुतियोको तबतक अम्वीकार न करना चाहिये जबतक कि वह अन्य स्वाधीन साक्षी-शिलालेख आदिसे असत्य सिद्ध न होजाय ! बस जैन कथाओं जनश्रुतियों या अन्य परम्परीण मान्यताओंको जैन जातिके इतिहास लिखने में भुलाया नहीं जासकता ! इसी बातको ध्यानमें रख करके हमने जैन कथाओं और जनश्रुतियोंका भी उपयोग इस इतिहासके लिग्वनेमें किया है । हां, जहांपर कोई बात इतिहाससे विरुद्ध प्रतीत हुई, वहां उसको अमान्य या प्रकट कर देना हमने उचित समझा है; क्योंकि पक्षपात इतिहासका शत्रु है । प्रस्तुत इतिहास लिखनेमें हमने इस नीतिका ही यथासंभव पालन किया है। जैन इतिहास' जैन धर्मावलम्बियोंका इतिहास है। अतः जैन धर्म विषयक इस इतिहासमें जैन महाप्रस्तुत इतिहास और पुरुषों, राजा महाराजाओं, आचार्य-विद्वानों, उसका महत्व। संघ-गणादि सम्बन्धी विशेष घटनाओंका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन । यथार्थ परिचय और उसका प्रभाव भिन्न २ कालोंमें तत्कालीन परिस्थितिपर कैसा पड़ा था, यह सब कुछ बतलानेका प्रयास किया गया है। इस इतिहासको हमने ‘भा० दिगम्बर जैन परिषद ' के प्रस्तावानुसार कई वर्षों पहलसे लिखना आरम्भ किया था। मौभाग्य-वश इसका प्रथम भाग जिसमें जैनोंक पुराणवर्णित महापुरुषोंका वर्णन है, सन् १९२६ में ही प्रकट होगया था ! उसके लगभग छह वर्षोंके पश्चात् उसके दूसरे भागका पहला खण्ड विगत वर्ष फरवरी १९३२ में प्रकाशित हुआ था। दूसरे भागमें ई० पूर्व ६०० मे सन् १३०० तकका इतिहास लिखना इष्ट है। उस भागको तीन खण्डोंमें विभक्त किया गया है। पहले खण्डमें भ० महावीरके समयसे शुङ्गकाल तकका वर्णन लिखा गया है। इस दसरे खण्डमें तबसे सन् १३०० तकका उत्तर भारतसे सम्बन्ध रखनेवाला इतिहास प्रकट किया गया है व तीसरे खण्डमें दक्षिणभारतका इनिहास संकलित करना शेष है। - अन्तिम अंश प्रस्तुत इतिहासका तीसरा भाग होगा और उसमें सन् १३०० के उपरान्त वर्तमानकाल तकका इतिहास प्रकट करना वाञ्छनीय है। किन्तु प्रस्तुत इतिहासको मात्र 'जैन इतिहास' समझना ठीक नहीं है । वस्तुतः वह जैन दृष्टिसे लिखा हुआ और जैनोंकी मुख्यताको लिये हुए भारतवर्षका इतिहास है। इस रूपमें ही उसका. महत्व है। एक जिज्ञासु उसको पढ़ लेनेसे जैन इतिहासके साथ २ भारतवर्षके इतिहासका ज्ञान प्राप्त कर सक्ता है। उसके अतिरिक्त जैन इतिहास विषयका यही अपनी श्रेणीका पहला ग्रन्थ है। प्रस्तुत इतिहासके प्रथम भाग और दूसरे भागके प्रथम खण्डमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास जैनधर्मके स्वरूप, उसकी प्राचीनता और चौतीस तीर्थङ्कर । उसके मुख्य चौवीस तीर्थङ्करोंके विषयमें बहुत कुछ लिखा जाचुका है। उसको यहांपर दुहराना व्यर्थ है; किन्तु हालमें चौवीस तीर्थङ्करोंके विषयमें एक नई शङ्का खड़ी हुई है-उनके अस्तित्वको काल्पनिक कहा गया है। यदि यह कथन किसी प्रमाणके आधार पर होता-कोरी कल्पना न होती, तो इसे कुछ महत्व भी दिया जाता, परन्तु यह निराधार है और इससे ऐसी कोई बात प्रगट नहीं होती जिससे चौवीस तीर्थङ्करविषयक मान्यता बाधित हो । प्रत्युत स्वाधीन साक्षीसे इस जैन मान्यताका समर्थन होता है। भारतीय शिलालेख, वैदिक और बौद्ध साहित्य उसका समर्थन करते हैं, यह पहले लिखा जाचुका है। हालो ‘मोइन-जो-दरो' के पुरातत्वपर जो प्रकाश पड़ा है, वह उस कालमें अर्थात् आजसे लगभग पांच हजार वर्ष पहले जैन धर्म और उसके साथ जैन तीर्थङ्करोंका अस्तित्व प्रमाणित करता है। वहांसे ऐसी नग्न मूर्तियां प्राप्त हुई हैं, जिनकी आकृति ठीक जैन मूर्तियाँ सदृश है और उनपर जैन तीर्थङ्करोंके चिह्न बैल आदि हैं। एक लेखमें स्पष्टतः 'जिनेश्वर' भगवानका उल्लेख है। १-"जैनजगत' में इसी प्रकारका लेख प्रगट किया गया है। २–“संक्षिप्त जैन इतिहास" प्रथम भागकी प्रस्तावना तथा द्वितीय भाग प्रथम खंड पृ.३ 3-5 A standing Image of Jain Rishabha in Kayotsarga posture.........closely resembles the pose of the standing deities on the Indus seals. etc. etc." -Modern Reveiu, Ang. 1932 ४-मुद्रा नं० ४४९ पर 'जिनेश्वर' शब्द अङ्कित है। देखो इंटिका, भा० ८ इन्डससील्स पृ० १८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन। इन वानको देखकर विद्वान जैनधर्मका सम्बन्ध उनसे स्थापित करत हैं। इस माक्षीसे तेईसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथके बहुत पहले जैनधर्मका अस्तित्व प्रमाणित होता है। इस दशामें भ० पानाथक पहले भी तीर्थकरोका होना आवश्यक है। अब यदि उनको काल्पनिक मान लिया जाय तो ई० पूर्व ८-९वीं शताब्दीके पूर्व जन्मधर्मकः मत्ता न होनी चाहिये । किन्तु यह उपरोक्त पुरातत्व विषयक माक्षीसे बाधित है। अतएव भ० पार्श्वनाथक पूर्ववर्ती तीर्थङ्करको वास्तविक व्यक्तियां मानना उचित है। जैन धर्म एक मत्य अर्थात विज्ञान है। सत्य होने के कारण उसका व्यवहारिक होना लाजमी है। वस्तुतः जैनधमकी विशेषता । जैन इतिहास उसे एक ऐसा ही धर्म प्रमा णित करता है। हां, जैनियोंकी वर्तमान शाचनीय दशा हमारी इस व्याख्याको एक अतिसाहसी-सा वक्तव्य दर्शाती है: किन्तु जरा देखिये तो आजकलके भारतीय धर्मोके अनुयायियोको! उन धर्मोक मूल सिद्धांत कुछ हैं और उनके अनुयायियोंका आचरण आज कुछ ओर है । जैनी भी अपने धर्मके मूल सिद्धांतोंसे बहुत कुछ भटक गये हैं। उनका पूर्व इतिहास और धर्मशास्त्र इस व्याख्याकी माक्षी है। उदाहरणतः जैनधर्मके अहिंसा सिद्धान्तक के लीजिये । आज इन सिद्धांतकी जैसी मिट्टी पलीद जैनियोंने की है, ___I-Dr. Prar Nath writes in the Indian Hist : Quarterly (Vol. VIII No. 2 ) : "The names and symbols on Plater annexed would appear to disclose a connection between the ..old religious cults of the Hindus and Jainas with those of the Indus people." Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास। वसी शायद ही कभी हुई है। अहिंसा तत्व मूलमें मनुष्यको शूरवीर बनानेवाला है। किन्तु आजके जैनी उसे कायरताका जनक मान रहे हैं। नौबत यहांतक पहुंची है कि अहिंसाके झूठ भयके कारण जैनी अपनी, अपने बालबच्चों और धन सम्पतिकी रक्षा करने योग्य भी नहीं रहे हैं । किन्तु जैन इतिहासको देखिये; वह कुछ और ही बात बतलाता है । अहिंसा अणुव्रतको पालनेवाले अनेक जैन वीर ऐसे हुये हैं, जिन्होंने देश और धर्मके लिये अगणित युद्ध रचे थे। मौर्य सम्राट चंद्रगुप्तने अपने भुजविक्रमसे अपना साम्राज्य स्थापित किया था। उन्होंने ही यूनानी बादशाह सिल्यूकमको मार भगाकर भारतकी खाधीनताको अक्षुण्ण रक्खा था । सम्राट् सम्प्रतिने देश-विदेशमें धर्म-साम्राज्य स्थापित करनेका उद्योग किया था। उसके उत्तराधिकारी शालिसूकने सौराष्ट्रको अपने असिबलसे विजय करके वहां जैनधर्मका प्रचार किया था । इसे उन्होंने अपनी महान् 'धर्मविजय' कहा है ! इसी तरह कलिङ्ग १-हिन्दू ग्रन्थ 'गर्गसंहिता' के 'युगपुराण' में यह उल्लेख इस प्रकार है:-"तस्मिन् पुष्पपुरे रम्ये जनारामशताकुले । ऋतुकर्मक्षयाक्तः शालिशूको भविष्यति । स राजाकर्मनिरतो दुष्टात्मा प्रियविग्रहः । सौराष्ट्रमर्दयन् घोरं धर्मवादी ह्यधार्मिकः ॥ स्वं ज्येष्ठं भ्रातरं साधु संप्रति प्रथयन् गणैः । ख्यापयिष्यति मोहात्मा विजयं नाम धार्मिकम् ॥" दीवानबहादुर प्रो० के० ध्रुव इसका अर्थ इस प्रकार करते हैं: “In the beautiful city of Puspapura studded with bundreds of Public parks, there will arise Salisaka intent on the abolition of sacrificial ritual. That wicked king, addicted to wil deeds, taking pleasure in (religious ) squabbles, talking . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माकधन | [ ७ चक्रवर्ती एल खारवेने अनेक संग्राम में अपना शौर्य प्रकट करके धर्मप्रभावना की थी। उनके भवसे यूनानी बादशाह दमित्रय भारत छोड़कर भाग गया था । जैन बार स्वास्खेलने पुनः स्वाधीन भारतकी प्रतिष्ठाको बाल बचा लिया यह सही वीर पर मांत्मा श्रावक थे । चन्द्रगुप्त तो अन्नमें जैन मुनि होगये थे । खारवेलने कुमारीपर्वत पर उग्रोग्र त्रत-उपवासको करके अपनेको क्षीण संमृत बना लिया था । अहिंसा को उन्होंने ठीक-ठीक समझा था और उसका प्रकाश अपने व्यक्तित्वमे खूब ही किया ! इसी लिये भारतीय विद्वान जैन धर्मको अपने वास्तविक रूपमें शक्तिशाली धर्म प्रकट करते हैं । वह कहते हैं कि वह कर्मवीरोंका धर्म है। अकमण्य पुरुषोंका नहीं ! वस्तुतः बात भी यही है । जैनाचार्य अपने देश और धर्मके लिये मनुष्यको कर्तव्यशील होनेका उपदेश देते हैं। एक श्रावकके लिये वात्सल्य धर्म वह हर तरह - जरूरत हो तो असिबलसे भी अपने धर्मात्मा भाइयोंकी रक्षा करना religion but ( really ) irreligious, steeped in delusion; will terribly prosecute the people of Saurastra and proclaim the so-called Religious Conquest, contributing thereby to the glorification of the religiousness of his elder brother Samprati by sections of the Jain community." —Jbors, XVI p. 24. 1- Prof. Dr. B Seshagiri Rao, M. A., ph D., writes : "It appears to me that Jainism is a religion of strength......It is a worker's and not an idler's faith"-Jain Antiquary, I, 1. २ - आचार्य सोमदेव 'यशस्तिलकचम्पू' में कहते हैं: " यः शस्त्रवृत्तिः समरे रिपुः स्यात्, यः कण्टको वा निजमंडलस्य । अस्त्राणि तत्रैव नृपाः क्षिपन्ति, न दीन- कानीन - शुभाशयेषु ॥ " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ <] संक्षिप्त जैन इतिहास | - बतलाते हैं। वस्तुतः जैन अहिंसा प्रत्येक श्रेणीके मनुष्य के लिये व्यवहार्य है । वह मनुष्य के जीवन मार्गका निर्मल और निशङ्क बनाती है ! जबतक जैनी उसके वास्तविक स्वरूपको ग्रहण किये रहे वह खूब फले फूले । भ० महावीर के निकट प्रायः सार भारतने अहिंसा धर्मकी दीक्षा ली थी। भारतीय राष्ट्र सच्चा अहिंसक इतिहास सुधार और वीर बन गया था। फलतः भ० महावीरका शौर्यका प्रवर्तक है । धर्म विशेष उन्नत हुआ था और विदेशी लोग भी भारत विजयकी लालसासे हताश होकर अपने२ देशों को लौट गये थे । प्रस्तुत ग्रन्थ में जो इतिहास संकलित हैं, वह इस व्याख्याको दर्पण-वत् स्पष्ट करता है | हिंदू ग्रंथोंकी साक्षी भी इस कालमें जैन धर्मात्कर्पका समर्थन करती है । यवन. शक आदि विदेशी लोग तक जैनधर्मकी शरण में आये थे । हिंदू शास्त्रकारोंने इन्हें 'वृषल' कहकर अपने धर्मसे बाह्य प्रकट किया है। इन सब बातोंसे स्पष्ट है कि जैनधर्म वस्तुतः एक शक्तिझाली धर्म हैं और उसके द्वारा जगतका कल्याण विशेष हुआ है । 66. अर्थ - " जो रणाङ्गण में युद्ध करनेको सन्मुख हों अथवा अपने देशके कण्टक- उसकी उन्नतिमें बाधक हों क्षत्रिय वीर उन्हींके ऊपर शस्त्र उठाते हैं - दीनहीन और साधु आशयवालोंके प्रति नहीं " विशेष के लिये देखो जन अहिंसा और भारतके राज्यों पर उसका प्रभाव ।” १ - 'गर्गसंहिता' के उल्लेखसे कि 'वृषल भिक्षुक होंगे' (भिक्षुका वृषला लोके भविष्यन्ति न संशयः ' उस समय ब्राह्मणोतर साधुओ की बाहुल्यता स्पष्ट है। २ - 'मानवधर्मशास्त्र' (१०।४३ - ४४ ) में पौण्ड़, उड़, द्रविड़, कम्बोज, यवन, शक आदिको ब्राह्मण विमुख 'वृषल' हुआ लिखा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्डा - वैक्ट्रियन और इन्डो पार्थियन राज्य । [6 आजकलके जैनियोंको प्रस्तुत इतिहास से देखना चाहिये कि उनके पूर्वजोंने किस प्रकार धर्मका गौरव प्रगट किया था । जीव मात्रका कल्याण करनेके लिये उन्होंने निःशंक वृत्ति स्वीकार की थी। जैनधर्मका मूल रूप उनके चारित्र से स्पष्ट है। आज भी उनके आदका अनुकरण करना श्रेयस्कर है। प्रस्तुत पुस्तक पाठकोंके लिये इस विषय में मार्गदर्शकका कार्य करे, यही हमारी अभिलाषा है | सचमुच इतिहासका कार्य ही यह है । वह सुधार और शौर्यका पाठ पढ़ाता है. मुर्दा दिलोंमें नये उत्साह और नये जोशको जगाता है ! भारतको आज ऐसे वीरभावोत्पादक धर्मकी आवश्यक्ता है ! भारत- संतान अपने वीर पूर्वजांको जाने और उन्हें पहचानकर उनके पराचिन्हों पर चलनेका प्रयत्न करे, यही भावना है। सचमुच :यह थे वह वीर जिनका नाम सुनकर जोश आता है | गोंमें जिनके अफसानोंसे चक्कर खून खाता है || " "" ( १ ) इन्डो- वैक्ट्रियन और इन्डो पार्थियन राज्य छत्रप व कुशन-साम्राज्य । (सन् २२६ ई० पू० से २०६ ई०) भारत के उत्तर में यूनानियोंने अपना राज्य स्थापित किया था । सम्राट् चन्द्रगुप्त के वर्णन में लिखा बैक्ट्रियन और पार्थि- जाचुका है कि मिल्यूकस नाइकेटर भारतसे यन राज्य । परास्त होकर बलख आदिकी ओर लौट गया था । सन् २६९ ई० पू० में सिल्यकसकी मृत्युके पश्चात् उसका पुत्र एण्टिओकस राजा हुआ परन्तु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास। अयोग्य होनेके कारण बलख (बैक्ट्रिया ) और पार्थियावाले सन् २५० ई० पू० के लगभग उससे स्वाधीन होगये। भारती सीमापर सिकन्दरके पश्चात् इन यूनानियोंके हमले बराबर होते रहे थे, किन्तु सिल्यूकसके बाद पहला यूनानी राजा जिसने पंजाबपर हमला किया डिमिटीअस था । डिमिट्रीअसने अपना अधिकार मथुरा तक जमा लिया था और वह मगधको भी सर करना चाहता था; किंतु सम्राट खारवेलके भयसे वह मथुरा छोड़कर चला गया था ।* फलतः यूनानियोंका भारतीय सीमा पंजाब व सिंधुपर अधिकार होगया था। इनमें मेनेन्डर नामका राजा बहुत प्रसिद्ध था । सन् १६० ई० पू०से सन् १४० ई० पू० तक वह काबुलका शासक था। उसने सन् १५५ ई० पू० के निकट भारतपर चढ़ाई की थी। मि० स्मिथने इस घटनाका समय ई० पू० १७५ माना है। मेनेण्डर (मनेन्द्र) या मिलिन्दका जन्म सिंधुनद-वर्ती प्रदेशमें अर्थात् 'द्वीप अलसन्द जिसे यूनानी अलेराजा मेनेन्डर व कजिन्ड्रिया कहते थे, वहां हुआ था । उत्तर जैनधर्म पश्चिमी भारतपर विजय प्राप्त करके मेनेन्डरने पंजाबके साकल (स्यालकोट) नगरमें अपनी राजधानी स्थापित की थी । साकल उस समय बड़ा समृद्धिशाली नगर था। जैनधर्मका प्रचार भी वहां विशेष था । बौद्ध-धर्म वहां उस समयके बारह वर्ष पहलेसे नहीं था। बौद्ध भिक्षु नागसेनने १-भाइ० पृ० ७७. * जविमोसो० भा० १६ पृ० २५८. २भातारा० भा० २ पृ० १८८. ३-पूर्व० पृ० १८९. ४-मिलिन्द. पृ० १०. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्डो-वैक्ट्रियन और इन्डा पार्थियन राज्य । [ ११ वहां जाकर बौद्ध धर्मका प्रचार किया था। स्ट्रेबोने लिखा है कि मेनेन्डरने पटल ( सिन्ध ) सुराष्ट्र और सगर डिस ( सागर - दीप कच्छ ) तक अधिकार कर लिया था। उसके शिक्के भड़ौचतक प्रच लित थे और उसकी सेना राजपूताना तक पहुंची थी । मेनेन्डर बीर होनेके साथ ही शास्त्रज्ञ भी था । प्लूटार्कने उसे एक अन्यन्न न्यायवान राजा लिखा है । वह इतना लोकप्रिय था कि इसकी मृत्यु के पश्चात लोगोंने उसका भरमावशेष आपस में बांटकर उसपर स्तुप बनाए थे। मेनेन्डरका अधिकार मधुरा, माध्यमिका : चित्तौरके निकट) और साकेत दक्षिणी अवध ) तक होगया था । किन्तु गंगा के आसपास वाले प्रदेशोंमें उसका राज्य अधिक दिनोंतक नहीं. रहा था । पातन्जली के महाभाव्यमें यवनों द्वारा साकेत और मध्यमिकाके घेरेका उल्लेख है । ! संभवतः यह उल्लेख मैंनेन्डर के आक्रमणको लक्ष्य करके लिखा गया है क्योंकि यह चढ़ाई पातंजलिके समय में हुई थी ।' जष्टिन मेनेन्डरको भारतका राजा लिखता है। बौद्धग्रन्थ 'मिलिन्द पाह' से पता चलता है कि भिक्षु नागसेन के उपदेशसे मेनेन्डरने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था किन्तु बौद्ध होने के पहले उसका जैन होना बहुत कुछ संभव है । उसने जिन दार्शनिक सिद्धांतोंपर नागसेन के. साथ बहस की थी. वह ठीक जैनोंके अनुसार हैं ! स्वयं 'मिलिन्द पण्ह' में कथन है कि पांचसौ यूनानियोंने राजा मेनेन्डरसे भगवान महावीरके धर्म द्वारा मनस्तुष्टि करनेका आग्रह किया था और मेनेन्डर ने १ - भाप्रारा० भा० २ पृ० १४२ - १४३. २ - विशेष के लिये देखो 'वीर' वर्ष २ पृ० ४४६ - ४४९. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास। उनका यह आग्रह स्वीकार भी किया था। उसके अधिकारमें आए हुए नगर मध्यमिकाके भग्नावशेषोंमेंसे एकसे अधिक जैनधर्म सम्बंधी लेख निकले हैं। इन सब बातोंसे मनेन्डरका एक समय जैनधर्मावलंबी होना प्रगट है। उसके यूनानी साथियोंमें भी जैनधर्मकी मान्यता विशेष थी। इस समयके लगभग जैन सम्राट् खारवेल द्वारा जैनधर्मका बहु प्रचार हुआ था । जैन धर्मका प्रकाश जगतव्यापी होरहा था । इससे थोड़े समय पश्चात् यूनानियोंको सिथियन-जातिके लोगोंने जिनको भारतीय शक कहते थे. बैक्ट्रियासे शक व कुशन निकाल दिया। साथ ही शक लोगोंने मौराष्ट्र आक्रमण। पंजाब और अफगानिस्तानपर भी अपना अधिकार जमा लिया । शक राजा मोआके राज्यमें पंजाब और अफगानिस्तान शामिल थे। धीरे धीरे शकोंकी एक शाखाने. जिसे यूची कहने थे. १५० ई० पू० के करीब बैक्ट्रियाको जीत लिया और वह वहां पांच जनसमूहोंमें बंट गई । इनमेंसे एक कुशनने सारी जातिका संगठन करके उसे एक बना लिया और पंजाब तथा अफगानिस्तानपर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। फिर कालान्तरमें शकोंने सौराष्ट्र . मालवा. मथुरा, तक्षशिला आदि दशोंमें भी अपना आधिपत्य जमा लिया था। शक राजा मोआका उल्लेख ऊपर किया जाचुका है। उसका उत्तराधिकारी एजेस (A zex 1) प्रथम था. किन्तु उसके विषयमें कुछ अधिक वर्णन नहीं मिलता है; यद्यपि इसमें संशय नहीं कि उसका राज्य दीर्घ और समृद्धिशाली था। . १-मिलिन्द० १०८. २-राई० पृ० ३५८. ३-हिग्ली० पृ० ७८. ४-भाइ० पृ० ७८. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्डो- वैक्ट्रियन और इन्डो पार्थियन राज्य । | १३ संभवत: अजेसके पराक्रमसे ही शक राज्यका आधिपत्य तमाम उत्तर पश्चिमी भारत में जमना नदी तक स्थापित होगया था । उसने क्षत्रप' नियत करके पारस्य देशकी राजनीतिकी तरह अपना शासन व्यवस्थित किया था। उसके सिक्कोंपर 'महरजस रजरजस महातस अयस अथवा 'महरजस रजदिरजस महतस अयस' या ' महरजस नहतस श्रमिकस रजदिरजस अयस लेख मिलते हैं। महाराजा अजेस के समय ( ई० पूर्व प्रथम शताब्दि ) में तक्षशिला में जैनधर्म उन्ननिपर था। उस समय के बने हुए कई जैन स्तृप वहां आज भी भग्नावशेष हैं। एक स्तूपके भीतरसे नहाराजा अजेसके आठ तांबेके सिक्के, और एक छोटीसी सोनेकी डिबिया. जिसमें अस्थि - अंश स्वर्णके टुकडे और हाथीदांत एवं पाषाण मणिकायें रखे हुये थे, निकले थे। इन स्तूपोंकी बनावट ठीक मथुरा के जैन स्तूपकी बनावटके समान हैं । इन्हीं स्तूपोंके पासवाली इमारतों में से एक लेख अरेमिक (Aramaic) भाषाका ईसवीसन्से पूर्वका निकला है । भारतमें इस लिपि और इस भाषाक़ा यही एक लेख है । हत्भाग्य से यह अभीतक ठीक २ पढ़ा नहीं गया है। डॉ० बानेंट और प्रो० कौली इसमें एक हाथीदांतके महलके बनवाने का उल्लेख हुआ बतलाते हैं । किन्तु एक धार्मिकस्थान - स्तूप के निकट महलका बनना कुछ ठीक नहीं जंचता ! संभवतः यह महल 'जिन प्रसाद' अर्थात् जैन मंदिरका द्योतक होगा । 3 महाराज अजेसके समय में जैनधर्म | , १- तक्ष० पृ० १३. २- भाप्रारा० भा० २ पृ० १९६. ३-तक्ष० पृ० ७६-८०. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास | शक लोग जैन-धर्म के प्रति सद्भाव रखते थे. यह बात श्वेतांस्वर जैन ग्रन्थोंके काल्काचार्य कथानक ' : काल्काचार्य के समयमें उज्जैनका राजा गर्दभिल्ल था । उसने अपनी विषयलम्पटता के वश हो. काल्काचार्यकी बहिन आर्यिका सरस्वतीको बलात्कार अपनी स्त्री बनालिया । कालाचार्यको राजाका यह अन्याय और पापकृत्य अस होगया । उन्होंने अन्यायका विच्छेद करनेके लिये शाकदेश ( सैस्तन Seistan) की ओर प्रयाण किया और वहांके शकराजाओंसे मैत्री करली । शकोंके राजा ' साहाणुसाहि 'ने उन्हें राजद्रोह के अपराधमें दण्ड देना चाहा । उन शकोंने कालकाचार्यका कहना माना और इ० पू० १२३ के लगभग ९६ शाही (शक) कुल सिन्धु नदीको पार करके सौराष्ट्रमें आजमे । उनमें से एक उनका राजा हो गया । कालकने उसे उज्जैनीपर आक्रमण करनेके लिये उत्साहित किया । शकराजाने काल्काचार्यके आग्रह से उज्जैनीपर . ई० पू० १०० में हमला किया। गर्दभिल्लके पापका घड़ा भर गया था । वह शक सेनाके सामने टिक न सका । मैदान छोड़कर भांग गया । फलतः शकराजा उज्जैन अथवा मालवाके शासनाधिकारी हुये । काल्काचार्यका उन्होंने आदर किया। आर्यिका सरस्वतीकी भी मुक्ति होगई । वह प्रायश्चित्त ग्रहण कर पुनः ध्यान लीन होगई । विद्वान् लोग इस कथानकको सच्चा मानते हैं। उस समय अर्थात् ईसवी पूर्व १४ ] काचार्य | 1 से भी स्पष्ट है। १ - प्रभावक चरित्र (१९०९ बम्बई ) पृ० ३६-४६ व जवि - ओसो० भा० १६ पृ० २९० २ - कैहि इ० पृ० १६७-८ व ५३२-३; अलाहाबाद यूनीवर्सिटी स्टडीज भा० २पृ० १४८ जविमोसो० भा० १६. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्डो-पैक्ट्रियन और इन्डा पार्थियन राज्य। [१५ प्रथम शताब्दिमें भारतीय शकराजा 'शाउनानुशाउ नामक उपाधि ग्रहण करते थे: यह बात इतिहाससिद्ध है। अतः कालक कथानकसे भी 'जैन धर्मके प्रति शक लोगोंकी सहानुभूति' होना प्रकट है। इन शकोंका राज्य ई० पूर्व १०० मे ५८ तक उत्तर व पश्चिमी भारतमें रहा था। कुशनवंशमें कनिष्क सबसे प्रतापी राजा था। उसने अपने पराक्रमस चीन आदि कई देशोंको जीता और सम्राट कनिष्क। साम्राज्यका विस्तार बढ़ाया था। वह सन् ७८ ई० में राजसिंहासनपर आरूढ़ हुआ और उसका अधिकांश समय युद्ध करनेमें बीता था । पेशावर (पुरुषपुर) उसकी राजधानी थी। वहींसे वह अपने सारे राज्यका प्रबन्ध करता थाः जिसमें पश्चिममें फारस तकका कुछ हिस्सा और पूर्व में समस्त उत्तरीय भारत पाटलिपुत्र तक सम्मिलित था।' कहते हैं कि गद्दीपर बैठनेके कुछ दिनों बाद कनिष्कने बौद्ध धर्म धारण किया था। उसके राज्यकालमें वौद्ध संघकी एक सभा हुई थी; जिसके निर्णयके अनुसार उत्तरीय भारतके बौद्ध लोग महायान-सम्प्रदायवाले कहलाने लगे थे और दक्षिण 'हीनयान' सम्प्रदायके नामसे प्रसिद्ध हुए थे। कनिष्कने बौद्ध धर्मका खूब प्रचार किया था। उसके समयमें भारतीय व्यापारकी भी खूब वृद्धि हुई थी। कनिष्क विद्याव्यसनी था और उसने कई इमारतें बनवाई थीं। तक्षशिलाके निकट उसने एक राजधानी बनवाई थी। वह आज सरसुख टीलेके नीचे दबी पड़ी है। यमुनाके किनारे मथुराके निकट भी उसने बहुतसी १-भाइ० पृ० ७९-८१. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । इमारतें बनाई थीं । मथुराके पाससे कनिष्ककी एक सुंदर नर्ति निकली है। कनिष्कका राजवैद्य आयुर्वेदका प्रसिद्ध विद्वान चरक था । प्रभाव । यद्यपि भारतमें यूनानियों और शकोंका राज्य रहा था और वे लोग यहां पर बस भी गये थे; परन्तु उनकी विदेशी आक्रमणोंका यूनानी या रोमन सभ्यताका प्रभाव भारत पर प्रायः नहींके बराबर पड़ा था । विद्वान् कहते हैं कि बौद्ध धर्मपर अवश्य उसका कुछ प्रभाव पड़ा था । किन्तु ब्राह्मण और जैन धर्मोपर उसका असर कुछ भी नहीं पड़ा था। यूनानी भाषा कभी भारतमें लोकप्रिय नहीं हुई और न भारतियोंने यूनानियोंके वेषभूषा और रहन सहनको ही अपनाया था ! हां, भारतकी स्थापत्य, आलेख्य और तक्षण विद्यापर उसका किंचित् प्रभाव पड़ा था, परन्तु वह नहींके बराबर था। सचमुच उस समयके भारतीयोंके लिये यह बात बड़े गौरवकी है कि उन्होंने अपनी प्राचीन आर्य संस्कृति और सभ्यताको अक्षुण्ण रक्खा । विदेशियों के सम्पर्क में रहते हुये भी वह उनके द्वारा तनिक भी प्रभावित नहीं हुये । प्रत्युत उन्होंने अपनी संस्कृति और धर्मका ऐसा प्रभावशाली असर उन लोगोंपर डाला कि वे उसपर मुग्ध होगये और उनमें से अधिकांश ब्राह्मण, बौद्ध अथवा जैनमतको ग्रहण कर लिया और धीरे २ वह सब मिल जुलकर हिन्दू जनतामें एकमेक होगये । कनिष्क और उसके उत्तराधिकारियों - हुविष्क और वासुदेवके १- लाभाइ०, पृ० १९७ - २०४ । २- अहिइ० पृ० ४२९ व लाभाइ० पृ० २०३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्डो वैक्ट्रियन और इन्डो पार्थियन राज्य। [१७ गजकालमें जैन धर्मकी उन्नति विशेष हुई थी । मथुरा उस समय जैनधर्मका मुख्य केन्द्र था । वहां कुझन साम्राज्यमें जैन पर भगवान पार्श्वनाथजी ( ई० पू० ९. वी. धर्मका उत्कर्ष। शताब्दि ) के समयका एक जैन स्तुप विद्यमान था । और भी कई स्तूप और जैन मंदिर थे। मथुराके भग्नावशेषोंपर ई० पू० सन् १५० से सन् १०२३ ई. तकके शिलालेख मिले हैं; किन्तु यह भी विदित है कि ई० पू० सन् १५० से भी पहलेका एक जैन मंदिर मथुसमें था; जिसकी वस्तुओंको नये मंदिरोंके काममें लाया गया था। ऐसा मालूम होता है कि जैनियोंका उत्कर्ष वहांपर ईसवी सोलहवीं शताब्दितक रहा था । उपरांत मुसलमानों द्वारा जैनोंका यह नीर्थ और उसके दर्शनीय प्राचीन स्थान नष्ट कराडाले गये । यहांकी कारीगरी बड़ी मनमोहक और सुन्दर है ।। इन धर्मायतनोंको राजा और रंक सबने बनवाकर पुन्य संचय किया था । जहां एक ओर कौशिक क्षत्रियों द्वारा निर्मित आयागपटका उल्लेख मिलता है वहां दूसरी ओर नृतक एवं गणिकाओं द्वारा बनवाये गये आयागपट और जैन मंदिर मिलते हैं। इनमें प्रोष्ठल और साक्य क्षत्रियोंके लिये कालरूप गोतिपुत्रका नाम उल्लेखनीय है। इनकी पुत्री कौशिक वंशकी शिवमित्रा नामक थीं: जिन्होंने जैन मंदिरमें एक आयागपट निर्मित कराया था। इसी प्रकार हारिती पुत्र पालकी स्त्री कौत्सी अमोहनीने अर्हत् पूजाके लिये आर्यवती - १-अहिइ० पृ० ३१८ व कहिइ० पृ० १६७. २-जैस्तूप० पृ० १३. ३-वीर वर्ष ४ पृ० २९७. ४-एई० भा० १ पृ० ३९४-३९६ २ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] संक्षिप्त जैन इतिहास । बनवाई थी। इनके अतिरिक्त भग्नावशेषोंमें अङ्कित चित्रों जैसे-राजछत्र लगाये किसी राजाको जैन साधुका उपदेश देना, नागकुमारों (शकों) का विनीत भावसे उपदेश श्रवण करना अथवा पूजा करना इत्यादिसे जनताके साधारण और विशेष मनुष्यों तथा विदेशियोंके मध्य जैन धर्मकी मान्यता होनेका परिचय मिलता है' । "जम्बूकुमार चरित " से वहां पांचसौसे अधिक स्तूपोंका होना प्रगट है ।। उस समय भी जैनधर्म अपने विशाल रूपको धारण किये __ हुये था। जिन विदेशियोंको घृणाकी दृष्टिसे जैनधर्मका विशालरूप। हिन्दू लोग देखते थे, उनको बौद्ध और जैनाचार्यों ने अपने २ मतमें दीक्षित किया था। उपरान्त इन दोनों धर्मोकी देखादेखी ब्राह्मणोंने भी अपने मतका प्रचार इन विदेशियों में किया था । जैन शास्त्रोंमें सर्व प्रकारके मनुप्योंके लिये धर्म साधन करनेका विधान मौजूद है। म्लेच्छ भी यथावसर आर्य होजाता है और वह मुनि होकर मोक्ष लाभ करता है। मथुराके पुरातत्वसे जैनधर्मकी इस विशालताका पता चलता है। विदेशी शक आदि लोग जैनधर्मयुक्त हुए थे और नट, वेश्या आदि जातियोंके लोग भी अर्हत भगवानकी पूजाके लिये जिनमंदिर आदि निर्मित कराकर धर्मोपार्जन करते थे। इन मंदिरादि विविध व्यक्तियोंका दान कहा गया है। १-विशेषके लिये देखो “ वीर " वर्ष ४ पृ० २९४-३११. २-अनेकान्त १ पृ० १४०. ३-लब्धिसार गाथा १९५ वेंकी टोका पृ० २४१ व विशाल जैन संघ नामक हमारा ट्रेक्ट देखो। ४ वीर वर्ष ४ पृ० ३११. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्डो-पैक्ट्रियन और इन्डो पार्थियन राज्य। [१९ ~~~~~~ यह भी मालम होता है कि तबतक विवाह क्षेत्रकी विशातामें भी कोई संकोच नहीं हुआ था। वणिक सिंहकका विवाह एक कौशिक वंशीय क्षत्राणीसे हुआ था । अबतक वैश्य जातिकी उपजातियोंका प्रचार नहीं था और लोग चार वर्णों की अपेक्षा ही एक दूसरेका उल्लेख करते थे। किन्तु इस पुरातत्वमे उस समय अर्थात ई० पू० प्रथम शताब्दिमे ई० दूसरी शताब्दि तक जैन संघमें जो उथल-पुथल मची हुई थी. उसका खासा परिचय होता है। इसका विशेष वर्णन दिगम्बर और श्वेतांबर भेदका जिकर करते हुये आगे किया जायगा । 'दिगम्बर' अपनेको प्राचीन 'निर्ग्रन्थ' नामसे संबो. धित करते थे। पहले कहा जाचुका है कि इन्डों बैक्ट्रियन राजाओंने प्रांत प्रांतमें छत्रप नियत करके शासन प्रबन्ध छत्रप राजवंश। किया था। कुशन कालमें यह छत्रप लेगा उत्तर पश्चिमी भारतके कुशन राजाके सूबेदार थे। किन्तु अन्तमें इनका प्रभाव इतना बढ़ा कि मालवा. गुजरात, काठियावाड़, कच्छ, सिंध, उत्तर कोंकण और राजपूतानेके मेवाड, मारवाड़, सिरोही, झालावाड़, कोटा, परतापगढ़, किशनगढ़, डूंगरपुर, वांसवाड़ा और अजमेर तक इनका अधिकार होगया । ई० पू० पहली शताब्दिसे ई० चौथी शताब्दि तक भारतमें छत्रपके तीन मुख्य राज्य थे; दो उत्तरी और एक पश्चिमी भारतमें। तक्षशिला अर्थात् उत्तर पश्चिमी पंजाब और मथुराके छत्रप 'उत्तरी छत्रप" तथा पश्चिमी भारतके छत्रप 'पश्चिमी छत्रप' कहलाते थे। यह मूलमें १-वीर वर्ष ४ पृ० ३०१. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | शक जाति के थे और पहले पहल विवाह सम्बन्ध केवल अपनः जातिमें करते थे । किंतु उपरांत यह लोग जैन और बौद्ध धर्म में दीक्षित होगये थे । वैदिक धर्मको भी इन लोगोंने अपनाया था । क्षत्रियोंके साथ इनका वैवाहिक सम्बन्ध भी होने लगा था । छत्रप नहपान । छत्रप वंशमें नहपान नामका राजा बहुत प्रसिद्ध था । उसका समय ई० प्रथम शताब्दिसे ईस्वी प्रथम शताब्दि तक विद्वान् अनुमान करते हैं । उसकी 'राजा' और 'महाछत्रप' उपाधियां थी जो उसे एक स्वाधीन राजा प्रगट करती हैं । नहपानका राज्य सुजरात, काठियावाड़, कच्छ, मालवा, नासिक आदि देशोंपर था । उसका जमाता ऋषभदत्त उसका सेनापति था । नहपान भ्रमकका उत्तराधिकारी था । इस भूमकके सिक्कोंमें एक ओर सिंह व धर्मचक्र तथा ब्राह्मी अक्षरोंका लेख अङ्कित मिलता है। यह चिह्न जैनत्वके बोतक हैं। भूमकके दरबारकी भाषा भी प्राकृत थी । नहपान निस्सन्देह जैन धर्मानुयायी था । दिगम्बर और श्वेतांबर दोनों ही जैन सम्प्रदायोंके शास्त्रोंमें उसका वर्णन मिलता है । श्री जिनसेनाचार्यने उसका उल्लेख ' नरवाह ' नामसे किया है और उसका राज्यकाल ४२ वर्ष लिखा है; जो ई० पूर्व ५८ तक अनुमान किया जाता है। जैन शास्त्रोंमें नहपानका उल्लेख 'नरवाहन' 'नरसेन' 'नहवाण' यदि रूपमें हुआ मिलता है । नहपानका एक विरुद 'भट्टारक' था I I १- भाप्रारा० भा० १५० २-३. २- भावारा० भा० १ पृ० १२- १३. ३ - जविओसो० भा० १६ पृ० २८९ ४ - राइ० भा० १ पृ० १०३. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्डो-चैक्ट्रियन और इन्डा पार्थियन राज्य । [ २१ यह शब्द जैन में विशेष रूढ़ है । उसके जमाताका नाम ऋषभदत बिल्कुल एक जैन नाम हैं । इन सब बातोंको देखते हुए इन शकोंको जैन धर्ममुक्त मानना अनुचित नहीं है । नहपान निस्सन्द जैन शास्त्रोंका नरवाहन हैं। आधुनिक विद्वान भी इस व्याख्याको स्वीकार करते हैं रे । इस अवस्थामें नहपानको जैन शास्त्रानुसार जैनी मानलेना ठीक है । आंबर जैन शास्त्र : श्री आवश्यक सूत्र भाष्य ' से प्रगट है 3 कि " भृगुकच्छ में नहवाण (संस्कृतरूप नरनहपान व जैनशास्त्र | वाहन) नामक राजा राज्य करता था । उसके पास अखूट धन - कोष था । उसके साथ ही प्रतिष्ठानपुर ( वर्तमान् पैठन ) में एक सालिवाहन नामका राजा था. जिसकी सेना अजेय थी । शालिवाहनने नहवाणकी राजधानीको I-Rishabhadatta is purely a Jaina mame: 'given by Rishabha (The Tirthankara)' -JBORS. XVI 250. 2--“I need hardly say that Nahavana stands for Nahapana. -M M. K. P. Jayswal., JABORS XVI. पं० नाथूरामजी प्रेमी भी 'नहत्राण' को 'नहपान' बताते हैं । ० भा० १३ ८० ५३४. जहि ० ३- ' मरुयच्छ्रे णयरे नहवाहणो राया कोससमिद्धो' आवश्यक सूत्रभाष्य | इसका संस्कृत रूप अभिधान राजेन्द्रकोष में (भा० ५५० ३८३ ) में यों दिया है : 'भरुकच्छपुरेऽत्राऽऽसीद् भूपतिर्नरवाहनः ॥१ तपागच्छकी एक प्राकृत पडावलीमें नाहवाहणका उल्लेख ' नहवाण' रूपमें हुआ है । इसीलिये हमने नहवाण लिखा है । (जैसा संभा० १ अंक ४ पृ० २११) जायसवालजीने भी यही शब्द प्रयुक्त किया है। (जविओसो०, १६ ५० २८३ ). Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] संक्षिप्त जैन इतिहास। आ घेरा; किंतु धनबलके समक्ष उसकी दाल न गली । वह दो वर्ष तक भृगुकच्छका घेरा डालकर हताश पैठणको वापस चला गया । सालिवाहनका मंत्री नहवाणके यहां आरहा; उसने नहवाणका धन धर्मकार्यमें खूब व्यय कराया । अनेक धर्मस्थान बनवाये और खूब दान-पुण्य किया । सालिवाहनने भृगुकच्छपर फिर आक्रमण किया और अबकी उसकी मनचेती हुई। निद्रव्य नहवाण उसके सामने टिक न सका । इस संग्राममें उसका सर्वथा नाश होगया । आव श्यक सूत्र भाष्यकी इस कथाको मम० श्री काशीप्रसादजी जायसगल स्थूल रूपमें वास्तविक और तथ्यपूर्ण मानते हैं । वह नहवाण ( नरवाहन ) को क्षत्रप नहवान और सालिवाहनको आन्ध्रवशीय गौतमी पुत्र शातकर्णी सिद्ध करते हैं, जिसकी राजधानी पैठण थी। नहपानके सेनापति ऋषभदत्त द्वारा लिखाये गये नासिकवाले शिलालेखमें भृगुकच्छ, दशपुर, गोवर्धन और सुरपारक नामक नगरोंमें धर्मस्थानोंको बनवानेका भी उल्लेख है । गर्गसंहिता' से शकोंका अति लालची होना प्रगट है। सहपान ही भतबली जायसवालजी गौतमी पुत्र शातकणीको की प्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य सिद्ध करते हैं; आचाय हुआ था। जिन्होंने ई० पूर्व ५८ में शकोंकों परास्त १-'सो विणट्ठो, नटुं नयरंपि गहियं' (संस्कृत= निर्दव्यत्वाननाश सः') इस पदसे नरवाहनकी मृत्यु हुई कहना ठीक नहीं जंचता.। बाल्क नरवाहनके राजत्वका नाश हुमा मानना ठीक है। यह कथा 'जविओसो' भा० १६ पृ० २८३-२९४ से उद्धृत की गई है। 2-Ep. Ind. VIII p. 78. ३-जविमोसो० १६ पृ० २८४. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्डो-चैक्ट्रियन ओर इन्डो पार्थियन राज्य। [२३ किया था । उक्त संग्राम इस घटनाका ही द्योतक है । उधर दिगम्बर जैन शास्त्र · श्रुतावतार ' में भी एक नरवाहन राजाका उल्लेश्वः हैं । इसके विषयमें वहां कथन है कि वह वांमि देशकी वसुन्धग नगरीका राजा था । उसकी मुरूपा नामक गनीके कोई पुत्र नहीं था, जिसके कारण वह दुःखी रहती थी । राजश्रेष्टी नुबुद्धिके कहनेसे नरवाहनने पद्मावती देवीकी पूजाकी और पुष्योदयमे उसके एक पुत्र हुआ । उसका नाम पद्म रक्खा गया । नरवाहनने इस हर्ष घटनाके उपलक्षमें सहस्रकृट एवं अन्य अनेक जिन मंदिर बनवाये । धर्म प्रभावनाके लिये ग्थयात्रायें निकलवाई । कालांतरमें नरवाहनके राजनगरमें एक जैन संघ आया। जिसमें उसका मित्र मगधका राजा मुनि था । उसके उपदेशसे नरवाहन मुनि होगये । सुबुद्धि श्रेष्टी भी मुनि होगया। ये ही दोनों मुनि गिरिनगर (जूनागढ़) धरसेनाचार्यके निकट आगम शास्त्रकी व्याख्या सुननेके लिये गये थे । उमे सुनलेनेके पश्चात् उन्होंने अंकलेश्वरपुर (भडोच-भृगुकच्छ) में घटखण्डागम शास्त्रकी रचना की थी। ये क्रमशः भूतबलि और पुप्पदन्त नामसे प्रसिद्ध हुए थे" । यह कथा उक्त श्वतांबर कथासे नितांत १-जविओसो०१६ पृ० २५१-२८२. २-सिद्धांतसारादिसंग्रह (मा० ग्रं०) पृ० ३१६-३१८. ३-'गिरिनगरसमीपे गुहावासी धरसेनमुनीश्वरोऽग्रायणीपूर्वस्य यः पंचमवस्तुकस्तस्य तुर्य्यप्राभृतस्य शास्त्रस्य व्याख्यानप्रारंभ करिष्यति ।............भूतबलिर्नामा नरवाहनो मुनिर्मकिश्यति............सद्बुद्धिः पुष्पदंतनामा मुनिर्भविष्यति ।. ............ तन्मुनियं अंकलेसुरपुरे गत्वा मत्वा षडंगरचनां कृत्वा शास्त्रेषु लिखाप्य....इत्यादि।" -विबुधश्रीधरकृत: श्रुतावतार | Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | विलक्षण है । किन्तु देश, नगर व राजाके नाम इस कथाका लीला क्षेत्र भृगुच्छके आसपास ही प्रगट करते हैं । देशका ' वांमि ' नाम अनोखा है | यह शब्द संभवत: नागों के वास बामीका द्योतक है; जिससे भाव उस प्रदेशके होसकते हैं कि जिसमें नागलोक रहने हों । सिंध- कच्छवर्ती देशको यूनानियोंने नागों के कारण पाताल नाम दिया भी था । नाग लोगों के मूल स्थान रसातल (मध्य एशिया) के दो भाग में शक लोग रहते थे। इसी कारण भृगुकच्छके आसपासके देशको नागों शकादिके वासस्थान रूपमें दिगंबराचार्य 'वांगी' नामसे उल्लिखित करते हैं। निस्सन्देह वह भृगुकच्छवर्ती देश होना चाहिये: क्योंकि गिरिनगर - अंकलेश्वर आदि नगर उसीके पास हैं । 'गर्गसंहिता' में नहपानकी राजधानीका उल्लेख 'पुर' रूपमें हुआ है; जिससे स्पष्ट है कि वह एक प्रसिद्ध और समृद्धिशाली नगर था । वस्तुतः प्राचीन कालमें भृगुकच्छकी ऐसी ही स्थिति रहती थी । इस अवस्था में उसका उल्लेख वसुंधरा रूपमें करना अनुचित नहीं है। उक्त श्वेतांबर कथा नहवाण (नहपान ) का सम्पूर्ण चरित्र प्रगट करनेके लिये नहीं लिखी गई है, बल्कि माया शल्यके द्रव्यप्रणिधि भेदके उदाहरण रूपमें उसका उल्लेख किया गया है। वैसे ही 'श्रुतावतार' में भी दिगम्बर जैन आगम ग्रन्थके लिखे जानेकी घट 3 • " १ - इंहिका० भा० १ पृ० ४५९ २ - जविमोसो०, २४।४०८. 'स्वकं पुरं' । ३ -भगुकच्छ बौद्धकाल से एक प्रसिद्ध चन्दरगाह और लाट देशकी राजधानी रहा है | बनास्ना०, पृ० २० ४ - 'मायायाम् ' सा च द्विवा - द्रव्यप्रणिधिः भावप्रणिधिश्च । तत्र द्रव्यप्रणिवी उदाहरणम्.... अभिधान राजेन्द्रकोष, जविओोसो, भा० १६ पृ० २९१. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्डा वैक्ट्रियन और इन्डा पार्थियन राज्य। [२५ नाको व्यक्त करनेके लिये नावाण (नरवाहण) का आंशिक वर्णन है। उससे भी नहवाण (नरवाहण) द्वारा धर्मस्थानके बनने व दान पुण्य करनेका समर्थन होता है। संभवत: नरवाहण राज्यच्युत होनेपर दिगम्बर मुनि होगया था । गजभ्रष्ट होनेपर वह करता भी क्या ? जब कि उसको वैराग्यका साधन मिलरहा था । इतिहाससे यह भी प्रगट हैं कि लियक (Liska) नामक एक व्यक्ति संभवतः नहपानका पुत्र था. जिसने उनर भारतमें जाकर तक्षिलामें ई० १० ४५ में अपना राज्य जमाया था । श्रुतावतार कथा नरवाहन (न.बाण) की ढलती उमरमें एक पुत्रका होना प्रगट करती है; क्योंकि अधिक वयतक जब नरवाहणके पुत्र नहीं हुआ तब ही उसने उक्त प्रकार पद्मावतीदेवीकी पूजा की प्रतीत होती है। मालूम होता है कि नहवाण (नरवाहन) राजाके जीवनकी वास्तविक घटनाओं अर्थात् उसको शक जातिका प्रसिद्ध नरवाहन (नह्वाण) कहना, धर्मकार्यमें द्रव्य व्यय करना. अति धनवान होना, उसकी अधिक उमरमें एक पुत्र होना आदि-को लेकर 'श्रुतावतार के लेखक विबुध श्रीधरने उस कथाको अपने ढंगपर लिखा है और यह बतला दिया है कि नरवाहन : नहवाण ) ही भूतबलि मुनि हुये थे। इन सब बातोंको देखते हुये, 'श्रुतावतार' के नरवाहन और आवश्यक सूत्रमाप्य' के नहवाण, जिसका संस्कृत रूप वहां भी नरवाहन ही है, इतिहास-प्रसिद्ध छत्रप नहपान मानना अनुचित नहीं है, अतः कहना होगा कि दि० जैन श्रुतका उद्धार शक नहपान द्वारा हुआ था ! १-जबिओसो० भा० १६ पृष्ट २५०. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] संक्षिप्त जैन इतिहास । __ छत्रपवंशमें नहपानके अतिरिक्त उपरांत छत्रप रुद्रदामनके पुत्र रुद्रसिंह जैनी होना संभव है। उसने छत्रप रुद्रसिंह जैनी। सन् १८०से १९६ ई०तक राज्य किया था। उसका एक लेख चैत्र शुक्ला पंचमोका लिखा हुआ भग्न दशामें जूनागढ़से मिला है। जिसमें “केवलज्ञानसंप्राप्ताणां" पद मिलता है । इस पदके कारण, क्योंकि केवलज्ञान' जैनोंका एक पारिभाषिक शब्द है, बुल्हर आदि विद्वान् रुद्रसिंहको जैन धर्मानुयायी प्रगट करते हैं। जूनागढ़का 'बावा प्याराका मठ' और अपरकोटकी गुफाओंको भी विद्वान् जैनोंकी बताते हैं। श्रुतावतारसे गिरिनगर (जूनागढ़) के निकट स्थित गुफाओंमें दि० जैन मुनियोंका होना सिद्ध है । इन इमारतोंको छत्रप रुद्रसिंहने ही संभवतः बनवाया था। शक संवत्के विषयमें कोई निश्चित मत नहीं है । फर्गुसनने उसे कनिष्कका चलाया हुआ अनुमान किया सक-सम्बत। है। किन्तु आज उस मतके विरुद्ध अनेक प्रमाण मिलते हैं। पण्डित भगवनलाल और जैक्सन सा० इस संवतको नहपान द्वारा गुजरात विजयकी स्मृतिमें १-आर्केलॉजिकल सर्वे रिपोर्ट ऑफ वेस्टर्न इन्डिया, मा० २ पृ० १४०. २-इंऐ०, भा० २० पृ० ३६३....३-'श्रुतावतार' में धरसेनाचार्यको गिरिनगरके निकटकी गुफाका निवासी लिखा है। (गिरिनगरसमीपे गुहावासी धरसेनमुनीश्वरो) और गिरिनगर जनागदका प्राचीन नाम है। (देखो कजाइ० पृष्ठ ६९८). ४-इंऐ०, मा० २० पृ. ३६४.५-भाप्रारा० भा० १ पृ० ३. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्डो वैक्ट्रियन और इन्डो पार्थियन राज्य । [२७. चला मानते हैं। डा० फ्लीट भी इस मतसे सहमत थे ।' कनिघम और डुब्रुयल चष्टनको शक संवतका चलानेवाला प्रगट करते हैं। सर जॉन मारशल अजस प्रथम (Ayes I, द्वारा उसका चलना अनुमान करते हैं। किन्तु विद्वानांने इन मनोंको निम्सार प्रगट कर दिया है । यद्यपि वे सब उसे सन् ७८ ई-मे चला मानने में एक मत हैं।" उधर भारतीय पण्डितोंका पुरातन मन्तव्य शक संवत्के विषयमें यह रहा है कि प्रतिष्ठानपुरके राजा शालिवाहन ( सातवाहन) ने शकोंको परास्त करके इस संवतको चलाया था। जिनप्रभसूरिने । कल्पप्रदीप ' में लिखा है कि गजा शालिवाहनने शक संवत चलाया था। सातवाहन या शातिकणी उपाधिधारी राजा दक्षिण पैंठनके आन्ध्रवंशमें हुये हैं. जिसका राज्यकाल ई० पूर्व पहली शताब्दिसे ईस्वी तीसरी शताब्दितक रहा था। कतिपय विद्वान् इस वंशके हाल नामक राजाको शकसंवतका प्रवर्तक शालिवाहन प्रगट करते हैं; क्योंकि हाल और शाल शब्द समवाची हैं। किन्तु मम० काशीप्रसादजी जायसवाल कुन्तल शातकर्णीको शक शालिवाहन संवतका प्रवर्तक सिद्ध करते हैं। वह बतलाते हैं कि शक नामके दो संवत थे। प्राचीन शक संवतका सम्बन्ध शकोंसे था। वह लगभग १-बंबई गैजेटियर भा० १ खंड १ पृ० २८. २-जराएसो०, १९१३ पृ० ९२२. ३-काइन्स ऑफ इंडिया पृ० १०४ व इंए० १९२३ पृ० ८२. ४-जमीसो० भा० १८ पृ० ७०. ५-जमीसो० भा० १७ पृ० ३३४. ६-भाप्रारा० भा० १ पृ०. ३ व जमीसो०, भा० १७ पृ० ३३४-३३५. ७-जमीसो०, भा० १७ पृ० ३३४३३७. ८-जबि मोसो०, भा० १६ पृ० २९५-३००. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | १२० ई० पूर्व से आरम्भ हुआ था। राजा कुशान और उविमकब्धिसके लेखोंमें यही संवत मिलता है । दूसरा ऐतिहासिक शक संवत सन् ७८ से कुन्तल शातकर्णी द्वारा शकोंपर एक बार फिर विजय प्राप्त करनेके उपलक्षमें चला था । किन्तु जायसवालजी जैन शास्त्रोंक इस उल्लेख से कि वीर निर्वाणसे ६०५ वर्ष ५ महीने पश्चात शक राजा हुआ, सन् ७८ से शकद्वारा भी चला एक संवत मानते हैं । किन्तु इस जैन उल्लेस्वमें एक शक राजाका होना लिखा है, न कि उसमें शक संवतके चलनेका उल्लेख है। इस दशा में जैन गाथाओंके आधारसे एक 3 १ - जवि ओसो० १६ ५० २३० - २४२. २- जविमोसो० भा० पृ० १६५० ३००. ३- 'णिव्वाणे वीरजिणे छत्रवाससदेसु पंचवरिसेसु । पण मासेसु गदेसु संजादो सगणिओ बहवा ॥ ८९ ॥ - त्रिलोकप्रज्ञप्ति । 'त्रिलोकसार' में इस गाथाको निम्नप्रकार लिखा गया है:'पण लस्सयवस्सं पणमास जुदं गमिय वीर णिव्वुइदो | सगगजो तो कक्की चदुनवतियमहिय सगमासं ॥ ८५० ॥ श्री जिनसेनाचार्यने 'इग्विंशपुराण' में इसीको संस्कृत में इसप्रकार लिखा है : - 'वर्षाणां षट्शर्ती त्यक्त्वा पंचाग्रां मासपंचकं । मुक्ति गते महावीरे शकराजस्ततोऽभवत् ॥ ' इन गाथाओं में से किसी में भी शक संवत्के चलने या उसके प्रवर्तकका उल्लेख नही है । एकमात्र यही कहा गया है कि वीर निर्वा- णसे ३०५ वर्ष ५ महीने पश्चात् शक राजा हुआ । अतएव इनसे शद्वारा एक दूसरे संवत् के चलनेका पता नहीं चलता । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्डो वैक्ट्रियन और इन्डो पार्थियन राज्य । [ २९ नये शक संवतका अस्तित्व बतलाना कुछ जीको नहीं लगता। दूसरी शक विजयके उपलक्षमें उसका चलना उपयुक्त है। दोनों ही विजय शातकर्णी वंशके राजाओं द्वारा भारतरक्षाकी महान विजय श्री: इसी कारण हिन्दू जनताने दोनों ही शकोंका उपयोग एकसाथ किया । हिंदू पण्डितोंमें विक्रम संवत् के साथ शक सालिवाहन संवत लिखनेका एक रिवाज है और यह इस बातका जैन गाथाओंका प्रमाण है कि दोनों संवतों का सम्बन्ध भारशकराजा नहपान । तीय राजाओंसे था न एक विदेशी राजा भी । जैन गाथाओंका शकराजा इस अपेक्षा शक शालिवाहन संवत् के प्रवर्तसे कोई भिन्न पुरुष होना चाहिये । वह भिन्न पुरुष नहपान था । यह बात हम प्रथम खण्ड ( पृ० १३२ ) में लिख चुके हैं । त्रिलोक प्रज्ञप्ति के उल्लेखानुसार उसका समय वीरनिर्वाणसे ४६१ अथवा ६०५ वर्ष बाद होना प्रमाणित है । यदि वीर नि० से ४६१ वर्ष बाद उसको मानाजाय तो उसके होनेका समय ई० पूर्व ८४ ( ५४५-४६१ ) आता है ! प्राचीन शक संवत् में नहपानका समय गिननेसे वह ई० पूर्व ८२ के लगभग बैठता है । इस दशामें 'त्रिलोकप्रज्ञप्ति का उक्त मत · अवस्थामें नहपानका तथ्यपूर्ण प्रतिभाषित होता है । किन्तु इस राज्यकाल जो ४२ वर्ष बताया जाता है, उसमें भूमकका राज्य काल भी सम्मिलित समझना चाहिये । इस मतकी सार्थकताको देखते हुए शक राजाको वीर नि० से ६०५ वर्ष बाद मानना ठीक नहीं दिखता। मालूम होता है कि सन् ७८ को शकोंके सम्बन्धसे १ - जविओसो० भा० १६ पृष्ठ २५०. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] संक्षिप्त जैन इतिहास । प्रसिद्ध हुआ जानकर जैनाचार्योने उक्त मतका भी निरूपण कर दिया। यह भ्रम उपरोक्त दो शक--विजयोंके कारण हुआ प्रतीत होता है। अतः कहना होगा कि जैन गाथाओंका शक राना नहपान है। जिसके द्वारा दिगंबर आगम लिपिबद्ध हुआ था ।. .. ___ वासुदेवके समयमें कुशन-साम्राज्यकी दशा बिगड़ गई थी। अफगानिस्तान और मध्यएशियाके देश साम्राकुशन साम्राज्यका ज्यसे अलग होगए थे। कहते हैं, इसी कालमें पतन । भारतमें बड़ी भारी महामारी फैली थी।' जैन शास्त्रोंमें भी इस महामारीका उल्लेख मिलता है। मथुरामें इसका बहुप्रकोप हुआ बतलाया जाता है। यहां सात चारण ऋद्धिधारी ऋषियोंने आकर इस महा-रोगसे नगरको मुक्त किया था। जैन मंदिरोंमें आजतक इन महात्माओंकी पूजा होती है। इस समय मथुरामें जैन धर्मका अभ्युदय भी खूब हुआ था। कोई अनुमान करता है कि राजा वासुदेव भी जैन धर्मानुयायी होगया था। अन्ततः इन विदेशी राजाओंको गुप्तवंशके क्षत्रियोंने पराजित किया था और उनकी जगह अपना राज्य स्थापित किया था। इस कालमें विद्या और ललितकलाकी खूब उन्नति हुई थी। कात्यायन और पातंजलिके भाष्य इसी कालमें रचे गये। व्याकरणका विकास हुआ, चरक द्वारा रसायन और वैद्यक शास्त्रकी अच्छी उन्नति हुई। जैनोंके वाङ्गमयका उद्धार और वह लिपिबद्ध भी इसी कालमें हुआ। यूनानीयों और भारतीयोंका सम्पर्क भी खूब बढ़ा। भारतके १-भाइ० पृ० ८३. २-सप्तऋषि पूजा देखो. ३-जैसिभा० भा० १ कि० ४ पृ० ११६-१२४. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१ सम्राट् खारवेल। ज्योतिषियोंने उनसे नक्षत्रोंकी स्थिति और चालके विषयमें बहुत कुछ आदान प्रदान किया ! भारहुंत, सांची, अमरावती और मथुराके स्तूप तथा खंडगिरि-उदयगिरिकी गुफायें आदि इस समयकी उत्कृष्ट कलाके नमूने हैं। इस समय देशभरमें मर्वत्र बड़ी सुन्दर और विशाल इमारतें बनी थीं। सम्राट् खारवल। (सन् २०७-१६० ई० पूर्व) कर्मभूमिकी आदिमें श्री ऋषभदेवजीने भारतको विविध प्रांतोंमें विभक्त किया था। तब उन्होंने वर्तमानके कलिङ्गका ओड़ीसा प्रांतका नाम ‘कलिङ्ग' रकवा था ! ऐल चेदिवंश। कलिङ्गके प्रथम सम्राट् ऋषभदेवजीके पुत्रों ___ मेंसे एक थे । भगवान ऋषभदेवने कैवल्य प्राप्त करके जब देश भरमें सर्वत्र विहार किया था, तब उनका समवशरण कलिङ्ग देशमें भी पहुं वा था। जिसके कारण जैनधर्मका वहांपर काफी प्रचार हुआ था । तत्कालीन कलिङ्गाधिप जैन मुनि होगये थे । और कलिङ्गका शासनभार उनके पुत्रने ग्रहण किया था । परिणामतः कलिङ्गमें कौशलका यह इक्ष्वाक वंश एक दीर्घ कालतक राज्य करता रहा था । — हरिवंश पुराण' के कथनसे प्रगट है कि उपरांत बीसवें तीर्थकर श्री मुनिसुव्रतनाथजीके तीर्थमें कौशलदेशमें हरिवंशी राजा दक्ष राज्य करता था। उसका पुत्र १-हरि० ३१३-७ व ११३१४-७१. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] संक्षिप्त जैन इतिहास । गेलेय और एक कन्या मनोहरी नामकी थी। राजा दक्षने अपनी कन्याको पत्नी बनानेका दुष्कर्म करडाला । ऐलेय और उसकी माता इला राजा दक्षसे रुष्ट होगये और कौशल देशको छोड़कर अन्यत्र चले गये । आखिर ऐलेयने ताम्रलिप्ति नगरको स्थापित किया और वह एक राजा बनगया । राजा ऐलेयने भारतको विजय किया और अन्तमें वह मुनि होगया । इन्हीं ऐलेयकी सन्ततिमें एक राजा अभिचन्द्र हुआ। जिसने विन्ध्याचलपर्वतके पृष्ट भागमें चेदिराष्ट्रकी स्थापना की थी।म० अरिष्टनेमिके समय अर्थात् महाभारत कालमें हरीवंशी राजकुमार जरत्कुमार कलिङ्गराजके जमाई थे और द्वारिकाके साथ यदुवंशीयोंके नष्ट होनेपर जरत्कुमार कलिङ्गराजमें जाकर राज्य करने लगे थे । फलतः कलिङ्ग हरिवंशी क्षत्रियोंके शासनमें आगया ।। भ० महावीरके समयमें भी वहां हरिवंशी जितशत्रु नामके राजा राज्य करते थे। उनके पश्चात् कलिङ्गके राजवंशका पता जैन शास्रोंमें नहीं मिलता। किन्तु जैन पुराणके उक्त वर्णनका समर्थन कलिङ्गराज ऐल खारवेलके हाथीगुफावाले प्रसिद्ध लेखसे होता है: जिसमें उन्हें 'ऐल चेदिवंश' का लिखा है और उनके पूर्वपुरुषका नाम 'महामेघवाहन ' प्रगट किया है। विद्वानोंने इस चैदिवंशको दक्षिणकौशलसे कलिङ्गमें आया बतलाया है। वस्तुतः सन् २१३ १-हरि० १।१-३-९ व जविमोसो० भा० १३ पृ० २७७-२७९ २-हरि० (कलकत्ता) पृ० ६२३. ३-‘ऐलचेतिराजवसवधनेन'-जविओसो० भा० १३ पृष्ठ २२३. 4--'This branch of the Chedis seems to have migrated ___into Orissa from Mahakosala.' -JBORS III 48:1. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् खारवेल । [ ३३ ई० पू० में कौशलपर 'मेघ' कुलके राजाओंका अधिकार था, जो बलवान और कुशाग्र-बुद्धि थे। इन्हीं राजाओं में मेघवाहन राजा थे । संभवतः दक्षिणकौशलसे आकर उन्होंने ही 'ऐल चेदिवंश' के राज्यकी जड़ कलिङ्गमें जमाई थी। 'ऐल' वह कौशलके प्रसिद्ध राजा ऐसे सम्बन्धित होनेके कारण विद्वानों द्वारा अनुमान किया गया है। उधर उपरोक्त प्रकार ' हरिवंशपुराण' में स्पष्टतः चेदिराष्टकी स्थापना राजा ऐलेकी सन्तति द्वारा हुई कही गई है। चेदिराष्ट्र के संस्थापक और शासक होने के कारण ही उपरान्त ऐले की हरिवंशी सन्तति चेदिवंश के नामसे प्रसिद्ध होगई और उसने अपने महान साहसी और यशस्वी पूर्वज ऐलेयके नामको भुलाया नहीं । अतएव यह स्पष्ट है कि कलिङ्गका वह राजवंश जिसमें सम्राट् खारवेल हुये, कौशलके हरिवंशी राजा ऐलेय और दक्षिणकौशल के चेदिवंश से सम्बन्धित था। 'हरिवंशपुराण' से उक्त प्रकार भ० महावीर अथवा उनके बाद तक हरिवंशका शासन कलिङ्गमें प्रमाणित है । हिन्दू शास्त्रमें भी जन्मेजय रामके उपरान्त सब ही क्षत्रियोंको कौशल ऐलका वंशज प्रगट करते हैं और कलिङ्गवंशको 'महाभारतकाल' से चला आता बताते हैं । उसका मगध सम्राट् नन्दवर्द्धन द्वारा अन्त हुआ था । कलिङ्गराज हतप्रभ होकर दक्षिणकौशलमें जारहे और उपरान्त मौर्य साम्राज्य के पतन होनेपर उनके वंशजोंने अपना अधिकार फिरसे कलिङ्गमें जमा लिया ! · १ - जविओोसो०, मा०३ पृ० ४८३ - ४८४. २ - जविओसं ०, भा० ३ पृ० ४३४. * जविमोसो, भा० १६ पृ० १९०.३ - जवि - असो० भा० ३ पृ० ४३५. , Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । . अतएव महामहोपाध्याय श्री काशीप्रसादजी जायसवालके शब्दोंमें यह स्पष्ट है कि कलिंगके सम्राट युवराज खारवेलका 'खारवेलके पूर्व पुरुषका नाम महामेघवाहन राज्याभिषेक ! और वंशका नाम ऐल चेदिवंश था।' मालूम होता है कि खारवेलके पिताका स्वर्गवास उस समय होगया था, जब वह लगभग सोलह वर्षके थे। प्राचीनकालमें सोलह वर्षकी अवस्थामें पुरुष बालिग हुआ समझा जाता था । खारवेल जब सोलह वर्षकी अवस्थामें वालिग होगये, तो वह युवराज पदपर आसीन होकर राज्यशासन करने लगे थे । उस समयतक उनका राज्याभिषेक नहीं हुआ था। प्राचीन कालमें राज्याभिषेक २५ वर्षकी अवस्थामें होता था। अतः जब पच्चीस वर्ष के हुये तो उनका महाराज्य अभिषेक हुआ था और वह एक राजाकी तरह राज्यशासन करने लगे थे। जिस समय खारवेल राज्यसिंहासनपर आरूढ हुये उस समय उनका राज्य कलिङ्गमरमें विस्तृत था, जो वर्तमानका ओड़ीसा प्रांत जितना था। तब कलिङ्गकी प्रजाकी गणना भी खारवेलने कराई थी और वह ३५ लाख थी। जन समुदायकी गणना करानेका रिवाज मौर्योके समय सुतरां उनसे पहलेसे प्रचलित प्रगट होता है । अशोकके समयसे ही कलिङ्गकी राजधानी तोसलि थी। खारवेलने भी अपनी राजधानी वहीं की थी। उन्होंने कोई नवीन राजधानी स्थापित की हो , यह मालूम नहीं देता । उनकी राजधानीका उल्लेख ‘कलिङ्गनगरी' के नामसे हुआ है। १-नागरीप्रचारिणी पत्रिका. भा० १० पृ० १०२. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् खारवेल। [३५ राज्यसिंहासनपर आरूढ होनेके पहले वर्षमें खारवेलने अपनी राजधानीकी मरम्मत कराई थी; जिसके परखारवेल राज्यका कोटा, दरवाजे और इमारतें तूफानसे बरबाद प्रथम वर्ष । होगये थे। इसके साथ ही उन्होंने खिबिर ऋषिके बड़े तालाबका पक्का बांध बन्धवाया था। जिससे कि प्रजाको पानीकी तकलीफ न रहे और सिंचाईका काम भी बखूबी चल निकले । खारवेलने इसी समय कई राजोद्यान भी लगवाये थे और अपनी पैंतीस लाख प्रजाकी मनस्तुष्टि की थी व विविध उपायों द्वारा उसको प्रसन्न किया था। सारांशत: राज्यसिंहासनपर बैठते ही उन्होंने अपने कार्योंसे यह विश्वास दिला दिया कि वह एक प्रजा-हितैषी राजा है । इस प्रकार अपने राज्यके प्रथम वर्षमें राजधानीका पुनरुद्धार ___और प्रजाको प्रसन्न करके खारवेलको अपना खारवेलकी प्रथम साम्राज्य दूर देशोंतक फैलानेकी सुध आई। दिग्विजय। यह भी किसी लालचसे नहीं, बल्कि धार्मिक भावसे । वह अपने लेखमें स्वयं कहते हैं कि उनकी देशविजयके साथ२ धार्मिक कार्य होते थे। उनका सबसे पहला आक्रमण पश्चिमीय भारतपर हुआ। उस समय वहांपर आन्ध्र अथवा सातवाहनवंशीय शातकर्णि प्रथमका शासनाधिकार था। उसका प्रभाव ओड़ीसाकी पश्चिमीय सीमातक व्याप्त था और दक्षिणमें भी उसका अधिकार था ! खारवेलने उसके इस प्रतापकी जरा भी परवा नहीं की। संभवतः सन् १८२ अथवा १७१ ई० पू० के लगभग उनने काश्यप क्षत्रियोंकी सहायताके लिये शातकर्णिपर आक्रमण कर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | दिया । इस युद्धका परिणाम यह हुआ कि मुशिक क्षत्रियोंकी राजधानीपर खारवेलने अपना अधिकार जमा लिया । यह मुशिक क्षत्रिय कलिङ्गके निकट प्रदेशमें बसनेवाले दक्षिणी लोग माने गये हैं । काश्यप क्षत्री दक्षिण कौशलके निवासी थे और संभवतः खारवेलके सम्बन्धी थे । शातकर्णि और मुषिकोंसे निबटकर खारवेल अपनी विजयी. चतुरंगिणी सेना सहित तोसलिको लौट आये राजधानी में उत्सव | और वहां आकर उन्होंने अपनी प्रजाके चित्त रञ्जनार्थ अनेक प्रकार के उत्सव किये थे । नाचरङ्ग, गाद्यवाद्य और प्रीतिभोज तथा समाज भी हुये थे । इन महोत्सव में प्रजाके लिये युद्धका संताप भूल जाना स्वाभाविक था । अपने राज्य के चौथे वर्ष में खारवेलने ' विद्याधर आवास' का पुनरुद्वार किया प्रतीत होता है । - इसी वर्ष खारवेलका दूसरा आक्रमण. फिर पश्चिमीय भारत पर हुआ और अबकी उन्होंने राष्ट्रिक एवं भोजक क्षत्रियोंसे बढ़कर खेत लिया । ये दोनों राष्ट्र शातकर्णिके पड़ोसी अनुमान किये गये गये हैं । वे महाराष्ट्र और बरार में रहते बताये हैं। भोजकोका संभवतः प्रजातंत्र राज्य था । खारवेलने इन क्षत्रियोंके राजाओंके छत्र और भिरङ्गार छीनकर नष्ट कर दिये थे और उनको बिलकुल पराजित कर दिया था । उनको मुकुट विहीन बना दिया था । और वह अपनी विजय वैजयन्ती फहराते हुए सानन्द कलिङ्गको लौट आये थे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat खारवेलका राष्ट्रिक और भोजकपर आक्रमण । www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् खारवेल। [३७ कलिङ्गमें वापस आकर खारवेलने फिर जन साधारणके हितकी सुव ली। उन्होंने तनसुतिय स्थानसे एक तनसुतिय नहर व नहर निकलवाकर अपनी राजधानीको सरजनपद संस्था। सज वना लिया । प्रजाको भी इस नह रसे सिंचाईका बड़ा सुभीता हुआ। यह नहर उस समयसे तीनसौ वर्ष पहले नन्दराजाके समयमें बनवाई गई थी। उसीका पुनरुद्धार करके खारवेल उसे अपनी राजधानी तक बढ़ा लाये थे। अपने राज्यके छठे वर्षमें उन्होंने दुःखी प्राणियोंकी अनेक प्रकारसे सहायता की थी और पौर एवं जानपद संस्थाओंको अगणित अधिकार देकर प्रसन्न किया था । यह निश्चित रूपसे नहीं कहा जासक्ता कि खारवेलका विवाह कब हुआ था, किन्तु यह स्पष्ट है कि उनके खारवेलकी रानियां दो विवाह हुये थे। उनकी दोनों रानियोंके व पुत्र लाभ। नाम शिलालेखमें मिलते हैं। एक बजिरघर वाली कही जाती थी और दूसरी सिंहपथकी सिंधुड़ा नामक थीं। बजिरघर अब मध्यप्रदेशका वैरागढ़ है। खारवेलके समयमें वहांके क्षत्री प्रसिद्ध थे । उन्हींकी राजकुमारीके साथ खरवेलका विवाह हुआ था। एक उड़िया काव्यमें इस घटनाका उल्लेख अनोखी कल्पनामें किया गया है, जिसमें राजकुमारीकी वीरताको खूब दर्शाया गया है। इन्हीं बजिरघरबाली रानीसे खारवेलको अपने राज्यके सातवें वर्षमें संभवतः एक पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई थी। उडिया काव्यसे प्रगट है कि खारवेलने दक्षिण भारतको भी विजय किया था। खारवेलके शिलालेखमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] संक्षिप्त जैन इतिहास । खारवेलका मगधपर भी उल्लेख है कि उन्होंने पांड्य देशके राजा__ आक्रमण। ओंसे भेट प्राप्त की थी। अतएव यह कहना होगा कि खारवेलने दक्षिणापथ ( दक्षिण भारत) पर अपना सिक्का जमा लिया था और उन्हें एक मात्र उत्तरापथ (उत्तर भारत ) को विजय करना शेष रहा था। उस समय भारतवर्षके साम्राज्य-सिंहासनपर चढ़नेकी कामना चार आदमियोंको हुई थी । अर्थात् (१) मगधके शुंगवंशीय ब्राह्मण पुष्पमित्र, (२) आंध्रवंशी शातकर्णि प्रथम, (३) अफगानिस्तान और वाल्हीकका यवन राजा दमेत्रिय (Demeterioo) और (४) स्वयं खारवेल । इनमेंसे शातकर्णिको तो खारवेल परास्त कर चुके थे। बस, उनके लिये पुष्पमित्र और दमेत्रियसे बाजी लेना बाकी था। पुष्पमित्रने 'अश्वमेध' यज्ञ करके चक्रवर्तीपद पाया था ! खारवेलके समान पराक्रमी और धर्मवत्सल राजाके लिये यह सहन करना सुगम नहीं था कि उनके जीतेजी एक अन्य राजा ' चक्रवर्ती ' कहलाये और अश्वमेधादिमें पशु हिंसा करता रहे; जब कि मौर्यकालसे अहिंसा धर्मकी भारतमें प्रधानता रही हो। ___ अतएव खारवेलने मगधपर धावा बोल दिया। इसी समय दमेत्रिय पटनाको घेरे हुये था। और वह भारत-विजय करनेकी अपनी कामनामें प्रायः सिद्धार्थ होचुका था। किन्तु खारवेल ज्योंही झार-खंड-गयासे होते हुये मगध पहुंचे और राजगृह तथा गोरथगिरिके दुर्गोमेंसे अंतिमको सर कर लिया कि दमेत्रिय खारवेलकी चढ़ाईका हाल सुनकर तथा अपने खास राज्यमें विद्रोहका उपद्रव उठते देख पटना, साकेत, पंचाल आदि छोड़ता हुआ मथुरा भागा और मध्य देश Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट खारवेल। [३९ मात्र छोड़ वहांसे निकल गया । खारवेल गोरथगिरिको विजय करके वापस कलिङ्ग लौट आये। यह घटना उनके राज्यके सातवें वर्षमें हुई थी! कलिङ्ग लौटकर खारवेलने अपने राज्यके नवें वर्षमें खूब दान-पुण्य किया। इस दान-पुण्यका पूरा खारवेलका दान व वर्णन तो नहीं मिलता, किन्तु यह ज्ञात है अहंत-पूजा। कि उन्होंने सोनेका कल्पवृक्ष और हाथी, घोड़े, रथ आदि अनेक वस्तुऐं दान की थीं। इस दान-कर्ममें उन्होंने ब्रामणोंको भी संतुष्ट किया था । अर्हत् भगवानका अभिषेक और पूजा विशेष समारोहके साथ किये थे। अड़तालीस लाख चांदी के सिकोंको खर्च करके उन्होंने प्राची नदीके दोनों तटोंपर एक 'महाविजय' नामक विशाल प्रासाद बनवाया था। उक्त प्रकार धर्मध्यान और जन-रजनमें एक वर्ष व्यतीत करके खारवेलने अपने राज्यके दशवें वर्षमें खारवेलका भारतपर 'भारतवर्ष' (Upper India ) पर धावा आक्रमण । बोला था। इस आक्रमणमें खारवेलने किस राजाको पराजित किया, यह तो विदित नहीं; किन्तु यह स्पष्ट है कि वह अपने उद्देश्यमें सफल हुये थे। उपरान्त कलिङ्ग लौटकर उन्होंने ग्यारहवें वर्षमें अपनेसे पहले हुये एक दुष्ट राजा द्वारा निर्मित राजसिंहासनको बड़े२ गधोंसे जुते हुये हलोंको चलवाकर नष्ट करा दिया और तबसे ११३ वर्ष पहलेकी बनी उसकी ताम्रमूर्तिके टूक-टूक करा दिये ! मालूम होता है कि उक्त दुष्ट राजाने जैन धर्मकी अप्रभावना की थी। इसीलिये उनके चिन्होंको रहने देना खारवेलने उचित नहीं समझा था । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०] ___ संक्षिप्त जैन इतिहास। गोत्थगिरिको जीतकर जब खारवेल मगधसे लौटकर आये, तो वहांके वृद्ध शासक पुष्यमित्रने मगधकी मगधपर आक्रमण व रक्षाका विशेष प्रबंध किया । ' अपने लड़कों महान विजय । द्वारा उन्होंने वैराज्य स्थापित किया अर्थात् स्वयं सम्राट न हुए, उपराजाओं या गवर्नरों द्वारा मुल्क और धर्मके नामसे स्वयं अपनेको सिर्फ सेनापति कहते हुये राज्य करने लगे। माधका प्रांतिक शासक पुष्यमित्रके आठ बेटोंमेंसे एक अर्थात् बृहस्पतिभित्र नियुक्त हुआ । पुष्यमित्रने फिरसे अश्वमेध मनाया ! मालूम होता है कि खारवेलको यह सहन न हुआ। उसपर उन्हें मगध विजय करके ' चक्रवर्ती ' पद पाना शेष था । इस लिये अपने पहले आक्रमणसे चार वर्ष बाद ही उन्होंने फिर आक्रमण कर दिया। उत्तरापथके राजाओंको जीतते हुये वह मगधमें जा निकले । हिमालयकी तलहटी २ वह ठीक मगधकी राजधानीके सामने जा पहुंचे थे। गङ्गाको उन्होंने कलिङ्गके बड़े २ हाथियों के सहारे पार कर लिया था। इस मार्गसे उन्हें सोन नदीके भयानक दल-दलोंका कष्ट नहीं उठाना पड़ा था । फलतः वह पाटलिपुत्रमें दाखिल होगये और नन्दोंके समयके प्रख्यात् राजमहल ' सुगङ्ग' के सामने जा डटे थे । बृहस्पतिमित्र खारवेलकी पराक्रमी सेनाके सम्मुख टिक न सका। खारवेलने उससे अपने पैरोंकी वन्दना कराई । नंदराजा द्वारा लाई गई जिन मूर्तियां वे मगधसे वापस कलिङ्ग लेगये तथा मगधके तोशकखानेसे अंग मगधके रत्न प्रतिहारों समेत उठा लेगये । वस्तुतः खारवेलकी यह महा विजय थी और इसके उपलक्षमें कलिङ्ग लौटकर खारवेलने जैनधर्मका एक महा धर्माShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् खारवेल | [ ४१ अनुष्ठान किया था। किंतु खारखेलके इस पराक्रम, चातुर्य और रणकौशलको देखकर दङ्ग रह जाना पड़ता है । एक ही वर्ष में वह कलिङ्गसे चलकर उत्तर भारतके राजाओं को जीतने हुये मगध जा बहुंचते हैं और वहां के राजाको परास्त कर डालते हैं ! उनका यह कार्य टीक नेपोलियनके दृङ्गका है ! इस महाविजयके साथ ही खाखेलको सुदूर दक्षिणके पाण्ड्य - देशक नरेश बहुमूल्य रत्न, हाथियोंको ले जानेवाले जहाज आदि पदार्थ भेंट में मिले थे । यह पदार्थ अद्भुत और अलौकिक थे। मालूम होता है कि खाखेलकी पाण्ड्यनरेश मित्रता थी ! इस प्रकार साम्राज्य विस्तार के इन प्रयत्नोंका फल यह हुआ कि कलिङ्गका साम्राज्य बढ़ गया । तथापि उस समयके प्रसिद्ध राज्य मगधपर अपना अधिकार जमाकर खारवेलने अपने आपको समग्र भारत में सर्वोपरि शासक प्रमाणित कर दिया । वह भारतवर्ष के सम्राट् होगए । यहां यह व्य है कि उस समय कलिंगकी गणना भारतवर्षमें नहीं होनी थी। इस कालके दो शतातत्कालीन दशा । ब्डि बाद समग्र भारतका उल्लेख 'भारतवर्ष' के नामसे होने लगा था । जैनधर्मका पांड्यदेशके नरे शकी भेंट | इस 1 समय बहु प्रचार था । मौर्य साम्राज्यके नष्ट होनेके पश्चात् अवश्य ही जैनधर्मकी प्रभा शिथिल हो गई थी । शुङ्गवंश एवं दक्षिणके सातवाहन वंश ब्राह्मण धर्मानुयायी थे। उनके द्वारा वैदिक धर्मको उत्तेजना मिली थी और अश्वमेधादि यज्ञ भी हुए थे । किन्तु खार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | वेलने जैनधर्मकी इस हीनप्रभाको द्युतिमान् बना दिया । जैन धर्मका पुनरुद्धार होगया । कलिङ्गमें तो वह बहुत दिनों पहले से राष्ट्रीय धर्म होरहा था । किन्तु जैन धर्मको उस समय तक केवल एक दर्शन सिद्धान्त मानना कुछ जीको नहीं लगता । ब्राह्मण वर्ण जैन धर्म में भी है | अतः जिन ब्राह्मणों को खारवेलने भोजन कराया था, उनका जैन होना बहुत कुछ संभव है । कल्पवृक्ष जैनशास्त्रोंमें मनवांछित फलको प्रदान करनेवाले माने गए हैं । खारवेल भी अपनी प्रजाके लिये कल्पवृक्षके समान सब कुछ प्रदान करके महान् उदार और प्रजावत्सल बनना चाहता था । इसीलिये उन्होंने कल्पवृक्षका दान किया था । करुणाभावसे सब प्राणियोंको दान देना जैन धर्म उचित बतलाता है । जैन शास्त्रोंमें क्षत्री साधुओंका विशेष उल्लेख मिलता है । खारवेलके समय वह एक प्रख्यात् साधु समुदाय होरहा था । खारवेल जैनधर्मावलम्बी था, परन्तु वैदिक विधानानुसार उसका महाराज्याभिषेक हुआ और उसने राजसूय यज्ञ भी किया था । इससे यह बिल्कुल स्पष्ट है कि तब जैन धर्ममें साम्प्रदायिक कट्टरता इतनी नहीं थी कि वह प्राचीन राष्ट्रीय नियमोंके पालन में बाधक होता । खारवेल प्रजाहितैषी राजा थे। वह नहीं चाहते थे कि वह एक स्वाधीन राजाकी तरह शासन करें और प्रजाको पराधीनताका कटु अनुभव चखने दें। इसीलिये उन्होंने 'जनपद' और 'पौर' संस्थायें खारवेलका राज्य प्रबंध । स्थापित कीं थीं । यह संस्थायें आजकलकी म्युन्सिपल और डिस्ट्रिक्ट बोर्डोंके समान थीं । 'पौर' संस्था पुर अथवा राजधानीकी संस्था थी। जिसके परामर्शसे वहांका शासन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् खारवेल। [४३ होता था। जनपद ग्रामीण जनताकी द्योतक है; जिनकी संस्था 'जनपद' कहलाती थी। उन लोगोंका शासन-प्रबंध उसके द्वारा होता था। इस प्रकार खारवेलने जनताको शासन प्रबन्धमें सम्मिलित कर रक्खा था। यही कारण है कि खारवेलके कलिङ्गसे बाहर लड़ाइयोंमें व्यस्त रहनेपर भी राज्यशासन समुचित रीतिस चाल रहा था। कलिङ्गतर राष्ट्रोंसे उन्होंने साम, दण्ड और संधि नीतियोंके अनुसार व्यवहार किया था । खारवेलके हाथोंमें राज्यकी बागडोर छोटी उम्रमें आई थी। वह भी उस नन्हीं उम्रसे एक आदर्श राजा खारवेलका राजनैतिक बन गये थे। क्रोध और अत्याचार तो खारजीवन । बेलके निकट छूतक नहीं गया था । वह एक जन्मजात योद्धा और दक्ष सेनापति होते हुए भी एक आदर्श नृप थे। उन्होंने अपनी प्रजाको प्रसन्न रक्खा था; जिसका उल्लेख उनने अपने शिलालेखमें बड़े गर्वके साथ किया है । खारवेल अपनेसे पहलेके राजाओं और पूर्वजोंका आदर करते थे । इस दृष्टिसे खारवेल अशोकसे बाजी लेजाते हैं; क्योंकि. अशोकने अपने पूर्वजोंका उल्लेख केवल अपनी महत्ता प्रगट करनेके लिये किया है। खारवेलके समयमें वास्तु विद्याकी उन्नतिको उत्तेजना मिली थी । उसने स्वयं बड़े २ महल, मंदिर और सार्वजनिक संस्था ओंके भव्य भवन निर्मापित कराये थे । उनके द्वारा ललितकल की. भी विशेष उन्नति हुई थी। पूर्ण दक्ष कारीगरों द्वारा उनने सुन्दर पच्चीकारी और नक्कासीके स्तंभ बनवाये थे। सचमुच जब २ वह दिग्विजयसे झण्डा फहराते हुए लौटते थे, तब २ वह अपने राज्यमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । - प्रजा हित और धर्म संबंधी अनेक सुकार्य करते थे और मंदिर आदि • बनवाते थे | इस बात का स्पष्ट प्रतिघोष उन्होंने अपने लेखके प्रारंभ ( पंक्ति २ ) में कर दिया है । उनके राज्यकाल में कलिङ्गकी धन संपदा भी खूब बढ़ी थी; क्योंकि समग्र भारतसे उन्होंने बहुमूल्य सम्पत्ति इकट्ठी कीं थी। इस समृद्धिशाली दशा में कलिङ्ग अवश्य ही रामराज्यका उपभोग कर रहा था और उसके आनन्दकी सीमाका वारापार न था । उसका प्रताप समस्त भारतवर्ष में व्याप्त था । खारवेलने प्रजाके मन बहलाव के लिये संगीत और बाजेगाजेका भी प्रबन्ध किया था । यद्यपि खारवेल जैन थे; परन्तु उन्होंने जैनेतर धर्मोका आदर किया था । उनका व्यवहार अन्य पापण्डों के प्रति उदार था और यह राजनितिकी दृष्टिसे उनके लिये उचित ही था । इस ओर उन्होंने कुछ अंशों में अशोकका अनुकरण किया था । अतएव इन सब बातोंको देखते हुये सम्राट् खारवेल एक महान् प्रजावत्सल और कर्तव्यपरायण राजा प्रमाणित होते हैं । शिलालेख में खारवेलको ऐल महाराज, महामेघवाहन चेति राजवंश - वर्द्धन खारवेल श्री- (क्षारवेल) लिखा है तथा उनका उल्लेख 'क्षेमराज; वर्द्धराज, भिक्षुराज और धर्मराज' रूपमें भी हुआ है । अन्तिम उल्लेखसे खारवेलके सुकृत्योंका खासा पता चलता है । उन्होंने प्रजा में, देश में और समग्र भारतमें अमकी स्थापना की, इसलिये वह क्षेमराज थे । साम्राज्य एवं धर्म-मार्गकी उन्होंने वृद्धि की इस कारण उनको वर्द्धराज मानना भी ठीक है । भिक्षुओं- श्रमणोंके लिये उन्होंने धर्मवृद्धि करनेके साधन जुटा दिये; इस अवस्था में उनका 'भिक्षुराज' रूपमें उल्लेख होना कुछ अनुचित नहीं है । अन्तत: धर्मराज तो वह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com . Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् स्वारवेल। [४५ थे ही -धर्मके लिये उन्होंने अनेक कार्य किय-दान पुण्य किये. भव्य मंदिर बनवाये और धर्मके लिये लड़ाइयां भी लड़ी। मगधी लड़ाई लड़कर वह ऋषभदेवकी दिव्य मूर्ति कलिङ्ग लाये । उनकी रानीने उनको कलिङ्ग चक्रवर्ती कहा है। खारवेलके पन्द्रह वर्ष कुमार क्रीड़ामें व्यतीत हुये थे। उन्हें सोलहवें वर्षमें युवराज पद मिला था. यह खारवेलका गार्हस्थ्य लिखा जाचुका है। कुमार कालमें उन्होंने जीवन। विद्या और कलामें दक्षता प्राप्त की थी। शिलालेखमें लिखा है (पंक्ति २ कि खारवेलने राजनैतिक दण्डविधान (EN) और धर्मतत्वका सुचारु ज्ञान प्राप्त किया था । वह सब ही विद्याओंमें पारंगत थे। खारवेल देखने में प्रभावान और सुन्दर थे। उनके शरीरका रंग बिलकुल गोरा नहीं था। वह प्रशस्त और शुभ लक्षणोंमे युक्त था, जिनका प्रकाश चारों दिशाओंमें फैल रहा था ( चतुरंत लुंठति) । बाल्यावस्थामें वह राजकुमार वर्द्धमान सदृश बताये गये हैं। और सम्राट वेणकी तरह उन्हें एक विजयी सम्राट् लिखा गया है। वस्तुतः खारवेलका गार्हस्थ्य जीवन भी राष्ट्रीय जीवनके समान उन्नत और सुखमय था। वे अपनी दोनों रानियोंके साथ धर्म, अर्थ, और काम पुरुषार्थीका समुचित उपभोग कर रहे थे। बजिरधरवाली रानी उनकी अग्रमहषि ( पटरानी । थीं। दूसरी रानी सिंधुडा संभवतः राजा लालकसकी पुत्री थीं. जो हथीसहसके पौत्र थे । इन रानीके नामपर हाथीगुफाके पास एक 'गिरिगुहा' नामक प्रासाद बनाया गया था। इसे अब रानी नोर कहते हैं । इन रानियोंका खारवेलके समान उन्नत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास। ममा और धर्मात्मा होना स्वाभाविक है। वे प्रेमाल थी, उदार थीं और शीलसम्पन्ना थीं। उन्होंने भी भव्य जिनमंदिरोंको बनवाया था ! खारवेलको उन रानियोंसे कितनी संतान पानेका सौभाग्य प्राप्त हुआ, यह कहा नहीं जासकता । किंतु वह उनके समान सुयोग्य सह धर्मिणियोंको पाकर एक आदर्श श्रावक बने थे, इसमें संशय नहीं । बजिरघरवाली रानीके कोखसे जो पुत्र हुआ था, वही संभवतः खारवेलके बाद कलिङ्गका राजा हुआ था। खारवेलका धार्मिक जीवन अनूठा था। जब वह अपनी दिग्वि जय पूर्ण कर चुके और सारे भारतवर्ष में उनकी खारवेलके जैनधर्म धाक जम गई, तब उन्होंने विशेष रीतिसे प्रभावनाके कार्य। धर्मानुष्ठानके कार्य किये थे। यह उनके राज्यके तेरहवें वर्ष अर्थात् सन् १७० ई० पू०की बात है। सम्राट् खारवेल कुमारी पर्वत (उदयगिरि) के अर्हत् मंदिरमें जाकर विशेष भक्ति और व्रत उपवास करने में दत्तचित्त हुये थे। इस प्रकार व्रत और उपवासमें लीन होनेका फल यह हुआ था कि वह अपने भवभ्रमणको नष्ट करनेके निकट पहुंच गये थे, क्षीणसंसत हुये थे। श्रावकोंके व्रतोंका पालन उन्होंने सफलतापूर्वक कर लिया था (रत-उवास-खारवेल-सिरिना)। फलतः उन्हें जीव और देहकी भिन्नताका प्रत्यक्ष अनुभव होगया था। भेद. विज्ञानको उन्होंने पालिया था और यह संसारका नाश करनेके लिये पर्याप्त है। अतएव सम्राट् खारवेलको जो धर्मराज और भिक्षुराज कहा गया है, वह बिलकुल ठीक है । कुमारी पर्वत संभवतः भगवान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् खारवेल । ४७ महावीरजीके समवशरणसे पवित्र होचुका था; क्योंकि भगवानके समो. शरणका कलिङ्गमें आनेका उल्लेख जैनशास्त्रोंमें मिलता है तथा खारवेलके शिलालेखमें स्पष्ट कहा है कि (पंक्ति १४) इस पर्वतपरसे जैन धर्मका प्रचार हुआ था। इस ही पर्वतपर खारवेल और उनकी रानीने अनेक मंदिर व विहार बनवाये थे। उनमें चारों ओरसे जैन श्रमण और विद्वान् एकत्रित होकर धर्माराधन करते थे। वहांपर खारवेलने सुन्दर संगमरमरके पाषाण-स्तंभ बनवाये थे; जिनमें घंटा लगे हुये थे। ऐसे स्तंभ मध्यकालके बने हुये नेपालमें आज भी देखनेको मिलते हैं। इस प्रकार सम्राट खारवेलके सुकार्योंसे उस समय खूब ही धर्मप्रभावना हुई थी। जैनधर्मका प्रचार ऋषियोंद्वारा दिगन्तव्यापी हुआ था। मालूम होता है कि खारवेलने कोई धार्मिक महोत्सव कराया था; क्योंकि शिलालेखमें कहा गया है (पंक्ति १६) कि सम्राट् खारवेलने 'कल्याणकों' को देखने, सुनने और उनका अनुभव प्राप्त करनेमें जीवन यापन किया था। ('धमराजा पसंतो सुणतो अनुभवतो कलाणानि') यह महोत्सव आजकलके बिम्बप्रतिष्ठाओंके समय होनेवाले पंच-कल्याणकों के समान ही होते थे, यह कहा नहीं जासत्ता। खारवेल द्वारा निर्मित गुफाओंका मूल्य अत्यधिक है। उनमें भगवान पार्श्वनाथजीकी जीवनलीला सम्बंधी चित्र दर्शनीय हैं। शिलालेखमें 'अर्कासन' नामक गुफाके बनवानेका उल्लेख है। ये सब गुफायें सुंदर और दर्शनीय हैं। यूं तो खारवेलके सुकृत्योंसे जैन धर्मकी विशेष उन्नति हुई ही थी; किन्तु उनके सदप्रयत्नसे जो द्वादशाङ्ग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | 6. जिनवाणीका उद्धार | वाणीके पुनरुद्धारका उद्योग हुआ था. वहः विशेष उल्लेखनीय है। उनके शिलालेख में ( पंक्ति १६) पष्ट उल्लेख है कि खारवेलके समय में द्वादशाङ्गवाणी लुप्त हुई मानी जाती थी । सम्राट् खारवेलने उसका यथासाध्य उद्धार किया था। उन्होंने जैन ऋषियोंका एक संघ एकत्रित किया था. और उसके द्वारा इस उद्धारका सद्प्रयास हुआ था । मि० जायसवालने शिलालेख के इस अंशका यह अर्थ प्रकट किया है कि. मौर्य राजा के समय जो ६४ विभागोंका चतुर्याम अङ्ग-सप्तिक लुप्त, होगया था, उसका उद्धार खारखेलने किया ।" इसका भाव स्पष्ट नहीं है; किन्तु मि० जायसवाल इसका पुनः अध्ययन करके खुलासा प्रकट करनेवाले हैं । कुछ भी हो, इस शिलालेखीय उल्लेख से दिगस्वर जैनों की मान्यताका समर्थन होता है । दिगम्बर जैनोंका विश्वास. है कि द्वादशाङ्गवाणीका विच्छेद श्रुतकेवली भद्रबाहुजीके साथ होगया। था. और उनके बाद विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय, बुद्धिल. गंगदेव और सुधर्म ये ग्यारह आचार्य. केवल दशपूर्वक धारी एकके बाद एक १८३ वर्षमें हुए थे । अतएव चन्द्रगुप्त मौर्य के समय नष्ट हुआ अंगज्ञान १८३ वर्ष बाद तक केवल दशपूर्वरूपमें किञ्चित् शेष रहा था । इन दशपूर्वीयोंके उपरान्त नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंन नामक पांच आचार्य स्यारह अंगोंके धारक २२० वर्ष में हुये। थे । इन ग्यारह अंगों अर्थात् अंगज्ञानके धारकोंका अस्तित्व तब ही संभव है जब मौर्यराजासे १८३ वर्षके अन्तरालकालमें उनका पुनरुद्धार हुआ हो । सम्राट् खारवेलका उक्त कार्य इस अन्तराल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् खारवेल। [४९ कालमें हुआ प्रकट होता है; क्योंकि जैन पट्टावलियोंके अनुसार भद्रबाहुजीसे १८३ वर्षों में हुये दशपूर्वीयोंका अन्तिम समय सन् २०० ई० पू० ठहरता है और इस समय खारवेल विद्यमान थे। इस दशामें कहना होगा कि खारवेलके शुभ प्रयत्नसे लुप्त-प्रायः अङ्गग्रन्थ पुनः उपलब्ध हुये थे। समय भारतके ऋषि कुमारी पर्वत पर एकत्र हुये थे और वहां जिनरको जिस२ अङ्गका जितना ज्ञान था, उसको प्रकट किया था और इस प्रकारके सहयोगसे अङ्गज्ञानका उद्धार होगया। साथ ही इस उल्लेखसे सम्राट् खारवेलका प्राचीन निग्रंथसंघका पोषक होना प्रमाणित है। यह लिखा जाचुका है कि श्रुतकेवली भद्रबाहुजीके बादसे ही जैन संघमें भेद उपस्थित होगया था, जो ईसवी प्रथम शताब्दिमें पूर्ण व्यक्त हुआ था। सचमुच कलिङ्गमें उस जैन धर्मका प्रचार था जिसमें सम्राट चंद्रगुप्त मौय्यके समयमें आचार्य स्थूलभद्रकी अध्यक्षतामें एकत्र हुये जैन संघके द्वारा स्वीकृत अङ्ग ज्ञानको स्वीकार नहीं किया गया था । (हॉ जै० पृ० ७०-७२ व ज़बिओसो० भा० १३ पृ० २३६) सम्राट् खारवेलका हाथी गुफावाला शिलालेख भारतीय इति हासके लिये बड़े महत्वका है। वेदश्रीके खारवेलका शिलालेख । नानाघाटवाले शिलालेखके बाद प्राची नतामें इसीको दूसरा नंबर प्राप्त है। यह करीब १५ फीट १ इंच लंबा और ५|| फीट चौड़ा है और १७ पंक्तियोंमें विभक्त है। इसकी भाषा एक ऐसी प्राकृत है, जो अपभ्रंश प्राकृत, अर्धमागधी और पालीसे मिलती जुलती है तथा उसमें जैन प्राकृतके शब्द भी हैं । लिपि उत्तीय ब्राह्मी है; जिसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०] संक्षिप्त जैन इतिहास । बुल्हर सा० सन् १६० ई०पू० इतनी प्राचीन मानते हैं । शिलालेखमें कुल चार चिन्ह हैं। इनमेंसे प्रथम पंक्तिके प्रारम्भमें जो हैं, वह-(१) स्वस्तिका और (२) वर्द्धमंगल हैं। तीसरा चिन्ह 'नंदिपद' भी प्रथम पंक्तिमें है, परन्तु वह खारवेलके नामके ठीक बादमें अंकित है। यह चिन्ह अशोकके जाडगढ़ के लेख एवं सिकों आदिमें भी मिलता है । चौथा कल्पवृक्ष लेखके अंतमें है। ऐसे ही चिन्ह उदयगिरिकी सिंह और वैकुण्ठ नामक गुफाओंमें हैं। यह शिलालेख सन् १७० ई०पू०के समय किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा लिखा गया प्रगट होता है, जो खारवेलसे वयमें बड़ा था । और जिसको उनका परिचय बाल्यकालसे था । मि० जायसवालने पहले इस लेखमें (पंक्ति १६ ) मौर्या व्दका उल्लेख हुआ अनुमान किया था किंतु उनका यह अनुमान ठीक न निकला और उन्होंने इस पंक्तिको फिरसे पढ़ा है एवं इसका अर्थ जैन वांगमयका उद्धार करना प्रगट किया है, इस प्रकार यद्यपि मौर्याब्दका कोई उल्लेख इस लेखमें नहीं है; किंतु नन्दोंके एक अब्दका उल्लेख (पंक्ति ६) अवश्य है । विद्वान लोग इस नन्द अब्दको नंदवर्द्धन द्वारा प्रचलित किया गया प्रमाणित करते हैं। यह कहते हैं कि नन्दवर्द्धनका राज्य ई०पू० सन् ४५७ से प्रारम्भ हुआ था और सन् ४५८ ई० पू०से उनका अब्द प्रारम्भ हुआ था। सन १०३० के समय जब अलवेरूनी भारतमें आया था तब यह नंदाब्द मथुरा और कन्नौजमें बहु प्रचलित था । (जविओसो०, भा० १३ पृ० २३७-२४१) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् खारवेल। खारवेलके इस शिलालेखसे कलिङ्गमें जैन धर्मका अस्तित्व बहुत प्राचीन सिद्ध होता है। हम देख चुके कलिङ्गमें जैनधर्म । हैं कि जैन शास्त्रोंमें तो उसे जैनधर्मसे संब न्धित भगवान ऋषभदेवके समयसे बताया गया है । फलतः कलिङ्गमें जिस प्राचीन कालसे जैनधर्मका सम्पर्क जैन शास्त्र प्रगट करते हैं, उसका समर्थन इस लेखसे होता है । पंक्ति १२ में स्पष्ट उल्लेख है कि नन्दराज कलिङ्ग विजयके समयमें रत्नों व अन्य बहुमूल्य पदार्थोके साथ जिन भगवानकी एक मूर्ति भी लेगये.थे । खारवेलने जब अङ्ग और मगधपर अपना अधि कार जमा लिया था, तब वह इस मूर्तिको वापिस कलिङ्ग लेआये थे। इस उल्लेखसे नन्दराजाका जैन धर्मानुयायी होना प्रमाणित है तथा यह भी सिद्ध है कि ओड़ीसासे जैनधर्मका सम्पर्क स्वयं भगवान महावीरजीके समयमें था । जैन मूर्तियां भी उस समय अर्थात् सत् ४५० ई० पू० के पहलेसे बनने लगी थी। इस आधारसे मि० जायसवाल कहते हैं कि जब ओड़ीसामें सन् ४५० ई० पू० के पहलेसे जैनधर्म आगया था और जैन मूर्तियां बनने लगी थीं; तब महावीर निर्वाण सन् ५४५ ई० पू० मानना ही ठीक है; जैसे वह प्रमाणित कर चुके हैं । (जीवओसो० भा० १ पृ० ९९-१०५) उक्त शीलालेखमें सन् १७० ई० पू० तक जो २ बातें खारवेलके राज्यमें हुई थीं, उनका वर्णन खारवेलका अंतिम जीवन है। इसके उपरांत ऐसा कोई निश्चयात्मक और उनके उत्तराधिकारी। साधन प्राप्त नहीं है, जिससे खारवेलके अंतिम जीवनका पता चलसके। इस समय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२] संक्षिप्त जैन इतिहास । खारवेलकी आयु करीव ३७ वर्षकी थी। खारवेल जैसे पराक्रमी वीर अवश्य ही इस समय हृष्टपृष्ट होंगे । अतः उनका सन् १७० ई० । पू०से और १०-२० वर्ष और राज्य करना बहुत कुछ संभव है। हमारे विचारसे जब खारवेलके सुपुत्रकी अवस्था २४ वर्षकी होगई तब सन् १५२ ई० पू० में खारवेलका राज्य कार्यसे विलग होजाना प्राकृत सुसंगत है । इस समय वह वृद्ध होचले थे और यह भी संभव है कि उन्होंने जिन दीक्षा ग्रहण करली हो। जो हो, मि० जायसवाल जो उनका स्वर्ग वास काल सन् १६९-१५२ ई० पू० में मानते हैं, वह ठीक है। खारवेलके उत्तराधिकारी उनके सुपुत्र हुये थे। संभवतः उन्हींका उल्लेख खंडगिरीकी एक गुफाके शिलालेखमें है। उसमें उनको कलिङ्गाधिपतकुदेप श्री खर महामेघवाहन लिखा है। जबिओसो० भा० ३ पृ० ५०५) यह भी जैनधर्मानुयायी थे । खारवेलके बाद कलिङ्गके इस प्रसिद्ध राजवंशका कुछ पता नहीं चलता; किन्तु भुवनेश्वरके एक संस्कृत खारवेलका वंश गर्द- ग्रंथमें मौर्योके पश्चात् जिस राजवंशने कलिभिल्ल वंश है। झमें राज्य किया था, उसका परिचय 'भिल' वंशके नामसे दिया है। इस वंशमें कुल सात राजा हुये थे, जिनके नाम क्रमानुसार इस प्रकार हैं:-(१) ऐर भिल, (२) खर भिल, (३) सुर मिल, (४) नर भिल, (५) दर भिल, (६) सर मिल और (७) खर भिल द्वितीय । उक्त ग्रन्थमें जो समय इस वंशके राज्यकालका दिया है उससे पता चलता है कि ई० पू० ८९ में इस वंशका अंत होगया था। विद्वान लोग. इस वंशको खारवेलसे सम्बन्धित बतलाते हैं तथा उक्त राजाओंमें नं० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् खारवेल । [ ५३ २ के राजाको खारवेल बतलाते हैं । हिन्दू पुराणोंमें आन्ध्रवंशी राजाओंके समसामयिक राजवंशोंमें एक 'गर्दभिल' भी बताया गया है, जिसके कुल सात राजा थे । खारवेल शातकर्णि प्रथमका समकालीन था और कलिंगमें मौर्योके बाद उनके वंशने ही राज्य किया था । अतएव उक्त भिलवंश अथवा गर्दभिलवंशको खारवेलके राजवंशका द्योतक मानना उचित है । मम० जायसवाल इस शब्द की उत्पत्ति खारवेल नामसे ठहराते हैं । खारवेलसे खरवेल हुआ, खर और गर्दभ संस्कृतमें पर्यायवाची एक ही अर्थके शब्द हैं। और वेल शब्द भिल्लमें पलट दिया गया । इस रूपमें खरवेलसे ' गर्दभिल्ल या ' गर्द भिल' शब्द बन गया । जिनसेनाचार्य ने इन्हीं राजाओंका उल्लेख रासभ राजाओंके नामसे किया है । 3 इस वंशके अंतिम राजा खर भिल द्वितीय ( खरवेल द्वितीय ) ही उज्जैन के गर्दभिल्ल अनुमान किये गये हैं क्योंकि दोनोंका समय एक है और वह विक्रमादित्य के श्वसुर थे। विक्रमादित्य गर्दभिल्लका उत्तराधिकारी माना ही जाता है । काल्काचार्यने इसी गर्दभिल्ल वंशके विरुद्ध शकों को भेजा था। अतः इस उल्लेखसे खारवेल के राजवंशका राज्य उसके बाद पांच पीड़ियों तक रहा प्रमाणित होता है । प्राचीमहात्म्य' नामक पुस्तकमें एक चित्र नामक व्यक्तिका वर्णन है । . विद्वज्जन उसको खारवेलका दादा अनुमान करते हैं । उसकी पत्नी , १ - जविओोसो० भा० १६पृ० १९१ - १९६ । २ - जविओोसो ०, भा० १६ पृ० ३०३ । ३ - जविओोसो० भा० १६पृ० ३०६-३०७ ॥ ४ - जवि भोसो० भा० १६ पृ० ३०५ । , Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४] संक्षिप्त जैन इतिहास। ब्राह्मणवर्णकी थी और उसके पुत्र उसके जीवनकालमें ही स्वर्गवासी होगये थे। फलतः उसके पौत्रका नन्हा बालक होना उचित है। खारवेलके शिलालेखसे यह प्रकट ही है कि बाल अवस्थासे ही कलिंगराज्यका भार उनपर आगया था। उपरोक्त पुस्तकोंके अतिरिक्त उड़ियाके “ मदल पञ्जि" (Madal Panji) नामक ग्रन्थमें भी उड़िया ग्रन्थोंमें खारवेलका वर्णन भोज नामसे हुआ अनुमान खारवेल। किया जाता है। इस ग्रन्थसे राजा भोजके राज्यका प्रारम्भ ई० पूर्व १९४से प्रमाणित होता है और खारवेल ई० पूर्व १९२ में युवराज हुए थे। संभवतः भोज नामकी प्रसिद्धिके कारण अथवा खारवेलके विरुद्ध भिक्षुराजके अपभ्रंश (भोजराज) के रूपमें यह नाम उक्त ग्रन्थमें खारवेलके लिये लिखा गया है। उक्त ग्रन्थसे प्रगट है कि खारवेल एक वीर, पराक्रमी, उदार, न्यायशील और दयालु राजा थे । उनके दरबारमें ७५० प्रसिद्ध कवि थे, जिनमें मुख्य कालीदास थे। उनके रचे हुये चनक और महानाटक नामक ग्रन्थ थे। महानाटकका प्रचार कहीं२ अब भी ओड़ीसामें मिलता है। खारवेलके द्वारा नावों, चरों और गाड़ियोंका प्रचार पहले२ कलिङ्गमें हुआ था। उन्होंने सारे भारतवर्षपर विजय प्राप्त की थी! सब ही राजाओंको अपना करद बना लिया था । सिन्धु देशके यवनोंको भी खारवेलने मार भगाया था।' ' सारला महाभारत' नामक उड़िया काव्यमें भी खारवेलका वर्णन १-जविमोसो०, भा० १६ पृ० १९४-१९६ । २-जविमोसो०, भा० १६ पृ० २११-२१५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् खारवेल । [ ५५ मिलता है । उससे प्रगट है कि खारवेलके पहले कलिङ्गमें बौद्ध राजा थे । खारवेलने ब्राह्मणोंको साथ लेकर उन्हें मार भगाया और आप स्वयं वहांके राजा बन गये । महान् सेना लेकर उन्होंने दिग्विजयकी और वह सार्वभौम सम्राट् होगये । वह भीम कालवेर वीर चक्रवर्ती कहलाते थे । अन्तमें उन्होंने अपने धर्मगुरुके कहने से राज्यका त्याग कर दिया - विष्णु - कर ( खर) को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करके वह वनमें जाकर तपस्या करने लगे । शिलालेखमें उनके राज्यके १३ वें वर्षके उपरांत कोई वर्णन नहीं है। इसका कारण यही है कि थोड़े समय पश्चात् ही वह मुनि होगये थे । उक्त ग्रन्थोंसे भी उनका जैनी होना सिद्ध है । वह श्राबकके व्रतोंका अभ्यास पहले ही करने लगे थे । अन्तमें उनका मुनि होजाना स्वाभाविक था । ईस्वी प्रथम शताब्दिमें कलिंग आंध्रवंशके राजाओंके अधिकारमें आगया । उसपर भी जैनधर्मका अस्तित्व वहां ११-१२ वीं शताब्दितक खूब रहा था; किन्तु उपरान्त मुसलमानोंके आक्रमणों एवं जैनेतर संप्रदायोंके प्राबल्यसे वहां जैन धर्मका प्रायः अभाव हो गया । इतने पर भी आज वहां हजारोंकी संख्या में 'सराक' (श्रावक ) लोग मौजूद हैं, जो प्राचीन जैनी हैं, परन्तु अपनेको भूले हुये हैं । उनको पुनः जैन धर्ममें लानेका उद्योग होरहा है। सातवीं शताब्दिमें जब चीनी यात्री हुएनसांग यहां आया था; तब भी उसे क़लिंगमें जैन धर्म उन्नतावस्था में मिला था। , १ - जविओोसो० भा० १६ पृ० १९९-२०३ । २- बं० वि० स्मा० पृ० ८७-८८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६] संक्षिप्त जैन इतिहास। संक्षिप्त संवत्वार विवरण:सन् ईसवी पूर्व २२५ कलिंगमें चेदिवंश और दक्षिणमें सातवाहन राज्यका उदय । २०७ खारबेलका जन्म; १९२ खारवेलको युवराजपद प्राप्त हुआ; १८८ पुष्यमित्रका राज्यारोहण; १८३ खारवेलको राज्य-प्राप्ति; १८२ शातकर्णि प्रथम राज्य करते और खारवेलका आक्रमण; १७९ खारवेलका राष्ट्रिक व भोजक क्षत्रियोंपर विजय पाना; १७८ तनसुलिय–बाट नहरका राजधानीमें लाना; १७७ खारवेलने सम्राटपद ग्रहण किया; महाराजाभिषेक व राजसूय यज्ञ हुआ; १७६ संभवतः खारवेलको राजकुमारकी प्राप्ति; १७५ गोरथगिरिकी लड़ाई,दमेत्रिय (डिमिट्रियस)का मथुरा छोड़जाना। १७३ खारवेलका उतरापथपर आक्रमण; १७२ खारवेल द्वारा कलिंगमें जैन पूजाका सुधार; १७१ पुष्यमित्रकी पराजय; १७० खारवेलका कुमारी पर्वतपर व्रत उपवास करना और मंदिरादि बन वाना; जैन संघ एकत्र होना और जैन वांगमयका उद्धार कराना। (संभवतः शिलालेख भी इसी वर्ष में उत्कीर्ण कराया गया था।) १६९-१५२ संभवतः खारवेलका देहावसान हुआ। १५२ पुष्यमित्रकी मृत्यु ! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा और जैन संघ। [५७ अन्य राजा और जैन संघ । दिगम्बर-श्वेतांबर-भेद; उपजातियोंकी उत्पत्ति। (सन् १०० ई० पू०–सन् २०० ई.) ईसवीकी प्रारम्भिक शताब्दियों सुतरां उससे भी किंचित् पह लेका भारतीय इतिहास अन्धकारापन्न है । तत्कालीन जैनधर्म। उस समयका कुछ भी ठीक पता नहीं चलता। तौभी जो कुछ भी परिचय प्राप्त है, उसके आधारसे यहांपर इस कालमें जैनधर्मके अस्तित्वका ज्ञान कराया जाता है । शक और कुशन आदि विदेशियोंका राज्य ई० से पूर्व प्रथम शताब्दिसे भारतमें उत्तर पश्चिमीय सीमा प्रांतसे लेकर पंजाब, मथुरा और मालवा तक जमा हुआ था और इन स्थानों एवं इन विदेशियोंमें जैनधर्मकी मान्यता भी बिशेष थी; यह लिखा जाचुका है । इनके अतिरिक्त उस समय उत्तर भारतमें जैनोंका सम्पर्क किन २ राजवंशोंसे था, यह ठीकसर बताना कठिन है। रोटेलखण्ड उस समय अहिच्छत्रके राजाओंके अधिकारमें था। अहिच्छत्र ( रामनगर-बरेली ) के राजा लोग अहिच्छत्रके राजवंशमें नागवंश अनुमान किये गये हैं। इस जैन धर्म। वंशका अस्तित्व भारतमें महाभारतकाल अथवा राजा तक्षक नागके समयसे प्रमाणित है। यद्यपि यह वंश विदेशी और संभवतः हूण जातिका था; किन्तु १-कंजाइं, पृ० ४१२। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] संक्षिप्त जैन इतिहास। जैन मान्यता इसका निकास इक्ष्वाकु नामक क्षत्रिय वंशसे हुआ प्रगट करती है । वस्तुतः नागवंशजोंके विवाह-सम्बन्ध भारतीय क्षत्री घरानोंसे होते थे। अहिच्छत्रमें इस वंशका राज्य संभवतः भगवान पार्श्वनाथजीके समयसे था । तत्कालीन राजाने भगवान पार्श्वनाथकी बड़ी विनय की थी । भगवान महावीरजीके तीर्थकालमें वहांके एक राजा वसुपाल थे। उन्होंने अहिच्छत्रमें एक सुन्दर और भव्य जैन मंदिर निर्माण कराया था। वहांके कटारीखेडाकी खुदाईमें डा० फुहरर सा० ने एक समूचा सभा मंदिर खुदवा निकलवाया था। यह मंदिर ई० पू० प्रथम शताब्दिका अनुमान किया गया है और यह श्री पार्श्वनाथजीका मंदिर था । इसमेंमें मिली हुई नम जैन मूर्तियां सन् ९६ से १५२ तककी हैं । एक ईटोंका बना हुआ प्राचीन स्तूप भी वहां मिला था। वहां स्तंभपर एक लेख इस प्रकार था- महाचार्यइन्द्रनंदिशिष्य पार्श्वपतिस्स कोट्टारी ।"रे. इन वस्तुओंसे ईसवी सन्के प्रारम्भ कालमें वहां जैनधर्मका विशेष प्रचार प्रकट होता है। एक, समय मथुराका नागवंश मथुराके आसपास भी नागवंशका राज्य रह और जैनधर्म। चुका है। उनकी राजधानी काष्ठा नगरी थी। जैन समाजमें एक काष्ठासंघ विख्यात् है। उसका यह नामकरण उस नगरीकी अपेक्षा हुआ प्रतीत होता है; क्योंकि काष्ठासंघका अपरनाम मथुराकी अपेक्षा माथुरसंघ है और जैन शास्त्रोंमें देश अपेक्षा प्रसिद्ध हुआ कहा भी गया है। अतएव १-भपा०, पृ० ३६८। २-संप्राजैस्मा०, पृ० ८१ । ३-राइ०, भा० १ पृ० २३१ । ४-हि०, भा० १३ पृ० २७२ मैनपुरीके सं० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा और जैन संघ । काष्ठानगरमें एक समय और संभवतः उक्त नागवंशके राज्य कालमें ही जैनधर्मका प्रभाव विशेष था । वहांका जैनसंघ आज भी भारतके विभिन्न स्थानोंमें फैला हुआ है । यह भी संभव है कि उक्त नागवंशके राजा जैन संघके पोषक हों । संभवतः इसी कारण वहांका संघ खूब फूला फला था । ___ मथुरासे उत्तर पूर्वकी ओर पांचाल राज्य था। उसकी राज ___धानी प्राचीन कालसे कांपिल्य थी । जैनोंके पांचाल राज्यमें जैनधर्म तेरहवें तीर्थङ्कर श्री विमलनाथजीका जन्मस्थान व दानवीर भवड़ । और तपोभूमि भी यही नगर था। विक्रमकी पहली शताब्दिमें यहांपर तपन नामक राजा राज्य करता था। उसी समय भावड़ नामक एक धर्मात्मा जैन सेठ यहां रहते थे। यह एक प्रतिष्ठित धनी व्यापारी थे । इनका व्यापार देश-विदेशसे होता था । जहाजोंमें माल भेजा जाता था। एक दफे दुर्भाग्यसे इनके सारे जहाज समुद्रमें डूब गये। इससे उनके व्यापारको बड़ा धक्का लगा। किन्तु वह धीरजसे व्यापार करते रहे । एक घोड़ीसे इनके भाग चमक गये । वहांके राजाने तीन लाख रु० में उस घोड़ीको भावड़से खरीद लिया था। उसके वछेड़को भावड़ने विक्रम राजाको भेट किया। राजाने प्रसन्न होकर उन्हें महुआ आदि कई ग्राम दिये । भावड़ उन ग्रामोंका नायक बन गया। उनकी भावला नामक स्त्रीसे उनको भवड़ नामक पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई। १८६७के लिखे हुए एक गुटके में काष्ठासंघकी रीतियां काष्टादि देशकी कहीं गई हैं (काष्ठासंघश्चिरंजीयात्क्रिया काष्ठादि देशकः) अतः काष्ठा नाम देश अपेक्षा ही है। Shree Sudharmaswami G nbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०] संक्षिप्त जैन इतिहास। यह बड़ा दानवीर था । शिक्षित और युवा होनेपर भवड़का विवाह घेटी सेठकी पुत्री सुशीलासे स्वयंवर विधिसे हुआ था । भबड़ सानंद , कालयापन कर रहा था कि अचानक यवन सेनाका आक्रमण हुआ। भवड़ इस लड़ाईमें बंदी हुआ और यवन लोग उसे अपने साथ लेगये । भवड़ वहां भी अपना धर्म-पालन करता रहा और उसने मंदिर भी बनवाये । उसने एक मासका उपबास किया और उसके पुण्यफलसे चक्रेश्वरीदेवीकी सहायता उसे प्राप्त हुई । उसकी सहायतासे भवड़ बन्धन मुक्त हुआ और तक्षशिलासे आदिनाथ प्रभुकी मूर्ति लेकर वह जहाजमें बैठा और महुआ आगया । अब सौभाग्यसे उसे समुद्रमें खोये हुए जहाज भी मिल गये । भवड़के दिन फिर गये । उस समय आचार्य वज्रस्वामीके उपदेशसे शत्रुजय तीर्थका उसने उद्धार कराया और खूब दान-पुण्य किया। श्री आदिनाथ भगवानकी प्रतिमा वहां बिराजमान कराई। वज्रस्वामी एक प्रतिभासम्पन्न साधु थे। उन्होंने दक्षिणके किसी बौद्ध सम्राटको जैनी बनाया था। श्वेतांबर संप्रदायमें भवड़ सेठ और वज्रस्वामी बहु प्रसिद्ध हैं।' न मालम इस श्वेतांबर कथामें कितना सत्य है ? कोशाम्बीके पुरातत्वसे वहांपर जैनधर्मका विशेष सम्पर्क रहा प्रमाणित है । वहांसे कुशानकालका मथुरा कोशाम्बी राज्यमें जैसा एक आयागपट्ट मिला है; जिसे राजा जैनधर्म। शिवमित्रके राज्यमें शिवनंदिकी शिष्या बड़ी स्थविरा बलदासाके कहनेसे शिवपालि १-शत्रुजय माहात्म्य-गुसापरि० जैनवि०, पृ० ६५-६६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा ओर जैन संघ। तने अहलोंकी पूजाके लिये स्थापित किया था। इस उल्लेखमे कोशाबीमें एक बृहत् जैन मंघके रहनेका पता चलता है । यहींपर काश्यपी अर्हतोंके सं० १०में आषाढ़सेनने एक गुफा बनवाई थी । वह आषाढ़सेन अहिच्छत्रके राजा शोनकायनके प्रपौत्र और राजा वंगपाल व रानी त्रिवेणीके पौत्र थे। इनके पिताका नाम राजा भागवत था और इनकी मां वैहिदरी थीं। यह गुफा सन् १००२०० ई० पू० के लगभग बनी थी। यह प्रगट है कि अहिच्छत्रके राजाओंमें जैनधर्मकी मान्यता प्राचीन कालसे थी । साथ ही उक्त काश्यपी अर्हत शब्द भगवान महावीरका द्योतक प्रतीत होता है; क्योंकि भगवानका गोत्र काश्यप था । अतः यह संभव है कि उक्त गुफा जैनोंके लिये बनाई गई हो। स्कंधगुप्तका लेख जो भिटारीके स्तम्भपर अङ्कित है, उसमें लिखा है कि स्कंधगुप्तने पुप्पमित्रको विजय जैन राजा पुष्पमित्र । किया था। यह पुप्पमित्र सन् ४५५ में राज्य कर रहा था । इस वंशका प्रारंभ सन् ७८ ई० से सन् ९३७ ई० तक चलता रहा था। इसका निकास कहांसे और कैसे हुआ था, यह कुछ ज्ञात नहीं है। राजा कनिप्कके समयमें यह वंश बुलन्दशहरके पास बस गया था और अपनेको जैन धर्मानुयायी कहता था। जैन शास्त्रोंसे इस समय विक्रमादित्य नामक एक प्रसिद्ध ___ सम्राट्का पता चलता है; यद्यपि इतिहासमें १-संप्राजैस्मा०, पृ०२१. २-संप्राजैस्मा०, पृ० २८. ३-बंप्राजैस्मा, पृ० १८७. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२] संक्षिप्त जन इतिहास । राजा विक्रमादित्य इस नामके राजाका तब कोई उल्लेख नहीं गौतमीपुत्र शातकर्णि। मिलता है। वास्तवमें विक्रमादित्य कोई खास नाम न होकर केवल उपाधि मात्र है। इस अपेक्षा उस समयके इतिहासमें इस नामका कोई राजा न मिलना कुछ अनोखापन नहीं रखता । अतः आवश्यक है कि तत्कालीन राजाओंमें ऐसे किसी वीर और पराक्रमी राजाका पता चलाया जाय, जो विक्रमादित्य उपाधिका अधिकारी होसके । इस अपेक्षा अब प्रायः सब ही विद्वान् इस समय एक विक्रमादित्य राजाका होना स्वीकार करने लगे हैं। जैन शास्त्र कहते हैं कि वह गर्दभिलका पुत्र था। और प्रतिष्ठानपुरसे आकर उसने शकोंको परास्त करके भारतका विदेशी लोगोंसे उद्धार किया था। जैन, अजैन एवं शिलालेखीय आधारसे मम० काशीप्रसाद जायसवाल इस परिणामपर पहुंचे हैं कि यह विक्रमादित्य प्रतिष्ठानपुरके आन्ध्रवंशका गौतमीपुत्र शातकर्णि नामका प्रसिद्ध राजा था। 'गाथासप्तशती' के कर्ता राजा हालने (ई० सन् २१) एक गाथामें विकमाइच (विक्रमादित्य) की दानशीलताका वर्णन किया है। इस उल्लेखसे विक्रमादित्य उपाधिधारी राजाका उनसे पहले होजाना सिद्ध है। वस्तुतः आन्ध्रवंशमें गौतमीपुत्र शातकर्णि हालसे पहले होचुके थे। उनका समय ई० पूर्व १००-४४ है। जैन शास्त्र विक्रमादित्यको प्रतिष्ठानपुरसे आया बताते ही हैं और उनकी जीवनघटनायें भी गौतमीपुत्र शातकर्णिके जीवनसे मिलती हैं। इस कारण उन्हें गौतमीपुत्र शातकर्णी मानना ठीक १-कैहिंइ०, भा० १ पृ० १६७–१६८, अलाहाबाद यूनीवर्सिटी स्टडीज, भा० २ पृ० ११३-१४७. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा और जन संघ । [ ६३ है । किन्तु जैन शास्त्र उन्हें गर्दभिल्लका पुत्र बताते हैं और गौतमीपुत्र संभवतः मेघस्वातिके पुत्र थे । इस भेदका सामञ्जस्य विक्रमादित्यको गर्द भिल्लका उत्तराधिकारी मानने से होजाता है । गर्दभिल्लवंश वस्तुतः आन्ध्रवंश से भिन्न है । जैन और अजैन शास्त्र उनका उल्लेख अलग-अलग ही करते हैं और यह निश्चित् है कि प्रतिष्ठानपुर में आन्ध्रवंश के राजा राज्य करते थे। अतएव प्रतिष्ठानपुरसे आया हुआ विक्रमादित्य गर्दभिल्लका पुत्र न होकर उत्तराधिकारी होना चाहिये । सोमदेवकी 'कथासरितसागर' से प्रगट है कि गौतमीपुत्रका वंशज कुन्तल शातकर्णि, जिसका राज्यकाल ७५-८३ ई० है, कलिंगके भिल्ल= ( गर्द भिल्ल) राजाका जामाता था और उसने पुनः शकोंको उज्जैनीसे भगाकर ' विक्रमादित्य' उपाधि ग्रहण की थी। इस प्रकार ' विक्रमादित्य ' उपाधिधारी राजा आन्ध्रवंश में दो हुए थे।' जैन लेखकने कुन्तलको गर्दभिल्लका जमाता जानकर पहले विक्रमादित्यको भ्रमसे उसका पुत्र लिख दिया प्रतीत होता है । इस दशामें पहले विक्रमादित्य अर्थात गौतमीपुत्र शातकर्णि जैन शास्त्रोंको विक्रमादित्य प्रगट होते हैं ! “ आवश्यकसूत्रभाष्य" से स्पष्ट है कि गौतमीपुत्रने नहपान शकको परास्त कर दिया था । उधर गौतमी पुत्र और ऋषभदत्तके शिलालेखों तथा नहपान के सिक्कों ने प्रमाणित है कि गौतमी पुत्रने नहपानको मालवा, सौराष्ट्र आदि देशों को शकोंसे मुक्त करदिया था । यह घटना ई० पू० ५८ की है। जैन शास्त्र भी विक्रमादित्यको १ - जविओसो० भा० १६ पृ० २५१-२७८. २ - जविओोसो०, , भा० १६ पृ० २५१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] संक्षिप्त जैन इतिहास । 'शकारि' और उसे ई० पू० ५८ में उनपर विजय प्राप्त करते लिखते हैं । जैन ग्रन्थोंसे यह भी प्रकट है कि जब विक्रमादित्य इस असार संसारको छोड़गये तो उनके पुत्र विक्रम चरित्र अथवा धर्मादित्यने ४० वर्षांतक मालवापर राज्य किया । धर्मादित्यके पुत्र भैल्यने ११ वर्षतक उस देशपर शासन किशा । उपरांत नैल्यने १४ वर्ष तक राज्यकिया। नल्यका उत्तराधिकारी नहड़ वा नहद हुआ, जिसने १० वर्ष राज्य किया। उसीके समयमें सुवर्णगिरि (शिखिर सम्मेदजी) पर भगवान महावीरजीका एक विशाल मंदिर निर्माण हुआ था।' इन नामोंमें 'धर्मादित्य' उपाधि प्रकट होती है, और विक्रमचरित्र कुंतलशातकर्णि ( विक्रमादित्य द्वितीय ) के अपरनाम' विवमशील ' ( चरित्र-शील ) का द्योतक है। ____ कुंतलके समयमें शकोंद्वारा धर्मका विध्वंश पुनः होने लगा था। उसने शकोंको मार भगाकर धर्मरक्षा की थी। इसी लिये उसको 'धर्मादित्य ' कहा गया है। किन्तु वह गौतमी पुत्रका उत्तराधिकारी न होकर उसके बाद उस वंशमें उतना ही प्रख्यात राजा था। गौतमीपुत्रका उत्तराधिकारी श्री बिल्व पुलोमवि प्रथम था। उक्त नामोंमें 'भैल्य' को दिल =(भिल्व भैल्य) का अप्रभंश कह सक्ते हैं; किन्तु शेष दो नामोंका पता आन्ध्रवंशावलीमें लगाना कठिन है। 'नहद' संभवतः स्कन्दस्वातिका द्योतक हो। जो हो, यह स्पष्ट है कि जैन लेखकने क्रमवार और ठीक नामोंसे विक्रमादित्यके उत्तरा १-जैसिमा० भा० १ किरण २-३ पृ० ३० । २-जविमोसो०, भा० १६ पृ० २०६। ३-जविमोसो० भा० १६ पृ० २७५-२७९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा और जैन संघ । [ ६५ धिकारियों का उल्लेख नहीं किया है; यद्यपि वह आन्ध्रवंश के राजाओंका ही उल्लेख करता प्रतीत होता है। गौतमीपुत्र शातकर्णिने अपने राज्याभिषेकके १८ वें वर्ष में शकोंको परास्त किया था । उस समय अर्थात् ई० पू० ५८ में उनकी अवस्था ४२ वर्षकी थी। आंध्र राज्यका भार उनपर ही विक्रमादित्य व जैनधर्म | बाल्यावस्था से - जन्मसे ही आन पड़ा था । चौवीस वर्षकी आयु प्राप्तकर लेनेपर पुरातन प्रथाके अनुसार उनका राज्याभिषेक हुआ था । इन चौवीस वर्षोंमें उनके नामपर राजमाता गौतमीने, शिवाजीकी माता जीजाबाईके समान, राजकाज किया था । उनका कुल राज्यकाल ५६ वर्ष था । ई० पू० ४४ में वह इस संसार को छोड़ गये थे। जैनोंकी पट्टावलियोंमें जो वीर निर्वाणसे ४७० वर्ष पश्चात् विक्रमादित्यका जन्म हुआ लिखा है तथा वीर निर्वाण संवत् विक्रम संवतके आरम्भसे ४७० वर्ष पहले वीर निर्वाण हुआ मानकर प्रचलित है. उम १८ वर्ष के अंतरका कारण मम० जायसवाल यही प्रगट करते हैं कि एक गणना गौतमी पुत्र शा० के जन्मसे राज्य करने ( विक्रमका जन्म होने ) की द्योतक है और दूसरी जिसके अनुसार वीर निर्वाण प्रचलित है उनकी शक विजयसे गिनी गई है; जिसकी स्मृतिमें वह संवत चला था, जो विक्रम संवतके नामसे प्रचलित है, उसमें इस बातका ध्यान नहीं रक्खा गया है कि वह घटना गौतमी पुत्र विक्रमादित्य के राज्यकाल के १८ वर्षकी है । जैनोंके इस मतभेदसे भी विक्रमादित्यका गौतमी पुत्र शातकर्णि होना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । प्रमाणित है ।' विक्रमादित्य अपने आरम्भिक जीवनमें ब्राह्मणधर्मके अनुयायी थे, किंतु शेष जीवन उन्होंने एक जैन गृहस्थ श्रावकके समान व्यतीत किया था । जैन ग्रन्थोंमें उनका वर्णन खूब मिलता है । 'वैताल पंचविंशतिका' सिंहासन द्वात्रिंशतिका' 'विक्रम प्रबन्ध' आदि ग्रन्थोंमें उनके चारित्रको प्रगट करनेवाली कथायें मिलती हैं। सचमुच वह एक आदर्श जैन गृहस्थ, महान शासक और विद्यारसिक राजा थे। उनके समयमें विद्या और कलाकी विशेष उन्नति हुई थी। कहा जाता है कि विक्रमादित्यने अपनी शक विजयकी स्मृ तिमें ई० पू० ५८ से एक संवत् भी चलाया विक्रम सम्वत । था और उस विक्रम संवत्का प्रचार जैनोंमें और उनके द्वारा विशेष हुआ था। किन्तु इतिहाससे पता चलता है कि यह जनश्रुति तथ्यपूर्ण नहीं है; क्योंकि गौतमीपुत्र शातकर्णि, जो विक्रमादित्य प्रमाणित होता है, ने अपने शिलालेखोंमें मंवत् न लिखकर अशोक आदि प्राचीन राजाओंके समान अपने राज्यके वर्ष लिम्व हैं तथा मालवा और राजपूतानासे ऐसे सिक्के ई० पू० प्रथम शताब्दिके मिले हैं, जिनसे मालवगण द्वारा उक्त संवतका प्रचलित होना प्रमाणित है। उन सिक्कोंमें 'मालवगणकी किसी महान् विजय' का उल्लेख है ('मालवानां जय'--'मालवगणस्य जय') यह मालवगण राज्य तब पूर्वीय राजपूतानामें स्थित था। मालूम होता है जिस समय गौतमीपुत्र शातकर्णिने मालवा १-जविभोसो० भा० १६ पृ० २५३-२५४ । २.-जैन पट्टावली और विक्रम प्रबंध देखो । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा और जैन संघ । [ ६७ और मौराष्ट्रकी और शकोंपर चढ़ाई की थी, उस समय उक्त गणने उसमें गहरा भाग लिया था और विक्रमादित्यकी महान विजयको अपनी विजय समझकर उसकी स्मृतिमें उक्त सिक्के डाले थे। उन्होंने इस महान विजयके उपलक्ष में संवत भी चलाया, जिसका प्रचार - राजपूताना और मालवा के लोगों में होगया । वही कालान्तर में विक्रम संवत के नामसे प्रसिद्ध होगया । विक्रम संवत् व विक्रम संवत्की उत्पत्ति उक्त प्रकार हुई स्वीकार करनेसे, जिसका स्वीकार करना उचित प्रतीत होता है, जैनोंमें प्रचलित विक्रम संवत् विषयक वीर संवत् । मान्यता अपना बहुत कुछ महत्व खो बैठती है, क्योंकि यह स्पष्ट होजाता है कि विक्रन संवत् न तो विक्रमादित्यके राज्यारोहण कालसे हुआ और न वह उसकी मृत्युका स्मारक है । हां, जैनोंकी तद्विषयक मान्यतामें ऐतिहासिक तथ्यांश अवश्य है; क्योंकि वह इस बातकी द्योतक है कि विक्रमादित्यपर राज्यभार जन्मते ही आगया था और अपने राज्यके १८वें वर्ष ई० पूर्व ५८ में उन्होंने शक विजय की थी. जैसे कि लिखा जाचुका है। उधर विक्रम विषयक जो जैन उल्लेख उपलब्ध हैं उन सबमें यही कहा गया है कि वीरनिर्वाण ४७० बाद विक्रमराजा हुआ और किन्हीं गाथाओं में स्पष्टतः उनका जन्म लिखा है । और यह निश्चित है कि विक्रम संवत् ई० पू० ५८ से विक्रमादित्य (गौतमीपुत्र शातकर्णि ) की शकविजय विषयक घटना के स्मारकरूपमें चला है । अतएव विक्रम संवत्से ४७० वर्ष पूर्व वीर १ - ज वेभोसो, भा० १६ पृष्ठ २५१-२५४. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] संक्षिप्त जैन इतिहास। निर्वाण हुआ मानना ठीक नहीं है। यह समय इसके राजा होनेका मानना ठीक है। मम. जायसवालजी, जैन और हिन्दू पुराणोंकी गणनाके आधारसे उसे ई० पूर्व ५४५में अर्थात् विक्रम संवत्से ४८८. वर्ष पूर्व सिद्ध करते हैं।' 'हरिवंशपुराण में श्री जिनसेनाचार्यने नहपानशकके राज्यकालका अन्तिम समय वीर निर्वाणसे ४८७ वा. वर्ष लिखा है और यह लिखा ही जाचुका है कि विक्रमादित्य गौतमीपुत्रने ई० पूर्व ५८में नहपानको परास्त करके उसके राज्यका अन्त करदिया था। अतः जिनसेनाचार्यके मतानुसार भी विक्रम संवत्से ४८७-४८८ वर्ष पूर्व वीरनिर्वाण हुआ प्रगट है। हम अन्यत्र इस ही मतको स्वतन्त्ररूपमें सिद्ध कर चुके हैं । फलतः वीर निर्वाणका शुद्ध रूप ई० पूर्व ५४५ मानना ठीक है। १-जविओसो० भा० १ पृ० ९९-१०५ व भा० १३ पृ०२४५. २-“वीरनिर्वाणकाले च पालकोऽत्राभिषिक्ष्यते । लोकेऽवंतिसुतो राजा प्रजानां प्रतिपालकः॥ पष्टिवर्षाणि तद्राज्यं ततो विजयभूभुजां । शतं च पंच पंचाशत् वर्षाणि तदुदीरितं ॥ चत्वारिंशत् पुरूढानां भूमंडलमग्वंडितं । त्रिंशत्तु पुष्यमित्राणां पष्टिवस्वग्निमित्रयोः॥शतं रासभराजानां नरवाहनमप्यतः । चत्वारिंशत्ततो द्वाभ्यां चत्वारिच्छतद्वयं ॥ भट्टवाणस्य तद्राज्यं गुप्तानां च शतद्वयं । एकविंशच्च वर्षाणि कालविद्भिरुदाहृतं ॥" ___"हरिवंशपुराण' के उक्त श्लोकोंके अनुसार वीरनिर्वाणके समय अवंतिके सिंहासन पर पालक राजाका अभिषेक हुआ था। उस वंशने ६० वर्ष, विजय (नंद ) वंशने १५५ वर्ष, पुरुढ वंशने ४० वर्ष, पुष्यमित्रने ३०, वसुमित्र अग्निमित्रने ६०, रासभ (गर्दभिल्ल) वंशने १००, नरवाहनने ४२; भट्टबाण (आन्ध्रभृत्य) ने २४२ और गुप्तवंशने २२१ वर्ष राज्य किया। नरवाहन, जो नहपानका द्योतक है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ranwww.arvaor अन्य राजा और जैन संघ। [६९ ईसवी प्रथम शताब्दिसे किंचित् पूर्वसे जैन संघकी दशा विचित्र हो रही थी। यह पहले ही लिवा दिगम्बर और श्वेतांबर जा चुका है कि सम्राट् चन्द्रगुप्तके समयमें संघ-भेद। जैनसंघमें मतभेद उपस्थित होगया था। और नये दलकी श्रीणधारा बल संचय करती हुई प्रथक रूपसे चलरही थी । स्थूलभद्रके बाद इस नई धारामें आर्यमहागिरि, आर्यसुहस्तिसूरि, सुस्थितमूरि, इंद्रदिन्नसूरि (काल्काचार्य ), प्रियग्रंथसुरि, वृद्धवादिसूरि, दिन्नसूरि, सिंहगिरि. वज्रस्वामी आदि अनेक आचार्य हुये; जिनकी वंशपरम्परा आजतक श्वेतांबर कुल ४८८ वर्षे होती हैं। श्वेताम्बरोंके तपागच्छकी पट्टावलीमें भी लगभग यही गणना लिखी गई है। जैसे कि निम्न कोष्टकके रूपमें मम० जायसवालजीने प्रगट की है:श्वे० पट्टावली हरिवंशपुराण पालक........वर्ष ६० पालक........वर्ष ६० नन्दवंश ........१५५ विजयवंश ........१५५ मौर्यवंश ........१०८ पुरुढ़वंश ........ ४० पुष्यमित्र ........ ३० पुष्यमित्र ........ ३० बलमित्र-भानुमत्र ६० वसुमित्र-अग्निमित्र ६० नहवान............ ४० रासभ (गर्दभिल्ल) १०० गर्दभिल्ल............१३ नरवाहन ........ ४२ शक................ ४ जोड़ ४८७ (विक्रमके राज्याभिषेक होनेतक १८ की वर्षे ) जोड़ ४८८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०] संक्षिप्त जैन इतिहास। सम्प्रदायमें चली आरही है। इनमेंसे आर्यमहागिरिने नई धाराको पुनः प्राचीन मार्गपर लेआनेके प्रयत्न किये थे । वह जिनकल्पी ( नग्न ) साधु थे और उन्होंने इस बातको स्वीकार किया था कि स्थूलभद्र द्वारा अनेक बातें धर्मके विरुद्ध प्रचलित होगई हैं । किंतु वह अपने सदप्रयासमें असफल रहे । भला वह नया संघ कैसे इन साधुमहात्माकी बात मानसक्ता था, जिसने श्रुतकेवली भद्रबाहुको संघ बाह्यसा करदिया था। उपरोक्त गणनामें सर्व अंतिम वज्रस्वामीका समय सन् ७१ ई० है । इनके समयमें रोहगुप्त नामक जैन साधुने एक मतभेद उपस्थित किया था। इनके शिष्य कनाढ़ द्वारा वैशेशिक दर्शनकी उत्पत्ति हुई थी। वज्रस्वामीके उत्तराधिकारी वज्रसेन हुये और इनके समयमें दिगम्बर और श्वेतांबर भेद बिल्कुल स्पष्ट होगया था। मौर्यकालकी क्षीणधारा इतनी वेगवती होगई थी कि वह पुरातन धाराके सम्मुख आडटी ! श्वेतांबर कहते हैं कि रथवीरपुरके राजाका एक नौकर मुनि होगया था। इसका नाम शिवभूति हुआ। राजाने इन्हें कीमती कम्बल भेंट किया, जिसे उनने स्वीकार कर लिया। किंतु उनके १-जैसा सं०, भा० १, वीर वंशावलि, पृ० ८-११ २-हॉजै० प्र० ७२ Mahagiri's rule is also noteworthy for his endeavours to bring the community back to their primitive faith and practice. He was a real ascetic and recognised that under Shulbhadra's sway many abuses had crept in to the order."-Heart of jainism. P. 72. ३-हॉजै० पृ० ७८ व जैसा सं० भा० १ वीर वंशा० पृ० १३ । ४-हाजै०, पृ० ७९। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा और जैन संघ । [ ७१ गुरुने शिवभूतिका कम्बलमे विशेष मोह देखा तो उसे फाड़कर फेंक दिया । शिवभृति नाराज होगया और नग्न रहने लगा । इसके दो शिष्य कौन्डिन्य और कट्टवीर हुये । इसकी बहिन उत्तराने भी साधु होना चाहा, परन्तु स्त्रीके लिये नग्न रहना असंभव जानकर शिवभूतिने उसे साधु दीक्षा नहीं दी और घोषणा करदी कि कोई जीव स्त्री भवसे मोक्ष नहीं जासकता । श्वेताबरोंकी इस कथा में कुछ भी ऐतिहासिक तथ्य नहीं है; क्योंकि बौद्ध ग्रन्थोंके आधार से सिद्ध किया जा चुका है कि जैन मुनियोंका प्राचीन भेष नम्न (दिगंबर) था और यह बात स्वयं श्वेतांबरोंके आर्य महागिरि विषयक उपरोक्त कथनसे भी स्पष्ट है । अतएव इस कथा में केवल इतनी बात तथ्यपूर्ण है कि जैन संघ में दिगम्बर और श्वेतांबर भेद इस समय पूर्ण प्रगट होगया था । 1 दिगंबर संप्रदायकी मान्यता के अनुसार हम देख चुके हैं कि सम्राट् खारवेलके पश्चात् नक्षत्र आदि आचार्य ग्यारह अंगके धारी हुये थे । इनके बाद सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोह ये चार आचार्य आचाराङ्गके धारक हुए । शेष कुछ आचार्य ग्यारह अंग चौदह पूर्वके एक अंशके ज्ञाता थे और ये सब ११८ वर्ष में हुऐ थे ।' इस प्रकार भगवान् महावीरजीके निर्वाण उपरांत ६८३ वर्ष में द्वादशांग वाणीका ज्ञान करीब २ बिलकुल लुप्त होगया; अर्थात् सन् १३८ में अंग पूर्वोका ज्ञान आंशिक रूप शेष रहा था । इस समयसे किंचित् पहले श्री धरसेनाचार्य हुये थे; दि० जैन संघ व उसके प्रभेद । १ - तिल्लोयपण्णत्ति, गा० ८० - ८२, जैहि० भा० १३ पृ० ५३२ । www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] संक्षिप्त जैन इतिहास। जिनके निकटसे नहपान राजाने जैन मुनि होकर षटखण्डागम ग्रन्थकी रचना करके उसे ज्येष्ठ शुक्ला पंचमीके दिन अंकलेश्वर (भड़ौच) में लिपिबद्ध किया था । इसी कारण यह पवित्र दिन "श्रुतावतार" के नामसे प्रसिद्ध है। श्रीधरसेनाचार्य गिरनारकी चंद्र-गुफामें बिराजमान थे। वहींपर नहपान राजर्षि (भूतबलि मुनि) और सुबुद्धि श्रेष्ठी ( पुप्पदन्त मुनि) ने उनसे शास्त्र ज्ञान प्राप्त किया था। ये दोनों ऋषि उस समय वेणातटकपुरके जैन संघमें निवास ही करते थे। गिरनारसे ये दोनों ऋषि कुरीश्वर देशमें पहुंच थे और वहांपर इन्होंने चातुर्मास किया था । पश्चात् दक्षिण भारतकी ओर इनका विहार हुआ था । पुप्पदन्त मुनि अपने भानजे जिन पालितको मुनि बनाकर दक्षिणके वनवास देशको चले गये थे और भूतबलि मुनि दक्षिण मथुराको प्रस्थान कर गये थे। इसी जिन पालितके निमित्तसे षट् खण्डागम ग्रन्थकी रचना हुई थी। श्री इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार कथाके अनुसार इस घटनाके पहले जैनसंघ नन्दि, देव, सेन, वीर (सिंह) और भद्र नामक संघोंमें विभक्त होगया था। ये विभाग श्री अर्हद्वलि आचार्य द्वारा किये गये थे । इनमें कोई सिद्धांत भेद नहीं हैं। किन्तु श्रवणबलगुलके शिलालेख नं० १०८ से प्रगट है कि अकलंकस्वामीके स्वर्गवासके पश्चात् संघ देशभेदसे 'सेन', 'नंदि', 'देव' और 'सिंह' इन चार भेदोंमें विभाजित हुआ था। श्री पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार प्रगट १-श्रुतावतार कथा, पृ० १६-२० २-जैशिसं० भूमिका, पृ० १४५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा और जैन संघ। [७३ करते हैं कि 'अकलंकसे पहलेके साहित्यमें इन चार प्रकारके संघोंका कोई उल्लेख भी अभीतक देखनेमें नहीं आया, जिसमे इस (शि० नं० १०८ के ) कथनके सत्य होनेकी बहुत कुछ सम्भावना पाई जाती है : संभव है मुख्तार सा० का यह अनुमान ठीक हो; किंतु कुशानकालके कौशाम्बीवाले लेग्वमें एक आचार्यका नाम शिवनंदि है और यह 'नंदि' विशेषण युक्त है। श्वेताम्बर संप्रदायमें भी इसी समयके लगभग अर्थात् वीर निर्वाणान्दसे ५८२ वर्ष बाद (१) नागिन्द्र, (२) चंद्र, (३) निर्वृति और (४) विद्याधर नामक चार शाखायें प्रगट हुई थीं; जिनसे ही उपरान्त ८४ गच्छ निकले थे। अतएव अर्हद्वलि आचार्यके समयमें ही दिगम्बर जैन संघ चार भागोंमें विभक्त हुआ हो तो कोई आश्चर्य नहीं ! अर्हद्वलिको श्री गुप्तिगुप्ति और विशाखाचार्य भी कहते हैं-श्री अर्हद्वलि, माघनंदि, धरसेन, पुप्पदन्त और भूतबलि, ये सब प्रायः एक ही समयके विद्वान् प्रतीत होते हैं। ____बलात्कारगणकी उत्पत्तिके विषयमें कुछ ज्ञात नहीं है। डॉ० हॉर्णले अनुमान करते हैं कि अर्हद्वलिके नाम अपेक्षा ही इस गणकी उत्पत्ति हुई है। नंदिगण, देशीगण और बलात्कारगण परम्पर अभिन्न हैं। गणभेद जैन संघमें भगवान महावीरजीके समयसे , १-रश्रा०, जीवनी पृ० १८१ । २-संप्राजैस्मा० पृ० २५ । ३-जैसा सं०, भा० १, वीर वंशावलि, पृ० १५ । ४-श्रा०, जीवनी, पृ० १८७ । ५-इंऐ०, भा० २०, पृ० ३४२ । ६-जैशि० सं०, भूमिका पृ० १४६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४] संक्षिप्त जैन इतिहास । विद्यमान था । उपरान्त इस गणके अनेक भेद देश अथवा आचार्यपरम्परको लक्ष्य करके होगये हैं। उदाहरणतः ‘देशीगण'को ले लीजिये । 'बाहुबलिचरित्र' में इस गणके आचार्योकी प्रसिद्धि देश देशान्तरों (देशदेशनिकरे ) में होनेके कारण इसका नाम देशीगण पड़ा बतलाया है; किंतु मि० गोविन्दपै इस व्याख्याको स्वीकार नहीं करते हैं। वह कहते हैं कि दक्षिण भारतके पश्चिमीयघाट, बालाघाट, कर्णाटक और गोदावरी नदीका मध्यवर्ती प्रदेश 'देश' नामसे प्रसिद्ध है और वहांके ब्राह्मण आज भी 'देशस्थ ब्राह्मण कहलाते हैं। अतः नंदिसंघके आचार्योंका केंद्र इस देश नामक प्रदेशमें रहनेके कारण 'देशीयगण' के नामसे विख्यात हुआ उचित जंचता है । 'पुन्नाट गण' पुन्नाट देशकी अपेक्षा प्रसिद्ध हुआ मिलता ही है। इस प्रकार प्राचीन आचार्य परम्परा आजतक दि० जैनोंमें भी चली आरही है। जब सन् ८०-८१ ई० में जैन संघ दिगंबर और श्वेतांबर इन दो संप्रदायोंमें विभक्त होगया; तब दि० सम्प्रदाय 'मूलसंघ' (Real Saugia) के नामसे प्रसिद्ध हुआ; क्योंकि उसकी मान्यतायें प्राचीन जैनधर्मके अनुसार थीं। किंतु इस नामकरणकी तिथि बतलाना कठिन है। अब दिगम्बर जैन दृष्टिसे भी संघ भेदपर एक नजर डालिये। १-बौद्धोंके 'दीर्घनिकाय' (१४८-४९) में भगवान महावीरको गणाचार्य लिखा है। गणधरोंके अस्तित्वसे गणका होना स्वत: सिद्ध है। २-द्रव्य संग्रह (S. B.J., Vol. I.) भूमिका पृ० ३० । ३-'महाराष्ट्रीय ज्ञानकोष', भा० १५-'देश' लेख देखो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा और जन संघ । [ ७५ श्री देवसेनाचार्यजीके " दर्शनसार " नामक दि० मतानुसार वे० ग्रन्थके अनुसार विक्रम संवत् १३६ में संप्रदाय की उत्पत्ति । श्वेतांबर संप्रदायकी उत्पत्ति हुई प्रमाणित है ।' मोरठ देशकी वल्लभी नगरी में यह संप्र दाय उत्पन्न हुआ था । किन्तु भट्टारक रत्ननंदिके 'भद्रबाहु चरित्र' एवं श्रवणबेलगोलके शिलालेखों तथा श्वेतांबरोंकी मान्यताओंसे प्रगट है, जैसे कि हम देख चुके हैं कि जैनसंघ में भद्रबाहुजी श्रुतकेवलीके समय ही भेद पड़ गये थे । बौद्ध ग्रंथोंसे भी जैन संघका भगवान् महाबीरके उपरांत विभक्त होना सिद्ध है । ये बौद्ध ग्रंथ सम्राट् अशोक के समय संशोधित और निर्णित हुये थे । अतएव सम्राट् चंद्रगुप्त के समय में जैन संघ में भेद पड़ा देखकर उन्होंने उक्त प्रकार उल्लेख किया है । इस दशा में देवसेनाचार्यका सं० १३६ ( सन् ८०-८१ ) में श्वेतांबरोंकी उत्पत्ति होना बताना कुछ उचित नहीं जंचती; किन्तु उनका यह कथन तथ्यपूर्ण है । श्वेतांबर भी दिगम्बर संप्रदाय की ओर से उपस्थितकी जानेवाली गाथा के समान ही एक गाथा द्वारा दिगम्बरों की उत्पत्ति लगभग इसी समय प्रगट करते हैं । उसपर भट्टारक रत्ननंदिके 'भद्रबाहु चरित्र ' १ - छत्तीसे वरिससए विक्कमरायस्स मरण पत्तस्स | सोट्ठे बल - - हीए उप्पण्णो सेवडो संघो ।। ११ ।। - दर्शनसारः । २-दीनि० ३ पृ० ११७- ११८, मनि० भा० २पृ० १४३ व भमवु० पृ० २१४ ३ - "छवास सहस्सेहिं नवुत्तरेहिं सिद्धिं गवस्स वीरस्स । तो बोडिया विट्ठी रहवीरपुरे समुपन्ना ॥” किन्तु गाथा दिगम्बर ग्रन्थकी निम्न गाथाका श्वेतांबरोंकी यह प्रमाणभूत रूपांतर प्रतीत होता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com - Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६] संक्षिप्त जन इतिहास। - से प्रगट है कि भद्रबाहु स्वामीके समय संघ भेद उपस्थित हुआ, तब क्षीण रूपमें प्राचीन निग्रंथ संघसे एक शाखा अलग होगई थी और वह अपने सिद्धांत ग्रन्थ आदि ठीक करनेमें व्यग्र रही थी। वह 'अर्द्धफालक' संप्रदाय थी और इसके साधु खण्ड वस्त्र ग्रहण करते थे । श्वेतांबरोंका पूर्वज यह 'अर्द्धफालक' संप्रदाय था। कतिपय विद्वान् ‘अर्द्धफालक' संप्रदायका अस्तित्व स्वीकार नहीं करते हैं; किन्तु मथुराके पुरातत्वसे इस सम्प्रदायका अस्तित्व प्रमाणित होता है। मथुराका प्लेट नं० १७ एक तोरण स्तम्भका चित्र है। इसमें एक जैन साधु सवस्त्र दिखाया गया है। इसी प्रकार एक पद्मासनस्थ जैन मूर्ति सारे शरीरपर वस्त्र पहरे हुए प्लेट नं० १६के चित्रमें दर्शाई गई है। नं० १७ वाली प्लेट में दूसरी ओर जो दृश्य अङ्कित है, वह अर्द्धफालक सम्प्रदायके अस्तित्वकी प्रमाणिक साक्षी है । उसके ऊपरके अंशमें एक स्तूप है और उसके दोनों ओर दो दो तीर्थकर हैं । नीचेके अंशमें एक मुनि हाथकी कलाईपर कपड़ा डाले हुये खड़े हैं। उनका सीधा हाथ कंधेकी ओर उठा हुआ है, जिसमें क्योंकि स्वयं श्वेतांबराचार्य जिनेश्वरसूरिने दिगम्बरोंके इस गाथाका उल्लेख किया है:-"छब्बास सएहिं न उत्तरेहिं तत्था सिद्धि गयस्स वीरस्स । कंवलियाणं दिट्ठी बलही पुरिए समुप्पण्णा ॥” जैहि० भा० १३ पृ० ४०० । १-जैस्तूप० पृ० २४। २-जैस्तूप० पृ० ४१ । श्वेतांबर शास्त्र अपनी मूर्तियों में वस्त्र चिन्ह अंकित करना बतलाते हैं। उनमें मूर्तियोंको वस्त्राच्छादित बनाने का विधान हमारे देखने में नहीं आया। भूमूर्तिको वस्त्रालंकारसेषित करनेकी प्रथा श्वेतांबरों में अर्वाचीन है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा और जैन संघ। [७७ पार्छी है उनका नाम 'कन्ह' लिखा हुआ है। इसपर कुशन मं. ९५ का एक लेख है जिसमें कोटियगण थानियकुल और वैरशाखाके आर्य अरहका उल्लेख है। इन गणादिका पता संभवतः श्वेतांबरोंकी स्थिविरावलीमें लगता है। इस दशामें 'अर्धफालक संप्र. दायको श्वेतांबरोंका पूर्वज मानना अनुचित नहीं है। इम पटके मुनि अर्धफालक सम्प्रदायके मालूम होते हैं. क्योंकि इनके पास कपड़ेका केवल एक टुकड़ा ( खंडवस्त्र ) ही है । और यह चित्र है भी उस समयका जब श्वेतांबर और दिगंबर भेद पूर्णतः व्यक्त होनेके सन्निकट था । ऐसे समयमें जैन संघमें एक महा क्रान्तिी उपस्थित हुई प्रतीत होती है । यही कारण है कि नं० १६ व नं० १७ के प्लेटोंमें सवस्त्रधारी मूर्ति और साधुतक दर्शाये गये हैं। मालूम ऐसा होता है कि मौर्यकालसे ईसवी सन्के प्रारम्भिक समयतकके अन्तरालमें वह शाखा जो प्राचीन निग्रंथ (नग्न) मंघमे अलग हुई थी, इतनी बलवान होगई थी कि वह अब तीर्थों और मूर्तियोंपर भी अपना अधिकार स्थापित करनेकी चेष्टा करने लगी थी । भगवान् कुंदकुंदाचार्य इसी समय हुये थे और उनके वक्तव्योंसे स्पष्ट है कि उनके समयमें अवश्य ही जैन मुनि वस्त्र धारण करने लगे थे, अपने मन्तव्यको पुष्ट करनेवाले ग्रन्थ रचने लगे थे और मूर्ति आदिके लिये झगड़ने लगे थे। आचार्य महाराजने तिलतुषमात्र परिग्रह रहित दिगंबर मुनिको ही चैत्यग्रह बतलाया है। उन्होंने लोगोंका ध्यान व्यवहारकी ओरसे हटानेका प्रयत्न किया था; क्योंकि उसमें निवृत्ति मार्गके उपासक साधु लोग भी बुरी तरह फंस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | गये थे । दिगम्बर और श्वेतांबर, दोनों संप्रदायोंके ग्रंथोंसे प्रकट है कि इस कालके लगभग तीर्थों के संबन्ध में दोनों संप्रदायोंमें झगड़ा हुआ था । कुंदकुंदाचार्यने उज्जयंत ( गिरिनार ) पर सरस्वतीकी पाषाण मूर्तिको वाचाल करके नग्न रहनेवाले निर्ग्रथ साधुओंके पक्षको सबल बनाया था । ४ श्वेतांबरों के पूर्वज ( Fore runners ) प्राचीन मूर्तियोंकी आकृतियोंको नहीं बदल पाये थे अर्थात् इस समयतक जैन मूर्तियां बिलकुल वस्त्र चिह्न रहित नग्न बनाई जाती थीं; जैसे कि मथुरा और खण्डगिरिकी गुफाओंवाली प्राचीन मूर्तियोंसे प्रमाणित है । प्राचीन मूर्तियोंको भले ही श्वेतांबर बदलने में असमर्थ रहे हों; किंतु उन्होंने नवीन मूर्तियोंको वस्त्र चिह्नाङ्कित बनाना प्रारम्भ कर दिया था, इसमें संशय नहीं । जैन संघ में हुई इस क्रांतिका कटु परिणाम यह निकला कि वि० सं० १३६ (सन् ८० ई०) में दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदायोंकी जड़ खूब पुख्ता जम गई और उनमें आपसी विरोध पड़ गया । • भद्रबाहु द्वितीय संभवतः इस समय दि० सम्प्रदाय के अध्यक्ष थे । " उपरोक्त वर्णनने स्पष्ट है कि भगवान् महावीरजीके निर्वाण कालसे लेकर ईसवी सन् के प्रारंभिक काल तत्कालीन जैनधर्म | तक के समय में जैनधर्म में बड़ा अंतर पड़ गया था । द्वादशांगवाणी बिलकुल लुप्त होगई थी । उसके स्थानपर नये २ ग्रन्थ आचार्यों द्वारा रचे जाने लगे थे। उधर I १ - विशेष के लिये देखो 'वीर' वर्ष ४ पृ० ३०४-३०९ । २ - ' प्रत्रचन परीक्षा' प्रकरण १ - जैहि० भा० १३ पृ० २८९ । ३ - ईऐ०, भा० २० पृ० ३४२ । ४ - जैहि० भा० ५- ईऐ०, भा० २० पृ० ३४२-३४३ । १३ पृ० २९० । , Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • अन्य राजा और जैन संघ । [ ७९ श्वेतांबर संप्रदाय में अपने मनोनीत ढंगपर द्वादशांगवाणीका पुनरुद्धार किया गया था। जिन प्रतिमाओंका रूप भी इस संप्रदायने बदल दिया था । श्वेतांबर साधु वस्त्र धारण करने लगे थे । इन मान्यताओंको लक्ष्य करके श्वेतांबर संप्रदाय में वस्त्र सहित अवस्थासे भी - मोक्ष प्राप्त कर लेना विधेय ठहराया गया था। श्री मुक्ति, केवली कवहार आदि बातें भी स्वीकार की गई थीं । किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय में प्राचीन मान्यताओंको ही स्थान मिला रहा और इस संप्रदायके अनुयायियों में तबतक पुरातन रीतिरिवाजों की मान्यता रही; यद्यपि दिगम्बर संघ भी चार भागों में विभक्त होगया था और ग्रह- स्थोंमें भी अनेक उपजातियां उत्पन्न होगई थीं । अब भी दिगम्बर जैन धर्मका द्वार प्रत्येक प्राणीके लिये खुला हुआ था । जिस प्रकार भगवान महावीरजीके समय में विदेशियों और चोर, डाकुओंके समान पतित लोगों को उनके धर्ममें शरण मिली थी; वैसे ही इसकाल अर्थात् ई० सन्के प्रारम्भमें भी शकोंक सदृश विदेशी लोगों और वेश्यायों जैसे पतित व्यक्तियोंको जैन रीत्यानुसार धर्माराधन करने का अवसर मिला था । नहपान राजा विदेशी शक जातिका था, पर तो भी जैनमुनि होकर उन्होंने हमें द्वादशाङ्ग वाणीका आंशिक ज्ञान कराकर बड़ा उपकार किया है । देवसंघके जैनमुनियोंने देवदत्ता नामक वेश्या के घर में चातुर्मास व्यतित करके जैन धर्मके पतित पावन रूपको स्पष्ट कर दिया था। इतना ही क्यों ? १ - ईऐ, भा० २० पृ० ३४६ 'यो देवदत्ता वेश्यागृहे वर्षायोगो स्थापितवान् सहदेवसंवश्चकार ||४|| Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ] संक्षिप्त जैन इतिहास | मथुराके पुरातत्वसे नर्तक लोगों, रंगरेजों और गणिकाओं द्वारा अर्हत् भगवानकी पूजाके लिये जिन मंदिर आदि बनने का पता चलता है । ' ર 3. ये सब बातें उस समय भी जैन धर्मके व्यापक रूपकी द्योतक हैं। साथ ही श्रावकोंमें परस्पर प्रेम व्यवहारका अभाव नहीं था । उनमें परस्पर सामाजिक व्यवहार होता था । एक वणिकका विवाहक्षत्रियाणी साधर्मीके साथ होनेका उदाहरण मिलता है । उपजातियोंमें परस्पर विवाहसम्बन्ध तो बारहवीं - तेरहवीं शताब्दि तक होते रहे थे जैसे कि आबूपर के वस्तुपालवाले शिलालेखसे प्रगट है। उपजातियोंका जन्म यद्यपि इस समय होगया था; किंतु प्रनको विशेष महत्व प्राप्त नहीं था । शिलालेखों और शास्त्रोंमें उनका उल्लेख ' वणिक ' या ' वैश्य ' नामसे मिलता है । उनमें परस्पर कुछ भी भेदभाव न था । जिस प्रकार आज एक ही उपजातिके विविध गोत्र ग्रामों अपेक्षा, जैसे काशलीवाल, रपरिया आदि स्वतंत्र रूपमें उल्लि खित होते हुए भी उपजाति से कुछ भी विरोध नहीं रखते; इसी तरह मालूम होता है, उस समय एक बड़ी वैश्य जातिके अन्तर्गत यह उपजातियां ग्रामादि अपेक्षा अपना प्रथक् नामकरण रखते हुए भी उससे विलग नहीं थीं । १ - 'वीर' वर्ष ४ पृ० ३०२ - Mathera jain image inscription of sam: 25 records the gift of Vasu, the wife of a dyer....... इऐं०, भा० ३३ पृ० ३७-३८ २ - वीर, वर्ष ४ पृ० ३०१ ३ - प्राजैलेसं० पृ० ८७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा ओर जैन संघ । जिस समय इस भरतक्षेत्र में कर्मभूमिका प्रादुर्भाव हुआ था, तब यहांके मनुष्योंमें किसी भी प्रकारकी उपजातियोंकी कोई जाति अथवा वर्णव्यवस्था नहीं थः । उत्पत्ति । जनता कर्मभूमिके कर्तव्योंसे आरिचित थी और वह भयभीत हुई तत्कालीन राजा ऋष. भदेवके सन्निकट सभ्यताकी प्राथमिक शिक्षा ग्रहण कर रही थी इसी समय ऋषभदेवने जनताकी समुचित रक्षा और उन्नतिके भावसे वर्ण अथवा जाति व्यवस्थाको जन्म दिया था। उन्होंने उन पुरुषोंको 'क्षत्रिय' संज्ञासे विभूषित किया, जिनको जनताकी रक्षाके योग्य समझकर यह भार सौंपा गया। इसी प्रकार मनुष्योंकी योग्यताके अनुसार वैश्य और शूद्र निपत हुए । तथापि भरत महाराजने ऋषभदेवजी द्वारा धर्मकी प्रवर्तना होनेपर उपरोक्त तीनों वर्णो मेंके व्रती पुरुषोंमेंसे ब्राह्मण वर्णकी स्थापना की थी। जैसे कि प्रथम भागमें लिखा जाचुका है ।' मूलमें यहांपर इस प्रकार चातुर्वर्णमय व्यवस्था थी । इन चारवोंके साथ विविध कुलोंकी स्थापना भी होगई थी। यह अधिकांश कुटुम्बोंके महापुरुषों अथव। ग्रामोंकी अपेक्षा हुई थी; जैसे राजा अर्ककीर्तिकी अपेक्षा अर्क अथवा सूर्यवंश और यदुकी अपेक्षा यदुवंश विख्यात हुए थे । भगवान महावीरजीके समय तक यह. चातुर्वर्ण व्यवस्था समुचित रीतिसे चल रही थी; किंतु उसके उपरांत ये वर्ण अनेक उपजातियोंमें विभक्त होचले थे। जैनाचार्य इंद्रनंदिजी पंचमकालके प्रारंभमें ग्रामादि अपेक्षा इन उपजातियोंका जन्म हुआ लिखते हैं । इतिहासकी स्वाधीन साक्षीसे भी प्रमाणित है ६-सज इ० भा० १ पृ० ४२ व आदि पुराण, पर्व ३९। २-नीतिसार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ संक्षिप्त जैन इतिहास । कि उपजातियोंकी जड़ बौद्ध कालमें पड़ गई थी' और वह गुप्तकालमें आकर पल्लवित हुई थी ! अग्रवाल जातिकी उत्पत्ति लगभग इसी समय हुई थी। कहते हैं कि अयोध्याके राजा मानधाताकी ५२ अग्रवाल वैश्य जाति। वीं पीढ़ीमें वीर निर्वाणसे ४९८१ वर्ष पूर्व श्री नेमिनाथजीके तीर्थकालमें अग्रसेन नामक राजा थे। उनके पिता महावीर दिगम्बर मुनि होगये थे । उनके मुनि होनेपर राजकुमार अग्रसेनको वीर नि० पूर्व ४९४६ में राजगद्दी मिली थी। सन् ४५२१ वी० नि० पूर्वमें उन्होंने मिश्र देशके जैनधर्मी राजा 'कुरुषविन्दु' पर आक्रमण किया था और इस युद्ध में यह वीर गतिको प्राप्त हुये थे । राजा अग्रसेनने वेदानुयायी पातञ्जलि नामक ऋषिके उपदेशसे अपने पितृधर्म-जैनधर्मका परित्याग कर दिया था । यदि यह पातञ्जलि ऋषि पातञ्जलिभाप्य'के कर्ता हैं, तो राना उग्रोनका समय भगवान नेमिनाथजीके तीर्थमें होना अशक्य है; परन्तु ऐसा कोई साधन नहीं है जिसके आधारपर उक्त दोनों पातञ्जलि एक माने जावें ! जो हो, इन्हीं राजा अग्रसेनके १८ पुत्र हुये थे। जिस समय इन १८ पुत्रोकी संतान राजच्युत होगई, तो वह राजा र ग्रोनके नाम अपेक्षा ‘अग्रवाल' नामसे प्रसिद्ध हुई । प्राचीन जैन लेखमें इसका उल्लेख 'अग्रोत' वंशके रूपमें हुआ मिलता है। राजा अग्रसेनकी संतति में कई पीड़ियोंतक वैदिक धर्मकी मान्यता रही थी। किंतु उपरत आरोहापति राजा दिवाकरदेवके राज्यमें वीर नि० सं० ५१५ ५६५के लगभग (वि० सं० २७-७७ १-बुई०, पृ० ५५-५९ २-भाइ०, ९३-९९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८३ के अन्तर्गत) जैनाचार्य श्रीलोहार्यजीके उपदेशसे जैनधर्म फिर इस वंश में स्थान पागया; जिसे इस जातिके बहुत से लोग आज भी पालन कर रहे हैं । इस प्रकार अपने क्षत्री धर्मसे युत होकर अग्रवाल जाति व्यापार - प्रधान होजाने के कारण वैश्य वर्णमें परिगणित होगई है !" खंडेलवाल जाति की उत्पत्तिका समय भी करीवर यही है । यह जनश्रुति है कि वि० स० १ में खंडेलवालकी उत्पत्ति ! किसी जिनसेन नामक जैनाचार्यने राजपूतानेके खण्डेला नामक ग्रामके राजाको प्रभावित करके जैनधर्म में दीक्षित किया था । राजा के साथ उसके ८२ ग्रामोंके सरदार भी अपनी प्रजा समेत जैनी होगये थे । इन ८२ ग्रामोंके अतिरिक्त दो ग्रामोंके सुनार ( सोनी) भी जैनी हुवे थे। जैनाचार्य ने इनका उल्लेख 'खंडेलग्राम' की अपेक्षा ' खंडेलवालान्वय' के नामसे किया था । इसी कारण इनकी प्रसिद्धि खण्डेलवाल नामसे हुई है । राजभृष्ट होकर व्यापार करने लगने के कारण यह जाति भी वैश्योंमें गिनी जाने लगी है । उपरोक्त ८४ ग्रामोंकी अपेक्षा इस जातिमें ८४ गोत्र भी हैं । " अन्य राजा और जैन संघ । · ओसवाल जातिका जन्म भी इसी ढंगपर हुआ कहा जाता है । ईस्वी दूसरी शताब्दिमें किसी जैनाचाने ओसिया नामक नगरके निवासी राजपूत लोगोंको जैनधर्मानुयायी बनाया था। इस ओसवाल, जातिका प्रादुर्भाव | १ - अग्रवाल इतिहास व बृजेश० भा० १ पृ० ७१-७२ । , २- खण्डेवाल जैन इतिहास व हि० भा० १ १०३३३ और , हिवि० भा० ५ पृ० ७१८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४] संक्षिप्त जन इतिहास । ओसिया नगरको लक्ष्य करके इनका नामकरण 'ओसवाल' होगया है। इनमें अधिकांश लोग अब व्यापार करने लगे हैं । इस कारण यह लोग भी वैश्य माने जाते हैं । अंग्रेजोंके भारतमें अधिकार जमानेके समय तक इनमें बड़े २ योद्धा हो. चुके हैं। अब भी कई देशी रियासतोंमें ओसवाल लोग दीवान या मंत्रिपदपर नियुक्त हैं : लमेचू (लम्बक चुक) जातिका निकास भी लगभग इसी समय हुआ था। पन्द्रहवीं शताब्दिके शिलालेखों लम्बकञ्चुक जातिका एवं पट्टावली आदिसे इस जातिका मूलमें जन्म । यदुवंशी होना प्रमाणित है। कहा जाता है कि यदुवंशमें एक राजा लोमकरण ( या लम्बकर्ण ) नामक हुये थे । और वह लम्बकाञ्चन नामक देशमें जाकर राज्य करने लगे थे। उन्हींकी संतान ‘लग्बकाञ्चन' नामक देशकी अपेक्षा लम्बकञ्चुक नामसे प्रख्यात हुई थी। इसपरसे श्री० पण्डित झम्मनलालजी तर्कतीर्थ आदि लंबेचू विद्वान् अपनी जातिका निकास भगवान् नेमिनाथजीके तीर्थमें हुआ अनुमान करते हैं किंतु यह ठीक नहीं है, क्योंकि भगवान् नेमिनाथजीके मोक्ष चले जानेके बाद द्वारिका सब ही यदुवंशियों समेत जलकर भस्म होगई थी। केवल कृष्ण, बलराम और जरतकुमार बचरहे थे । कृष्ण और बलरामकी भी जीवनलीलायें शीत्र समाप्त होगई थीं । यदुवंशका नाम लेवा मात्र जरत्कुमार रह गया । इस जरत्कुमारकी पट्टरानी कलि १-मप्राजैस्मा०, पृ० १५२ । २-प्राजैलेसं०, भा० १ पृ० ८३-८४ । ३-लंबेचू जातिका परिचय, नामक पुस्तक देखो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा और जैन संघ। [८५ ङ्गराजकी पुत्री थी । जरत्कुमार अपनी ससुराल में जाकर रहने लगा और वहांपर उसका पुत्र वसुध्वज राज्याधिकारी हुआ था। वसुकी छठी पीढ़ीमें जितशत्रु नामक कलिङ्गका राजा भगवान महावीरजीका समकालीन था और जैन मुनि होगया था; यह पहले लिखा जाचुका है। उसके बाद कलिंङ्ग राज्यका क्या हुआ ? यह कुछ पता नहीं चलता । शायद किसी अन्य राजाका वहांपर अधिकार होगया हो । जैन सम्राट् खारवेलके शिलालेखके अनुसार कौशल देशके राजाका कलिङ्गमें आधिपत्य जमना प्रगट है। किंतु बीचमें मगधके नन्दराज भी वहां कुछ वर्षोंतक राज्याधिकारी रहे थे। अतः यह निस्सन्देह ठीक प्रतीत होता है कि कलिङ्गमें यदुवशी जरत्कुमारके वंशज राजभ्रष्ट होगये थे । मालूम होता है कि वह कलिङ्ग छोड़कर कहीं अन्यत्र चले गये थे। अतः लोमकरण राजा इसी समय हुये होंगे। जरत्कुमारकी संतानमें उनका होना संभावित है; क्योंकि भगवान महावीरजीके समयतक यदुवंशके जो राजा हुए उनमें इस नामका कोई राजा नहीं है। इस अवस्थामें नंदराजद्वारा पराजित होकर कलिङ्गसे निकलनेपर जो राजा इस वंशमें हुए, उनमें ही लोमकरण राजाका होना सुसंगत है । इस अपेक्षा वह ईसवी पूर्व पहली व दूसरी शताब्दिमें हुए अनुमान किये जासकते हैं। उन्हें भगवान नेमिनाथजीके समयमें हुआ मानना ठीक नहीं है। लमेचुओंकी पुरानी पट्टावलियोंमें राजा लोमकरण अथवा लम्बकर्णको १-हरि० पृ० ५८७-६०२ और ६२३। २-जविओसो० भा० ३ पृ० ४३५-४३८। ३-हरि० पृ० ६२३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६] संक्षिप्त जैन इतिहास। अपना देश छोड़कर लम्बकांचन देशमें राज्य स्थापित करते लिखा है।" ___ यह घटना भी कलिङ्गसे यदुवंशियों (हरिवंशी) के अन्यत्र जानेके उल्लेखसे ठीक बैठती है । किन्तु कोई महाशय लम्बकांचन देशको द्वारिकाका निकटवर्ती अथवा उसका अपर नाम ही समझते हैं; । पर यह नाम द्वारिकाका अथवा उसके आसपासवाले किसी देशका नहीं मिलता। इस कारण लम्बकांचन देशको गुजरातमें मान लेना कटिन है । ' राजावली कथा ' में भी समन्तभद्र स्वामीके भ्रमण सम्बन्धी वर्णनमें एक देश ' लाम्वुश' भी उल्लिखित हुआ है और वह मणुवकहल्ली नामक देश अथवा नगरके बाद गिनाया गया है। इसका सादृश्य लम्बकांचनसे है । संभव है कि लाम्बुशका अपर नाम लम्बकांचन हो । ___ मणुवकहल्ली देश दक्षिण भारतमें स्थित प्रतीत होता है। अतएव लावुश देश उसके समीप ही कहीं होना उपयुक्त है । यदि लम्बकाञ्चनको एक संयुक्त नाम माना जाय, तो प्रगट है कि 'लम्ब' तो 'लाम्बुश' का द्योतक है और 'काञ्चन' जैनोंके प्राचीन केन्द्र कांचीपुरका परिचायक होसक्ता है। इस दशामें लम्बकाञ्चन देश दक्षिणमें ठहरता है और उसका वहांपर होना इसलिये संभव है कि कलिङ्गसे आया हुआ राजकुल दक्षिणके निकटवर्ती प्रदेशमें कहीं ठहरेगा, वह एकदम गुजरात नहीं पहुँच जायगा । दक्षिण भारतके तामिल देशमें ईसवी प्रारंभिक शताब्दियोंमें लम्बकर्ण नामक क्षत्रिय प्रसिद्ध थे, यह बात इतिहाससे सिद्ध है। उधर पट्टावलीमें १-लमेचूओंका इतिहास, पृ० १२-१५ । २-उत्कर्ष, वर्ष १ सं० ६ पृ० १४१। ३-रश्रा०, जीवनी पृ० ३२। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा और जैन संघ । [ ८७ यह कहा गया है कि सं० १४९ में राजा लोमकरण या लम्बकर्णकी संतानको लम्बकाञ्चन देश छोड़ना पड़ा था और वह राज्यसे हाथ धोकर राजपूताने की ओर चले आये थे । आठवीं शताब्दिके कवि धनपालने 'भविष्यदत्त चरित्र में लम्बकर्ण क्षत्रियोंको उज्जैनके आसपास बसा लिखा है । अतः यह संभव है कि दक्षिण भारत के लम्बकर्ण क्षत्रियोंका सम्बन्ध पट्टावलीके राजा लम्बकर्ण से हो । अपना राज गंवाकर इन क्षत्रियोंने वणिकवृत्ति गृहण कर ली थी । इसी कारण यदुवंशी लोमकरण या लम्बकर्णकी सन्तान लमेचू आज क्षत्री न होकर वैश्य है । इनका जन्म भी ईसवी सन् के प्रारम्भ हुआ प्रगट है ।' इसी प्रकार अन्य जातियोंकी उत्पत्तिका पता लगाया जासक्ता है; किंतु यह बात नहीं है कि सब ही जैन जातियां राजभ्रष्ट क्षत्रियोंकी संतान हैं । प्रत्युत जैसवाल, पोरवाल आदि जातियां मूलमें वैश्य वर्णकी हैं । उनका नामकरण जायस व पोर नामक ग्रामोंकी अपेक्षा हुआ है । मागधी व्यापारियोंकी जाति तो पहलेसे प्रख्यात थी । ये बड़े वीर, पराक्रमी, चालाक और नीति-निपुण थे । पिता अपेक्षा यह व्यापारी थे और माता इनकी क्षत्री थीं। इस प्रकार उपजातियों की उत्पत्तिका इतिहास है । यह सनातन नहीं हैं; बल्कि विशेष कारणों से हजार डेढ़ हजार वर्ष पहले इनका जन्म हुआ था । इनके इतिहाससे प्रकट है कि एक वर्णके व्यक्ति किस तरह दूसरे वर्णके होते हैं ! } १ - वीर, भा० ७ पृ० ४७० - ४७१ । २ - ऐरि०, भा० ९ पृ० ७९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] संक्षिप्त जैन इतिहास। (४) गुम साम्राज्य और जैनधर्म । (सन् ३२०-५०० ई०)* ईसाकी प्रारम्भिक शताब्दियोंके अंधकारापन्न इतिहासको पार ___कर जब हम कुछ उजालेमें पहुंचते हैं, तो गुप्त राजवंशका आदि- एक नये वंशको भारतमें राज्याधिकारी पाते पुरुष चंद्रगुप्त प्र० । हैं । यह था गुप्तवंश ! गुप्तवंशीय राजाओंके नामोंके अंतमें गुप्तनाम रहता था, इस कारण यह वंश 'गुप्त' नामसे प्रख्यात हुआ था । इस वंशका सर्व प्रथम राजा चंद्रगुप्त नामका था । इतिहासमें यह चन्द्रगुप्त प्रथमके नामसे परिचित है । ईसवी तीसरी शताब्दिके लगभग पाटलिपुत्रपर जैन धर्ममें ख्याति प्राप्त लिच्छवि वंशका अधिकार था । चंद्रगुप्त प्रथ. मने इसी लिच्छविवंशकी राजकुमारी कुमार देवीसे विवाह करके पाटलीपुत्रको अपने आधीन किया था । इसी राजासे गुप्तराज्यका नींवारोपण हुआ था । इस राजाने अपना संवत् चलाया था; जिसे कतिपय विद्वान् २६ फरवरी सन् ३२० ई०से, आरम्भ होना बताते हैं। संभवतः इसी तिथिको चन्द्रगुप्तका राज्यतिलक हुआ था। उसने * मम० जायसवालजीने आंध्रवंशके अन्तिम राजाका समय सन् २३१-२३८ ई० प्रगट किया है। (जविओसो० १६-२७९७ और आंध्रोंके पश्चात गुप्त राजाओं का राज्य हुआ शास्त्रों में कहा गया है। इस अपेक्षा 'हरिवंशपुराण' में गुप्तोंका राज्यकाल जो २२१ वर्ष लिखा है वह प्रायः ठीक बैठता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुप्त साम्राज्य और जैनधर्म । [८९ ' महाराजाधिराज ' की पदवी धारण की थी और अपने नामके सोनेके सिके चलाये थे । दक्षिण बिहार, अवध, तिर्हत और उसके निकटवर्ती जिलोंमें उसका राज्य था । चन्द्रगुप्तने कुल दस या पंद्रह वर्ष राज्य किया था। उसके बाद चन्द्रगुप्तका बेटा समुद्रगुप्त राजा हुआ । यह बड़ा योग्य और यशस्वी शासक था । विद्वान् समुद्रगुप्त। लोग इसे हिंदु नेपोलियन अनुमान करते हैं । यह विद्वान् और प्रतिभाशाली कवि भी था । संगीत विद्यासे भी उसे बड़ा प्रेम था । उसने सैकडों युद्धोंमें विजय प्राप्त की थी। इसके कारण उसके शरीरमें अनेक घावोंके चिह्न थे । पहले समस्त उत्तरी भारतको वश करके उसने दक्षिण भारतपर अपनी विजय पताका फहराई । उसने अश्वमेध यज्ञ भी किया था । और महाराजाधिराजकी उपाधि धारण की थी। इलाहाबादके किलेवाले स्तम्भ लेखसे प्रगट है कि उसे सब राजा अपना सम्राट मानते थे। विदेशी राज्योंसे भी उसका संबन्ध था । बौद्ध ग्रन्थकार वसुबन्धुसे उसका घनिष्ट संबन्ध था । समुद्रगुप्तका उत्तराधिकारी उनका चंद्रगुप्त नामक पुत्र था । यह उनका ज्येष्ठ पुत्र नहीं था, परन्तु समुद्रचन्द्रगुप्त द्वितीय गुप्तने उन्हें ही अपना युवराज बनाया था। (विक्रमादित्य) उसकी उपाधि 'विक्रमादित्य' थी और वह सन् ३७५ ई०में गद्दीपर बैठा था। चन्द्रगुप्तने सौराष्ट्र , मालवा और काठियावाड़को जीतकर अपने राज्यमें मिलाया और क्षत्रपवंशी शक लोगोंको लड़ाईमें हराया था । उसकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०] संक्षिप्त जैन इतिहास । राजधानी उजैन व्यापारका केन्द्र था और उसमें विद्वानोंका अच्छा' जमाव था। ज्योतिष विद्याका यहां एक अच्छा विद्यालय था । जिसमें नक्षत्रों और तारोंकी परीक्षा होती थी। प्राचीन कालसे पश्चिमके अगणित बंदरगाहोंके साथ उनका सम्पर्क था। चंद्रगुप्तके राजकालमें उसकी उन्नति खूब हुई। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्यके शासनकालमें फाह्यान नामक चीनी ___यात्री भारतमें आया था। चीन देशसे चलचीनी यात्री फाह्यान । कर वह भारतके उत्तर पश्चिमीय सीमा प्रांतके मुहानेसे भारतमें प्रविष्ट हुआ था । वह छः वर्ष तक भारतमें घूमता रहा था। भारतमें आकर उसने बौद्ध धर्म और पाली एवं संस्कृत भाषाका अध्ययन किया था। बौद्धधर्म संबंधी. अनेक ग्रन्थोंको वह चीन लेगया था। सचमुच फाह्यानका धर्म प्रेम अत्यन्त सराहनीय और अनुकरणीय है। इस यात्रामें उसे कुल १५. वर्ष लगे थे। उसने अपने भ्रमण-वृतांतमें तत्कालीन भारतका अच्छा वर्णन लिखा है। उसने भारतके 'मध्य देश' के सम्बन्धमें लिखा है कि प्रजा प्रभूत और सुखी है। व्यवहारको लिखा पढ़ी और पंचायत कुछ नहीं है। वे राजाकी भूमि जोतते हैं और उसका अंश देते हैं, जहां चाहें जांय, जहां चाहें रहें । राजा न प्राण दण्ड देता है न शारीरिक दण्ड देता है। अपराधीको अवस्थानुसार उत्तम साहस वा मध्यय साहसका अर्थ दण्ड दिया जाता है। वार कार दस्युकर्म करनेपर दक्षिण करच्छेद किया जाता है । राजाके प्रतिहार और सहचर वेतन भोगी होते हैं । सारे देशमें सिवाय चांडालके कोई अधिवासी न जीव हिंसा करता है, न मद्य पीता है और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुप्त साम्राज्य और जैनधर्म। [९१ न लहसुन खाता है । दम्युको चांडाल कहते हैं । वे बाहर रहते हैं और नगरमें जब पैठते हैं तो सूचना के लिये लकड़ी बजाते चलते हैं कि लोग जान जाय और बचकर चलें : कहीं उनसे हू न जाय ! जनपदमें सूअर और मुर्गी नहीं पालते । न जीवित पशु वेचते हैं । न कहीं सूनागार और मद्यकी दुकानें हैं । क्रय विक्रयमें कौड़ियोंका व्यवहार है । केवल चांडाल मछली मारते, मृगया करते और मांस बेचते हैं।'' यह उस समयके रामराज्यका वर्णन है ।। पाटलिपुत्र भी उन्नतिपर था। अशोकका महल अभीतक मौजूद था। लोग धनाढ्य और सुखी थे। दानशील संस्थाओं और अस्पतालोंकी संख्या बहुत थी। पाटलिपुत्रमें एक ऐसा अम्पताल था, जिसमें भोजन और वस्त्र भी मुफ्त दिये जाते थे । राजा प्रजाके कामोंमें बहुत कम हस्तक्षेप करता था । सड़कें अच्छी थीं। डाकुओं और लुटेरोंका डर नहीं था । विद्याका भी खूब प्रचार था। पठन-पाठनका ढङ्ग मौखिक था । और प्रजाको धार्मिक स्वतंत्रता थी ।२ फाह्यान लिखता है कि " मध्यप्रदेशमें ९६ पाखण्डोंका प्रचार है ! सब लोक और परलोक मानते हैं। उनके साधुसंघ हैं। वे भिक्षा करते हैं, केवल भिक्षापात्र नहीं रखते । सब नाना रूपसे धर्मानुष्ठान करते हैं। मार्गोपर धर्मशालायें स्थापित हैं। वहां आये गयेको आवास, खाट, विस्तर, खाना पीना मिलता है। यती भी वहां आते जाते हैं और वास करते हैं । फाह्यानके इस वर्णनसे प्रगट है कि मध्यदेशमें ( मथुरासे दक्षिण ) उस समय बौद्धधर्मके अतिरिक्त अन्य मतोंका प्रचार भी १-फाह्यान, पृ० ३१.२-भाइ०, पृ०९१-९२.३-फाह्यान, पृ०४६। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | काफी था । इससे वहां अहिंसा धर्मकी प्रधानता और ऐसे साधुसंघ बतलाकर कि जिनके अनुयायी भिक्षापात्र नहीं रखते थे, वह हमें जैनधर्म के बहु प्रचार के दर्शन कराते हैं; क्योंकि जैनमतमें ही बौद्धों के अतिरिक्त 'संघ' बनानेकी पृथा है और जैन साधु भिक्षापात्र नहीं - रखते । संकाश्य, श्रावस्ती, राजगृह आदि स्थानोंमें वह स्पष्टतः जैनधर्मका प्रभाव प्रगट करता हैं। फाह्यान लिखता है कि संकाश्यके सम्बन्धमें बौद्धों और जैनोंमें विवाद हुआ । भिक्षु (बौद्ध) निग्रहस्थानपर आरहे थे । इससे प्रगट है कि उस समय जैनोंका वहांपर प्राबल्य अधिक था । संकाश्य सम्भवतः जैनोंका प्राचीन तीर्थ था और बहुत करके वह भगवान विमलनाथजीका तपोस्थान था । उसका अपर नाम 'अघहत' (अघहतिया) इसी बात का द्योतक है । यहां पर आज भी अनेक जैन मूर्तियां मिलती हैं । श्रावस्ती में भी बौद्धों और जैन में परस्पर विवाद होने का उल्लेख वह करता है । ब्राह्मणोंसे भी झगड़ा होता था । सारांशतः उस समय संप्रदायोंमें एक दूसरेको नीचा दिखानेकी स्पर्द्धा चल रही थी । उस कालमें हिंदूधर्मका पुनरुत्थान हुआ था । नवीन हिंदू धर्म इसी समय संगठित हुआ और अधिकांश हिंदू पुराणोंकी रचना भी इसी समय हुई थी ! कहते हैं कि चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य वैष्णव संप्रदाय युक्त थे । किंतु फाह्यानके उक्त वर्णन से यहां के राजाका चंद्रगुप्त और जैनधर्म | परम अहिंसा धर्मानुयायी होना प्रगट है । और यह स्पष्ट है कि उस समय यहां चंद्रगुप्त १ - फाह्यान, पृ० ३५-३६; व पृ० ४०-४५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुप्त साम्राज्य और जैनधर्म । [ ९३ विक्रमादित्यका ही राज्य था । अतः संभव है कि चन्द्रगुप्त द्वितीयका प्रेम जैनधर्मके प्रति था । यह तो प्रमाणित ही है कि बौद्धों और जैनोंके साथ उसका बर्ताव अच्छा थी । जैन ग्रंथोंमें कथा है कि जैनाचार्य सिद्धसेन दिवाकरने ' अवन्ती ' के महाकालके मंदिरमें एक अतिशय दिखाकर विक्रमादित्य राजाको जैन धर्मानुयायी बनाया था । स्व० महामहोपाध्याय डा० शतीशचन्द्रजी विद्याभूषण विक्रमादित्य के दरबार के नौ कविरत्नोंमें परिगणित क्षपणकको सिद्धसेन ही प्रगट किया है और यह विक्रमादित्य चंद्रगुप्त द्वितीयके. अतिरिक्त और कोई नहीं है। विक्रम संवत के प्रचारक विक्रमादित्य इनसे भिन्न ईसाकी प्रथम शताब्दि में हुये थे । प्रसिद्ध कवि कालि -- दास भी उन्हीं के समयमें हुये थे। मालूम होता है कि वराह मिहिर के समकालीन कालिदास दूसरे थे। 1 सिद्धसेनका समय भी ईसाकी चौथी शताब्दि प्रगट होता है । अतः यह होता है कि चंद्रगुप्त विक्रमादित्यको भी सिद्धमेन दिवाकर ने उनके राज्यके अंतमें जैनी बनालिया हो । * चंद्रगुप्तकी मृत्यु के बाद सन् ४१३ ई० में उसका पुत्र कुमार गुप्त राजसिंहासनपर आरूढ हुआ था । गुप्तवंशके अतिम राजा । उसने अश्वमेध यज्ञ किया था । उसके राज्य में हूण लोगोंने भारतपर हमला किया था और सन् ४५५ में वह उनके साथ लढ़ाई में मारा गया। १-भाइ० पृ० ९१ । २ - वीर, वर्ष १ पृ० ४७१ । ३-अलाहाबाद यूनीवर्सिटी स्टडीज भा० २ (The date of Kalidas) | ४ - वीर वर्ष १ पृ० ३३५ व पृ० ४७१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४] संक्षिप्त जैन इतिहास। उसका उत्तराधिकारी उसका बेटा स्कंधगुप्त था । स्कंधगुप्तके समयमें भी हूणोंका आक्रमण हुआ था; किंतु उसने उनको लड़ाई में हरा दिया था । वह बड़ा वीर योद्धा था। उसका एक युद्ध दुलन्दशहरके जैन धर्मानुयायी पुप्यमित्र वंशीय राजाओंसे हुआ था और उसमें भी इसकी जीत हुई थी। यह पुप्पमित्र उस समय धन और सेनासे युक्त प्रबल राजा थे और कनिकके समयसे यह बुलन्दशहरमें जाबसे थे। स्कन्धगुप्तके राज्य कालमें गोरखपुर जिलेके पूर्वपटनेसे ९० मील कहौम ( ककुभग्राम ) ग्राममें एक भव्य जैन मंदिर मानस्तंभ सहित निर्मित हुआ था। स्तंभपर एक लेख गुप्त संवत १४१ ( ई० सन् ४६०) का है; जिससे प्रगट है कि साधुओंके संसर्गसे पवित्र, ककुभ - ग्राम-रत्न, गुणसागर, सोमिलका पुत्र महाधनी भट्टिपोम था । उनके पुत्र विस्तीर्ण यशवाले रुद्रसोम हुये और उनको मद्र नामक पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई। यह मद्र ब्राह्मण वर्णका था और यह गुरुओं और यतियोंमें प्रीतिमान था । इसीने आदिनाथसे आदिले पांच तीर्थङ्करोंकी प्रतिमायें स्थापित कराई। और स्तंभ बनवाया था। झांसी जिलेके देवगढ़ नामक स्थानमें भी जैनोंका प्राबल्य अधिक था । यह स्थान भी गुप्तसाम्राज्य के अन्तर्गत १-भाप्रारा०, भा० २ पृ० २८७-स्कंधगुप्तके मिटारीवाले लेख में है, (पंक्ति १०)-विचलितकुल लक्ष्मीस्तम्भनायोद्यतेन क्षितितलशयनीये येन नीता बियामा । समु-(पंक्ति ११)-दितबलकोषान्पुप्यमित्रांश्च जित्वा क्षितिपचरणपीठे स्थापितो वामपादः । २-बंताजैस्मा० पृ० १८७-Corps. Irs. Ind. Vol. III. ३-संप्राजैस्मा०, पृ० ४-५। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुप्त साम्राज्य और जैन धर्म । [ ९५ था । कहते हैं कि देवगढ़ में पाराशाह और उनके दो भाई देवपति और खेवपति बड़े प्रभावशाली थे | उनने देवगढ़ में कई एक जैन -मंदिर बनवाये थे । ง स्कन्दगुप्तने हूणों को परास्त कर दिया था, परन्तु वे हताश नहीं हुये । उनके आक्रमण भारतपर बराबर व राज्यप्रबन्ध । गुप्त राज्यकी अवनति होते रहे। उनके राजा तोरमाणने गुप्त राज्यका पश्चिमी देश जीत लिया । और सन् ५१० ई० तक राजपूताना, मालवा, गुजरात, मध्यप्रदेश आदि देश हणोंके आधीन होगये । इस छिन्न भिन्न होते हुये साम्राज्यकी दशाको सम्भालनेके लिये गुप्तवंशके अंतिम राजा भानुगुप्तने प्रयत्न किया, परन्तु उसे सफलता प्राप्त न हुई, और गुप्तवंश नष्ट होगया । इस वंशके संघ ही राजा बड़े योग्य और तेजस्वी थे । उन्होंने अपने अपने राज्यका अच्छा प्रबन्ध किया था, जिससे प्रजा सुखी थी । उससमयकी आर्थिक स्थिति बड़ी अच्छी थी । तब उत्तर और मध्यभारत में है आनेका मन सवामन तेल बिकता था और एक वा एक मनुष्य के तीन महीनेके भोजनके लिये पर्याप्त होता था। विद्वानोंका आदर भी विशेष था और साहित्य व कलाकी उन्नति भी खूब हुई थी । र 3 गुप्तकालमें ब्राह्मण, I जैन और बौद्धधर्म मुख्य थे । हैवेल सा० कहते हैं कि ई० तीसरी शताब्दितक प्रायः ९ - संप्रा जैस्मा०, पृ० ४७ । २- भाइ०, पृ० ९३ । ३ - भाप्रारा० भा० २ पृ० २२६-२२७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । तत्कालीन धर्म व सब ही राजकीय अथवा अन्य दान जैन और साहित्य ! बौद्ध संस्थाओंको दिये जाते थे। ब्राह्मण वर्गकी ___मान्यता तबतक न कुछ थी।' किंतु गुप्तकालमें ब्राह्मणोंका भाग्य चमका था। गुप्तराजाओंकी राजधानी ब्राह्मण धर्मका केन्द्र बन गई और नवीन वैदिक धर्मका पुनरुत्थान होगया । इतनेपर भी जनसाधारणमें जैन और बौद्ध धर्मोकी प्रधानता अक्षुण्ण रही थी। जैन मटोंमें उच्चकोटिकी शिक्षाका प्रबन्ध प्रायः देशभरमें था। इन तीनों धर्मों के विद्वानोंमें परस्पर सर्द्धा भी खूब थी, जैसे कि पहले लिखा जाचुका है। ब्राह्मण वर्गकी मुख्य भाषा संस्कृत थीं। किंतु जैनों और बौद्धोंके ग्रन्थ अब भी प्राकृत और पाली भाषाओंमें थे। राज्यका संरक्षण पाकर इस समय संस्कृ तका प्रचार और महत्व बढ़ रहा था । बौद्धोंने भी संस्कृतमें ग्रन्थ रचना प्रारम्भ कर दी थी और उनकी देखादेखी जैनोंने भी संस्कृ तको प्रधानता दी थी; परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि इस समयके पहले जैनोंमें संस्कृत रचनाओंका अभाव था। इस समयके ग्रन्थों में मुख्य विषय तर्क और न्याय था । विद्वानोंमें परस्पर वाद होते थे। सिद्धसेनदिवाकरके समान चतुर्दश विद्या १-हिमारूई०, पृ० १४७।। २-हिआरूई०, पृ० १५६। गुप्तकाल में संस्कृत भाषाका अधिक प्रचार हुआ। कवि कालीदास नामक कोई कवि इसी समय हुए थे। अमरकोष, आर्यभट्टका गणित शास्त्र, वराहमिहिरका ज्योतिष ग्रंथ और धन्वंतरिका वैद्यक विज्ञान इसी समयकी रचनायें हैं । ३-जैहि०, भा० १९ पृ० १५६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुप्त साम्राज्य और जैनधर्म । [९७ पारंगत ब्राह्मण विद्वान् एक ऐसे ही वादमें पराजित होकर जैन होगये थे। उनके उद्गारोंसे पता लगता है कि “ उस समय सरल वाद-पद्धति और आकर्षक शांतिवृत्तिका लोगोंपर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता था । निर्ग्रन्थ अकेले दुकेले ही ऐसे स्थलोंपर जापहुंचते थे, और ब्राह्मणादि परवादी विस्तृत-शिष्यसमूह और जनसमुदायके सहित राजसी ठाटवाटके साथ पेश आते थे, तोभी जो यश निग्रन्थोंको मिलता था वह उन प्रतिवादियोंको. अप्राप्य था। लोग ब्राह्मणोंके जत्पवितण्डा-परिपूर्ण शुष्क वाद और कर्मकांडके प्रपंचसे ऊब गये थे और शांतिपूर्ण सात्विक मार्गके. उत्सुक बन गये थे।" जैन ऋषियोंकी प्रतिभाशाली पवित्र लेखनी. इन्हीं गुणोंको परिपुष्ट करनेवाली ग्रंथ रचनामें प्रवर्त हुई थी। जैना-- चार्योंमें इस समय प्रायः सब ही आचार्य दक्षिगभारत अथवा मालवा और गुजरातकी ओरके निवामी थे। इनका विशद वर्णन हम तीसरे खंडमें करेंगे । इनमें भी कुन्दकुन्दाचार्य, रविषेणाचार्य, उमास्वाति, यतिवृषम, वण्णदेव, केशवचंद्र, सिद्धसेन दिवाकर इत्यादि आचार्य विशेष उल्लेखनीय हैं । इनकी मूल्यमय रचनाओंसे मानवोंका बडा उपकार हुवा था। अध्यात्मवाद. दर्शन, ज्योतिष, इतिहास, काव्य आदि विषयोंमें अपूर्व रचनायें हुई थी। विमलमूरिका 'पउमचरिय ' जैनरामायणकी एक बहुप्राचीन और मूल्यमई आवृत्तिः है। यह आचार्य नागिलवंशके विजय नामक आचार्य के शिष्य थे। गुरूशिष्य परंपरासे चले आये हुये रामचरितको इन्होंने वी. नि. सं० १-जैहि० भा० १४ पृ० १५६-१५७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "९८] संक्षिप्त जैन इतिहास। ५३० में गाथावद्ध किया था' । श्री मल्लिषेषणजीका ' नागकुमार चरित् ' इससमयके इतिहासका द्योतक हैं।'' भगवती आराधना ' शिवार्य महाराजकी रचना है और इसमें जैन मुनियोंके चरित्रका अच्छा विवेचन है। यह आचार्य आर्य जिननन्दिगणि, आर्य सर्वगुप्तगणि और आर्य मित्रनन्दिके समकालीन थे। अनु. मानतः यह समन्तभद्राचार्य जीसे सौ दो सौ वर्ष पहले हुये थे। उमास्वातिजीका ' तत्वार्थसूत्र' जैन दर्शनको गागरमें सागरके समान प्रगट करनेवाला है। सर्वनन्दि आचार्यका भूगोल विषयक ग्रंथ · लोकविभाग ' वि० सं० ४५८ में रचा गया था। इसप्रकार अनेक आचार्योने जैन दर्शनके अभ्युदय और जनकल्याण की दृष्टिसे अतुल ग्रंथरचनाकी थी। इतना ही क्यों ? वह प्राणीमात्रकी हित दृष्टिसे अपने शांतिमय एकान्तवासको भी एकतरह विस्मरण कर चुके थे। वे · जगतके ' कल्याणार्थ और परम पुरुष महावीरके मोक्षमार्गका सत्यत्व स्थापनार्थ, मौनधर्मको त्यागकर जन सहवासमें ' आगये और वाद-विवादके युद्धक्षेत्रमें उपस्थित होकर, अपने प्रतिपक्षियोंका मुकाबला करने लगे। उनके इस शुम प्रयाससे जनताको यथार्थ धर्मका स्वरूप ज्ञात रहा और वह क्रिया १-जैहि० भा० ११ पृ० १३३ व कलि० पृ० ३६ भूओ साहु परम्परार सयलं लोये ठिय पायंड । एत्ताहे विमलेण सुत्तसहिय गाहानिबद्ध कयं ॥१०२॥ पंचवेय वाससया दुममाए तीस वरीस संजुता । वीरे सिद्धमुवगए तो निबद्धं इमं चरियं ॥१०३॥ २-इंहिक्का०, भा० २ पृ० १८९ । ३-जैहि० भा० ११ पृ० ५४८ । ४-तत्वार्थसूत्र (S. B. J.) भूमिका । ५-इंहिका० भा० २ पृ. ४५१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुप्त साम्राज्य और जैन धर्म। [९९ कलापको विशेष महत्वकी दृष्टिसे नहीं देखती रहीं । जैनधर्म भी अभीतक अपने नैसर्गिक रूपको धारण किये हुये था । पूजा-पाठकी सादगी और वात्सल्यभावकी विशालता उसमें भी अब भी मौजूद थी। समन्तभद्र स्वामी सम्यक्त्व युक्त एक चांडालको देवोंद्वारा वंदनीय ठहराते हैं। और उनके टीकाकार श्री प्रभाचंद्राचार्य उसे एक राजाकी बरोबरीमें बैठने योग्य बतलाते है ।' मथुराके पुरातत्वसे जिनेन्द्रभगवानकी पूजा-अर्चनाकी सरलता स्पष्ट है । भक्तजन अपनेर घरोंके फल-फूल आदि सामिग्री लेजाते थे। और स्त्री-पुरुष एकसाथ मिलकर पूजा-अर्चा करते थे। जिन प्रतिमायें भी दानकी वस्तुयें बताई गई हैं। जब निर्ग्रन्थ संघ वि० सं० १३६ में दिगंबर और श्वेतां बर नामक दो संप्रदायोंमें विभक्त होगया, दिगम्बर जैन संघ । तो दिगंबर संप्रदायका उल्लेख मूल संघके रूपमें होने लगा और वह चार संघों एवं गणादिमें बंटगया, यह लिखा जाचुका है । इस मूल संवकी स्थापना भी भद्रबाहु द्वितीयके समय हुई थी। भद्रबाहुके उत्तराधिकारी गुप्तगुप्ति नामक आचार्य थे; जिनके उपर नाम अर्हद्वलि और विशाखाचार्य थे। मूलसंघमें उपरांत माघनंदि प्रथम, जिनचंद्र प्रथम, कुंदकुन्दाचार्य, उमास्वामी, लोहाचार्य दूसरे, यशःकीर्ति, यशोनंदि, देवनंदि प्रथम ( पूज्यपाद ), जयनंदि, गुणनंदि प्रथम, वज्रनंदि, कुमा १-रश्रा० पृ०२७ सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् । देवा देवं विदुर्भस्मगूढांगारान्तरौजसम् ॥ २८ ॥ २-रश्रा० पृ० ४९ । ३-वीर, वर्ष ४ पृ० ३०४-३११। ४-इंऐ० भा० २० पृ० ३४६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] संक्षिप्त जैन इतिहास | I । रनंदि, लोकचंद्र प्रथम, प्रभाचंद्र प्रथम, नेमिचंद्र प्रथम, भानुनंदि,. जयनन्दि ( सिंहनदि ), वसुनन्दि, वीरनन्दि, रत्ननन्दि, इस समयके लगभग हुये थे।' इन आचार्यों का केन्दस्थान उज्जैन के निकट भद्दलपुर थी । किंतु एक ' गुर्वावलि ' में श्री लोहाचार्य दूसरेके उपरांत पूर्वका पट्ट और उत्तरका पट्ट इस तरह दो पट्ट स्थापित हुये बताये गये हैं । और दक्षिण भारत में मान्यता है कि इस समय चार पट्ट स्थापित हुये थे; जिनमें दो दक्षिण भारत में थे, एक कोल्हापुरमें था और एक दिल्लीमें । इन पट्टावलियोंमें परस्पर और इतिहास विरुद्ध इतना कथन है कि इनकी सब ही बातोंको ज्योंका त्यों स्वीकार करलेना कठिन है । " £ जो हो, यह स्पष्ट है कि गुप्त साम्राज्य कालमें जैनधर्मकी: उन्नति विशेष थी । चन्द्रगुप्त विक्रमादित्यकी राजधानी उज्जैन जैन. धर्मका केन्द्र अब भी थी । रत्ननंदिके पांचवें पट्टधर महाकीर्ति भद्दलपु-रसे उज्जैन आगये थे। यह सब आचार्य निर्ग्रथ मुनिवत् रहते थे । गुप्त कालके विद्वानों जैसे अमर सिंह, वराहमिहिर, आदिने भी अपने ग्रंथों में जैनों का उल्लेख किया है । इससे भी उस समय जैनधर्मका उन्नत रूपमें होना प्रगट है । प्राचीन काल से मथुरा, उज्जैन, गिरिनगर, कांचीपुर, पटना आदि नगर जैनोंके केन्द्रस्थान रहे हैं । गुप्तकालमें भी उनको वही महत्व प्राप्त था । I १ - जैहि० भा० ६ अंक ७-८ पृ० २९ व इंऐ० भा० २० पृ० ३५१ । २ - इंऐ० भा० २० पृ० ३५२ । ३ - जैहि० भा० ६. अंक ७–८ पृ० २३ । ४- जैग० भा० २२ पृ० ३७ | ५ - रश्रा०, जीवनी, पृ०११४ - १९६ । ६ - इऐ० भा० २० पृ० ३५२ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुप्त साम्राज्य और जैनधर्म । [१०१ बंगालमें इस कालमें पहाड़पुरका निग्रंथ संघ प्रसिद्ध था ।x उसके अध्यक्ष आचार्य गुहनंदि, संभवतः नंदि बङ्गकलिङ्गमें जैनधर्म । संघके थे । बौद्धग्रंथ दाठावंसोसे प्रगट है कि पटनाका तत्कालीन राजा पाण्डू भी जैनभक्त था। कलिङ्गमें जैनधर्म अब भी राष्ट्रधर्म बना हुआ था । वहांका गुहशिव नामक राजा दिगम्बर जैनधर्मका अनुयायी था ।+ इस प्रकार जैनधर्म उस समय उन्नत रूपमें था। विद्याके साथ ही ललितकलाकी भी उन्नति गुप्तराजाओंके समय विशेष हुई थी। स्थापत्य भास्कर-शिल्प गुप्तकालकी ललितकला । और चित्रकारी तो इस समयकी देखते ___बनती है। संयुक्तप्रांतके झांसी जिलेमें ललितपुरके पास देवगढ़के जैनमंदिर इस समयके भास्कर शिल्पका सर्वोत्कृष्ट नमूना है। किंतु दुःख है कि जैनोंने इस रम्य और पवित्र स्थानके प्रति उदासीनता ग्रहण कर रक्खी है। सरकारी पुरातत्व विभागके अधिकारसे उन्होंने इसको लेलिया था किंतु बहुत प्रयत्नके बाद वह क्षेत्र पुनः जैनोंके हाथमें आया है । इस समय धातुकी अच्छी२ मूर्तियां बनी मिलती हैं। दिल्लीका लोहस्तम्भ भी इसी समयका बना हुआ अनुमान किया जाता है; जो अपने अदभुतपनके लिये प्रसिद्ध है । अजन्ताकी गुफाओंका आलेख्य और चित्रकारी सर्वोत्कृष्ट है । ये गुफायें बहुत प्राचीन हैं; परन्तु इनमें सबसे बढ़िया काम इसी समयका बना हुआ है। मथुरा और काशी भी ललितकलाके केन्द्र xइंहिक्का० भा० ७ पृ० ४४१ । +दाठावंसो अ० २ व दिगम्बरत्व और दि० मुनि पृ० १२५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२] संक्षिप्त जैन इतिहास। थे। उस समय यहां ललितकलाओंकी शिक्षाका खासा प्रबन्ध था. और यहांकी कलाका प्रभाव विदेशोंकी कलापर भी पड़ा था।' ____ गुप्तकालमें भारतीय व्यापारकी भी खूब उन्नति हुई थी। जैन श्रेष्टी दूर दूर देशोंसे व्यापार करते थे । उस समयके व्यापारी। पश्चिमीय देशोंसे यह व्यापार खूब बढ़ा था। रोमके जहाज दक्षिण भारतमें आते थे और मसाले, इत्र, हाथीदांत, बढ़िया वस्त्र, पत्थर आदि लेजाते थे । मिस्र देशका अलेकज़न्ड्रिया नगर तब भी इस भारतीय व्यापारका केन्द्र था। वहां भारतीय व्यापारी मौजूद थे। देशमें तब व्यापारके कई मार्ग थे । एक तो मौर्य राजाओंके कालकी सड़क पाटलिपुत्रकी पश्चिमोत्तर सीमातक जाती थी। दूसरी मच्छलीपट्टनसे भड़ौचको जाती थी। भड़ौंच प्रसिद्ध बन्दरगाह था । रोमके विद्वान् लिनीका कथन है कि रोमसे प्रतिवर्ष लाखों रुपया भारतको जाता था । जावा आदि पूर्वीय देशोंके साथ भी व्यापार होता था। इसका सम्बन्ध खासकर कलिङ्ग देशसे था। मध्य-ऐशियामें एक हूण नामकी जाति रहती थी। इस जातिने भारतपर आक्रमण किया था और उसके सरदार तोरमाणने सन् ५१० के लगभग भारतमें अपना राज्य स्थापित किया था, यह पहले कह चुके हैं। उसके बाद उसका पुत्र मिहिरकुल हूणोंका राजा हुआ। वह बढ़ा अत्याचारी शासक था । कहते हैं १-भाइ० पृ०९५-९६ । २-जमीसो० भा० १८ पृ० ३१०। ३-भाइ० पृ० ९७। ४-इंहिका० भा० १ पृ० ३१५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुप्त साम्राज्य और जैनधर्म। [१०३ कि पहले वह बौद्ध था; किंतु कारणवश रुष्ट होकर उसने बौद्धोंको नष्ट करनेकी आज्ञा देदी थी । बौद्धधर्मके कितने ही स्तूप और विहार उसने तुड़वाडाले और लाखों मनुष्योंके प्राण ले लिये थे । वह कट्टर शैव था और अन्य धर्मोंका तिरस्कार करता था। देशी राजाओंने उसके विरुद्ध एक संघ रचा, जिसके नेता मालवानरेश यशोधर्मन और मगधके राजा नृसिंहबालादित्य थे । सन् ५२८ ई० के लगभग इस संघने उसे कहैरार नामक स्थानपर हरा दिया। और वह काश्मीरकी ओर भाग दिया।' मिहिरकुलके बाद भारतके राजा यशोधर्मन हुए । यशोधर्मन बड़े प्रतिभाशाली राजा और वीर योद्धा थे । यशोधर्मा । मन्दसौरसे मिले हुए लेखसे प्रगट है कि हूणोंपर अंतिम विजय उसीने प्राप्त की थी। उसका राज्य बहुत बड़ा था। ब्रह्मपुत्रनदीसे पूर्वी घाटतक और हिमालय पर्वतसे समुद्र तटके राजाओंको उसने अपने आधीन किया था। मि० जायसवाल यशोधर्मनको पुराण वर्णित कल्कि अवतार प्रमाणित करते हैं। जैन ग्रंथोंमें कल्किा नाम चतुर्मुख, उसके पिताका नाम इन्द्र और पुत्रका नाम अजितंजय मिलता है। कल्किने ४२ वर्ष राज्य किया था। अपनी दिग्विजयके उपरांत वह जैन मुनियोंको खूब त्रास देने लगा था। हिंदुओंके कल्किपुराणसे भी यह बात प्रगट है। अन्तमें उखका नाश एक असुर द्वारा हुआ १-भाइ० पृ० ९८ । २-भाप्रारा० २ पृ० ३३२ । ३-जैहि०. भा० १३ पृ. ५१६-५२२। ४-त्रिलोकप्रज्ञप्ति गा० १०१-१०६, जैहि० भा० १३ पृ० ५३४ । ५-जैहि० भा० ५२२ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४] संक्षिप्त जैन इतिहास । था और उसका पुत्र अजितंजय राज्याधिकारी हुआ था, जिसने जैन धमकी रक्षा की थी। यशोधर्मनकी मृत्यु सन् ५३३ ई० के लगभग हुई अनुमान की जाती है और फिर उसके बाद दो तीनसो वर्ष तक मालवाके इतिहासका कुछ भी पता नहीं चलता है । हो सकता है कि यशोधर्मन्का पुत्र राज्याधिकारी हुआ हो, जैसे कि जैनग्रंथ प्रगट करते हैं। जैनोंका आचार्य-पट्ट इस समय भी उज्जैनमें था। SPAPER - (५) हर्षवर्धन और चीनीयात्री हुएनत्सांग। मिहिरकुलकी पराजयके बाद भारतका राज्य छिन्नभिन्न होगया। छठी शताब्दिमें कोई ऐसा राजा नहीं था जो हर्षवद्धन। सारे देशको अपने अधिकारमें करता । इस शताब्दिमें अनेक छोटे २ स्वतंत्र राज्य स्थापित होगये थे। छठी शताब्दिके अन्तिम भागमें थानेश्वरके राजा प्रभाकर वर्द्धनने उत्तरीय भारतमें अपना राज्य स्थापित किया था। सन् ६०४ ई० में उसकी मृत्यु होगई । उसका ज्येष्ठ पुत्र राज्यवर्धन शशांङ्कनामक राजाके हाथोंसे धोखेमें मारडाला गया था । मालवा नरेशके बन्दीगृहसे अपनी बहिनको मुक्त करनेके लिये उसने उनसे युद्ध किया था और उसमें विजय प्राप्त की थी। राज्यवर्धनके बाद उसका भाई हर्षवर्धन हुआ था। वह सन् ६०६ में गद्दीपर बैठा था । हर्ष श्रीहर्ष और शिलादित्यके नामसे भी प्रसिद्ध था । वह बड़ा वीर था । उसने बंगाल आसामसे काश्मीर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन और चीनी यात्री हएनत्सांग। [१०५ तक और नेपालसे नर्मदातक सारे देश अपने आधीन कर लिये थे। परन्तु सन् ६२० ई० में जब वह विजयकी लालसासे दक्षिणकी ओर बढ़ा तो चालुक्य वंशके प्रसिद्ध राजा पुलकेशी द्वितीयने उसे हरा दिया। हर्षने कन्नौजको अपनी राजधानी बनाया था और वह शांतिपूर्वक राज्य करता रहा । उसने एक संवत् भी चलाया था; परन्तु वह अधिक दिनोंतक नहीं टिका । हर्षका शासन प्रबन्ध बड़ा अच्छा था । हर्ष वर्षाऋतुमें भी सारे देशमें दौरा करता था और बदमाशोंको दण्ड तथा भले आदमियोंको इनाम देता था। उसका फौजदारी कानून कड़ा था । 'सरकारी दफ्तरोंका प्रबन्ध अच्छा था । शिक्षाका भी खूब प्रचार था' ।' नालन्दका बौद्ध विश्वविद्यालय प्रख्यात् था। समाजमें विद्वानों और पण्डितोंका राजाओंसे भी अधिक मान था। सड़कोंपर धर्मशालायें थीं। उनमें दीन-हीन पथिकोंको भोजन और बीमारोंको औषधि भी मिलती थी। किसानोंसे उपजका छठा भाग लिया जाता था। राज्य कर्मचारियोंको उचित वेतन मिलता था । लोग सत्यवादी और सरल हृदय थे। राजा सब धर्मोका आदर करता था। उसने अपने राज्यमें जीवहिंसा तथा मांस भक्षणकी मनाही करदी थी। जो कोई इस आज्ञाको नहीं मानता था, उसे प्राणदण्ड मिलता था। प्रत्येक पाँचवें वर्ष राजा हर्ष बड़े समारोहसे प्रयाग जाता था और गंगा-यमुनाके संगमपर दान करता था । हर्ष विद्वान् भी बड़ा था । वह स्वयं गद्य-पद्यमय रचनायें रचता था। उसके लिखे हुये नागानन्द रत्नावली और प्रियदर्शिका नाटक अभीतक मौजूद हैं। उसके १-भाइ० पृ० १००-१०३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | दरबार में बाणकवि प्रसिद्ध थे | उनने ' हर्षचरित ' नामक ऐतिहा सिक पुस्तक बड़े काम की लिखी है । उसमें लिखा है कि ' हर्ष राजा जब गहन जङ्गलमें जापहुंचा तो उसने वहां अनेक प्रकार के तपस्वी देखे । उनमें नग्न आर्हत ( जैन ) साधु भी थे।' सन् ६४७ ई० में हर्षका देहान्त होगया था । उसके साम्राज्य के छिन्न भिन्न होते ही उत्तर भारत में सर्वत्र अशांति फैलगई थी । 1 हर्षवर्धनका शासनकाल अपनी सामाजिक उदारता के लिये भी उल्लेखनीय है । इस समय अर्थात् सातवीं धार्मिक उदारता । शताब्दी में धार्मिक कट्टरताका जोर नहीं दिखाई पड़ता था । स्वयं सम्राट् हर्षवर्ध सब धर्मोंका आदर करते थे; यद्यपि उनके निकट शिव, सूर्य तथा बुद्धकी मान्यता विशेष थी । हर्ष के भाई, बहिन बौद्ध थे और उनके पिता सूर्यकी उपासना करते थे । इस कालसे पहले हुये प्रसिद्ध कोषकार अमरसिंहके समय में भी इस उदारताका होना संभव है । स्वयं अमरसिंह बौद्ध थे और उनकी पत्नी जैन थीं । जैन कवि धनंजयकी सहधर्मिणी बौद्ध धर्मका आदर करतीं थीं । यह परिस्थिति धार्मिक कट्टरता के अभावकी द्योतक है । इस समय बौद्धधर्मकी अवनति होरही थी । जैनधर्मका उत्तरीय भारतमें पहले जैसा विशेष प्रचार प्रगट नहीं होता । अधिकांश जनता पौराणिक हिंदू धर्मको मानती थी । ब्राह्मणलोग प्रभावशाली थे । पर्दाका रिवाज नहीं था । हर्षकी विधवा बहिन राज्यश्री राजसभामें बैठती और वार्तालाप ૨ १- भाइ० पृ० १०३-१०४।२ - जैन मित्र वर्ष ६ अंक ४५० ११० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन और चीनी यात्री हुएनत्सांग । [ १०७ करती थी । बालविवाह नहीं होते थे। हर्षकालीन सामाजिकस्थितिके विषय में श्रीकृष्णचन्द्र विद्यालङ्कारका कहना है कि " (वैदिक कालीन) भारत के 1 सामाजिक स्थिति । सामाजिक जीवनकी सबसे मुख्य संस्था में वर्णव्यवस्था और आश्रम व्यवस्था है । हर्षकाल में इन दोनों संस्थाओंका अस्तित्व सुसंगठित रूपमें विद्यमान था; यद्यपि बौद्धों और जैनियोंके समानतावाद के प्रचार के कारण ये दोनों संस्थायें उतने आदर्श और व्यापक रूपमें नहीं रही थीं । हर्षकाल में बौद्धों और जैनियोंकी बहुत बड़ी श्रेणियां विद्यमान थीं । इनके अनुयायियोंकी संख्या बहुत अधिक थी । उत्तर भारतमें बौद्धों और दक्षिणी पश्चिमी भारतमें जैनियोंका काफी जोर था । बहुतसे प्रांतीय राजा भी इनके अनुयायी थे । इनके धार्मिक सिद्धांत और रीति-रिवाजका भी तत्कालीन समाजमें साधुओं, तपस्वियों, भिक्षुओं और यतियोंका एक बड़ा भारी समुदाय था, जो उस समयके समाजमें विशेष महत्व रखता था । बहुतसे साधु शहरों व गांवोंमें घूम कर लोगोंको उपदेश एवं शिक्षा दिया करते थे । यही हाल बौद्ध भिक्षुओं और जैन साधुओंका भी था । साधारणतः लोगोंके जीवनको नैतिक एवं धार्मिक बनानेमें इन साधुओं, यतियों और भिक्षुओंका बड़ा भारी भाग था । बौद्धोंके मठों, जैन यतियोंके उपाश्रयों और हिंदुओंके मंदिरों में शिक्षणालय होते थे । बौद्ध, जैन और ब्राह्मणधर्ममें पारस्परिक द्वेष नहीं था । बौद्ध और जैनधर्म के प्रचार के कारण लोगों में मांस भक्षणकी रुचि अधिक रूपसे नहीं रही थी । . ३- भाइ० पृ० १०४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] संक्षिप्त जैन इतिहास | दक्षिण भारत में जैनधर्मका अधिक प्रचार होनेके कारण, उत्तरी भारतकी अपेक्षा, वहां मांसका रिवाज कम था। स्त्रियोंकी तब राजनैतिक स्थिति भी मानी जाती थी। उन्हें भी जायदाद दी जाती थी । स्त्रियोंका भी सम्पत्तिपर अधिकार होता था । साधारण नागरिक- स्त्री-नागरिक भी अपनी इच्छानुसार धर्मपरिवर्तन में स्वतंत्र था । साधारण जनताका प्रायः प्रत्येक कार्य ग्रामीण पंचायतों द्वारा होता था । सरकारी न्यायालय भी स्थान २ पर होते थे । शासन विधान परिष्कृत रूपमें था " |× चीनी यात्री हुएनसांगका विवरण | सन् ६३० ई० में हुएन त्सांग नामक एक चीनी यात्री भारतमें आया था । उसने सारे भारतका पर्यटन किया था और यहां १६ वर्ष रहकर वह सन् ६४५ ई० में अपने देशको लौटगया था । उसकी यात्राका हाल एक पुस्तकमें लिखा मिलता है । वह अफगानिस्थान से होकर भारतमें दाखिल हुआ था । उसे अफगानिस्तानमें दि० जैन लोग एक बड़ी संख्या में मिले थे । कावुलका राजा हिन्दू था । यदि कालके आसपास के पुरातत्वकी खोज की जाय, तो जैन चिन्ह मिलना संभव है । अफगानिस्तानसे अगाड़ी चलकर पेशावर व कान्धार में भी जैनोंकी बाहुल्यता थी । सिंहपुर में हुएन त्सांगको दिगम्बर और श्वेतांबर दोनों संप्रदायके जैनी मिले थे। गांधार में भी उसे जैनी अधिक संख्या में मिले थे। x त्यागभूमि, वर्ष २ भा० १ ० ३००-३०३ । १ - कंजाऐई० पृ० ६७१ । २- भाप्रास६० पृ० १९ व कंजाएंई पृ० १४३ । ३पृ० ६७१ । 7 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन और चीनी यात्री हुएनत्सांग । [ १०९ मालूम होता है कि सिकंदर महान के समय से ही दिगम्बर जैनोंका प्राबल्य यहां घटा नहीं था । पेशावर के पड़ोस में स्थित काश्मीरमें भी जैन प्रभाव कार्यकारी था, ऐसा प्रतीत होता है। वहांपर मेघवाहन राजा जैनोंके समान अहिंसा धर्मको पालन करनेकी स्पर्द्धा करता था । उसने यज्ञमें हिंसाका निषेध किया था और एक झीलके किनारे पक्षियों और मछलियोंको न मारने की आज्ञा निकाली थी । काश्मीरके एक दूसरे राजा अनन्तिवर्मन ( सन् ८५५-८८३ ई०) ने भी ऐसी ही राजाज्ञा प्रगट की थी । इन उल्लेखों से काश्मीरमें जैनमुनियोंका प्रभावशाली होना प्रगट है । 3 इस समय मुनिजन प्राचीन दिगम्बर भेषमें रहते थे, यह बात हुएन त्सांगके कथनसे प्रमाणित है । वह कहता है कि 'निर्ग्रथ (Li-hi) लोग अपने शरीरको नम रखते हैं और बालोंको नौंचडालते हैं। उनके देहकी चमड़ी चटखजाती है और उनके पैर सख्त होते और फटजाते हैं ' । इन्हीं मुनिजनोंकी प्रधानता प्रायः सारे देशमें थी । हुएन त्सांगको समूचे भारतवर्ष में बल्कि उसके बाहर भी जैनी बिखरे हुए मिले थे । " मध्य देशमें भी उनका प्रभाव पर्याप्त था । यह बात राजा हर्ष द्वारा बुलाये गये एक सार्वधर्म सम्मेलनके. विवरण से प्रगट है । यह सम्मेलन सम्प्रदाय - विशेषका नहीं था । सन् ६४३ ई० के फरवरी और मार्च मासमें कन्नौज के बाहर इस सम्मेलनके लिये बने हुए एक राजशिबिर में हर्षने डेरा किया था । चार E. १ - राजतरिङ्गणी ३ - ७; १-१२ व ५ - ११९ । २ - ३ - जमीसो ० भा० १८ पृ० ३१ । ४ - ट्रैवेल्स ऑफ ह्युन्तसांग, (st. Julien, Vienna; p.224) ५-इंसेजै०पृ०४५-४६ । ६-हिमारूई पृ० २०७ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०] संक्षिप्त जैन इतिहास । हजार बौद्धभिक्षु इसमें शामिल हुये थे। तीन हजार ब्राह्मण और जैन पंडित थे । राजाके मित्र ह्वेनसांगसे किसीने शास्त्रार्थ नहीं किया। बल्कि उससे चिढ़कर किन्हीं विपक्षियोंने सभामंडपमें आग लगाकर उसका अन्त कर दिया । कहते हैं कि इस दुष्कार्यके उपलक्षमें ५०० ब्राह्मण देशसे निर्वासित कर दिये गये थे। राजा हर्षने सबही धर्मालम्बियोंको उपहार दिये थे। जैनों एवं अन्य लोगोंको भी २० दिन तक यह उपहार मिले थे। इस वर्णनसे कन्नौजके आसपास जैनोंका पर्याप्त संख्यामें प्रभावशाली होना प्रमाणित है। यही कारण है कि उन्हें राज--सम्मेलनमें भुलाया नहीं गया था। ___ जब हुएनत्सांग बंगालमें पहुंचा तो वहां भी उसे जैनोंकी आबादी मिली। पुन्ड्रवर्द्धन (उत्तरीय बंगाल) में निर्ग्रन्थ लोग (दिगम्बर जैन) सबसे अधिक थे । कामरूपके दक्षिणमें समतट और पूर्वीय बंगालमें भी दिगम्बर जैन असंख्य थे। कलिङ्ग तो जैनोंका मुख्य केन्द्र था और दक्षिण भारतमें भी दिगम्बर जैनोंका प्राबल्य था। गुजरात और काठियावाड़में भी जैनोंकी संख्या अधिक थी। वल्लभीनगर उनका केन्द्र था और मालवामें उज्जैन भी दिगम्बर जैन मुनियोंका मुख्यस्थान वना हुआ था। सारांशतः हुएनत्सांगके वर्णनसे जैनोंका प्रभावशाली अस्तित्व उस समय मिलता है। इतिहासकारोंकी मान्यता है कि सन् ५५०-७५३ ई०के मध्यवर्ती कालमें बौद्धधर्मके हास होनेपर जैनधर्म और पौराणिक हिन्दू मतने बहुत उन्नति की थी। १-लाभाइ०, पृ० २४२-२४३ । २-हिआरूइ०, पृ० २०५। ३-भाप्रासइ०, भा०४ पृ०३८ । ४-कलि०, पृ० १८ । ५-लाभाइ, पृ० २८३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन और चीनी यात्री हुएनत्सांग। [१११ हुएनत्सांगने उस समय भारतमें एक व्यवस्थित शिक्षा प्रणा ____लीका अच्छा परिचय कराया है। वह कहता तत्कालीन शिक्षा है कि बालकोंको शिक्षा 'सिद्धम् ' नामक प्रणाली। प्राइमरी पुस्तकसे प्रारंभ की जाती थी। जब बालक सात वर्षके होते थे तो उन्हें 'पंचशास्त्रों का ज्ञान कराया जाता था। इसमें सर्व प्रमुख व्याकरण था। बादमें साहित्य और कला सिखाई जाती थी। तीसरे शास्त्रके अनुसार आयुर्वेदका अध्ययन कराया जाता था। चौथेमें न्यायशास्त्र और सबके अन्तमें दर्शनशास्त्रकी शिक्षा दीजाती थी। यह शिक्षा प्रायः सब ही संप्रदायोंके गृहस्थोंके लिये प्रचलित थी। पठन-पाठनकी प्रणाली मौखिक थी। अध्यापकगण बड़े परिश्रमसे पढ़ाते थे। हैवेल सा० कहते हैं कि भारतीयोंकी यह शिक्षा प्रणाली आजकलके शिक्षाक्रमसे कहीं अच्छी थी।' १-हिमारूइ०, पृ० १९७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] . संक्षिप्त जैन इतिहास । गुजरातमें जैनधर्म और श्वेताम्बर आगम ग्रन्थोंकी उत्पत्ति । प्राचीनकालके तीन अर्थात् (१) आनर्त (२) सौराष्ट्र और (३) लाट देशोंका नाम गुजरात है। जैनोंकी प्राचीनकालसे गुज- मान्यता है कि कर्मभूमिकी आदिमें भगवान् रातमें जैनधर्म । ऋषभदेवके समय विविध देशोंका नामकरण _ और विभाग हुआ था। परन्तु उस समय यह देश संभवतः सौवीरके नामसे प्रख्यात था। उपरांत भगवान् महावीरजीके समयमें सौवीर वर्तमानके ईडर राज्य जितना था। यहां प्रसिद्ध जिनेन्द्रभक्त राजा उदयन राज्याधिकारी था। किंतु इसके पहले भगवान् नेमनाथके समयमें गुजरातपर यादवोंका अधिकार होगया था। यादवोंके अगमनपर ही द्वारिका नगर बसाया गया था और वहीं उनकी राजधानी था।' यादववंशी राजा उग्रसेनका राज्य जूनागढ़में था। भगवान नेमिनाथजीका विवाह इन्हीं राजाकी पुत्री राजकुमारी राजुलसे होना निश्चित हुआ था; किन्तु नेमिनाथजी बारातसे ही विरक्त होकर गिरनार पर्वतपर जाकर तपश्चरण करने लगे थे और वहींसे उन्होंने मुक्तपद पाया था। तबसे गिरनार जैनोंका बड़ा तीर्थ है। ऐतिहासिक कालमें हमें पता चलता है कि गुजरातमें जैन सम्राट चन्द्रगुप्तका राज्य था। उनके वैश्य जातीय सालेने जूनागढ़में १-हरि०, पृ० ३९६-३९९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातमें जैनधर्म व श्वे० ग्रंथोत्पत्ति। [११३ एक 'सुदर्शन' नामक झील बनवाई थी। बहुत संभव है कि यह श्रेष्टी. पुत्र भी जैनधर्मानुयायी हो। मौर्य चंद्रगुप्तका प्रपौत्र सम्प्रति परम जैन धर्मानुयायी था, और उसने अनेक जैनमंदिर बनवाये थे, यह लिखा जाचुका है । उसका राज्य गुजरातमें भी था और वहां भी उसके बनाये हुये मंदिर आजतक स्थित बताये जाते हैं; यद्यपि वह मौर्यकाल जितने प्राचीन नहीं हैं।' सम्प्रति के भाई शालिशूकने सौराष्ट्रको विजय किया था और जैनधर्मकी विशेष प्रभावना की थी अतः स्पष्ट है कि मौर्यकालसे गुजरातमें जैनधर्मका उत्कर्ष खूब था । मौर्य साम्राज्यके बाद गुजरातमें विदेशी यूनानियोंका अधिकार जमा था । सम्राट् खारवेलने जैन धर्मोन्नतिके अनेक कार्य किये थे। हो सकता है कि गुजरातमें भी उन्होंने जैनऐतिहासिक कालमें धर्म प्रभावनाके लिये प्रयास किया हो ! राजा गुजरातका जैनधर्म। मिनेन्डर तो जैनधर्मानुयायी प्रगट ही है और उसका राज्य भी गुजरात ( सौराष्ट्र ) में था । कालकाचार्यके कथानकसे प्रगट है कि इन विदेशियोंमें जैन साधु धर्मप्रचार करते रहते थे। यही बात राजा नरवाहन (नहपान)की कथासे प्रकट है । इन विदेशियोंमें अनेकोंने जैनधर्म ग्रहण किया था । और उनने धर्म प्रभावना करनेके सद प्रयत्न किये थे। छत्रप नहपानने जैनमुनि होकर जैन सिद्धान्तका उद्धार गुजरातसे ही किया था । अंकलेश्वरमें सर्व प्रथम जैनग्रंथ लिपिबद्ध हुये थे। छत्रपः रुद्रसिंहने जूनागढ़में बाबा प्याराका मठ और अपरकोटकी गुफायें जैनोके लिये निर्मित कराइ थीं, यह प्रगट किया जा चुका है। १-४३०, भा० १ पृ० ९४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | अपरकोटकी गुफायें वह ही प्रतीत होती हैं; जिनमें धरसेनाचार्य - अपने संघ सहित रहते थे। मालूम होता है कि गिरिनगर के निकट इन गुफाओं में जैनोंका एक संघ बहुत दिनोंसे रहता चला आ रहा था । ' सारांशतः इन विदेशियोंके समय में गुजरात में जैनधर्मकी विशेष उन्नति थी । सचमुच वहां पर जैनधर्मकी गति एक बहुत प्राचीन कालसे है । ९ छत्रपवंशके बाद गुजरातमें गुप्तराजा अधिकारी हुये थे । मालूम होता है कि उनके समय में भी गुजमध्यकालमें गुजरात रात में जैनधर्म उन्नत था । सिद्धसेन दिवाकर पर गुप्त वल्लभी आदि प्रभृति जैनाचार्य जैनधर्मका उद्योत करते हुये राज्य व जैनधम । विचर रहे थे । किन्तु इसके पहले जैनाचार्य श्री कुन्दकुन्दस्वामीका गुजरातमें शुभागमन हो चुका था । प्राचीन जैनों और नवीन अर्द्धफालक (खण्डवस्त्रधारी - -श्वेतपट) जैनोंमें जो गिरिनार तीर्थके सम्बन्ध में झगडा होरहा था, उसको उन्होंने सरस्वती देवीकी पाषाण मूर्तिको वाचाल करके निवटा दिया था । गुप्तोंके बाद वल्लभीवंशके राजा लोग गुजरातपर शासन करने लगे थे। इनकी राजधानी वल्लभीमें थी। चीन यात्री हुएनसांगने इस नगरको बड़ा समृद्धिशाली पाया था । वहांपर सौसे ऊपर करोड़पति थे और अनेक साधु थे । ध्रुवपद नामक राजा - बौद्ध था | वहां मकान व मंदिर ईंटों और लकड़ीके होते थे । शत्रुंजय तीर्थपर एक जैन मंदिर लकड़ीका था; जो राजा कुमार १ - जविओसो० भा० १६ पृ० ३०-३१ । २ - कैहिइ० भा० , " १ पृ० १६६ । ३ - दिगम्बर जैन डायरेक्टरी पृ० ७६५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातमें जैनधर्म व श्वे० ग्रंथोत्पत्ति। [११५ थाल सोलंकीके समय जलकर नष्ट होगया था । और उसके स्थानपर पाषाण मंदिर निर्मित था । वल्लभीवंशके ताम्रपत्रोंमें वृषभ चिन्ह है और उनमें भट्टारक शब्द है। इन दोनों बातोंका सम्बन्ध जैनधर्मसे है । मालूम होता है इस वंशके कई राजा जैन धर्मानुयायी थे। सन् २२८ ई०का शिलादित्य प्रथम नामक राजा निःसंदेह जैनधर्मानुयायी था । फरिस्ताने उसे · भारतका राजा जूनः ' लिखा है। फाह्यान नामक चीनी यात्रीको वल्लभीके जैन राजा भारतपर राज्य करते मिले थे। तब इस वंशका शिलादित्य सप्तम नामक राजा ( सन ३९० ) जैन सिंहासनारूढ़ था । वल्लभीमें फाद्यानने जिन मंदिरोंके दर्शन किये थे। उस चीनी यात्रीने जैनियोंके पर्यषण पर्वमें रथोत्सवकी बड़ी प्रशंसा लिखी है। फाह्यानने लिखा है किउन दिनोंमें देशभरमें कोई किसी जंतुका वध नहीं करता था, न मदिरा पीता था न लहसुन-प्याज खाता था। बाजारमें सूनागार नहीं थे, न पशुओंका व्यापार होता था, न कसाईकी दुकानें खुलती थीं और न शराबकी दुकानें थीं ।' वल्लभीवंशके नाश होनेपर चालुक्योंने दक्षिणसे आकर गुजरातपर अधिकार जमाया था। इस वंशमें संभवतः जयसिंह बर्मन परम भट्टारक (६६६-६९३) को जैनधर्मसे प्रेम था। इसी समय एक छोटासा गुर्जर राज्य भरूचके पास राज्य करता था। उसमें जयभट्ट प्रथम एक विजयी और धर्मात्मा राजा था तथा उसकी उपाधिमें 'वीतराग' शब्द है । इसी प्रकार उसके पुत्र दद्दा द्वितीयकी उपाधि — प्रशांतराग' थी। १-माडर्नरिव्यू (जुलाई १९३२) पृ० ८८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | इन राजाओंका जैनी होना संभव है ।' चालुक्योंके बाद राष्ट्रकूट वंशका अधिकार गुजरातपर हुआ था । वल्लभीमें जब ध्रुवसेन प्रथम ( ५२६ - ५३५ ई० ) राज्य कर रहे थे, उस समय श्वेतांबर संप्रदायमें श्वे० आगम ग्रंथोंकी देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण नामक एक प्रख्यात् उत्पत्ति । साधु थे । उन्होंने वल्लभी में श्वेतांबर जैन R संघको एकत्र किया था और उसमें अंग ग्रंथोंका पुनः संशोधन करके उन्हें लिपिबद्ध करदिया । इस समयके बहुत पहले ही श्वेतांबर संप्रदायका जन्म होचुका था और उसने और भी कितनी ही प्राचीन बातोंमें रद्दोबदल किया था; जैसे साधुओंके भेषमें और मूर्तियोंके निर्माणमें आदि । इस अवस्थामें क्षमाश्रमणके लिये यह अवश्यक था कि वह श्वेतांबर जैन सिद्धांतको लिपिबद्ध कर देते । ब्राह्मण और बौद्ध तथापि स्वयं दिगम्बर जैनोंके ग्रंथ पहले ही लिपिबद्ध होचुके थे । श्वेतांबरों को भी यह ठीक नहीं जंचा कि उनके धर्मग्रंथ पुस्तकरूपमें लिपिबद्ध न हों। वह लिपिबद्ध कर लिये गये और उनमेंसे ' जिनचरित्र ' ( महावीर चरित्र ) का व्याख्यान आनंदपुरमें राजा ध्रुवसेनके समक्ष हुआ था । इस १ - बंप्रा जैस्मा०, पृ० १९९ - १९६ । २ - ' कल्पसूत्र' ( Jacobi. ed. p. 67 ) लिखा- 'समणस्स भगवो महावीरस्स जावसव्व दुक्खप्यहिणस्स नववासस्स यायिम विक्य- तई दसमस्य वासस्सयस्सा अयं असी इमे सवच्चेरकाले गच्छह इति । ' - विनय विजयगणि इसकी टीका में लिखते हैं: - 'बलही पुरम्म नयरे देवइढिप मुहसवलसंघेहिं । पुव्वे आगम लिहिऊ नव सय असी मनुवीराउ ॥ ३-उसू०, भूमिका पृ० १६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातमें जैनधर्म व श्वे० ग्रन्थोत्पत्ति | [ ११७ प्रकार वर्तमान में श्वेतांबरोंके जो आगम ग्रंथ मिलते हैं, वह ई० छटी शताब्दिके संशोधित और लिखे हुये हैं । उन्हें श्रुतकेवली भद्रबाहु द्वारा प्रतिपादित यथाजात अंग ग्रन्थ बतलाना एक अति साहसी वक्तव्य है । वेतांबर निरुक्तियां भी इन आचार्यकी रचना नहीं हैं; यह विद्वान् प्रगट कर चुके हैं । साथ ही श्वेतांबर आगम ग्रन्थोंका सादृश्य बौद्धोंके पिटक ग्रन्थोंसे बहुत कुछ है । बौद्धोंके पिटक - ग्रन्थ पाली भाषामें हैं और पाली भाषा श्वेतांबर जैनोंके अंगग्रन्थोंकी अर्द्ध मागधी भाषासे प्राचीन है । इस अवस्थामें यह कहा जासकता है कि अर्द्धमागधीमें पाली भाषासे बहुत कुछ लिया गया है । साथ ही हमें मालूम है कि बौद्धोंके पिटक ग्रंथोंकी व्यवस्था ३० जैनोंके पाटलिपुत्रवाले संघके बहुत पहले हो चुकी थी और वह लिपि - बद्ध भी श्वेतांबर जैनोंके अंग ग्रन्थोंके लिखे जानेके पहले हो चुके थे । अतएब यह संभव है कि श्वेतांबर आगम ग्रंथोंमें बहुत कुछ बौद्धोंके पिटकत्रयसे लिया गया हो । बौद्ध श्वे० जैनोंपर इस प्रकारका आक्षेप भी करते हैं । बौद्ध यात्री हुएन त्सांग लिखता है : - " ( सिंहपुर ) स्तूप की बगलमें थोड़ी दूरपर एक स्थान है, जहां श्वेतांबर साधुको सिद्धांतोंका ज्ञान हुआ था और उसने सबसे पहले धर्मका उपदेश दिया था । .... इन लोगोंने अधिकतर बौद्ध पुस्तकों में से सिद्धांतोंको 1 श्वे० ग्रंथोंका बौद्ध ग्रंथोंसे सादृश्य | १ - जैनसूत्र ( S. BE) भूमिका भा० २ पृ० ३९ व उसू० भूमिका पृ० १- ३२ व सर आसुतोष मिमेरियल वाल्युम पृ० २१ । २ - इंहिका० भा० ४ पृ० २३-३० । ३ - भमवु०, पृ० १८८ । , Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] संक्षिप्त जैन इतिहास। उडाकर अपने धर्ममें सम्मिलित कर लिया है " । ( हुएनत्सांगका भारत भ्रमण पृ० १४२ ) संभवतः यही कारण है कि दिगम्बर मान्यताकी अपेक्षा श्वेतांबरों द्वारा वर्णित भगवान महावी जीके चरित्रका सादृश्य म० बुद्धके जीवनसे अधिक है । श्वेतांबर भगवान महावीरको म० बुद्धकी तरह यशोदा नामक राजकुमारीसे विवाह करते लिखते हैं और बतलाते हैं कि उनके भाई नन्दवर्धन थे । गौतमबुद्धके भाईका नाम भी नन्द था।' दिगम्बर ग्रंथों में भगवानका कोई भाई बहिन कोई प्रगट नहीं किया गया है। उनमें भगवानके पांचोंकल्याणोंके समय विशाखा नक्षत्रका होना लिखा है; परन्तु श्वेतांबरोंने तब हस्तोत्तरा नक्षत्रका होना म० वुद्धके जन्म; बोधि और परिनिर्वाण अवसरोंके समान लिखा है।' महावीरजीको श्वेताम्बर ग्रंथोंमें पापोंसे विलग रहनेका निश्चय जिन शब्दोंमें ( सब्बं मे अपर्णिज्जं पापं ) प्रकट करते बताया है; करीब २ ठीक वैसे ही शब्दोंमें गौतमबुद्ध वैसा ही निश्चय प्रगट करते हुये बौद्धग्रंथ “ धम्मपद” (१८३) में बताये गये हैं (सब्ब पापस्स अकरणं) । केवल इतनी ही सादृश्यता नहीं है बल्कि विद्वानोंने प्रगट कर दिया है कि श्वे. जैन और बौद्ध ग्रंथोंमें अनेकों एक समान कथानक, वाक्य, उक्तियां और उपदेश हैं। 'उत्तराध्ययन सूत्र में राजा श्रेणिकका समागम जो एक जैन मुनिसे हुआ १-साम्स आफ ब्रदरन, पृ० १२६ । २-आसू० २-२४-२० । -३-मनि०, २६-१७। ४-उसू०की भूमिका व 'सर आसुतोष मिमोरियल बॉल्यूम' भा० २ में प्रो० बपटका "जैन अर्द्धमागधी टेक्स्ट" शीर्षक लेख देखो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातमें जैनधर्म व श्वे० ग्रंथोत्पत्ति । | बताया गया है, वह 'सुत्तनिपात' (३-१)में वर्णित म० बुद्ध और श्रेणिकके मिलापकी याद दिलाता है। अगाड़ी · उत्तराध्ययन ' में हरिकेश आदिकी कथा बौद्धोंकी जातक कथाओंके समान हैं।' 'उत्तराध्ययन सूत्र' एवं अन्य अंगग्रन्थ भी किसी एक आचार्यकी रचना नहीं है । बल्कि वह कई विद्वानोंकी रचना है, यह विदेशी विद्वानोंने सिद्ध किया है । अतएव यह हो सकता है कि क्षमाश्रमणने संग्रह करते हुये बौद्ध श्रोतसे भी साहाय्य ग्रहण कर लिया हो; जिससे उनकी रचनायें प्राचीन प्रगट हों। श्वेताम्बरोंने जो अपने साधुओंके भेषका वर्णन किया है, वह टीक एक बौद्ध भिक्षुके भेषके समान है। बौद्ध भिक्षुके लिये तीन 'चीवरों' (वस्त्रों को रख-. नेका विधान है, श्वेताम्बर ग्रंथ भी ‘स्थिवरकल्पी' जैन साधुके लिये तीन वस्त्रोतकको धारण करनेकी आज्ञा देते हैं । इनके नाम भी प्रायः दोनों संप्रदायोंमें एक समान हैं; जैसे अन्तरिज्जगं=पाली अन्तरावासकं, उत्तरिज्जगं=उत्तरासंगं, संघाडि-संघाटि । इसके अतिरिक्त दोनों संप्रदायोंके शास्त्रोंमें एक जैसे ही वाक्य और शब्द भी मिलते हैं। जैसे कि प्रो० पी० वी० वपट सा० ने प्रगट किये हैं। (१) वेयरनीऽभिदुग्गां (श्वे० जैन-सूय० १-५-१-८) =अथ वेतरणिम् पनदुग्गं (बौद्धः सुनि० ६७४) । ___ (२) विप्परिया समुवेन्ति (आसू० १-२-६-३)= विपरियासमेन्ति । १-उसू०, भूमिका पृ० ३८-४६ । २-उसू० भूमिका पृ०. ४०-५० व जैन सुत्रकी भूमिका । २-समामि वा० भा० २ पृ०॥ ९६-९७। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०] संक्षिप्त जैन इतिहास । (३) जस्स नत्थि ममायितं ( आसू० १-२-६-४ )= -यम्स नत्थि ममायितं ( सुनि० ९५०) । (४) उक्कुच्चग-वञ्चग, माया, नियढि, कूढ, कवठ, साइ, सम्पयोग बहुता (सूप० २-२, २९ वां सूत्र )=३ कोतन वंचन, निकति, साचियोग....(दीनि० १-१-१०)। (५) पुवुट्टई पच्छाणिवाती ( आसू० १-५-२३) पुव्वुट्ठाई पच्छानिपाती। (६) इच्चत्थं गढे लोए (आसू० १-५-२३) एत्थ गत्तितो लोको। (७) उट्टे अहे तिरियं दिसासु ( आसू० १-८-१८)= उद्धं अधो च तिरियं च ( सुनि० १५५)। (८) आहारोवचैया देह। (आसू० १-८-३-५)=सरीणं आहारोवैयं आहारोपचितो देहो । (९) अहुणा पव्वजितो (आसू० १--९--१-१) अचिरम्पबजितो। (१०) मायण्णे असणपाणस्त (आसू० १--९.-१-२०) =मत्तञ्जू हाहि भोजने। (११) गामे वा अदु वा रण्णे ( आसू० १--८--८--७)= गामे वा यदि वाऽरण्णे। ( सुनि० ११९) इत्यादि वाक्योंके अतिरिक्त अनेक शब्द भी समान हैं । यथाः “ सयणासण-(पाली) सेनाससन, लूह-लुख, सेह-सेख, वुसीमउ= वुसीमतो, णीवारा निवाप, मच्चिय मच्चा या मातिया, भूइपण्णेShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातमें जैनधर्म व श्त्रे० ग्रंथोत्पत्ति । [ १२१ भूरिपजो, विगपगेही - विगतगिद्धो; इत्यादि, इत्यादि । (देखो सर आसुतोष मेमोरियल बॉल्यूम, भा० २ पृ० १०१ - १०३ ) । अतएव यह बहुत कुछ संभव है कि क्षमा श्रमण के समय में श्वेताम्बर आगम ग्रंथोंमें बौद्ध साहित्य से सहाय्य ग्रहण किया गया हो । डो० बुल्हर भी इस बातको संभव बताते हैं । T * विक्रम संवत् ५५० से ७९० के बीचमें हैहय अथवा कलचूरि वंशके राजाओंका राज्य भी चेदी और हैहय व कलचूरी राजा गुजरात ( लाट ) में था । ' इस वंशके राजा और जैनधर्म । भारतमें एक प्राचीन कालसे राज्य कर रहे ૨ थे । किन्तु इनका पूर्व वृतान्त ज्ञात नहीं है । हैहयवंशी राजा अपनी उत्पत्ति नर्मदा तट पर स्थित माहिष्मतीके राजा कार्तवीर्यसे बतलाते हैं । इनकी उपाधि 'कालंजर - परवारा धोम्बर' भी है। इससे इनका निकास कालंजर नामसे हुआ अनुमान किया जाता है । कनिंघम सा०के अनुसार ९ मीसे ११ मी शताब्दि तक हैहय राजागण वुन्देलखंड में चेदिवंशकी एक बलवान शाखा थी । चेदि राष्ट्रकी उत्पत्ति जैनराजा अभिचंद्रसे हुई थी । और चेदिवंशमें जैनसम्राट् खारवेल हुये थे । हैहय अथवा कलचूरि लोग भी जैनी थे । ' कलचूरि' शब्दका अर्थ ही उनके जैनत्वका द्योतक है अर्थात् 'कल' – देह और चूरि= नाश करना | देहको नाश 8 ४ • * "In the late fixing of the canon of the Swetamberas in the sixth century after Christ, it may have been drawn from Buddhist works, Indian sect of the Jainas p. 45 भा० १ पृ० ३९ । २- एई०, भा० २ पृ० ८ । १ - भाप्रारा०, ३ - बंप्रा जैस्मा०, पृ० ११३ - ११९ । ४ - हरि०, पृ० १९४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] संक्षिप्त जैन इतिहास । करके परम अतीन्द्रिय सुख पानेका विधान जैनधर्ममें है। हैहय और चेदि शब्द भी जैनत्वके द्योतक हैं। हैह्य 'अधहय' अथवा अहहयका रूपान्तर है अर्थात् पापोंके चूरनेवाला । चेदिसे भाव आत्माको चेतानेवालेका है। दक्षिण भारतमें इस वंशके राजाओंने जैनधर्मके लिये बड़े अच्छे २ काम किये थे । इस वंशके राजा शंकरगणने, जिनकी राजधानी जबलपुर जिलेकी तेवर (त्रिपुरी) थी, कुलपाक तीर्थकी स्थापना (सं०६८०में) की थी। हैहयोंमें कर्णदेव राजा प्रख्यात थे।' यह वीर थे और इन्होंने कई लड़ाइयां लडी थीं। इनकी राजधानी काशीमें थी। मालवाके राजा भोजको इन्होने परास्त किया था। गुजरातके राजा भीमको भी इन्होंने अपने साथ रक्खा था। इनका विवाह हूण जातिकी आवल्लदेवीसे हुआ था, जिससे यशःकर्णदेवका जन्म हुआ था । हैहयवंशकी इस शाखाका अस्तित्व १३ वीं शताब्दि तक रहा था। गुजरातमें चालुक्य वंशके राजाओंने सन् ६३४ से ७४० ___ तक राज्य किया था । इनके एवं गुर्जर और चाल्युक्य राजा व राष्ट्रवंशके अधिकारके समय गुजरातमें साहिजैनधर्म । त्यकी खूब उन्नति हुई थी। तथा इन राजा ओंने जैनधर्मको महत्व दिया था। इस वंशका प्राचीन लेख धारवाड़ जिलेमें आदुर ग्रामसे मिला है। यह राजकीर्तिवर्मा प्रथमका है और इसमें राजाके दानका उल्लेख है, जो उसने नगरसेठ द्वारा बनवाये गये जैनमंदिरको दिया था। बंका १-भाप्रारा०, भा० १ पृ० ४८-५०। २ बंप्राजैस्मा०, पृ० १। ३-बंप्राजैस्मा०, पृ० ११३-१२० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातमें जैनधर्म व श्वे० ग्रंथोत्पत्ति। [१२३ पुरसे २० मिलकी दूरीपर लखमेश्वर नामक स्थानसे तीन शिलालेख (२) राजा विनयदित्य (६८०-६९७ ), (२) विजयदित्य (६९७-७३३), (३) और राजा विक्रमादित्य द्वितीय (७३३७४७ ) के शासनकालके मिले हैं उनमें जैन मंदिरों और गुरुओंको दान देनेका उल्लेख है । इन दातारोंमें एक हरिकेशरीदेव बंकापुरके निवासी थे । इन्होंने पांच धार्मिक महाविद्यालयोंकी स्थापना की थी। यह नगरसेठ थे और महाजन थे। इस समय यह स्थान जैनधर्मका केन्द्र बनरहा था। श्रीगुणभद्राचार्यजीने अपना 'उत्तरपुराण' सन् ८९८ में यहीं समाप्त किया था । तब यह स्थान वनबासी राज्यकी राजधानी थी और यहां राष्ट्रकूटवशी राजा अकालवर्षका सामन्त लोकादित्य राज्य करता था, जो जैनधर्मका भक्त था । चालुक्यवंशमें सत्याश्रय पुलिकेशी द्वितीयके समान कोई भी प्रतापी राजा नहीं हुआ। वह शक सं० ५३१ में राजगादी पर बैठा था । इस वंशके अन्य राजाओंका विशेष वर्णन हम तीसरे खण्डमें करेंगे । राष्ट्रकुट वंशके राजा लोग गुजरातमें सन् ७४३ में शासना धिकारी हुये थे। यह अपनेको चन्द्रवंशी अथवा राष्ट्रकूटवंशमें जैनधर्म। यदुवंशी कहते हैं । राष्ट्रकुटवंशी राजा गोविंद तृतीयने ( ८१२ ई०) लाटदेश (गुजरात) का राज्य अपने छोटे भाई इन्द्रराजके सुपुर्द किया था। गोविन्द बड़ा प्रतापी राजा था । प्रभूतवर्ष गंगवंशी द्वितीयने चाकि राजाके अनुरोधसे जैन मुनि विजयकीर्तिके शिष्य अर्ककीर्तिको दान दिया १-भाप्रारा०, भा० ३ पृ० ६९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४] संक्षिप्त जैन इतिहास। था । राष्ट्रकूटवशको गुजरातवाली शाखामें इन्द्रका उत्तराधिकारी कर्क प्रथम (८१२-८२१) हुआ था, जिसने नौसारी (सूरत)के एक जैन मंदिरको अम्बापातक नामका ग्राम भेट किया था । सन् ९१० ई०के लगभग राष्ट्रकूटवंशकी इस शाखाका अंत होगया था। सन ९७२ ई०में गुजरात पश्चिमी चालुक्य राजा तैलप्पके अधिकारमें चला गया। गुजरातमें चावड़वंशका राज्य भी सन् ७२० से ९६१ तक रहा था। पहले चावड़ सरदार पंचासर ग्राममें चावड़ राजाओंके राज्य करते थे । सन् ६९६ में जयशेखर जैनकार्य । चावड़को चालुक्य राजा भुवड़ने मार डाला। उसकी रूपसुंदरी नामक स्त्री गर्भवती थी । इसीका पुत्र वनराज था; जिसने अनहिलवाड़ा वसाया और अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करके सन् ७४६ से ७८० तक राज्य किया। वनराज जैनधर्मानुयायी था। इसने पंचासर पार्श्वनाथजीका जैन मंदिर बनवाया था । वनराजका उत्तराधिकारी उसका भाई योगराज हुआ और उसके पश्चात् चार राजाओंने इस वंशमें सन् ९६१ तक राज्य किया था। वनराजका मुख्य मंत्री चम्पा नामक जैन श्रेष्ठी था; जिनका व्यापार अफरीका व अरबसे खूब चलता था, उन्होंने -इऐ०, भा० १२ पृ० १३-१६-यह जैनमुनि अर्ककीर्ति श्री कीाचायके अन्वयमें थेः । श्री यापनीय नेमिसघनागवृक्षमुलगणे श्री कील्चर्यान्वये ॥” २-बंगाजैस्मा० पृ० २०० । ३-भाप्राए. भा० ३ पृ० ७५ | ४-बंप्राजैस्मा०, पृ० २०२-२०३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातमें जैनधर्म व श्वे० ग्रंथोत्पत्ति। [१२५ कई जैन मंदिर बनवाये थे। चम्पानेर नामक नगरकी नींव भी उन्होंने डाली थी। चावड़ों के बाद गुजरातमें सोलंकियोंका राज्याधिकार सन् ९६४ से १२४२ ई० तक रहा था। सोलंकी राजा जैनधर्मानुयायी थे । अंतिम चावड़ा राजा भूभत था। उसकी बहिनका विवाह चालुक्य अथवा सोलंकी राजा महाराजाधिराज राजीसे हुआ था। इसी राजीका पुत्र मूलराज भूभतके बाद गुजरातका राजा हुआ था। गुजरातमें इसीसे सोलंकी वंशका सोलंकी राजा व प्रारंभ हुआ माना जाता है। यह प्रभावजैनधर्म । शाली राजा था। इसने अपने राज्यका विस्तार किया था । लाड़के राजा बारप्पासे तथा अजमेरके राजा विग्रहराजसे युद्ध किया था । मूलराजका बनवाया हुआ जैनमंदिर अनहिलवाडामें 'मूल-वस्तिका नामसे प्रसिद्ध है। इसके बनाये हुये शिवमंदिर भी मिलते हैं। मूलराजने अपना बहुतसा समय सिद्धपुरके पवित्र मंदिरमें बिताया था, जो अनहिवाड़ासे उत्तर पूर्व १५ मील है। मूलराजका उत्तराधिकारी उसका पुत्र चामुड़ ( ९९७--१०१०) हुआ। चामुड़ बनारसकी यात्राको गया था कि मार्गमें राजा मुंजने हरा कर इसका छत्र छीन लिया था। चामुड़के बाद दुर्लभराजा हुआ और उसके बाद उसका भतीजा भीम प्रथम (सन् १०२२-१०६४) शासनाधिकारी हुआ था। भीमने सिंधुदेश और चेदि अथवा बुन्देलखंड पर हमला किया था और इसमें वह विजयी हुआ था। महमद गजनवी द्वारा नष्ट किये गये १-वंप्राजैस्मा०, पृ०८-१७।-बंप्राजैस्मा०, पृ० २०३-२०४। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६] संक्षिप्त जैन इतिहास । सोमनाथके मंदिरको इसने फिरसे पाषाणका बनवा दिया था । भीमकी अनबन आबके सरदार धन्धुक परमारसे हुई थी और उसके सेनापति विमलने उसे परास्त किया था । आबूकी चित्रकूट पहाडी विमलशाहको मिली; जिसपर उसने सुंदर जैन मंदिर बनवाया। यह मंदिर विमलवसही' नामसे प्रसिद्ध है । इस मंदिरके विषय में कर्नल टॉड सा० ने .. ट्रेविल्स इन वेष्टर्न इन्डिया' में लिखा है कि "हिन्दुस्तान भरमें यह मंदिर सर्वोत्तम है और ताजमहालके सिवा कोई दूसरा स्थान इसकी समता नहीं कर सकता ।' 'उदय-वराह' नामक भीमका पुत्र कर्ण उसके उपरान्त राज्यका अधिकारी हुआ । इसने सन १०६४ से १०९४ ई० तक मुंजालु, सांतु और उदय नामक मंत्रियोंकी सम्मतिसे राज्य किया । उदय मारवाडके श्रीमाली बनिये थे। इन्होंने कर्णावती नगग्में एक जैन मंदिर बनवाया था, जिसमें ७२ तीर्थङ्गरोंकी मूर्तियां विराजमान थों। कर्णावती नगरीकी स्थापना राजा कर्णद्वारा हुई थी और यह नगर आजकाल अहमदाबादके नामसे प्रसिद्ध है । उदयके पांच पुत्र-आहड़, चाहड़, बाहड़, अंबड और सोल्ला थे। इनमें से पहेले चारने राजा कुमारपालकी सेवा कीथी और सोल्ला व्यापारी हो गया था । दूसरे मंत्री सांतु भी जैनी थे। इन्होंने सांतुवसही नामक जैनमंदिर बनवाया था। राजा कर्णने श्वेताम्बराचार्य अभयदेवमूरिका आदर किया था। इनका विरुद 'मलधारिन्' था १-बंप्राजस्मा०, पृ० २०४-२०५ । २- राइ०, भा० १ पृ० २३ । ३. बंप्राजैस्मा०, पृ० २०५ । ४-हिवि०, भा० ३ पृ० २३९ । ५-बंप्राजैस्मा०, पृ० २०५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ marrrrrrrrmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm गुजरातमें जैनधर्म व श्वे० ग्रन्थोत्पत्ति। [१२७ और यह 'प्रश्नवाहनकुल, कोटिकगण, मध्यमशाखा, स्थूलिभद्र मुनिवंशे हर्षपुरीय गच्छके जयमिहसूरीके शिष्य थे। इनने कितनेही ब्राह्मणोंको जैनधर्ममें दीक्षित किया था। सौराष्ट्र के खेङ्गार और सकम्मरिके पृथ्वीराजचौहानसे आदर पाया था । अजमेरमें इनका स्वर्गवास हुआ था । कर्णका उत्तराधिकारी उनके पुत्र सिद्धराज जयसिंहने सन् २०१४ - ११४३ तक राज्य किया । मुंजाल और संतु इसके भी मंत्री रहे थे । सिद्धराज एक बड़ा बलवान, धार्मिक व दानी राजा था। यह सोमनाथ महादेवका भी भक्त था । इसे मंत्रशास्त्र भी ज्ञात था; जिसके कारण इसको 'सिद्धचक्रवर्ती' कहते थे। सिद्धपुरमें सरस्वती नदीके किनारे इसने 'रुद्रमाल' नामक एक बृहद् शिवालय और जैन तीर्थकर भगवान महावीर स्वामीका मंदिर बनवाया । इसने वर्द्धमानपुर (वधवान)में सौराष्ट्र राजा नोधनको विजय किया तथा सोरटदेश लेकर सज्जनको अधिकारी नियत किया। सज्जनने श्री गिरिनारमें नेमिनाथजीका जैन मंदिर बनवाया। सिद्धराजको जैनधर्मसे भी प्रेम था। उसने श्री शत्रुजयजीकी यात्रा करके, श्री आदिनाथजीको १२ ग्राम भेंट किये थे। सिद्धराजने एक संवत् भी चलाया था। मालवाके राजा नरवर्मा परमार तथा यशोवर्मा परमारसे इसका एक युद्ध लगभग १२ वर्ष तक हुआ था । अंतमें स: ११३४ में सिद्धराज विजयी हुआ था। तबसे इसका नान · अन्तिनाथ' प्रसिद्ध हुआ था। बर्बर १-डिजैबा०, पृ० ८ । २-वप्राजैस्मा०, पृ० २०६ । ३-हिवि०, मा० ७ पृ० ५९४ । ४ - बंप्राजैस्मा०, पृ० २०६। ५-इंऐ०, भा. ६ पृ० १९४। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास राजा को भी इसने परास्त किया था । महोबा के चंदेलराजा मदनवर्मा ने इससे सन्धि करली थी । श्वेताम्बर जैनाचार्य हेमचन्द्र इसी समय 'सिद्धहेम व्याकरण और द्वाश्रय द्राव्य लिखा था । राजा सिद्धराजने एक बाद सभा भी कराई थी । करणटक देशसे कुमुदचंद्र नामक एक दिगम्बर जैनाचार्य अहमदाबाद आये थे । श्वेताम्बराचार्य देवसूरि तब वहां 'अरीष्टनेमिके जैनमंदिर में थे । किन्तु. इन्होंने वहां शास्त्रार्थ करवा मंजूर नहीं किया। दिगम्बराचार्य नग्मा - वस्था में ही पाटन पहुंचे । सिद्धराजने उनका बड़ा आदर किया । हेमचंद्राचार्य बाद करने को राजी न हुये । इस कारण देवसूरिसे वाद हुआ । सभामें कुमुदचंद्र ने कहा कि कोई स्त्री मुक्ति नहीं पा सकी । सिद्धराजने इससे महाराणीका अपमान हुआ' समझा । उचर सवस्त्र साधु दशासे मोक्षनिषेध करनेके कारण राजमंत्री भी रुष्ट हो गये । सभामें हुल्लड मचगया और कुमुदचंद्रको पराजित तथा उनके प्रतिपक्षी देवसूरिको विजयी ठहरा दिया गया । देवसूरिको अजितसूरि भी कहा गया है और यह 'स्याद्वाद - रत्नाकर' नामक ग्रंथके कर्ता थे । ४ I I सिद्धराज के एक मंत्री आलिग नामक भी था । उसने वि० सं० १९९८ में एक जैन मंदिर निर्मापित कराया था और उसका नाम 'राजविहार' रक्खा था। उसके मित्र सज्जन जूनागढ़ के शासक जैन धर्मानुयायी थे । सिद्धराज ने 'आनन्दसूरि और उनके सह भ्राता 1 , १ - हि वि० भा० ७ पृ० ५९४ । २ - बंप्राजैम्मा०, पृ० २०७१ ३ - हिवि०, भा० ५ पृ० १०५ व बंप्राजेस्मा०, पृ० २०७ - २०८ । ४ - डिजेबा० भाग १ पृ० ३१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . - ~- ~ ~ - ~ ~ ~ - ~ ~ -...- ~ गुजरातम जैनधर्म व शे० ग्रन्थोत्पत्ति। [१२९. अमरचंन्द्रमूरिका बड़ा आइर किया था । और उन्हें क्रमशः च्याघ्रशिशुक' व 'सिंहशिशुक' नामक उपाधियोंसे विभूषित किया था । ये दोनों श्वेताम्बराचार्य बड़े भारी नैयायिक थे। इनके शिष्य हरिभद्रसूरि द्वितीय नागेन्द्र गच्छीय थे। इनकी प्रसिद्धि “ कलिकाल गौतम" के नामसे थी। ' इनके दो शिष्य हंस और परमहंस नामक जैनधर्म प्रचार करते हुये भोटादेशमें (तिञ्चतमें, बौद्धोंद्वारा मार डाले गये बताये जाते हैं।' जयसिंह सिद्धराजकी मृत्यु सन् ११४३ ई० में हुई थी। सिद्धराजके कोई पुत्र नहीं था। किन्तु भीम प्रथ की एक प्रेमिकासे उत्पन्न पुत्र हरिपालकी संतान इस सम्राट् कुमारपाल। समय मौजूद थी । इस कारण त्रिनुवनपाल और उसके तीन लड़के जिनमें सबसे बड़े कुमारपाल थे, राज्य पानेके प्रयत्न करने लगे और अन्तमें कुमारपाल चालुक्यवंशका राजा हुआ । कोई कुमारपालको सिद्धराजका भाग्नेय बतलाते हैं । कुमारपालकी एक वहिन प्रमलदेवी का विवाह सिद्धराजके सेनापति कण्हदेवसे हुआ था और दूसरी बहिन देवल सपादलक्षके राजा अरणोराजको विवाही गई थी। सिद्धराजकी मन्शा नहीं थी कि कुमारपालको राज्य मिले । उसने त्रिभुवनपाल को मरवा डाला और कुमारपालको मरवानेके भी उसने प्रयत्न किये; किन्तु अनहिलपट्टनके आलिङ्ग नामक कुम्हारकी सहायतासे कुमारपालकी रक्षा हुई । वह भृगुकच्छको भाग गया । कैलम्बपत्तन (Cambav) में १-हि०, भा० १० पृ० ३४० । २-सडिजे०, पृ०.३, ३-हिवि०, भा० ५ पृ० ८३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] संक्षिप्त जैन इतिहास | 1 कैलम्बराजने इनको अर्धाश दे संरक्षण किया। फिर प्रतिष्ठानपुर, उज्जयनी आदि स्थानों में कुछ समय विताकर वह नागेन्द्रपत्तनमें अपने बहनोई कहदेव के पास रहे । कैलम्बराजकी सहायता से इन्होंने - राज्याधिकार प्राप्त किया था । राजपुरोहित देवश्रीने इनका राज्याभिषेक किया था । राजा होने पर कुमारपालने इन सबका समुचित आदर किया था । अलिङ्ग कुम्हार उनके राजदरबारका मुसाहिब नियत हुआ था । इस समय कुमारपालकी अवस्था पचास वर्ष के लगभग थी । इनका जन्म सन् १०९३ में दधिस्थली ( देवस्थली ) में हुआ था । यहीं श्वेतांबराचार्य हेमचन्द्रजीसे इनने सदुपदेश ग्रहण किया था । ' कुमारपाल राजा हो गये; परन्तु पुराने राजदरबारी इनके खिलाफ रहे । फलतः इनने उनका निराकण कुमारपालकी साम्राज्य किया । कण्हदेवने कुमारपालको राजा बना वृद्धि । नेमें पूरी सहायता दी थी; इस कारण वह इनको कोई चीज़ ही नहीं समझता था । कुमारपालने उसे सावधान किया; परन्तु वह नहीं माना । आखिर उनने उसे गिरफ्तार कराके उसकी आंखें निकलवालीं । सिद्धराजने एक छहड़ नामक व्यक्तिको गोद लेकर उसे अपना पुत्र प्रगट किया था । कुमारपालके राजा होनेसे वह रुष्ट होकर सपादलक्ष पहुंचा और वहां अरणोराजने उसे आश्रय दिया था। और उसके लिये उसने कुमारपालसे लड़ाई भी लड़ी; किन्तु उसमें उसकी हार हुई | १ - सडिजे०, पृ० ५ हिवि०, भा० ५ पृ० ८३ व बंप्रा जैस्मा० पृ० २०८-२०९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातमें जैनधर्म व श्वे० ग्रंथोत्पत्ति। [१३१ छहड़को कुमारपालने माफ करके उसे राजदरबार में एक उच्च पदपर नियत किया। इसी बीचमें चन्द्रावतीका सरदार विक्रमसिंह भी कुमारपालके विरुद्ध उठ खडा हुआ; किंतु उसे भी मुंहकी खानी पड़ी। उसकी जागीर छीनकर कुमारपालने अपने भतीजे यशोधवलको देदी । इसके बाद कुमारपालने मालबाके राजाको प्राणरहित किया और चित्तौरको जीतकर पंजाबमें अपना झंडा फहराया । चित्तौरकी जागीरको उसने अलिङ्कके सुपुर्द किया और वह स्वयं 'अवन्तीनाथ' कहलाया। सन् ११५० के लगभग कुमारपालने सपादलक्षपर हमला किया था, क्योंकि अरणोराजने उसकी बहिनका अपमान किया था। परिणामतः अरणोराजको कुमारपालकी सत्ता स्वीकार करना पड़ी थी। सन् ११५६ ई० के करीब कुमारपालने उत्तरीय कोङ्कणको जीतनेके लिये अपने सेनापति अम्बड़को भेजा था; किन्तु वह वहांके राजा मल्लिकअर्जुन सिल्हारसे हार गया। कुमारपाल इससे हताश नहीं हुआ और दूसरे हमलेमें अम्बड़ सिल्हार राजाको नष्ट करके कोङ्कणदेशको चालुक्य साम्राज्यमें मिलानेमें सफल हुआ। इस विजयकी खुशीमें कुमारपालने अम्बड़को 'राजपितामह के विरुदसे विभूषित किया। कुमारपालने उदयनको मंत्री और उसके पुत्र वाहड़को महा मात्य नियत किया था। गुजरातके एक युद्धमें जैन मंत्री बाहड़। यह जैन मंत्री घायल हो गया और सन् ११४९ में मर गया। उसकी इच्छानुसार उसके पुत्र बाहढ़ और अम्बड़ने शत्रुजय आदि तीर्थोपर जैन मंदिर आदि बनवाये थे। जब सुकुनिका विहारमें श्री मुनिसुव्रतनाथजीकी १-सडिजे० पृ० ८-९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | प्रतिष्ठा हुई थी । तत्र कुमारपाल अपनी सभा मण्डली सहित पधारे थे । बाहड़ने शत्रुंजयके पास बाहड़पुर बसाया था और 'त्रिभुवनपाल नामक जैन मंदिर बनवाया । गिरनारपर सीड़ियां बनवाई थी और - सोमनाथ के मंदिर का जीर्णोद्धार किया था । पाटण, धंधुका आदि स्थानोंपर भी मंदिर बनवाये थे । कुमारपाल अपने प्रारंभिक जीवन में शैवधर्मानुयायी था और मांस-मद्य से उसे परहेज न था । वह पशु कुमारपाल व जैनधर्म । ओंकी बलि देता था । किन्तु श्री हेमचंद्राचार्यके उपदेश से कुमारपालको जैनधर्म में रुचि हो गई और उसने सन् १९५९ में प्रगटतः जैनधर्मको ग्रहण कर लिया । कुमारपालने श्रावकके व्रतोंको धारण किया था और उसने धर्मप्रचार के लिये बहु प्रयास किये थे । कुमारपाल के जैनी होने पर भी उसके नागर ब्राह्मण पुरोहितोंने अपनी पुरोहिताई छोड़ी नहीं थी । जैनधर्मके संसर्गमें आकर कुमारपालकी बिल्कुल कायापलट होगई । वह एक बड़ा अहिंसक वीर हो गया । मद्य - मांसादि सब ही उससे छूट गये । उसने अहिंसा धर्मका खूब प्रचार किया । अपने राज्य में अभयदान सूचक ' अमारी घोष ' उसने कई वार कराये थे । जीवहत्या करनेवालेको प्राणदण्ड नियत किया था । वैसे उसने प्राणदण्ड उठा दिया था । बनारस के राजा जयचंद्र के दरबार में उसने उपदेशक भेजे थे कि वह अपने राज्य में हिंसाका निषेध कर दे । अपने पड़ोस के कमजोर राजाओंके अधिकारों को भी 3. १ - बंप्राजेस्मा० पृ० २०९-२९० । २ - राइ० भा० १ पृ० ११४ | ३ - अहि० पृ० १९० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातमें जैनधर्म व श्वे० ग्रंथोत्पत्ति । [१३३ सुरक्षित रक्खा था। विधवाओंकी सम्पत्तिको ग्रहण करना भी उसने छोड़ दिया था। मद्यविक्री उसने कानूनन नाजायज ठहरा दी थी और जुआ तथा शिकार खेलनेके विरोधमें भी कानून बनाये थे ।' कुमापालके इस अनुकरणीय कार्यका प्रभाव तत्कालीक अन्य राजाओं पर भी पड़ा था । राजपूतानेके कई राजाओंने हिंसा रोकनेके लेख खुदवाये थे, जो अबतक विद्यमान हैं।' कुमारपालने शत्रुजयजी गिरनारजी आदिकी यात्राका एक जैनसंघ निकालकर ' संघपति की उपाधि ग्रहण कीथी और अनेक जैनमंदिर बनवाये थे। औषधालय भी अनेक खुलवाये थे; जिनमें गरीबोंको मुफ्त दवा और आहार मिलता था। उसने पोषधशालायें और उपाश्रय भी बनवाए थे। जिस समय कुमारपाल राजगद्दीपर आरूढ हुये उस समय वह लिखना पढना कुछ भी नहीं जानते थे; कुमारपाल व साहित्य किंतु कपरदिन नामक राजमंत्रीके कहनेसे वृद्धि। उनने एक वर्ष में ही पढ़ना सीख लिया। अकबरके समान उन्हें विद्वानोंकी संगतिका बड़ा शौक था । वह विद्वानोंके व्याख्यान और उपदेश बड़े चावसे सुना करते थे । उनके गुरू हेमचन्द्राचार्य बड़े प्रख्यात् और विद्वान् श्वेतांबर साधु थे । उनका जन्म अहमदाबादके निकट धंधुक ग्राममें . सन् १०८८ में एक जैन वैश्य परिवारके मध्य हुआ था और उनका गृहस्थ दशाका नाम चङ्गदेव था। उनके विद्यागुरु देवचंद साधु थे; जिनने कैम्बे लेजाकर इनको पढ़ाया था । श्वेतांबर संप्रदायमें उनकी । १-सडिजै० पृ० ९-१० । २-राइ० भा० १ पृ० ११ । ३- बंप्राजैस्मा० पृ० २१० व सडिजै० पृ०१०-११ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४] संक्षिप्त जैन इतिहास। बड़ी मान्यता है । उन्होंने गुजरातका इतिहास भी लिखा था । तथापि उनके अन्य ग्रंथ धर्म, सिद्धान्त और साहित्य विषयोंपर बड़े मार्मिक हैं; जैसे योगशास्त्र, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, द्वाश्रय, शब्दानुशासन इत्यादि । हेमचन्द्रके अतिरिक्त कुमारपालके दरबार में रामचंद्र और उदयचंद्र नामक जैन पण्डित भी थे। रामचंद्रके काव्य ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । 'प्रबन्धशतक' ग्रन्थ उन्हींकी रचना है। किंतु राजकवि होनेका सौभाग्य कवि श्रीपालको ही प्राप्त था और सोलक नामक गवैया राजदरबारमें संगीत शास्त्रका पण्डित था । कुमारपालने इक्कीस शास्त्रभंडार अथवा पुस्तकालय स्थापित किये थे और एक 'प्रतिलिपि-विभाग' खोला था; जिसके द्वारा प्राचीन ग्रंथोंकी नकल की जाती थी।३।। कहते हैं कि अपनी दिग्विजयमें कुमारपाल जब सिंधु सौवीर देशको विजय कर रहे थे तब सिंधुके पश्चिम कुमारपालका गार्हस्थ्य पारस्थ पद्मपुरकी राजकन्या पद्मिनीके साथ व अंतिम जीवन। उनका विवाह हुआ था। किंतु अन्यत्र उनकी महारानीका नाम भूपालदेवी लिखा मिलता है। भूपालदेवीकी कोखसे उन्हें एक कन्याका जन्म हुआ था। कुमारपालके कोई पुत्र नहीं था। इस कन्याका नाम लिलू ' था और इसका पुत्र प्रतापमल कुमारपालका उत्तराधिकारी था। किंतु प्रतापमलके अतिरिक्त कुमारपालके भतीजे अजयपालका भी १-हॉ० पृ० २८७ । २-सडिजै०, पृ० ११-१२। ३-हिवि०, भा० ५ पृ० ८३ । ४-सडिजै०, पृ० १२ व बंपालैस्मा०, पृ० २०९-२१०। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातमें जैनधर्म व श्वे० ग्रंथोत्पत्ति। [१३५ हक राजगद्दी पर था । कुमारपालने अजयपालको राजसिंहासन नहीं दिया, बल्कि हेमचंद्राचार्य आदिकी सम्मतिसे प्रतापमलको ही अपना उत्तराधिकारी नियत कर दिया। इसी समय हेमचंद्राचार्यका स्वास्थ्य खराब होगया और उनका स्वर्गवास चौरासी वर्षकी अवस्थामें सन ११७२ में होगया : कुमारपालके दिलको उनके म्वर्गवाससे बड़ा भारी धक्का लगा और छै महीनेके भीतर ही उनकी ऐसी शोचनीय दशा होगई कि वह चारपाईसे लग गये । और सन् ११७४ में वह भी अपने गुरुके अनुगामी होगये ! कुमारपाल एक आदर्श राजा थे। उनकी उदारता साधुओं जैसी थी और बुद्धिमत्तामें वह एक अच्छे राजनीतिज्ञसे बड़ चढ़कर थे। वह न्यायी और परिश्रमी भी खूब थे। अपने दैनिक जीवनमें वह सादा मिजाज और मितव्ययी थे तथापि धार्मिक व्रतोंको पालन करनेमें वह कट्टर थे। उनकी 'परनारीसहोदर', 'शरणागतवज्रपञ्जर', 'जीवदाता', 'विचार-चतुर्मुख ' ' दीनोद्धारक ' 'राजर्षि' आदि उपाधियां सर्वथा उन्हींके उपयुक्त थी। __ कुमारपालके पश्चात् अजयपालने राज्यपर अधिकार जमा लिया था। चालुक्य सम्राट होनेपर उसने सोलंकी राज्यका उन लोगोंसे बदला लिया था; जिन्होंने उसके पतन। विरुद्ध प्रतापमलको राज्य देनेकी सम्मति दी थी। उसने बड़ी निर्दयतासे पहले राजदरबारियोंकी जीवन लीलायें समाप्त की थी और अनेक जैन मंदिर उसने धराशायी कर दिये थे। राजमंत्री कपरदिनको पकड़वाकर उसने बंदीखानेमें डलवा दिया था। कवि रामचन्द्रको ताम्बेकी गरम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | चद्दरपर बिठलाकर प्राण रहित कर दिया था । और फिर सेनापति अम्बको उसने ललकारा था; किन्तु धर्मात्मा वीर अम्बड़ने इस धर्मद्रोही राजाकी सेवा करना स्वीकार नहीं की । उनने दृढ़ता और निर्भीकता से कहा कि इस जन्ममें मेरे देव श्री अरहंत भगवान के सिवा और कोई नहीं हैं । गुरु हेमचन्द्राचार्य रहे हैं और कुमारपाल स्वामी थे । इनके अतिरिक्त मैं किसीकी सेवा नहीं कर सक्ता | अजयपाल यह सुनते ही आग बबूला होगया । अबड़ और अजयपालका युद्ध हुआ और अंबड़ अपने धर्म और राजाके लिये उसमें वीर गतिको प्राप्त हुआ । अत्याचारी अजयपाल भी अधिक दिन जीवित न रहा । तीन वर्षके भीतर ही उसके एक दरवानने उसका कतल कर दिया । अजयपालके बाद मूलराज द्वितीय और भीम द्वितीय नामक राजा इस वंशमें और हुये थे और इनके साथ ही सन् १२४२ में इस वंशका अन्त होगया । भीमके बाद वालवंशने सन् १२१९ से १३०४ तक गुजरातपर राज्य किया था; जो सोलंकी वंशकी ही एक शाखा थी। इस वंशका पहला राजा अर्ण कुमारपालकी माताकी बहनका पुत्र था। इसने सन् १९७० से १२०० तक अनहिलवाड़ा से दक्षिण-पश्चिम १० मील वाघेला नामक ग्राममें राज्य किया था। इनका उत्तराधिकारी लवणप्रसाद था । जिस समय भीम द्वितीय उत्तर में अपनी सत्ता जमाने में व्यस्त था, उसी समय इसने धोलका और उसके आसपासके देशोंपर अधिकार जमा लिया था । वाघेलवंश और जैनधर्म ! १ - सडिजै०, पृ० १२-१३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातमें जैनधर्म व श्वे० ग्रंथोत्पत्ति । [१३७ लवणप्रसादके बाद उसका पुत्र वीरधवल गुजरातका राजा हुआ और इसने सन १२३३ से १२३८ तक राज्य किया। इसके मंत्री और सेनापति प्रसिद्ध जैन श्रेष्ठी वस्तुपाल महान ( Vastupat the great ) और उनके भाई तेजपाल थे। वीरधवलके उपरान्त क्रमशः विशालदेव, अर्जुनदेव, सारंगदेव · और कर्णदेव नामक राजा सन १३०४ तक इस वंशमें हुये और इनके बाद फिर मुसलमानोंका अधिकार गुजरातपर होगया । वाघेलवंशके राजाओंकी सहानुभूति जैन धर्मसे थी।' वस्तुपाल और तेजपाल युगलिया भाई भाई थे। उनका जन्म प्राग्वाट जातिय असराजकी पत्नी कुमारदेवीकी वस्तुपाल और कोखसे सन १२०५ में हुआ था। असराज तेजपाल। कुमारदेवीके दूसरे पति थे। कुमारदेवी अन्न हिल्लपट्टनकी प्रसिद्ध सुन्दर और युवती विधवा थीं। एक दफे हरिभद्रसूरिका व्याख्यान सुनने वह गई थीं। वहीं असराज उनके रूपपर मुग्ध होगया और उनको बलात्कार ले भागा। आखिर कुमारदेवीने भी इसको अपना पति स्वीकार कर लिया। असराजके इनसे कई संतानें हुई । वस्तुपाल और तेज़पालके विवाह भी कुमारदेवीके सामने ही होगये थे । वस्तुपालकी पत्नी ललितादेवी मोढ़ जातिकी थी, और तेजपालकी पत्नी अनुपमा अपने गुणोंके लिये प्रसिद्ध थीं। वस्तुपाल और तेज़पालका परिचय वाघेल राजा वीरधवलसे होगया। राजाने इनके गुणोंपर मुग्ध होकर इन्हें अपना मंत्री और सेनापति नियत कर लिया । वस्तुपालके मंत्रित्वकालमें धोलकाके १-प्राजैस्मा०, पृ० २११-२१२ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८] संक्षिप्त जैन इतिहास | राजा और प्रजा दोनों ही संतुष्ट और सुखी थे । एक प्रत्यक्ष दर्शक ने लिखा है कि 'वस्तुपालके राजप्रबन्ध में नीच मनुष्योंने वृणित उपायों द्वारा धनोपार्जन करना छोड़ दिया। बदमाश उसके सम्मुख पीले पड़ जाते थे और भले मानस खूब फलते फूलते थे । सब ही अपने कार्यों को बड़ी नेकनीयती और ईमानदारी से करते थे । वस्तुपालने लुटेरों का अन्त कर दिया और दूधकी दुकानोंके लिये चबूतरे बनवा दिये । पुरानी इमारतोंका उनने जीर्णोद्धार कराया, पेड जमवाये, कुये खुदवाये, बगीचे लगवाये और नगरको फिरसे बनवाया । सब ही जातिपांतिके लोगोंके साथ उसने समानताका व्यवहार किया ।" यद्यपि वह स्वयं जैन धर्मानुयायी थे; किन्तु उन्होंने मुसलमानोंके लिये मसजिदें भी बनवाई थीं । एक दफे दिल्लीके सुलतानकी मुल्ला मक्काका जयारतको जाते हुये धोलकासे निकला । वीरधवलकी इच्छा थी कि उसे गिरफ्तार कर लिया जाय, किन्तु वस्तुपाल राजासे सहमत नहीं हुए । उन्होंने मुल्लाकी अच्छी आवभगत की। फल इसका यह हुआ कि दिल्लीके सुलतान और राजा वीरधवलके बीच मैत्रीभाव बढ़ गया और दोनों में संधि होगई । वस्तुपालका आदर भी सुलतानकी दृष्टिमें बढ़ गया । वस्तुपाल और तेजपाल केवल चतुर राजनीतिज्ञ ही नहीं थे, वे वीर सेनापति और सच्चे धर्मात्मा भी थे । इन्होंने अपने राजाके लिये कई लड़ाइयां लड़ी थीं। कैम्बेके सैदको उनने परास्त किया था । दिल्ली के मुहम्मद गोरी सुलतान मुइज्जुद्दीन बहरामशाहपर इन्होंने विजय पाई थी और गोधाके सरदार घुघुलको उनने हत्साहस किया १ - बम्बई गजेटियर, २-१-१९९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातमें जैनधर्म व श्वे० ग्रन्थोत्पत्ति। [१३९ था। उनके इन वीरोचित कार्योका बखान कई कवियों और भाटोंने किया है । जैनधर्मके लिये भी इन दोनों भाइयोंने जीतोड़ परिश्रम किया था । सन् १२२० में शत्रुजय और गिरनारजीके लिये संघ निकाल कर उनने ‘संघपति' की पदवी प्राप्त की थी। कहते हैं कि इस संघमें इक्कीस हजार श्वेतांबर जैन और तीनमो दिगम्बर जैनी सम्मिलित थे। ___ सन् १२२८ में जगचंन्द्र नामक एक श्वेताम्बराचार्यने तपा गच्छकी स्थापनाकी थी। वस्तुपालने इस आबके ज़ेनमंदिर । गच्छकी उन्नतिमें बड़ी सहायता की । इन दोनों भाइयोंने मंदिर, पौषधशालायें, उपाश्रय आदि बनवाये थे । आबूपर्वत पर उन्होंने बड़ा बढिया मंदिर बनवाया था; जिसको सोभनदेव नामक प्रसिद्ध कारीगरने बनाया था। यह मंदिर विमलशाहके मंदिरके सन्निकट है और सन् १२३० में बनकर तैयार हुआ था। यह अपने भास्कर कार्यके लिये भुवनविख्यात् और अद्वितीय है।' वस्तुपालने गिरनार और शत्रुजय पर भी जैनमंदिर बनवाये थे। वस्तुपाल एक अच्छे कवि भी थे। उनका उपनाम 'वसन्तपाल' ___ था। उनकी रचनाओंकी प्रशंसा उस समय वस्तुपालका अंतिम के अच्छे २ कवियोंने की मीन नरनारायणाजीवन । नन्द' उनकी उत्तम रचना है । वस्तुपालके निकट अन्य कवियोंने भी आश्रय पाया था। १-सडिजै०, पृ० ४७-५० । २-हिस्ट्री ऑफ इन्डियन एण्ड ईस्टर्न आर्किटेक्चर भा० २ पृ०३६ ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० संक्षिप्त जैन इतिहास । सन् १२३८ ई० में राजा वीरधवलकी मृत्यु होगई । उस घटनासे राज्य भरमें हाहाकार मच गया । अनेक प्रजाजन राजाके साथ ही अपनी जीवनलीला समाप्त करनेको तत्पर हो गये; किन्तु तेज़पालके प्रबन्धसे उनकी रक्षा हुई। वीर धवलके बाद राज्याधिकार पानेके लिये उसके वीरम् और वीसल नामक दोनों पुत्रोंमें झगड़ा हुआ । वस्तुपालने वीसलका पक्ष लिया और वही राजा हुआ । वीरम् जालोर अपने स्वसुरके पास भाग गया; जहां वह धोग्वेसे मारा गया था । वीसलदेवके राज्यकालमें ही दोनों भाइयोंकी अवनति हुई । कहते हैं कि वीसलके चाचा सिंहने एक जैनसाधुका अपमान किया था । वस्तुपाल इस धर्म विद्रोहको सहन न कर सके । उन्होंने सिंहकी उंगली कटवाली । वीसलदेवने वस्तुपालके इस दुस्साहसका पुरस्कार प्राणदण्ड दिया । किन्तु इस समय कविवर सोमेश्वरने बीचमें पड़ कर बस्नुपालकी रक्षा की थी। इस घटनाके कुछ दिनों ही बाद वस्तु. पालका स्वास्थ्य खराब हुआ और वह शत्रुजयकी यात्राको जाते हुए अकेवलिय ग्राममें स्वर्ग लोकके वासी हुये । तेजपालके पुत्रोंने इस स्थानपर एक भव्य मंदिर बनवा दिया था। यह सन् १२९१की बात है और इसके करीव १० वर्ष बाद तेजपाल भी अपने भाईके साथी बने ।' वस्तुपालको उस समय लोग राजनीति गुरु कौटिल्यसे कम नहीं मानते थे । उपरोक्त वर्णनसे यह स्पष्ट है कि गुजरातमें जैनधर्मकी प्रधानता प्राचीनकालसे रही है । तथापि सोलंकी राजाओंके राज्यकालमें -सडिजै०, पृ० ५१-५९ । २-इंहिको०, भा० १ पृ० ७८६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरात में जैनधर्म व श्व० ग्रंथोत्पत्ति | [ १४१ श्वेताम्बर जैनधर्मका उसका अभ्युदय विशेष हुआ था । श्वेतांबर जैनाचार्योंने इस समय जैनधर्मको दिगन्तव्यापी अभ्युदय । -- इ बनाने में कुछ उठा न रक्खा था। श्री हरिभद्रसूरि. जिनेश्वरसूरि, हेमचन्द्र आदि प्रख्यात आचार्य थे। जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागर आचार्यने श्वेतांबर यतियोंका तीव्र विरोध किया था । उनके उद्योगसे खूब सुधार हुआ था तथा उन्होंने श्वेतांबर साहित्यका एक नवीन मार्ग में प्रवेश कराया था । श्वेताम्बर अर्वाचीन साहित्य के वे कर थे। पहिले श्वेतांबरोंका केवल आगम ग्रन्थ साहित्य था; परन्तु ३ - ४ शताब्दियों में न्याय, व्याकरण, काव्य आदि विषयोंक (शः ग्रंथ लिखे गये थे । ई० १०-११ वीं शताब्दिमें गुजरात देशमें अधिकांशतः देवनागरी लिपिका प्रचार था । ईसवी पूर्वकी मागधिलिपिका विकास होते २ नागरीलिपिने अपना रूप संभाल लिया था । जैनोंद्वारा इस लिपिका बहु प्रचार हुआ और प्राचीन गुर्जर साहित्य भी उन्हींका ऋणी है। जैनोंके 'सप्तक्षेत्रीरास ' 'गौतमरास' आदि ग्रंथ गुजराती के प्राचीन साहित्य के नमूने हैं । इस प्राचीनकालसे जैनोंने गुजराती साहित्यकी अच्छी सेवा की थी। जैनाचार्योने बौद्धोंके न्यायग्रंथोंपर टिप्पण भी लिखे थे । किन्तु कुमारपालके उपरान्त गुजरात में जैनोंका ह्रास होना शुरू हो गया । अजयपाल के विद्रोहसे उसका सूत्रपात हुआ सही; किन्तु मुसलमानोंके आक्रमणसे उसका सत्यानाश हुआ। हजारों जैनमंदिर मसजिद बना लिये गये । जैनलोग अपनी प्राणरक्षामें धर्म प्रभावन के कार्यो को इ " १ - जैहि० भा० १३ पृ० ४१७ । २ - गुसापरि०, पृ० ७२ । ३ - पूर्व०, पृ० १४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | सुचारु रीतिसे न चला सके। कैम्बे आदि स्थानोंके जैनमंदिरोंको नष्ट करके मुसलमानोंने उनका मनमाने ढंगसे उपयोग किया। यही कारण है कि जैनशिल्पका प्रभाव मुसलमानी शिल्पपर पड़ा हुआ मिलता है।' इस कालमें जैनोंका सम्पर्क हिन्दुओं से विशेष हो चला था, इस कारण उनके रीतिरिवाजोंका प्रभाव भी उन पर पड़ने लगा था । गुजरात में दिगम्बर जैन धर्मका अस्तित्व तो स्वयं भगवान महावीरके समय से था । मौर्यकालमें भी दिगम्बर जैनधर्मका वह यहां पर विद्यमान था । गिरनारकी उत्कर्ष । प्राचीन गुफायें इसी बातकी द्योतक हैं ।उपरान्त शक और छत्रपराजाओंके समयमें 3 भी दिगम्बर जैनधर्म यहां प्रधान रहा था । नहपान, रुद्रसिंह आदि छत्र राजा इसी धर्मके अनुयायी थे। राष्ट्रकूट और चालुक्य राज्य कालमें भी दिगम्बर जैनोंकी महत्ता गुजरातमें कम नहीं हुई थी । ईडर और सूरत दिगम्बर जैनधर्म के मुख्य केन्द्र स्थान थे। अंकले - श्वर दिगम्बर जैनोंका पवित्र तीर्थ स्थान है; जहां जिनवाणी सर्व प्रथम लिपिबद्ध हुई थी । चालुक्य सिद्धराज जयसिंह के दरबार में दिगम्बर और श्वेताम्बरोंका वाद होना, इस बातका द्योतक है कि तब तक दिगम्बर जैनोंका महत्व यहां अवश्य ही इतना काफी था कि वह राजाका ध्यान भी अपनी ओर आकर्षित कर सके थे । किन्तु वाद के लिये कर्णाटक देशसे एक दिगम्बराचार्यको बुलाना प्रगट करता १ - वीर वर्ष ५ पृ० ३०१ । २- हिवि० भा० २ पृ० ५९२ | ३ - जेहि० भा० ६ अंक ११-१२ पृ० २० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातमें जैनधम व श्वे० ग्रंथोत्पत्ति । [ १४३ ४ है कि वहां दिगम्बर जैनोंमें दिग्गज विद्वानोंका प्रायः अभाव था । 'नेमिनिर्वाण काव्य' और 'वाग्भट्टालंकार' के कर्ता सोमश्रेष्टीके पुत्र वाग्भट्ट तो महाराज जयसिंह के प्रधान मंत्रियोंमेंसे थे । भक्तामर कथा' में वर्णित राजा प्रजापाल यहीं जयसिंह प्रतीत होते हैं। तथा इस कथा में राजा कुमारपाल और उसके मंत्री आवड़का भी उल्लेख है। इन कथाओंसे तत्कालीन जैनधर्मका महत्व प्रगट होता है अंकलेश्वरके राजा जयसेन मुनि गुणभूषणको आहारदान देकर पुण्य संचय करते थे । दिगम्बर जैनमुनि देशभर में विचरते हुये जैनधर्मका उद्योत करते थे । गुजरातके देवपुर नामक नगर में एक मुनि जीवनन्दी संघ सहित पहुंचे थे। वहां जैनोंका नामनिशान नहीं था । वह शैवमंदिर में गये और लोगोंको उपदेश देकर जैनी बना लिया और इस प्रकार सब संघको आहारदान पानेकी सुविधा कर दी । इस घटनासे तब तक जैनधर्म के उदाररूपका पता चलता है; किन्तु उपरान्त कालमें जैनधर्मकी यह उदारता लोगोंने भुलादी । इस प्रकार गुजरातमें दिगम्बर जैन का अस्तित्व भी प्रभावशाली रहा है । उसका प्रभाव, मालूम होता है, श्वेताम्बरों पर भी पड़ा था; यही कारण है कि संवत् ७०५ में श्रीकलश नामक एक श्वेताम्ब - राचार्यने कल्याण नामक स्थान पर यापनीय संघकी स्थापना की थी; जिसमें मुनियोंको नम रहना दिगम्बरोंकी भांति आवश्यक ठहराया था । स्त्री मुक्ति आदि मान्यतायें इस संव में श्वेतांबरों के समान थीं x : १ - जैप्रा० पृ० २४० । २ भक्तामर कथा, काव्य २९ | ३ - जैप्रा० पृ० २४० । x जेहि० भा० १३ पृ० २५० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] संक्षिप्त जैन इतिहास । (७) उत्तरी भारतके अन्य राज ब जैनधर्म । हर्षके बाद उत्तर भारतमें कोई ऐसा शक्तिशाली राजा नहीं था जो उसके विस्तृत साम्राज्यका समुचित राजपूत और प्रबन्ध करता। इसका परिणाम यह हुआ जैनधर्म । कि साम्राज्य छिन्नभिन्न हो गया और अनेक छोटे २ राज्य वन गये । इनमें से अधिकांश राजपूतोंके अधिकारमें थे । 'राजपूत' शब्द राजपुत्रका अपभ्रंश है और यह राज्य सत्ताधिकारी क्षत्रियोंका द्योतक है। कहा जाता है कि मंभवतः राजपूत विशुद्ध आर्य क्षत्रियोंकी संतान नहीं हैं। ‘जैसे अन्य जातियां मिश्रित हैं, उसी प्रकार राजपूत जाति भी अनेक जातियोंके मिश्रणसे बनी हैं। इन्हीं लोगोंकी प्रधानता उत्तर भारतमें मुसलमानोंके आक्रमण तक रही थी। इन लोगोंने जैनधर्मका भी अपनाया था। जैनोंके एक प्राचीन गुटकेमें इन चौहान, पड़िहार आदि राजपूत क्षत्रियोंको जैनधर्मभुक्त और उनके कुलदेवता चक्रेश्वरी, अम्बा आदि शासन देवियां प्रगट की हैं ।२. गुप्त राजाओंके समयमें कन्नौज बड़ी उन्नत दशामें था। 'नवीं शताब्दिमें फिर यहांका राज्य उत्तरीभारतके कनोजके राजा भोज राज्योंमें सर्व प्रधान हो गया। इस समय परिहार । भोज परिहार ( ८४०-९० ई०) वहांका राजा था। इससे पहले सन् ७१२ में १-भाई०, पृ० १०६ । २--वीर०, वर्ष ३ पृ. ४७२ । ३-भाई०, पृ० १०८-१०९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। [१४५ अरबके मुसलमानोंने भारत पर हमला करके सिन्ध प्रांतको जीत लिया था। वहांका हिन्दूराना और रानी रणक्षेत्रमें वीरगतिको प्राप्त. हुये थे । किन्तु मुसलमानोंके इस हमलेका अधिक प्रभाव भारतपर नहीं पडा था; बल्कि मुसलमानोंने भारतीय सभ्यतासे बहुत कुछज्योतिष और वैद्यक आदि सीखा था । भोज परिहार समस्त उत्तरी भारतमें पश्चिममें जूनागढ़ तक और पूर्वमें हज़ारीबाग तक राज्य करते थे; परंतु उनके बाद उनके उत्तराधिकारी इस राज्यको संभाल न सके । तथापि महमूद गज़नवीका साथ देने आदि कारणोंसे यह अपना महत्व खो बैंठ।' श्री वप्पसूरि नामक जैनाचार्यने संभवतः इसी राजा भोजके दरबारमें आदर प्राप्त किया था। इन आचार्यने राजपूतानेसे लेकर बङ्गाल तक विचरण करके जैन धर्मका प्रचार किया था । और राजाओंको जैनधर्मका भक्त बनाया था । नेपालके राजाओंको भी संभवतः उन्होंने ही जैनधर्मप्रेमी बनाया था । भोजके पूर्वज वस्त्सराज प्रतिहारका भी जैनधर्मके प्रति सद्भाव था। उन्होंने सन् ७८४ ई० में ओसिया ग्राममें एक जैनमंदिर बनवाया था।x किन्तु प्रतिहार (परिहार) वंशके बाद सन् १०९० ई० के लगभग गहरवार (राठौर) राजपूतोंका अधिकार कन्नौज पर हो गया था । इसी वंशमें राजा जयचन्द्र हुआ था, जिसे महम्मदगोरीने लड़ाई में हराया था। आजकलके संयुक्त प्रान्तमें भी उस समय कई राज्य थे और १-भाइ०, पृ० १०८-१०९। २-दिगम्बर जैन, वर्ष २३ पृ० ८९ । ४-एनुअल रिपोर्ट ऑफ आर्क. सर्वे इंडिया, १९०६-७ पु० २०९। १० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६] संक्षिप्त जैन इतिहास । उनमें से कई एक जैनधर्मानुयायी थे। श्रावस्ती, विविध राजवंशों में मथुग, असाईखेड़ा, देवगढ़ आदि स्थान जैनधर्म। जैनधर्मके मुख्य केन्द्र थे। राजा कीर्ति वर्माके मंत्री वत्सराजका एक जैनलेख सन १०९७ का राजघाटीके पाससे मिला है।' ११ वीं शताब्दिमें श्रावस्तीमें जैनधर्म बहुत उन्नति पर था। वहां पर जैन धर्मानुयायी राजवंश एक दीर्घकालसे राज्य कर रहा था । इस वंशका मर्व अंतिम राजा सुहृध्वज़ नामक था। हाथिली नामक ग्राममें उसने सैयद सालारको लड़ाईमें तलवारके घाट उतरा था। सुहृदध्वजकी इस विजयसे करीब ४० वर्ष पीछे इस जैनवंशका अन्त हुआ था। कहते हैं कि एक दफे राजा ग्रामान्तरसे लौट नहीं पाया कि सूर्यास्त हो चला। रात्रि भोजन निषिद्ध जानकर रानी बड़ी छटपटाई परंतु परम शीलवती राजाके छोटे भाईकी पत्नीके शीलप्रभावसे सूर्यास्त होते २ बच गया और राजाने सानन्द भोजन किया। किन्तु बादमें राजाकी नियत अपने छोटे भाईकी इस साध्वी म्री पर टल गई और उसीके शापसे इस वंशका अन्त हुआ था।' श्रावस्तीके अतिरिक्त अयोध्याके राजा महीपाल और सगरपुरके राजा सागर भी जैन धर्मानुयायी थे । ईसवी ग्यारहवीं शताब्दिमें फैजाबादमें श्रीवास्तम् नामक वंशका राज्य था । इस वंशका मुख्य राजा तिलोकचंद जैनधर्मानुयायी था; जिसका युद्ध मुहम्मद गजनवीके सिपहसालारसे हुआ था । बनारसके राजा भीमसेन भी जैनी थे । १-संप्रास्मा०, पृ० ५१ । २-संप्राजैस्मा०, पृ० ६५ । ३-०, पृ० २४० । ४-समाजैस्मा०, पृ० ७० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। [१४७ वह अन्तमें पिहिताश्रव नामक जैनमुनि हुये थे ।' सं० १२७८में बनारसके राजासे श्वेताम्बर जैनाचार्य अभयदेवमूरिने 'वादीसिंहका विरुद प्राप्त किया था। इसी समयके लगभग मथुरामें रणकेतु नामक राजा जैनधर्मानुयायी था। वह अपने भाई गुणवर्मा सहित नित्य जिनेन्द्रपूजन किया करता था। अन्तमें गुणवको राज्य देकर वह जैनमुनि हो गया था। वर्मान्त नामवाले राजाओंका राज्य मन्दसोर (ग्वालियर ) और गंगधारमें गुप्तकालसे था। इनमेंसे एक नरवर्मा राजाका उल्लेख जैनोंकी द्वादशी व्रत कथामें भी है। संभवतः इसी वंशका अधिकार उपरांत मथुरामें हो गया होगा और गुणवर्मा इन्हींका वंशज हो सकता है। मथुरामें १२-१३ वीं शताब्दिकी जैनमूर्तियां मिली हैं। उनसे भी तब तक वहां पर जैनधर्मका प्राबल्य प्रगट होता है। सूरीपुर ( जिला आगरा ) का राजा जितशत्रु भी जैनी था, जो बड़े २ विद्वानोंका आदर करता था । अन्तमें वह जैनमुनि हो गया था। और शांतिकीर्तिके नामसे प्रसिद्ध हुआ था । जमनाके किनारे पर स्थित असाईखेड़ा ग्राममें ग्यारहवीं शताब्दि तककी जैन प्रतिमायें अगणित मिलती हैं। जिला इटावा और आगरेके निकटवर्ती ग्रामोंमें जैनध्वंशविशेषोंका मिलना, यहां पर जैनोंकी प्रधानताका द्योतक है। सचमुख भदावर प्रान्तमें हरितक्रांतनगर जैनोंका मुख्य केन्द्र था। यहां विक्रमकी ११ वीं शताब्दिसे १६ वीं शता. . १-जैप्रा० पृ० २९२ । २-डिजैबा०, पृ० ९ । ३ जैन०, पृ० २४२ । ४-राइ०, पृ० १२५-१२६ । ६-भपा०, पृ० १३८ । . ६-जैप्र०, पृ० २४१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | ब्दि तक जैनोंका प्राबल्य अधिक था। यहांके निवासियोंने ५२ जिनप्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा कराई थी। सं० ११६८ में यहां पर चौहान राजा उदयराजदेवका राज्य था।' अहिच्छत्र (बरेली) का प्रसिद्ध राजा मयूरध्वज भी जैनी था। संभव है कि इस राजाका सम्बन्ध श्रावस्तीके ध्वज् नामान्तक राजाओंके जैनवंशसे है । इस देशमें जैनधर्म उन्नति पर था । अहिच्छत्र ई० सन् १००४ तक बसा हुआ था । " कहते हैं कि सन् २७५ ई० में ग्वालियर की स्थापना राजा सूर्यसेन द्वारा हुई थी । भोजदेव परिहार ( ८८२ ई० ) के कनिष्ठ पौत्र विनायक - पालके बाद कच्छवाहा वंशी वज्रदामा ग्वालि ग्वालियरके राजा और जैनधर्म | यरपर अधिकार करके नवराज वंशके प्रति - ष्ठाता हुए थे । यहां एक जैनमूर्तिके पवित्र अङ्गमें उत्कीर्ण वज्रदामाकी शिलालिपिसे प्रगट है कि वह लक्ष्मणके पुत्र थे और उन्होंने ही पहले गोपगिरी दुर्गमें जयढक्का बजाया था । सास बहूके दिगम्बर जैन मंदिर में स० ११५० व ११६० के उत्कीर्ण इस वंशके राजा महीपालके दो शिलालेखोंसे जाना जाता है कि वज्रदामाके पुत्र मङ्गल थे और उनके वंशज क्रमशः कीर्तिपाल, भुवनपाल, देवपाल, पद्मपाल, सूर्यपाल, और महीपाल थे । इन सबने ग्वालियर में राज्य किया । उपरांत मधसूदन कच्छावाहाके हाथसे ग्वालियर निकलकर परिहार वंशी क्षत्रियोंके अधिकार में पहुंच गया था । राजा कीर्तिसिंहके समय में ग्वालियर में खूब शिल्पकार्य हुआ था । जैन शिल्प १ - प्राजैलेसं०, भा० १ पृ० ९९ । २ - संप्रा जैस्मा०, पृ० ८१ । www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। [१४९ अपने नैपुण्यके लिये प्रसिद्ध है। इस समय ग्वालियरमें जैनोंकी विशेष उन्नति हुई थी। दि०जैन विद्वानोंकी मान्यता भी यहां खूब थी। वि० सं० १०१३ में माधवके पुत्र महेन्द्रचंद्रने ग्वालियरके निकट सुहनिया नामक स्थानपर एक जैन मूर्तिकी प्रतिष्ठा कराई थी। महेन्द्रचन्द्र संभवतः वालियरका एक राजा था। ( जर्नल आब ऐ० सो० बंगाल, भा० ३१ पृ० ३९०.) सुहनिया उस समय जैनोंका केन्द्र था। __ मध्यभारतके बुन्देलखण्ड प्रांतमें चन्देल राजपूतोंका राज्य था। आठवीं शताब्दिमें यह देश जैजाकभुक्ति कहमध्य भारतमें जैनधर्म । लाता था । चंदेलवंशका मूल पुरुष नंनुक ___चन्देला था; जिसने एक परिहार सरदारको पराजित करके बुन्देलखण्डमें अपना अधिकार जमाया था । चन्देलोंकी राजधानी महोबा थी। चंदेरी (ग्वालियर ) में भी चन्देलराजाओंने सन् ७००से ११८४ तक राज्य किया था। चन्देरीको चन्देलोंने ही बसाया था। पहाड़ी पर राजमहल है; जिसके सन्निकट अनेक जैनमूर्तियां मिलती हैं।' महोबाके आसपास भी जैनमूर्तियोंकी बाहुल्यता है और वह चन्देल राजा परमाल द्वारा प्रतिष्ठित बताई जाती हैं । इन बातोंसे चन्देलवंशमें जैनधर्मकी मान्यता प्रगट होती है । सन् १००० ई०में यह राज्य उन्नतिके शिखर पर था। इस वंशमें सबसे प्रसिद्ध राजा धन (९५०-९९) और कीर्तिवर्मा (१०४९-११०० ई०) हुये थे। राजा धङ्कके राजत्वकालमें १-हिवि०, भा० ५ पृ० ७४१ । २-भाई०, प्र० ११०। ३-मप्राजैस्मा०, पृ० ६३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] संक्षिप्त जैन इतिहास । ૐ 3 जैनधर्म उन्नति पर था । खुजराहो में इन्हीं राजासे आदर प्राप्त सूर्यवंशी पाहिलने सन १९५४ में जिननाथके मंदिरको अनेक उद्यान दान किये थे । सं० १२१५ को गृहपतिकुलंक पाहिलके पुत्र दंडने एक जैन - विम्बकी प्रतिष्ठा कराई थी। घटाईका प्रसिद्ध मंदिर भी इसी समयका बना हुआ है। यहांके नं० २५ वाले मंदिर में राजपुत्र श्री जयसिंहका उल्लेख है। ऐसे ही अन्य लोगोंने भी अनेक जैनमंदिर बनवाये थे । सन् १२०३ में चन्देलोंको मुसलमानोंने जीत लिया था । दसवीं शताब्दिके लगभग बहाड़ प्रान्त में ईल नामक राजा प्रसिद्ध हो गया है। यह जैनी था । इसने राजा ईल और सन् १००० में अपने नामसे इलिचपुर (ईले - जैनधर्मका अभ्युदय । शपुर ) नगर बसाया था । मुसलमानोंके हाथों वह मारा गया था । 'भक्तामरकथा' (का०२०) से प्रगट है कि नागपुर में भी लगभग इसी समय नाभिराज नामक एक जैनधर्मानुयायी राजा था । ' और ' प्रभावक चरित्र' से प्रगट है कि सं० १९७४ में नागपुरका राजा आल्हादन नामका था, जो जैनाचार्य मुनिचन्द्रका शिष्य था । किन्तु बहाड़ प्रान्तमें विक्रमकी आठवीं शताब्दिसे दसवीं शताब्दि तक क्रमशः चालुक्य और राष्ट्रकूट राजाओंका राज्य रहा था । ये दोनोंही राजवंश जैनधर्मके पोषक थे; इस कारण उक्तकालमें जैनधर्मका यहां खूब प्रचार रहा था।' ४ ε १ - मप्रायस्मा०, पृ० ११६-११७ । २ - हिवि०, भा० ५ पृ० . ६८० । ३ - संप्राजेस्मा०, पृ० ४३ । ४- मप्राजैस्मा०, पृ० १४. भूमिका । ९ - जैप्र०, पृ० २४० । * - डिजैवा० पृ० ४२ । ६ - मप्राजैस्मा०, पृ० १४ भूमिका । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारत के अन्य राजा व जैनधर्म । [ १५१ ર मध्यप्रान्तका सबसे बड़ा राजवंश कलचुरियोंका था; जिनका प्राबल्य ८ वीं व ९ वीं शताब्दि में खूब रहा मध्यप्रांत में जैनधर्म । था । एक समय कलचुरि राज्य बंगालसे गुजरात और बनारस से कर्णाटक तक फैला हुआ था और इस वंश के राजाओंका प्रेम जैन धर्म से विशेष था । जैन धर्मानुयायी राष्ट्रकूटवंशी राजाओंके साथ इनके विवाह सम्बन्ध हुये थे । कलचूरियोंकी राजधानी त्रिपुरी और रतनपुर थे । इन स्थानोंमें अनेक जैन मूर्तियां और खंडहर मिलते हैं।' बड़गांव (जबलपुर) के जैन शिलालेखोंमें कलचूरी राजा कर्णदेवका उल्लेख है; जिनका युद्ध कीर्तिवर्मन चन्देलेसे हुआ था। देवपुरसे प्राप्त एक जैन मूर्तिपर भी सं० ९०७ का कलचूरी वंशका लेख है। लखनादोनके किलेसे एक भग्न शिलालेख १० वीं शताब्दिका मिला है,. जिससे प्रकट है कि विक्रमसेनने जैन तीर्थंकरकी भक्तिमें मंदिर बनवाया था । कलचूरिवंश के बड़े प्रतापी नरेश विज्जल ( विजयसिंहदेव सन् १९८०) के पक्के जैन धर्मानुयायी होने के प्रमाण उपलब्ध हैं; किन्तु इसी राजाके समय से कलचूरि राजदरबार में जैनियोंका जोर घट गया और शैवधर्मका प्राबल्य बढ़ा था । जैनधर्म राजाश्रयविहीन क्षीण अवश्य होगया, पर उसका सर्वथा लोप न होसका । स्वयं कलचूरि वंशमें जैन धर्मका प्रभाव बना ही रहा । मध्यप्रान्तमें जो जैन कलवार सहस्रोंकी संख्या में मिलते हैं; वे इन्हीं कलचूरियोंकी संतान हैं । * 3 ४ १ - पूर्व०, पृ० ८-१० । २ - मप्र जैस्मा०, पृ० १६ । ३ - पूर्व० पृ० २३ | ४ - पूर्व० भूमिका पृ० ११-१२ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२] संक्षिप्त जैन इतिहास। नवीं और दशवीं शताब्दिमें मध्यभारतमें भी जैनोंकी विशेष उन्नति और कीर्ति फैली हुई थी। धाराके धाराका राजवंश और नरेशोंने जैन धर्मको खूब अपनाया था । यह जैन धर्म। परमारवंशके राजा थे। इस वंशकी नींव उपेन्द्र नामक सरदारने ९ वीं शताब्दिमें डाली थी। परमार राजाओं द्वारा संस्कृत साहित्यकी विशेष उन्नति हुई थी। इसी वंशमें सुप्रसिद्ध राजा भोज हुआ था। वह सन् १०१८ ई० में धारानगरीकी गद्दीपर बैठा था। धारा उस समय मालवाकी राजधानी थी, उसने बहुतसे राज्योंको जीता था। भोज बड़ा विद्याप्रेमी था, कहते हैं कि ज्योतिष शास्त्र, वास्तुविद्या, पद्यरचना आदि विषयोंपर उसने कई ग्रन्थ लिखे हैं। उसने धारामें एक विद्यापीठ स्थापित किया था और उसमें शिलाओंपर काव्य, व्याकरण तथा ज्योतिषके ग्रन्थ खुदवाकर रक्खे थे। इस विद्यापीठको तोड़कर पीछेसे मुसलमानोंने मसजिद बनाई।'' व्याकरणमें जैन ग्रन्थ 'कातन्त्र' के अनेक सूत्र धाराकी भोजशालामें सर्पबद्ध उकेरे हये है। भोज एक बड़ा आदर्श राजा था, उसने अनेक जैन और अजैन विद्वानोंका सम्मान किया था। वह सन् १०६० ई० तक राज्य करता रहा था। भोजके वंशज १३ वीं शताब्दि ई० तक मालवामें राज्य करते रहे; परन्तु अन्तमें मुसलमानोंने उन्हें भी पराजित किया था। मालवाके परमारोंमें मुंजनरेश भी एक पराक्रमी और विद्वान् १-भाइ० पृ० १०९ । २-महिई०, पृ० १६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म । [ १५३ 1 राजा था। वह विद्वानोंका बहुत बड़ा आश्रयदाता था । उसके दरबार में धनपाल, पद्मगुप्त, धनंजय, धनिक, हलायुध आदि अनेक विद्वान् थे ।' मुंजनरेशसे जैनाचार्य महासे - नसुरिने विशेष सम्मान पाया था। मुंजके उत्तराधिकारी सिंधुराजके एक महासामन्तके अनुरोधसे उनने ' प्रद्युम्नचरित ' काव्यकी रचना की थी। मुंजके दरबारी कवि धनपाल काश्यपगोत्री ब्राह्मण उज्जैनके निवासी थे । वह अच्छे विद्वान थे और जैनोंका उनसे विशेष समागम रहा था । धनपालका छोटा भाई जैन होगया था; परन्तु उन्हें जैनोंसे घृणा थी । इसी कारण वह जैनोंके केन्द्र उज्जैन को छोड़कर धारा में जारहे, वहां उन्होंने वि० सं० १०२९ में ' पाइलच्छी - नाममाला ' नामक प्राकृत कोष अपनी छोटी बहन सुन्दरीके लिए • बनाया था। वह भी विदुषी थी और कविता करती थी । अन्ततः धनपाल अपने भाई शोभनके उपदेश से कट्टर जैन हो गया था । उसने जीवहिंसा रोकने के लिये राजा भोजको उपदेश दिया था । तथा जैन हो जाने पर 'तिलकमञ्जरी' की रचना की थी। 'ऋषभ'पञ्चाशिका' भी इसी कविकी बनाई हुई है' । कवि धनञ्जयने 'दशरूपक' नामका ग्रंथ बनवाया था। श्री शुभचन्द्राचार्य भी राजा मुंजके समयमें हुये थे और यह राजपुत्र थे । इन्होंने ' ज्ञानावर्णव ' ग्रंथ की रचना की थी । कहते हैं कि कवि भृर्तृहरि इन्हींके भाई थे । * 3 1 राजा मुंज और जैन विद्वान् । १ - भाप्रारा० भा० १ पृ० १०० । २ - मप्रा जैस्मा० भूमिका पृ० २० । ३ - माप्रा० भा० १ पृ० १०३ - १०४ । ४ - मजैइ०, 90-98-991 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४] संक्षिप्त जैन इतिहास। राजा मुंजके समयमें ही प्रसिद्ध दिगम्बर जैनाचार्य श्री अमि तगतिजी हुये थे। यह माथुरसंघीय माधवअमितगति आचार्य । सेनके शिष्य थे। कहते हैं कि वि० सं० १०२५ के कुछ पहिले इनका जन्म हुआ था। 'आचार्यवर्य अमितगति बड़े भारी विद्वान और कवि थे। इनकी असाधारण विद्वत्ताका परिचय पानेको इनके ग्रंथोंका मनन करना चाहिए । रचना सरल और सुखसाध्य होनेपर भी बड़ी गंभीर और मधुर है। संस्कृत भाषापर इनका अच्छा अधिकार था। इन्होंने अपने 'धर्मपरीक्षा' नामक ग्रंथको केवल दो महीनेमें लिखकर समाप्त किया था, जिसे पढ़कर लोग मुग्ध हो जाते हैं । सन् १०१३ ई० में यह ग्रंथ पूर्ण हुआ था। इसके पहले सन् ९९३में आचार्यवर्यने 'सुभाषित रत्नसंदोह' नामक ग्रंथ रचा था। इनके अतिरिक्त उन्होंने (१) श्रावकाचार (२) भावनाद्वात्रिंशति, (३) पंचसंग्रह, (४) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, (५) चन्द्र प्रज्ञप्ति, (६) सार्द्धद्वयद्वीप प्रज्ञप्ति, (७) व्याख्याप्रज्ञप्ति, (८) योगसार प्रभृति ग्रंथ रचे थे। ‘पंचसंग्रह' नामक ग्रंथको आपने राजा भोजके पिता सिंधुराजके समयमें लिखा था । उसकी प्रशस्तिमें आचार्यवर्य अपनेको गौतम गणधरके समान लिखते हैं । उनके अद्वितीय ग्रंथोंको प्रकाशमें लानेकी आवश्यक्ता है ।' श्री महाकवि सेामदेवसूरि इन आचार्यके समकालीन थे जिन्होंने यशस्तिलकचम्पू, नीतिवाक्यामृत आदि ग्रंथ रचे थे। अमितगतिजीके गुरु माधवसेनके सहपाठी प्रसिद्ध विद्वान आचार्य देवसेन थे जिन्होंने १-हिवि०, भा० २ पृ० ६४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म । [ १५५ सं० ९०९ में धारानगर के पार्श्वनाथ चैत्यालय में 'दर्शनसार' ग्रंथकी रचना की थी । * राजा भोजका युद्ध गुजरातके चालुक्य राजा भीमसे हुआ था: परन्तु अन्त में इन दोनों के बीच सन्धि हो गई थी । राजा भोजके जैन सेनापति कुल राजा भोज और जैनधर्म । चन्द्र ने अनहिलवाड़ा में भीमको हरा दिया था ।' राजा भोज के दरबारमें जैनोंका सम्मान विशेष था; यद्यपि वह स्वयं शैव था । 'वह जैनों और हिन्दुओंके शास्त्रार्थका बड़ा अनुरागी था ।' श्रवणबेलगोलसे प्राप्त संभवतः सन् १११५ ई० के लेखसे प्रगट है कि भोजने प्रभाचन्द्र जैनाचार्य के पैर पूजे थे । दूबकुण्डबाले शिलालेखसे प्रगट है कि 'भोजके सामने सभामें शान्तिसेन नामक जैनने सैकड़ों विद्वानोंको हराया था। क्यों: कि उन्होंने उसके पहले अम्बरसेन आदि जैन विद्वानोंका सामना किया था।' भोजकी सभा में कालिदास, वररुचि, सुबन्धु, बाण, अमर, राम-देव, हरिवंश, शङ्गर, कलिङ्ग, कर्पूर, विनायक, मदन, राजशेखर, माघ, धनपाल, सीता, मानतुङ्ग, आदि विद्वानोंका होना बताया जाता है । धनपाल जैन थे, यह पहले लिखा जाचुका है। शोभनके जैन होनेपर भोजने कुछ समयतक जैनोंका धारामें था । कालिदास कवि मेघदूत आदि ग्रंथोंके रचयिता कालिदाससे भिन्न थे। इनकी स्पर्द्धा जैनाचार्य मानतुङ्गजीसे विशेष थी । इनके उकसानेपर भोजने मान तुङ्गाचार्यको अड़तालीस कोठरियों के भीतर आना बंद कर दिया • * विर०, पृ० ११५ । १- भाप्राए० भा० १ पृ० ११५ । " २- भाप्रा० भा० १ पृ० ११८-१२१ ! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६] संक्षिप्त जैन इतिहास। बंधवाकर डलवा दिया था; परन्तु वह अपने ‘आत्मबलसे बन्धनमुक्त होगये थे। इस कारावासकी दशामें ही मुनि मानतुङ्गजीने प्रसिद्ध 'भक्तामरस्तोत्र रचा था; जिसका छयालीसवां काव्य रचते२ ही उनके बन्धन अपने आप नष्ट होगये थे। उनके माहात्म्यसे प्रभावित हो, कहते हैं कि राजा भोज और कवि कालिदास भी जैन धर्मानुयायी होगये थे।' जैन कवि धनंजय भी राजा भोजके समकालीन बताये जाते हैं। इन्होंने अपने पुत्रको सर्पदंशके विषसे मुक्त करनेके लिये 'विषापहार स्तोत्र' की रचना की थी। इनके अन्य ग्रन्थ नाममाला, द्विसंधानकाव्य, विषापहारस्तोत्र, वैद्यकनिघंटु आदि हैं।' ब्रह्मदेवके अनुसार 'द्रव्यसंग्रह' के कर्ता श्री नेमिचंद्राचार्य श्री भोजदेवके दरबारमें थे। नयनंदि नामक जैनाचार्यने अपना ‘सुदर्शन चरित्र' इन्हींके राजत्वकालमें समाप्त किया था। भोजने चालीस वर्षतक राज्य किया था और उसके बाद संभवतः उसका पुत्र जयसिंह गद्दीपर बैठा था। इसके समयमें राजा भोजके साम्राज्यपर विपत्तिके बादल छागये थे, जिनको इसके उत्तराधिकारी उदयादित्यने दूर किया था। राजा भोजका समकालीन कच्छपघात (कच्छवाहा) वंशी राजा अभिमन्यु था; और उसकी प्रशंसा स्वयं भोजदबकुंडके कच्छवाहे राज़ने की थी। यह राजा चड़ोभनगर (दूबकुंडव जैनश्रेष्टी दाहड़। शिवपुर) से राज्य करता था। इसके नाती विक्रमसिंहका एक शिलालेख संवत् ११४५ १-भक्तामर कथा-जैप्र० पृ० २३९ । २-मजैइ० पृ० ५६ । ३-मप्राजैस्मा०, भूमिका पृ० २०। ४-महिई०, पृ० ३१७।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म । [ १५७ का कुंड़के जैनमंदिरसे मिला है; जिसमें वहांके जैनश्रेष्टी दाहड़ द्वारा निर्मित जैनमंदिरको महाराज विक्रमसिंहने जो दान दिया था. उसका उल्लेख है । दाहड़ जायसपुर से आये हुये वणिक जासूक के वंशमें था । उसके बड़े भाई ऋषिको विक्रमसिंहने श्रेष्टीपद प्रदान किया था । दाहड़ने श्री लाटवागटगणके जैनाचार्य विजयकीर्तिके उपदेशसे भव्य जैनमंदिर बनवाया था । यह कच्छप राजा परमारोंके सामन्त प्रतीत होते हैं । ર मालवाके परमारोंमें नरवर्मा भी प्रसिद्ध राजा था । गुजरातके राजा जयसिंहसे उसका युद्ध हुआ था; जिसमें उसे पराजित होना पड़ा था। नरवर्मा विद्वान था, सन् १९०४ की नागपुरवाली प्रशस्ति उसीकी रचना है। उदयादित्य के निर्माण किये हुये वर्णों तथा नामों एवं धातुओंके प्रत्ययोंके नागबंध चित्र उसने 'उन' गांव (इन्दौर) में खुदवाये थे । ये वहांके जैन मंदिर में अब भी मौजूद हैं। यह मंदिर पहले विद्यालय था । विद्या और दानमें - नरवर्माकी तुलना भोजसे की जाती थी । उसके समयमें भी मालवा विद्यापीठ समझा जाता था और जैन तथा वैदिक मतावलंबियोंके बीच शास्त्रार्थ भी हुये थे। महाकालके मंदिर में जैनाचार्य रत्नसूरि और शैव विद्या शिववादीका परस्पर एक बड़ा भारी शास्त्रार्थ हुआ था। जैनाचार्य समुद्रघोष भी नरवर्माकी सभा में मौजूद थे और उसकी विद्वत्तापर नरवर्म बड़े प्रसन्न थे । अभयदेवसूरिके ' जयन्तकाव्य ' की १- मप्राजेस्मा० पृ० ७३ - ७६ । २- भाप्रारा० भा० ३ पृ०. १९५ । ३ - मप्राजैस्मा० पृ० ९२ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat राजा नरवर्मा के सममें जैन धर्म | www.umaragyanbhandar.com Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | प्रशस्ति में नरवर्माका जैन वल्लभमूरिके चरणोंपर सिर झुकाना लिखा है । नरवर्मा के पुत्र यशोवर्माने अपनी ओरसे जैनधर्मावलम्बी मंत्री जैनचंद्रको गुजरातका हाकिम नियत किया था । परमार राजाओंका सम्पर्क गुजरात से होने का ही यह परिणाम प्रतीत होता है कि श्वेतां-बर जैनाचार्य भी मालवा की ओर आगये थे और उन्होंने राजदरबार में मान्यता प्राप्त की थी । इसी वंशका विन्ध्यवर्मा नामक राजा भी विद्याका बड़ा अनुरागी था, उसके मंत्रीका नाम बिल्हण था । कविवर आशाधर । कविवर आशाधरकी मित्रता इनसे अधिक थी । आशाघर एक प्रसिद्ध जैन पण्डित होगये हैं । ई० सन् १९९२ में दिल्लीका चौहान राजा पृथ्वीराज शाहाबुद्दीन गोरीसे हार गया था; इस कारण उत्तरी भारत में मुसल• मानोंका आतंक छा गया था | अनेक हिंदू विद्वानोंको अपना देश छोड़ना पड़ा था । कविवर आशाधर भी ऐसे विद्वानों में से एक थे । मूलमें आशाधर सपादलक्ष देशके मंडलकर ( मांडलगढ़मेवाड़ ) नामक ग्रामके निवासी थे । तब यह देश चौहानोंके अजमेरे राज्य के अंतर्गत था । आशाधरजीका जन्म वि० सं० १२३५ के लगभग बघेरवाल जैन श्रेष्टी सल्लक्षणकी भार्या रत्नीकी कोख से हुआ था । मुसलमानों के आतन्कसे बचने के लिये आशाधर सपरिवार धारानगरी में जा बसे थे । धारानगरी में उन्होंने वादिराज पं० धरसेनके शिष्य पं० महावीर से जैनेन्द्र व्याकरण और जैन सिद्धांत १ - भावारा० भा० १ पृ० १४४-१४५ । २- भाप्रारा० भा० १ पृ० १५६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। [१५९ पढ़े थे । आशाधरकी स्त्री सरस्वतीमे छाहड़ नामक पुत्र हुआ था; जिसने धाराके महाराजाधिराज अर्जुनदेवको अपने गुणोंसे मोहित कर लिया था । वह भी अपने पिताकी तरह बड़ा भारी विद्वान् था। विन्ध्यवर्माका विल्हग मंत्री आशाधरको कविराज कहा करता था। इनकी कविताका विद्व न बहुत आदर करते थे । यहांतक कि जैन मुनि उदयसेनने उन्हें • कलि कालिदास की उपाधि दी थी। मुनि मदनकीर्तिने उन्हें 'प्रज्ञाका पुंज' अर्थात् विद्याका भण्डार कहकर पुकारा था। कवि विल्हणने उन्होंकी मित्रतासे प्रेरित हो कर 'कर्णसुंदरी नाटिका के मंगलाचरणमें जिनदेवको नमस्कार किया था। यह नाटिका अणहिलपाटनके राजा कर्णके जैनमंत्री सम्पत्करके बनवाये हुये आदिनाथ भगवानके यात्रामहोत्सवके लिये बनाई गई थी। आशाधरजीके एक शिप्य मदनोपाध्याय थे । यह माहाराज अर्जुनदेवके राजगुरु और महाकवि थे। यह अर्जुनदेव विन्ध्यवमौके पुत्र थे । आशाधर और उनके पुत्रने इनको भी अपने गुणोंसे प्रसन्न कर लिया था । मदनोपाध्यायके अतिरिक्त आशाधरने देवेन्द्र आदि विद्वानोंको व्याकरण, विशालकीर्ति आदिको तर्कशास्त्र और विनयचंद्र आदिको जैन सिद्धांत पढ़ाया था । उससे आशाधरकी विद्वत्ता, पढ़ानेकी शक्ति और परोपकारशीलताका पता चलता है। उनके स्वयं गृहस्थ होनेपर भी बड़े २ मुनि उनके पास विद्याध्ययन करने आते थे । राजा अर्जुनव के राज्य समयमें जैनधर्मकी उन्नतिके लिये आशाधर नालछा ( नलकच्छपुर ) के नेमिनाथजीके मन्दिरमें जारहे थे। नालछा उस समय जैनधर्मका केंद्र था। कविराजने. अनेक अमूल्य ग्रंथ रचकर एवं अन्य उपायों द्वारा जैनधर्मका मस्तक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०] संक्षिप्त जैन इतिहास । ऊंचा किया था। उनके रचे हुये ग्रन्थ बहुत ही अपूर्व हैं । उनके ग्रंथों में 'सागारधर्मामृत' विशेष उल्लेखनीय है। 'अध्यात्मरहस्य' नामक ग्रन्थ कविराजने अपने पिताकी आज्ञासे बनाया था। उनके पिता धारामें आकर अर्जुनदेवके सन्धिविग्रहिक मंत्री होगये थे। कविराज़के बनाये हुए ग्रंथोंके नाम इस प्रकार हैं: " (१) प्रमेय रत्नाकर (म्याद्वाद मतका तर्क ग्रंथ), (२) भरतेश्वराभ्युदय काव्य और उसकी टीका, (३) धर्मामृत शास्त्र टीका सहित (जैन मुनि और श्रावकोंके आचारका ग्रन्थ), (४) राजीमती विप्रलम्भ ( नेमिनाथ विषयक खण्डकाव्य), (५) अध्यात्म रहस्य (योगका), (६) मूलारावना टीका, इष्टोपदेश टीका, चतुविशतिस्तव आदिकी टीका, (७) क्रिया कलाप (अमरकोष टीका), (८) रुद्रटकृत काव्यालंकारपर टीका, (९) सटीक सहस्रनाम स्तव, (१०) सटीक जिनयज्ञ कल्प, (११) त्रिषष्ठि स्मृति ( आर्ष महापुराणके आधारपर ६३ महापुरुषोंकी कथा), (१२) नित्य महोद्योत (जिन पूजन), (१३) रत्नत्रयविधान और (१४) वाग्भटसंहिता (वैद्यक ) पर अष्टांग हृदयोद्योत नामकी टीका । उल्लिखित ग्रन्थोंमेंसे त्रिषष्ठि स्मृति वि० सं० १२९२ में और भव्य कुमुदचंद्रिका नामकी धर्मामृत शास्त्रपर टीका वि० सं० १३०० में समाप्त हुई। यह धर्मामृत शास्त्र भी आशाधरने देवपालदेवके पुत्र जैतुगिदेवके ही समयमें बनाया था ।"२ कविवर अर्हदासने आशाधरजीके उपदेशसे जैनधर्म ग्रहण १-विर०, पृ० ९५-११४ । २-भाप्रारा०, भा०१ पृ. १५७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म [१६१ किया था। उनका रचा हुआ ' मुनिसुव्रतकाव्य ' विशेष प्रसिद्ध है। श्वेतांबर ग्रन्थ 'चतुर्विशति प्रबन्ध में लिखा है (सं० १४०५) कि उज्जैनीमें विशालकीर्ति नामक दिगम्बर साधु थे। उन्होंने वादियोंको पराजित करके 'महाप्रमाणिक' पदवी पाई थी। यह संभवतः आशाधरजीके ही शिष्य थे । इन्होंने कर्णाटक देशमें जाकर विजयपुर नरेशके दरबारमें आदर पाया था और अनेक विद्वानोंको पराजित किया था। किंतु अंतमें वह मुनिपदसे भ्रष्ट होगये थे ।' उत्तर और मध्यमारतकी तरह बंगाल और ओड़ीसामें भी जैन धर्मका अस्तित्व ईसवी १३ वीं शताब्दितक बंगाल और ओड़ी- रहा था। ‘भक्तामरकथा' से प्रगट है कि इस सामें जैनधर्म। समयमें चम्पापुरका राजा कर्ण जैनी था । भगवान् महावीरकी जन्म नगरी विशालाका राजा लोकपाल भी जैनधर्म भक्त था । विशालामें जब हूयेनत्सांग पहुंचा था, तब उसे बहुत जैनी मिले थे। यहांसे कई मुद्रायें ऐसी. मिली हैं जिनपर तीर्थकरोंकी पादुकायें हैं । तथापि सन् २०० के लगभगवाली मुहरपर 'भट्टारक महाराजाधिराज'का उल्लेख है। पटनाका राना धात्रीवाहन था, जिसकी कामलता नामक कन्या बड़ी विद्यासम्पन्न थी। ये शिवभूषण नामक जैनमुनिके उपदेशसे जैनी हुये थे। गौड़ देशका राजा प्रजापति प्रारम्भमें बौद्धधर्मी था; परन्तु जैनसाधु मतिसागरकी वादशक्तिपर मुग्ध होकर यह राजा और प्रना जैनी हुये थे। तामलुक नगरमें महेभ नामक जैन सेठ बड़ा प्रसिद्ध था। वह १-जैहि०, भा० ११ पृ० ४८५। २-जैप्र० पृ० २४० । ३-बंबिमोजैस्मा० पृ० २३-२६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] संक्षिप्त जैन इतिहास । सिंहलद्वीपसे जहाजों द्वारा व्यापार करता था ।' तामूलक जैनोंका सिद्धक्षेत्र है । उक्त राजा और सेठ संभवतः ७वीं ८वीं शताब्दीमें हुये होंगे; क्योंकि इन शताब्दियोंमें बङ्गालमें दिगम्बर जैनोंका अधिक प्राबल्य था; जैसा कि चीन यात्री हुएनत्सांगके कथनसे प्रगट है ।२ ९वीं शताब्दिसे १२ वीं शताब्दि तक बंगालमें पालवंशके राजाओंका अधिकार रहा था और ये बौद्धधर्मानुयायी थे। इनके बाद ११ वीं शताब्दिके लगभग सेनवंशका अभ्युदय हुआ था। सेनवंशका सम्पर्क मूलमें जैनधर्मसे प्रगट होता है; परन्तु मालूम नहीं कि बंगालमें सेनवंशी राजाओंने जैनधर्मको संरक्षण दिया था या नहीं। इस प्रकार इस कालमें यहांपर राजाश्रय विहीन होकर जैन धर्म अपना प्राबल्य खो चला और मुसलमानोंके आक्रमणके साथ वह यहां नष्टप्रायः होगया। किंतु बंगाल, बिहार, ओड़ीसा प्रांतोंसे जैनोंका जो अत्यधिक पुरातत्व इस कालका मिलता है, उससे इस समय जैनधर्मका जनसाधारणमें बहु प्रचलित होना प्रमाणित है । राजग्रहीमें एक जैनगुफापरके लेखसे प्रगट है कि इसी समयके लगभग परम तेजस्वी आचार्य वैरदेवकी अध्यक्षतामें वहां एक जैनसंघ था। राजगिरीसे एक ऐसा सिक्का भी मिला है, जिनपर गुप्तकालके अक्षरों में जिनरक्षितस्य ' लिखा है। इससे उस सिकेका चालक राजा जैनधर्मानुयायी प्रगट होता है। राजगिरि जैनोंका प्राचीन तीर्थ है। सम्मेदशिखर, चम्पापुर, पावापुर, कुंडलपुर आदि जैन तीर्थ १-जैप्र० पृ० २४१-२४३ । २-वीर वर्ष ३ पृ० ३७१। ३-वीर वर्ष ४ पृ० ३२८-३३२ । ४-बंबिओजस्मा० पृ० १६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। [१६३ भी बंगाल-बिहार में हैं। मानभूम जिलेके सराक लोग आज भी वहांपर फैले हुये प्राचीन जैनधर्मको प्रगट कर रहे हैं। ये प्राचीन जैन श्रावक हैं । सिंहभूम जिलेपर एक समय जैनोंका अधिकार था। वहां इन प्राचीन श्रावकोंने जंगलोंमें घुसकर तांबकी कानें सोधी थीं और अपने धार्मिक स्मारक वहां बनवाये थे । वामन घाटीसे दो ताम्रपत्र १२०० ई०के मिले हैं जिनसे प्रगट है कि मयूरभंजके भंजवंशके राजाओंने बहुतसे ग्राम जिनमंदिरोंको भेट किये थे। इस वंशके संस्थापक वीरभद्र थे, जो एक करोड़ साधुओंके गुरु थे। ये जैन थे।' ऐसे ही और भी अनेक जैन लेख बिखरे हुये पड़े हैं। जो हो, बंगालमें भगवान महावीरके समयसे लेकर ७ वीं शताब्दि ई० तक जैनधर्म सफलतापूर्वक फैला हुआ था। ओड़ीसामें खारवेलके वंशजोंके बाद आन्ध्रवंशका अधिकार होगया था और ये प्रायः बौद्धधर्मानुयायी ओड़ीसाके अंतिम थे । उपरांत ययाति केसरी द्वारा स्थापित राजा व जैनधर्म । केसरी वंशने वहां १२ वीं शताब्दितक राज्य किया था। उनके समयमें जैनधर्मका पुनरुत्थान हुआ मालम होता है; क्योंकि उद्योतकेसरी राजाके राज्यकालके कई जैन लेख मिले हैं, जिनसे वहांपर जैनाचार्यों द्वारा धर्म प्रचार होनेका बोध होता है । इन आचार्यों में शुभचंद्र और यशनंदि उल्लेखनीय हैं । जब गङ्गराजाओंका अधिकार ओड़ीसापर हुआ तो उन्होंने चरण-ब्राह्मणोंके कहनेसे जैनियोंको बहुत सताया। इस अत्याचारसे जैनोंका अस्तित्व ही वहां मुश्किल होगया । १-पूर्व० पृ० ६५-६६ । २-पूर्व पृ० ९२-१०४। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] संक्षिप्त जैन इतिहास । उत्तरीय और पूर्वीय भारतके समान ही दक्षिण भारत और राजपूतानामें भी जैनधर्म अपना प्रभाव जमाए राजपूतानामें तत्कालीन हुये था । दक्षिण भारतका विशद वर्णन तो जैनधर्म। इस भागके तृतीय खंडमें किया जायगा, किन्तु राजपूतानामें जैनधर्मके प्रभावका दिग्दर्शन यहां करा देना अनुचित न होगा। राजपूताना जिसको पुरातन कालमें 'मरुभूमि' कहते थे, जैनधर्मके सम्पर्कमें एक अतीव प्राचीन कालसे आगया था। यदि हम इतिहासातीत कालकी बातको जाने दें और केवल भगवान महावीरजीके समयसे ही इस सम्बन्धमें विचार करें तो प्रगट होता है कि जैनधर्मका प्रचार वहां भगवान् महावीर द्वारा हुआ था। उनके बाद मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त और संप्रति आदिके प्रशंसनीय प्रयत्नोंके फलस्वरूप जैनधर्मका मस्तक वहां बहुत ऊंचा रहा था। ईसाकी प्रारम्भिक शताब्दियोंसे करीब२ तेरहवीं शताब्दि तक जैनधर्म राजपूताने में राजाश्रयमें रहकर फलताफूलता रहा था। किन्हीं विद्वानोंका यह ख्याल है कि राजपूत लोगोंपर जैनधर्मकी अहिंसात्मक शिक्षा कुछ भी प्रभाव नहीं डाल सकी थी। किंतु बात वास्तवमें यों नहीं है। जैनधर्मकी अहिंसात्मक शिक्षा किसी भी प्राणीके लौकिक कार्यों में बाधा पहुंचानेवाली नहीं है। बड़े २ जैन राजाओं और सेनापतियोंने बढ़ चढ़कर लड़ाइयां लड़ी हैं, यह बात पूर्व पृष्ठोंके अवलोकनसे स्पष्ट है । उसपर राजपुत्रों (क्षत्रियों) का जन्म ही उस महापुरुष द्वारा हुआ है, जिसने जैनधर्मकी नींव इस कालमें खखी थी। भगवान् ऋषभदेव ही क्षत्रियोंके आदिपुरुष हैं। इस दशामें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। [४६५ क्षत्रियों द्वारा उसको सन्मान न मिलना एक असंभव बात है। कर्नल टॉड साने जो राजपूतोंकी उत्पत्ति आबू पर्वतपर अग्निकुण्डसे हुई लिखी है, उससे भी इन लोगोंका जैनधर्मसे बहु संपर्क प्रमाणित है। टॉड सा० लिखते हैं कि 'पराक्रमकारी जैन लोगोंकी चढ़ाईसे अपने धर्मकी रक्षा करनेको ब्राह्मणोंने अग्निकुल उत्पन्न किया। परन्तु मुसलमानोंकी चढ़ाई के समय अग्निकुलके अधिकांश लोग जैन होगये।' अग्निकुलके सोलंकी, परमार आदि राजपूत वंश इस मुसलमानोंके आक्रमणके पहलेसे ही जैनधर्मको आश्रय देरहे थे, यह लिखा जाचुका है । आबूपर जहां अग्निकुण्ड जलाकर अग्निवंशकी स्थापना की गई थी, वहां आदिनाथ भगवानकी पाषाण पूर्ति वेदीपर विराजमान है।' राजपूतानामें उदयपुरके राणाओंका वंश प्रसिद्ध है। जैन धर्मकी मान्यता इस वंशमें एक अतीव प्राचीन मेवाडके राणावंशमें कालसे प्रगट होती है। आज भी मेवाड़जैनधर्म। राजवंशमें जैनधर्मको विशेष सम्मान प्राप्त है। इस वंशकी उत्पत्ति उसी वंशसे हुई मानी जाती है, जिसमें प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेवका जन्म हुआ था। राणाओंके आदिपुरुष गुहिल नामक क्षत्री ई० स० ५६८में हुये थे। कर्नल टॉड सा० कहते हैं कि गिल्हौत कुलके आदिपुरुष भी जैनधर्ममें दीक्षित थे। इसी कारण गिल्हौतकुलके राजा लोग अपने पितृपुरुषोंके -धर्मपर अनुराग करते रहे हैं। अतः प्रारंभसे ही राजाश्रय पाकर १-टॉड, राजस्थान (वेङ्कटेश्वर प्रेस) भा० १ पृ० ५२-५७ । २-राई०, भा० १ पृ० ३६९ । ३-टॉरा०, भा० १ पृ० ७१५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास। जैनधर्म मेवाड़में खूब फलाफूला है। मेवाड़की प्राचीन कीर्तियां इस बातकी साक्षी हैं। चितौड़में जैन कीर्तिस्तंभ एक अपूर्व जैन शिल्प है। उसके नीचे एक पाषाण खंड परके सं० ९५२ के लेखसे उस समय वहांपर बहुतसे दिगंबर जैनियोंका होना प्रगट है। जैन कीर्तिस्तंभको दिगंबर संप्रदायके बघेरवाल महाजन सा (साह) नामके पुत्र जीजाने वि० सं०की १४ वीं शताब्दिके उत्तरार्द्ध में बनवाया था। इस स्तंभके पास ही एक प्राचीन जैन मंदिर भी मौजूद है। चितौड़में गोमुखके निकट महाराणा रायमलके समयका बना हुआ एक और जैनमंदिर है; जिसकी मूर्ति दक्षिणसे लाई गई थी। उदयपुरमें विशेष मान्य और प्राचीन जैन स्थान केशरियाजी ऋषभदेवका है। यहांकी मूर्ति अत्यन्त प्राचीन है। दिगंबर जैनाचार्य श्री धर्मचन्द्रजीका सामान और विनय महाराणा हम्मीर किया करते थे। सं० १२९५में रामपालदेवका राज्य था, तब गोहिलवंशीय उद्धरणके पुत्र राजदेवने, जो रामपालके आधीन था, करका बीसवां भाग नादलाईके जैनमंदिरको पूजाके वास्ते दिया था। (मप्राजैस्मा० पृ० १४७) नादालके पद्मप्रभके मंदिरमें सं० १२१५ के लेखसे प्रगट है कि राणा जगतसिंहके मंत्री जयमल्लने वह मंदिर बनवाया था। वि० सं० १३३५ (१२७१ ई०)में रावल समरसिंहकी माता जयतलदेवीने चितौड़में श्याम पार्श्वनाथका मंदिर बनवाया ... १-मप्राजैस्मा०, पृ० १३४ । २-राइ०, भा० १ पृ० ३५२ ३५४ । ३-राई०, भा० १ पृ० ३४६ । ४-'श्री धर्मचन्द्रोऽजनि तस्य पट्टे हमीरभूपालसमर्चनीयः ।' जैहि०, भा० ६ अंक ७-८ पृ० २६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म।। था। इनके उपरान्त महाराणा भीमसिंह, कुम्भ इत्यादिने जैनधर्मके लिये जो किया, वह हम तीसरे भागमें देखेंगे। राजपूतानामें उदयपुरके बाद मारवाड़की विशेष प्रसिद्धि है। राजपूतानावासी वैश्य — मारवाड़ी ' नामसे मारवाड़में जैनधर्म । सर्वत्र प्रख्यात् हैं । सन् १२२६के लगभग ___ मारवाड़में राठौर क्षत्रियोंका अधिकार होगया था। राठौर अथवा राष्ट्रकूट वंशके पूर्वजोंमें जैनधर्मकी मर्यादा विशेष रही थी। मारवाड़के राठौरोंमें चक्रेश्वरी देवीकी विशेष मान्यता है; जो तीर्थङ्करकी शासन देवता हैं। मारवाड़ राठौर वंशके चौथे राजा राव रायपालजीके तेरह पुत्र थे; जिनमें ज्येष्ठ पुत्र कनकपाल वि०सं० १३०१ में राज्याधिकारी हुये थे। शेष पुत्रोंमें एक मोहनजी नामक भी थे । मोहनजीने अपना दूसरा विवाह एक श्रीश्रीमाल कन्यासे किया था जिससे उनके सप्तसेन नामक पुत्र हुआ था । सप्तसेनने जैनधर्म स्वीकार कर लिया था और वह ओसवाल जैनियोंमें सम्मिलित होगया था । उसकी संतान आजकलके मुहणोत ओसवाल हैं। मारवाड़के राज्यशासनमें उनका हाथ रहा है। उनमें मंत्री और सेनापति कई हुये हैं । मुहणोतोंके अतिरिक्त जोधपुर राजमें भंडारी ओसवालोंका भी हस्तक्षेप रहा है। भंडारी ओसवाल अपनी उत्पत्ति अजमेरके चौहान घरानेसे बताते हैं । इनके पितामह राव लक्षमण (लखमसी)ने अजमेरके घरानेसे अलग हो नाडौलमें अपना एक प्रथक १-राई०, भा० १ पृ० ३८१ । २-भाप्रारा०, भा० ३ पृ० , ११८-१२५ । ३-सडिजै०, पृ० ३३-३४ व भाप्रारा०, भा०३ पृ० १२७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८] संक्षिप्त जैन इतिहास। राजकुल स्थापित किया था। लखमसी एक महापुरुष और वीर देशभक्त था । उसने अन्हिलवाड़से कर व चित्तौड़के राजासे खिराज वसूल किया था । नाडौलका किला उसीने बनवाया था। उसके २४ पुत्र थे; जिनमें एक दादराव थे। भण्डारी कुलके जन्मदाता यही थे । सन् ९९२ ई० में श्री यशोभद्र सूरीके उपदेशसे उन्होंने जैनधर्म ग्रहण किया था । दादराव राजभंडारके अधिकारी थे । इसी कारण उनका वंश 'भण्डारी' नामसे परिचित हुआ है । जोधपुरमें जबसे यह लोग आये तबसे इनकी मान्यता राजदर्बारमें खूब है और ये बड़े २ पदोंपर रहे हैं । नाडौलके चौहान राजाओंकी भी उन्होंने खूब सेवा की थी। वि० सं १२४१ में भण्डारी यशोवीर पल्ल ग्रामके अधिकारी बना दिये गये थे। उन्होंने महाराज समरसिंहदेवकी आज्ञानुसार एक जैन मंदिरका जीर्णोद्धार कराया था। भंडारी मिगल इसी राजाओंके मंत्रियोंमेंसे एक थे ।' नाडौलके कई एक राजाओं और रानियोंने जैन मंदिरोंके लिये दान दिये थे। उनके पुण्यमई कार्योसे यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि मारवाड़के राजवंशपर जैनधर्मका खूब प्रभाव था । चौहान राजकुलमें प्रख्यात् राजा अल्हणदेव थे। उन्होंने सन ११६२ में नाडोलके श्री महावीरजीके जैन नाडौलके चौहान मंदिरके लिये दान किया था। अल्हणके और जैन धर्म। पिता अश्वराज थे और उसने वि० सं० १२०९ से १२१८ तक चालुक्य नृप कुमारपाल जैनके सामन्तरूपमें राज्य किया था। जैनधर्मको उसने खूब १-सडिजे०, पृ० ३५-३७ । २-डिजैबा०, भा० १ पृ० ४३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। [१६९ अपनाया था, उसने एक आज्ञापत्र निकालकर महीनेके कई दिनोंमें हिंसाका निषेध कर दिया था। दादरावको जैनधर्मभुक्त बनानेवाले यशोभद्रसूरिके उत्तराधिकारी सालिसूरि थे और वह चौहानवंशके भूषण कहे गये हैं। इससे उनका चौहान राजकुमार होना प्रगट है। इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि जैनधर्मने चौहान राजकुलमें कितना गहन और घनिष्ट सम्बन्ध पालिया था। उपरोक्त अल्हणदेवके तीन पुत्र (१) केल्हाण, (२) गजसिंह और (३) कीर्तिपाल थे । कीर्तिपालका पुत्र अभयपाल था। इसने और इसके भाई लखनपालने अपनी माता महिबलदेवीके साथ वि० सं० १२३३ में जैन मंदिरको इसलिए दान दिया था कि उससे शान्तिनाथ तीर्थकरका उत्सव मनाया जाया करे। राजपूतानामें राठौर क्षत्रियोंका राज्य पहलेसे होनेके चिह्न मिलते हैं । हस्तिकुंडी (हथूडी) से एक लेख हस्तिकुंडीके राठौड़ोंमें सन् ९९७ ई०का मिला है, उससे वहांपर जैनधर्म। राठौड़ोंका राज्य होना प्रमाणित है । हy डीके राठौरोंकी वंशावली हरिवर्मा नामक राजासे प्रारम्भ की गई है । इसका पुत्र विदग्धराज था, जो इसके बाद सन् ९१६ ई० में राज्याधिकारी हुआ था। विदग्धराज जैन धर्मानुयायी था। उसने ऋषभदेवजीका एक भव्य मंदिर बनवाया था और बलभद्र मुनिकी कृपासे उसके लिए भूमिदान किया था । विदग्धका पुत्र मम्मट था। उसने उक्त दानको बढ़ा दिया था। वह १-सडिजै०, पृ० ३५ व ३६ । २-डिजैबा०, भा० १ पृ० १२। .३-भाप्रारा०, भा० ३ पृ० ९१-९२। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास | १७० ] सन् ९३९ ई० में शासन करता था । उसका पुत्र धवल एक पराक्रमी राजा था । अपने बाबा और पिताके समान वह भी जैनः धर्मानुयायी था । मेवाड़पर जब मालवाके राजा मुञ्जने हमला किया. था, तब वह उससे लड़ा था । सांभारके चौहान राजा दुर्लभराज से नाडौलके चौहान राजा महेन्द्रकी रक्षा की थी । और अनहिलवाड़ाके सोलंकी राजा मूलराज द्वारा नष्ट होते हुये धरणीवाहको आश्रय दिया था । वृद्धावस्थाके कारण धवलने सन् ९९७ के लगभग राज्यभार अपने पुत्र बालप्रसादको सौंप दिया था । धवलके राज्यकालमें शांतिभट्टने श्री ऋषभदेवजीके बिम्बकी प्रतिष्ठा की थी और उसे विदग्धराज द्वारा बनवाये गये मंदिर में स्थापित की थी । धवल इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया । इसके बाद इस जैनधर्म प्रभावक वंशका कुछ हाल नहीं मिलता । हस्तिकुंडिया गच्छके मुनियोंको इनने आश्रय दिया था । राजपूतानामें मण्डोर के प्रतिहार वंशमें भी जैन धर्म आदर पाचुका है । इस राजवंशकी उत्पत्तिके विषमंडोरके प्रतिहारों द्वारा यमें कहा जाता है कि हरिश्चन्द्र नामक एक जैनधर्मका उत्कर्ष । विद्वान् विप्र था और प्रारम्भमें वह किसी राजाका प्रतिहार था । उसकी क्षत्रियवंशकी रानी भद्रासे चार पुत्र - ( १ ) भोगभट, (२) कक्क, (३) रज्जिल और (४) दद्द हुए । उन्होंने मांडव्यपुर ( मण्डोर ) के दुर्गपर कब्जा करके एक ऊंचा कोट बनवाया था। इस वंशका सर्व अंतिम राजा कक्कुक बड़ा प्रसिद्ध था । उसके दो लेख घटियालेसे वि० सं० · १- मप्र जैस्मा०, पृ० १६२ । २ - राइ० भा० १५० १४८ - १४९ ॥ " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। [१७? ९१८ के मिले हैं, जिनसे प्रगट होता है कि उसने अपने सच्चारित्रसे मरु, माड़, वल्ल, तमणी, अज्ज (आर्य) एवं गुर्जरत्राके लोगोंका अनुराग प्राप्त किया, बडणाणय मण्डलमें पहाइपरकी पल्लियों (पालों, भीलोंके गांवों) को जलाया, रोहित्सकूप (घटियाले ) के निकट गांवमें हट्ट (हाट) बनवाकर महाजनोंको वसवाया, और मड्डोअर ( मंडोर ) तथा रोहिन्सकूप गावोंमें जयस्तंभ स्थापित किये । कक्कुक न्यायी प्रजापालक एवं विद्वान था । और संस्कृतमें काव्य रचना करता था। उसके लेखके प्रारम्भमें श्री जिननाथ ( जिनेन्द्रदेव ) को नमस्कार किया गया है और उसमें एक जैन मंदिर बनवानेका उल्लेख है । इस कारण इस राजाका जैन धर्मानुयायी होना प्रगट है। सं० १२०० के लगभग नाडौलके चौहान राजाओंने मंडोरपर अधिकार जमा लिया था। मालवेके परमार राजा वाक्पतिराजके दूसरे पुत्र डम्बरसिंहके वंशमें वागड़के परमार हैं। उनके अधिकावागड़ प्रांतमें जैनधर्म । रमें वांसवाड़ा और डूंगरपुरके राज्य थे। उनकी राजधानी उत्थूणक नगर ( अथूर्णा ) था । यहांके संवत ११६६ के एक जैन शिलालेखसे प्रगट है कि वागड़ प्रांतमें भी जैनधर्म अच्छी उन्नत दशापर था । सं० ११६६ में परमार वंशी विजयराजका राज्य था। नागरवंशी भूषण नामक जैन १-राइ०, भा० १ पृ० १५१-१५२। २-ॐ सग्गापवग्गमग्गं पदमं सयलाण कारणं देवं । णीसेस दुरिअदलणं परमगुरुं णमह जिणणाहं ॥'-प्राचीन लिपिमाला, पृ० ६५ । ३-भाप्रारा०, भा० १ पृ० १७४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२] संक्षिप्त जैन इतिहास। श्रेष्टी वहां रहते थे। उन्होंने श्री वृषभदेवका एक सुन्दर मंदिर बनवाया था और भगवानकी दर्शनीय प्रतिमा प्रतिष्ठा कराकर विराजमान कराई थी। माथुरान्वयी श्री छत्रसेनाचार्यने उसकी प्रतिष्ठा कराई थी। यह नागर जैनी तलपाटकपत्तनके निवासी थे। इनके पूर्वजोंमें 'अंबर' नामक व्यक्ति एक प्रसिद्ध वैद्य थे । जैन वासनासे वह इतने अनुवासित थे कि उनकी रग २ में जैनधर्म व्याप्त था । वह देशव्रती थे और चक्रेश्वरी देवी उनकी सेवा करती थी। झारोली (सिरोही) के श्री शांतिनाथ मंदिरके शिलालेखसे प्रगट है कि परमार राजा धारावर्षकी रानी शृंगारदेवीने सं० १२५५ में उक्त मंदिरको भूमिदान किया था । ( मप्राजैस्मा० पृ० १६९) राजपूतानेमें चौहान राजाओंने पांचवीं शताब्दिके लगभग अजमेरको बसाकर उसे अपनी राजधानी अजमेरके चौहान बनाया था। अजमेरके चौहानोंमें जैनधर्मका राजा व जैनधर्म। आदर रहा था। इस वंशके चौथे राजा जय राजका उल्लेख जैन ग्रंथ 'चतुर्विशतिप्रबन्ध' में है । इस वंशके राजाओंका उल्लेख बीजोल्यां ( मेवाड़ ) के जैन शिलालेखमें खूब दिया हुआ है । बीजोल्यांका पंचायतन पार्श्वनाथ मंदिर एक अतिशय क्षेत्र है। वहां मंदिरके बाहर भट्टारकोंकी निषधिकायें भी हैं। जिनसे पता चलता है कि एक समय यह स्थान जैनोंका मुख्य केन्द्र था। पहले दिगम्बर संप्रदायके पोरबाड़ महाजन लोलाकने यहां पार्श्वनाथजीका तथा सात अन्य मंदिर वनवाये १-जैहि०, भा० १३ पृ० ३३२ । २-भाप्रारा० भा० १ पृ० २२५-२२९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म । [१७३ थे। उनके टूट जानेपर ये पांच मंदिर बनवाये गये हैं। दो चट्टानांपर लेख खुदे हुए हैं। उनमेंसे एक वि० सं० १२२६ फाल्गुण वदी ३ का चौहान राजा सोमेश्वरके समयका लोलाकका खुदवाया हुआ है. जिसमें लोलाक एवं उनके पूर्वजोंके धर्म-कार्योका खूब वर्णन है। अजमेरके चौहान राजा पृथ्वीराज ( दूसरे ) ने मोराकुरी गांव और चौहान नृप सोमेश्वरने रेवणा गांव श्री पार्श्वनाथज़ीके उक्त मंदिरको भेट किये थे। दूसरे चट्टानपर 'उन्नत शिखर पुराण' खुदा हुआ है। इन उल्लेखोंये अजमेरके चौहान राजाओंका जैनधर्मके प्रति अनुराग प्रगट है।' पन्द्रहवीं शताब्दी तक राजपूतानाके समान सिंध और पञ्जा बमें भी जैनोंका उल्लेखनीय अस्तित्व था। सिंधु और पंजाबमें मध्यकालके बने हुये जैन मंदिर आदि इस जैनधर्म। बातके साक्षी हैं। सन् १२४० ई०में ब्रह्मक्षत्र गोत्रके अल्हण और दोल्हणने पञ्जाबमें कांगडा जिलेके कीर ग्राममें एक महावीर स्वामीका मंदिर बनवाया था। तक्षशिलाके पासवाले जैन अतिशय क्षेत्रपर भी इस समयका जैन शिल्प मिलता है । सं० १४८४में जयसागर उपाध्याय द्वारा रचित 'विज्ञप्तित्रिवेणिः' नामक पुस्तकसे प्रकट है कि उनके पहलेसे सिंध और पञ्जाबमें जैनोंकी घनी वस्ती थी। मरुकोट्ट, नंदनवन और कोटिल्लग्राम आदि प्रसिद्ध जैनतीर्थ थे । 'सर्वसाधारण जनताको और राजादिकोंको भी उस समय जैनधर्मसे बहुत कुछ सहानुभूति थी।' १-राइ०, भा० १ पृ०३६३ । २-डिजैबा०,भा० १ पृ०४२। ३-एजाइं नोट्स । गात्रक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४] संक्षिप्त जैन इतिहास । तब पंजाबमें नगरकोट, जो आजकल कोट कांगडा नामसे प्रसिद्ध है, एक मुख्य जैनतीर्थ था। श्वेतांबर जैनोंके भी वहां चार मंदिर थे। वहांका राना जैनधर्मसे सहानुभूति रखता था । उसके दीवान दि० जैन धर्मानुयायी थे।' इस कालमें जैनधर्मकी उन्नति करनेके लिये जैनाचार्योको अच्छा सुभीता रहा था। जहां आठवी तत्कालीन दिगम्बर शताब्दिके लगभग शङ्कराचार्यकी दिग्विजयके जैन संघ। समक्ष एकवार जैनधर्मको भारी धक्का पहुँचा था, वहां उपरांत कालमें राजाश्रय पाकर वह फिर फलने-फूलने लगा । हम पहले देख आये हैं कि दिगंबर जैनाचार्योका केन्द्र भद्दलपुर (दक्षिण) से हटकर उज्जैन आगया था। पट्टावलियोंसे प्रगट है कि सन् १०५८ ई० तक उज्जैन ही जैनाचार्योका मुख्य स्थान रहा था । उपरान्त वारानगर उनकी कर्मस्थली रही थी। सं० १२६८ में वहांसे हटकर वह केन्द्रम्थल ग्वालियरमें जा पहुंचा था । अजमेर और चित्तौड़ भी इन दिगम्बर जैनाचार्योके लीलास्थल रहे थे। इस प्रकार इस कालमें दिगंबर जैन संघका आगमन दक्षिणकी ओरसे उत्तरकी ओर हुआ था । दक्षिण भारतीय जैनोंकी मान्यता है कि एक लक्ष्मीसेन नामक जैनाचार्य बड़े भारी विद्वान् प्रसिद्ध थे। उन्होंने जैनोंके चार विद्यापीठ स्थापित किये थे; जिनमें तीन दक्षिणभारतमें और एक दिल्ली में था। इससे १-जैहि०, भा० १३ पृ० ८१ । २-इंऐ० भा० २० पृ० ३५१ -३५६ व जैहि०, भा० ६-७-८ पृ. ३२ । ३-जैग०, भा० २२ पृ० ३७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। [१७५ भी पट्टावलियोंके उक्त कथनका समर्थन होता है। श्वेताम्बर जैनोंका लीलास्थल मुख्यत: गुजरात ही रहा है। जिस समय ग्वालियरमें दिगम्बर जैन पट्ट था, उस समय सं० १२९६ में रत्नकीर्ति नामक एक प्रसिद्ध जैनाचार्य थे । 'वह स्याद्वादविद्याके समुद्र थे, बालब्रह्मचारी थे, तपमी थे, दयालु थे. उनके शिप्य नाना देशामें फैले हुए थे। __उस समयके दिगंबर जैन संघमें उनका संघ प्रख्यात था। उस संघमें तब निन्नलिखित आचार्य हुये उज्जैन व वाराकासंघ। थे।-(१) अनंतकीर्ति सन् ७०८ ई०, (२) धर्मनन्दि सन् ७२८ ई०, (३) विद्यानन्दि सन् ७५१ ई०, (४) रामचन्द्र ७८३ ई०, (५) रामकीर्ति ७९० ई०, (६) अभयचंद्र ८२१ ई०, (७) नरचन्द्र ८४० ई०, (८) नागचंद्र ८५९ ई०, (९) हरितन्दि ८८२ ई०, (१०) हरिचंद्र ८९१ ई०, (११) महीचन्द्र ९१७ ई०, (१२) माघचन्द्र ९३३ ई०, (१३) लक्ष्मीचंद्र ९६६ ई०, (१४) गुणकीर्ति ९७० ई०, (१५) गुणचन्द्र ९९१ ई०, (१६) लोकचंद्र १००९ ई०, (१७) श्रुतकीर्ति १०२२ ई०, (१८) भावचन्द्र १०३७ ई०, (१९) महीचन्द्र १०५८ ई० । उज्जैनके उपरान्त दिगम्बर मुनियोंका केन्द्र विन्ध्याचल पर्वतके निकट स्थित वारानगर नामक स्थान हुआ था। वारा प्राचीनकालसे ही जैनधर्मका किला था । आठवीं या नवीं शताब्दिमें वहां श्री पद्मनंदि मुनिने 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' की रचना की थी। इस ग्रन्थकी १-जैहि०, भा० ६ अंक ७-८ १० २६ । २-जैहि०, भा० ६ अङ्क ७-८ पृ० ३०-३१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६] संक्षिप्त जैन इतिहास । प्रशस्तिमें लिखा है कि "वारा नगरमें शांति नामक राजाका राज्य था । यह नगर धनधान्यसे पूर्ण था। सम्यग्दृष्टि जनोंसे, मुनियोंके समूहसे और जैनमंदिरोंसे भूषित था। राजा शान्ति जिनशासनबत्सल, वीर और नरपति संपूजित था । श्री पद्मनंदिजीने अपने गुरु आदि रूपमें इन दिगम्बर मुनियोंका उल्लेख किया है; वीरनंदि, बलनंदि, ऋषि विजयगुरु, माघनंदि, सकलचंद्र और श्रीनंदि।' वारानगरके संघमें उपरान्त निम्नाङ्कित आचार्योका अस्तित्व मिलता है।' ___ (१) माघचन्द्र सन् १०८३ ई०, (२) ब्रह्मनंदि १०८७ ई०, (३) शिवनंदि १०९१ ई०, (४) विश्वचन्द्र १०९८ ई०, (५) हरिनन्दि (सिंहनंदि) १०९९ ई०, (६) भावनंदि ११०३ ई० (७) देवनंदि १११० ई०, (८) विद्याचन्द्र १११३ ३०, (९) सूरचन्द्र १११९ ई०, (१०) माघनंदि ११२७ ई०, (११) ज्ञाननंदि ११३१ ई० (१२) गंगकीर्ति ११४२ । गंगकीर्तिके पश्चात् वारानगरके स्थानपर संघका केन्द्र ग्वालियर होगया था। बारहवीं शताब्दिके अंततक वहां जैनधर्मका खूब उत्कर्ष हुआ। किंतु सन् १२०७ में भट्टारक वसन्तकीर्तिने अजमेरको अपना केन्द्र बनाया । उक्त दिगंबर जैनाचार्य देशभरमें सर्वत्र विहार करके धर्मोद्योत करते थे। परवादियोंसे वाद करने में उन्हें प्रसिद्ध दिगंबराचार्य। आनन्द आता था। वि० सं० १०२५ में अल्लू नामक राजाकी सभामें दिगम्बराचा१-जैसासं०, भा० १ अङ्क ४ पृ० १५० । २-जैहि०, भा० ६ अंक ७-८ पृ० ३१ व इंऐ० २०-३५४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। [१७७ र्यका वाद एक श्वेतांबर आचार्यसे हुआ था। तेरहवीं शताब्दिमें अनन्तवीर्य नामक एक दिगंबराचार्य प्रसिद्ध नैयायिक और वादी थे। उन्होंने अगणित वादियोंको गतमद किया था। इसी समयके लगभग गुणकीर्ति नामक महामुनि विशद धर्म-प्रचारक थे। उन्हींके उपदेशसे पद्मनाभ नामक कायस्थ कविने 'यशोधरचरित्र' की रचना की थी। झांसी जिलेका देवगढ़ नामक स्थान भी मध्यकालमें दिगंबर मुनि. योंका केन्द्र था। वहां भी कई दिगंबरचार्य हुये थे, जिनके शिष्योंने अनेक धर्मकार्य किये थे। वि० सं० १२२३ में मुनि देवनंदिके शिप्य मुनि रामचन्द्रजी राज्यमान्य थे। सन् १२९५ में आचार्य महासेन दक्षिणभारतसे दिल्ली आये थे और उन्होंने बादशाह अलाउद्दीनके दरबारमें ब्राह्मण पंडितोसे वाद करके जैनधर्मकी अपूर्व प्रभावना की थी। ईसवी प्रथम शताब्दिके प्रारम्भमें श्वेताम्बर संप्रदायके अलग होजानेसे यद्यपि निर्ग्रन्थ वीतरागवृत्ति पर मुनि धर्म। संकटके बादल जरा हलके पड़ गये थे; किन्तु श्वेताम्बर जैनोंकी अभिवृद्धिके साथ वह फिरसे जोर पकड़ गये थे । दिगम्बर जैन संघमें भी निर्ग्रन्थवृत्तिमें अपवाद प्रारंभ हो गया; किन्तु भगवत् कुन्दकुन्द, जिनसेन, अमितगति इत्यादि जैनाचार्योंके समक्ष वह अधिक प्रभावशाली नहीं हो सका; यद्यपि काल महाराजकी कृपासे उसने जड़ अवश्य पकड़ ली। और उसके फलरूप द्राविड़ संघ, काष्ठासंघ आदिका प्रादुर्भाव १-एडिनेवा०, पृ० ४५| २-पूर्व०, पृ० ८६ । ३-दिगम्बरत्व और दि० मुनि पृ० १५१ । ४-जैमि०, भा० १४ अंक ८ पृ० ७ । ५-दानवीर माणकचन्द्र पृ० ३५। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८] संक्षिप्त जैन इतिहास । हुआ था। तथापि अन्तमें निर्ग्रन्थवृत्तिका पतन हुआ और दिगम्बर संघमें भी वस्त्रधारी भट्टारकों (मुनियों) की उत्पत्ति और उनकी मान्यता होने लगी थी। श्री गुणभद्राचार्यजी (८ वीं श० ) के समयमें ही दिगम्बर मुनियोंमें शिथिलता घर कर चुकी थी; ऐसा उनकी उक्तियोंसे मालूम होता है । और पं० आशाधरजीके समयमें दिगम्बरवृत्ति केवल जुगनूके समान चमकती रह गई थी। अतएव यह काल दिगम्बर जैन संघमें एक बड़ी उलटफेर अथवा क्रांतिका समय था। और इस क्रांतिके परिणामरूप प्राचीन सरलवृत्तिको बहुत कुछ धक्का पहुंचा था।' सं० ७५३ में मुनि कुमारसेन द्वारा काष्ठसंघकी उत्पत्ति मथुरामें हुई थी। मथुरा अब भी दिगम्बर जैनोंका केन्द्र था। ईसवी तेरहवीं शताब्दि तक पौराणिक हिन्दुधर्मके साथ शैव, लिङ्गायत, रामानुज पंथ, आदिके भक्तिवाद गृहस्थ धर्म। एवं क्रियाकाण्डने भारतमें खासा प्रभाव जमा लिया था। दक्षिण भारतमें उसकी तूती बोलने लगी थी। प्राकृत जैनधर्म पर भी इस नूतन धार्मिक वृत्तिका बहुत कुछ असर पड़ा था। जहां एक समय जैन धर्मकी अहिंसा वृत्तिने हिन्दूधर्म पर अपनी गहरी छाप लगाई थी, वहां इस कालमें हिन्दूधर्मके भक्तिवाद और कर्मकाण्डने जैनधर्मके स्वरूपको विकृत बना दिया। जैनधर्ममें जातिभेद यद्यपि प्राकृत रूपमें स्वीकृत था, परन्तु वह पारस्परिक घृणा और द्वेषका कारण नहीं था। उसमें जाति और कुलका मोह मिथ्यात्व माना जाता था। किन्तु ब्रामणोंके संसर्गसे जैनधर्मानुयायियोंमें भी जातीय-प्रभेदका भूत सिरपर १-भमी०, पृ० १-१८ । २-रश्रा०, पृ० २६:। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म [१७९ चढ़ बैठा और तबसे वह बराबर उसे अच्छा नाच नचा रहा है। पहले जैन धर्ममें अमिपूजा, श्राद्ध तर्पण, यज्ञोपवीत आदिको भी स्थान प्राप्त नहीं था; किन्तु इस कालमें इनका प्रवेश भी उसमें हो गया। जहां 'पद्मपुराण' जैसे प्राचीन ग्रंथमें ब्राह्मणोंका “सूत्रकण्ठः" कह कर उपहास उड़ाया है वहां उपरान्तके ग्रंथोंमें यज्ञोपवीत धारण करना श्रावकोंका कर्तव्य बतलाया गया है। किन्तु पश्चिम भारतमें रहनेके कारण श्वेताम्बर जैनधर्म पर इन बातोंका कम असर पड़ा मालूम पड़ता है। उनमें यज्ञोपवीत पृथा प्रचलित नहीं है और न उनमें जातिपांतिके भेदकी कहरता मौजूद है। अभी हालमें एक जर्मन महिलाको शुद्ध करके श्वेताम्बर समाजमें सम्मिलित किया जा चुका है। अजैनोंको जैनधर्ममें दीक्षित करनेका प्रयास इस कालमें खूब चालू रहा था। शङ्कराचार्यके बाद जैनधर्मोअजैनोंकी शुद्धि । नतिके समय जैनाचार्योंको अपने शिष्य ... बढ़ानेकी धुन सवार थी। दिगम्बर जैनाचार्य श्री माघनन्दिजीकी तो यह प्रतिज्ञाथी कि वह जब तक प्रतिदिन पांच अजैनोंको श्रावकधर्ममें दीक्षित नहीं करते थे, तब तक आहार नहीं करते थे। 'महाजनवंशमुक्तावली से प्रगट है कि “सं० ११७६ में भी जिनवल्लभसूरिने पड़िहार जातिके राजपूत राजाको जैनी बनाकर महाजन (वैश्य) वंशमें शामिल किया था। उसका दीवान जो कायस्थ था वह भी जैनी होकर महाजन हुआथा ।खीची राजपूत जो धाड़ा मारते थे, जैनी हुये थे। श्री जिनभद्रसूरिने राठोरवंशी राजपूतोंको जैनी बनाया था। सं० ११६७ में उन्होंने परमारवंशी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०] संक्षिप्त जैन इतिहास । राजपूतोंको जैनी बना लिया था। सं० ११९६ में जिनदत्तसूरिने एक यदुवंशी राजाको जैनधर्ममें दीक्षित किया था, जो मांस-मदिरा भक्षक था। सं० ११६८ में सोलंकी राजपूत भी जैनधर्मको ग्रहण कर चुके थे । सं० ११९८ में जैनाचार्यने भाटी राजपूत राजाको भी जैनी किया था। सं० ११८१ में चौहानोंकी २४ जातियां जैनी हुई थीं। दीवान राठी महेश्वरी भी जैनी हुये थे। - श्री नेमिचंद्रसूरिने सं० ११८७ में कितने ही राजपूतोंको जैनी किया था। सं० ११९७में सोनीगरा जातके राजपूत राजाको जैनधर्मानुयायी बनाया था ।" नागर वैश्य भी पहले जैनधर्ममें दीक्षित किये जा चुके हैं। परवार जैनी भी इसी समयके लगभग जैनधर्ममें दीक्षित किये गये थे। ऐसे ही अन्य बहुतसे लोगोंको जैनाचायोंने जैनधर्मकी शरणमें ला बैठाया था। श्री जिनसेनाचार्यने अपने 'आदिपुराण में स्पष्ट लिखा है कि प्रत्येक मुमुक्षुको जैनधर्मकी दीक्षा देना चाहिये और उसको आजीविकाके अनुसार उसका वर्ण स्थापित करके प्राचीन जैनोंको उसके साथ रोटी-बेटीव्यवहार करना चाहिये। रोटी-बेटीका व्यवहार इस कालमें उच्च वर्गों तक ही सीमित नहीं था; बल्कि शूद्रोंकी कन्यायें ग्रहण करली जाती थी। हाँ प्रतिलोभ विवाहका रिवाज बन्द सा हो गया था। स्वयंवर प्रथाका बाहुल्यतासे प्रचार था। खान-पानके लिये भोज्य शूद्रों तकके यहांका शुद्ध निरामिष भोजन ग्रहण करना अनुचित नहीं समझा जाता था। १-मादिपुराण पर्व ३९ श्लो० ६१-७१ । २-मादिपुराण पर्व ४२। ३-प्रायश्चित समुच्चय पृ० २१२। . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। [१८१ यही कारण है कि जैनाचार्य झट अजैनोंको शुद्ध करके अर्थात् जैनधर्ममें दीक्षित करके उनके यहां आहार नधर्मकी व्यवहारिक ग्रहण कर लेते थे। जैनधर्मकी व्यवहारिक उपयोगिता। उपयोगिता भी उस समय नष्ट नहीं हुई थी। __राजपूत क्षत्री भी उसे धारण करते हुये अपने जातीय कर्तव्य असि धर्ममें कुछ भी बाधा आती नहीं पाते थे। सच. मुच जैनधर्म राजनीतिमें बाधक है भी नहीं। आत्मरक्षा अथवा धर्म संरक्षणके लिये शास्त्रविद्याका सीखना उस समय वैश्योंके लिये भी आवश्यक था। इस प्रकार साधारणतः उस समयके जैनधर्मका स्वरूप था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ચશોલિ alchbllo बाबू R = // कामताप्रसादजीकृत Beena ग्रन्थ। wesomeo / भगवान महावीर भगवान पार्श्वनाथ / भगवान महावीर व म० बुद्ध 1 // ) रस जैन इतिहास प्र० भाग 2) " दू.भा.प्र.खड 1 // ) " दू.खंड 1-) = == चेलनी" =) र सत्य मार्ग ) नवरत्न =) पंचरत्न |=) विशाल जैनसंघ / ) दिगम्बरत्व व दिगम्बर मुनि 1) जैनधर्म सिद्धान्त जैन जातिका ह्रास पता-दिगंबर जैन पुस्तकालय, कापड़ियाभवन-मूरत / Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com