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________________ ७०] संक्षिप्त जैन इतिहास। सम्प्रदायमें चली आरही है। इनमेंसे आर्यमहागिरिने नई धाराको पुनः प्राचीन मार्गपर लेआनेके प्रयत्न किये थे । वह जिनकल्पी ( नग्न ) साधु थे और उन्होंने इस बातको स्वीकार किया था कि स्थूलभद्र द्वारा अनेक बातें धर्मके विरुद्ध प्रचलित होगई हैं । किंतु वह अपने सदप्रयासमें असफल रहे । भला वह नया संघ कैसे इन साधुमहात्माकी बात मानसक्ता था, जिसने श्रुतकेवली भद्रबाहुको संघ बाह्यसा करदिया था। उपरोक्त गणनामें सर्व अंतिम वज्रस्वामीका समय सन् ७१ ई० है । इनके समयमें रोहगुप्त नामक जैन साधुने एक मतभेद उपस्थित किया था। इनके शिष्य कनाढ़ द्वारा वैशेशिक दर्शनकी उत्पत्ति हुई थी। वज्रस्वामीके उत्तराधिकारी वज्रसेन हुये और इनके समयमें दिगम्बर और श्वेतांबर भेद बिल्कुल स्पष्ट होगया था। मौर्यकालकी क्षीणधारा इतनी वेगवती होगई थी कि वह पुरातन धाराके सम्मुख आडटी ! श्वेतांबर कहते हैं कि रथवीरपुरके राजाका एक नौकर मुनि होगया था। इसका नाम शिवभूति हुआ। राजाने इन्हें कीमती कम्बल भेंट किया, जिसे उनने स्वीकार कर लिया। किंतु उनके १-जैसा सं०, भा० १, वीर वंशावलि, पृ० ८-११ २-हॉजै० प्र० ७२ Mahagiri's rule is also noteworthy for his endeavours to bring the community back to their primitive faith and practice. He was a real ascetic and recognised that under Shulbhadra's sway many abuses had crept in to the order."-Heart of jainism. P. 72. ३-हॉजै० पृ० ७८ व जैसा सं० भा० १ वीर वंशा० पृ० १३ । ४-हाजै०, पृ० ७९। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035244
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 02 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1934
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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