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अन्य राजा और जैन संघ। [६९ ईसवी प्रथम शताब्दिसे किंचित् पूर्वसे जैन संघकी दशा
विचित्र हो रही थी। यह पहले ही लिवा दिगम्बर और श्वेतांबर जा चुका है कि सम्राट् चन्द्रगुप्तके समयमें संघ-भेद। जैनसंघमें मतभेद उपस्थित होगया था।
और नये दलकी श्रीणधारा बल संचय करती हुई प्रथक रूपसे चलरही थी । स्थूलभद्रके बाद इस नई धारामें आर्यमहागिरि, आर्यसुहस्तिसूरि, सुस्थितमूरि, इंद्रदिन्नसूरि (काल्काचार्य ), प्रियग्रंथसुरि, वृद्धवादिसूरि, दिन्नसूरि, सिंहगिरि. वज्रस्वामी आदि अनेक आचार्य हुये; जिनकी वंशपरम्परा आजतक श्वेतांबर कुल ४८८ वर्षे होती हैं। श्वेताम्बरोंके तपागच्छकी पट्टावलीमें भी लगभग यही गणना लिखी गई है। जैसे कि निम्न कोष्टकके रूपमें मम० जायसवालजीने प्रगट की है:श्वे० पट्टावली
हरिवंशपुराण पालक........वर्ष ६० पालक........वर्ष ६० नन्दवंश ........१५५
विजयवंश ........१५५ मौर्यवंश ........१०८ पुरुढ़वंश ........ ४० पुष्यमित्र ........ ३० पुष्यमित्र ........ ३० बलमित्र-भानुमत्र ६० वसुमित्र-अग्निमित्र ६० नहवान............ ४० रासभ (गर्दभिल्ल) १०० गर्दभिल्ल............१३ नरवाहन ........ ४२ शक................ ४
जोड़ ४८७ (विक्रमके राज्याभिषेक होनेतक १८ की वर्षे )
जोड़ ४८८
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