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उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म [१६१ किया था। उनका रचा हुआ ' मुनिसुव्रतकाव्य ' विशेष प्रसिद्ध है। श्वेतांबर ग्रन्थ 'चतुर्विशति प्रबन्ध में लिखा है (सं० १४०५) कि उज्जैनीमें विशालकीर्ति नामक दिगम्बर साधु थे। उन्होंने वादियोंको पराजित करके 'महाप्रमाणिक' पदवी पाई थी। यह संभवतः आशाधरजीके ही शिष्य थे । इन्होंने कर्णाटक देशमें जाकर विजयपुर नरेशके दरबारमें आदर पाया था और अनेक विद्वानोंको पराजित किया था। किंतु अंतमें वह मुनिपदसे भ्रष्ट होगये थे ।' उत्तर और मध्यमारतकी तरह बंगाल और ओड़ीसामें भी जैन
धर्मका अस्तित्व ईसवी १३ वीं शताब्दितक बंगाल और ओड़ी- रहा था। ‘भक्तामरकथा' से प्रगट है कि इस सामें जैनधर्म। समयमें चम्पापुरका राजा कर्ण जैनी था ।
भगवान् महावीरकी जन्म नगरी विशालाका राजा लोकपाल भी जैनधर्म भक्त था । विशालामें जब हूयेनत्सांग पहुंचा था, तब उसे बहुत जैनी मिले थे। यहांसे कई मुद्रायें ऐसी. मिली हैं जिनपर तीर्थकरोंकी पादुकायें हैं । तथापि सन् २०० के लगभगवाली मुहरपर 'भट्टारक महाराजाधिराज'का उल्लेख है। पटनाका राना धात्रीवाहन था, जिसकी कामलता नामक कन्या बड़ी विद्यासम्पन्न थी। ये शिवभूषण नामक जैनमुनिके उपदेशसे जैनी हुये थे। गौड़ देशका राजा प्रजापति प्रारम्भमें बौद्धधर्मी था; परन्तु जैनसाधु मतिसागरकी वादशक्तिपर मुग्ध होकर यह राजा और प्रना जैनी हुये थे। तामलुक नगरमें महेभ नामक जैन सेठ बड़ा प्रसिद्ध था। वह
१-जैहि०, भा० ११ पृ० ४८५। २-जैप्र० पृ० २४० । ३-बंबिमोजैस्मा० पृ० २३-२६ ।
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