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सम्राट् खारवेल।
खारवेलके इस शिलालेखसे कलिङ्गमें जैन धर्मका अस्तित्व
बहुत प्राचीन सिद्ध होता है। हम देख चुके कलिङ्गमें जैनधर्म । हैं कि जैन शास्त्रोंमें तो उसे जैनधर्मसे संब
न्धित भगवान ऋषभदेवके समयसे बताया गया है । फलतः कलिङ्गमें जिस प्राचीन कालसे जैनधर्मका सम्पर्क जैन शास्त्र प्रगट करते हैं, उसका समर्थन इस लेखसे होता है । पंक्ति १२ में स्पष्ट उल्लेख है कि नन्दराज कलिङ्ग विजयके समयमें रत्नों व अन्य बहुमूल्य पदार्थोके साथ जिन भगवानकी एक मूर्ति भी लेगये.थे । खारवेलने जब अङ्ग और मगधपर अपना अधि कार जमा लिया था, तब वह इस मूर्तिको वापिस कलिङ्ग लेआये थे। इस उल्लेखसे नन्दराजाका जैन धर्मानुयायी होना प्रमाणित है तथा यह भी सिद्ध है कि ओड़ीसासे जैनधर्मका सम्पर्क स्वयं भगवान महावीरजीके समयमें था । जैन मूर्तियां भी उस समय अर्थात् सत् ४५० ई० पू० के पहलेसे बनने लगी थी। इस आधारसे मि० जायसवाल कहते हैं कि जब ओड़ीसामें सन् ४५० ई० पू० के पहलेसे जैनधर्म आगया था और जैन मूर्तियां बनने लगी थीं; तब महावीर निर्वाण सन् ५४५ ई० पू० मानना ही ठीक है; जैसे वह प्रमाणित कर चुके हैं । (जीवओसो० भा० १ पृ० ९९-१०५) उक्त शीलालेखमें सन् १७० ई० पू० तक जो २ बातें
खारवेलके राज्यमें हुई थीं, उनका वर्णन खारवेलका अंतिम जीवन है। इसके उपरांत ऐसा कोई निश्चयात्मक और उनके उत्तराधिकारी। साधन प्राप्त नहीं है, जिससे खारवेलके
अंतिम जीवनका पता चलसके। इस समय
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