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________________ ८० ] संक्षिप्त जैन इतिहास | मथुराके पुरातत्वसे नर्तक लोगों, रंगरेजों और गणिकाओं द्वारा अर्हत् भगवानकी पूजाके लिये जिन मंदिर आदि बनने का पता चलता है । ' ર 3. ये सब बातें उस समय भी जैन धर्मके व्यापक रूपकी द्योतक हैं। साथ ही श्रावकोंमें परस्पर प्रेम व्यवहारका अभाव नहीं था । उनमें परस्पर सामाजिक व्यवहार होता था । एक वणिकका विवाहक्षत्रियाणी साधर्मीके साथ होनेका उदाहरण मिलता है । उपजातियोंमें परस्पर विवाहसम्बन्ध तो बारहवीं - तेरहवीं शताब्दि तक होते रहे थे जैसे कि आबूपर के वस्तुपालवाले शिलालेखसे प्रगट है। उपजातियोंका जन्म यद्यपि इस समय होगया था; किंतु प्रनको विशेष महत्व प्राप्त नहीं था । शिलालेखों और शास्त्रोंमें उनका उल्लेख ' वणिक ' या ' वैश्य ' नामसे मिलता है । उनमें परस्पर कुछ भी भेदभाव न था । जिस प्रकार आज एक ही उपजातिके विविध गोत्र ग्रामों अपेक्षा, जैसे काशलीवाल, रपरिया आदि स्वतंत्र रूपमें उल्लि खित होते हुए भी उपजाति से कुछ भी विरोध नहीं रखते; इसी तरह मालूम होता है, उस समय एक बड़ी वैश्य जातिके अन्तर्गत यह उपजातियां ग्रामादि अपेक्षा अपना प्रथक् नामकरण रखते हुए भी उससे विलग नहीं थीं । १ - 'वीर' वर्ष ४ पृ० ३०२ - Mathera jain image inscription of sam: 25 records the gift of Vasu, the wife of a dyer....... इऐं०, भा० ३३ पृ० ३७-३८ २ - वीर, वर्ष ४ पृ० ३०१ ३ - प्राजैलेसं० पृ० ८७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035244
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 02 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1934
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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