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संक्षिप्त जैन इतिहास |
१७० ] सन् ९३९ ई० में शासन करता था । उसका पुत्र धवल एक पराक्रमी राजा था । अपने बाबा और पिताके समान वह भी जैनः धर्मानुयायी था । मेवाड़पर जब मालवाके राजा मुञ्जने हमला किया. था, तब वह उससे लड़ा था । सांभारके चौहान राजा दुर्लभराज से नाडौलके चौहान राजा महेन्द्रकी रक्षा की थी । और अनहिलवाड़ाके सोलंकी राजा मूलराज द्वारा नष्ट होते हुये धरणीवाहको आश्रय दिया था । वृद्धावस्थाके कारण धवलने सन् ९९७ के लगभग राज्यभार अपने पुत्र बालप्रसादको सौंप दिया था । धवलके राज्यकालमें शांतिभट्टने श्री ऋषभदेवजीके बिम्बकी प्रतिष्ठा की थी और उसे विदग्धराज द्वारा बनवाये गये मंदिर में स्थापित की थी । धवल इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया । इसके बाद इस जैनधर्म प्रभावक वंशका कुछ हाल नहीं मिलता । हस्तिकुंडिया गच्छके मुनियोंको इनने आश्रय दिया था ।
राजपूतानामें मण्डोर के प्रतिहार वंशमें भी जैन धर्म आदर
पाचुका है । इस राजवंशकी उत्पत्तिके विषमंडोरके प्रतिहारों द्वारा यमें कहा जाता है कि हरिश्चन्द्र नामक एक जैनधर्मका उत्कर्ष । विद्वान् विप्र था और प्रारम्भमें वह किसी राजाका प्रतिहार था । उसकी क्षत्रियवंशकी रानी भद्रासे चार पुत्र - ( १ ) भोगभट, (२) कक्क, (३) रज्जिल और (४) दद्द हुए । उन्होंने मांडव्यपुर ( मण्डोर ) के दुर्गपर कब्जा करके एक ऊंचा कोट बनवाया था। इस वंशका सर्व अंतिम राजा कक्कुक बड़ा प्रसिद्ध था । उसके दो लेख घटियालेसे वि० सं०
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१- मप्र जैस्मा०, पृ० १६२ । २ - राइ० भा० १५० १४८ - १४९ ॥
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