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संक्षिप्त जैन इतिहास
राजा को भी इसने परास्त किया था । महोबा के चंदेलराजा मदनवर्मा ने इससे सन्धि करली थी । श्वेताम्बर जैनाचार्य हेमचन्द्र इसी समय 'सिद्धहेम व्याकरण और द्वाश्रय द्राव्य लिखा था । राजा सिद्धराजने एक बाद सभा भी कराई थी । करणटक देशसे कुमुदचंद्र नामक एक दिगम्बर जैनाचार्य अहमदाबाद आये थे । श्वेताम्बराचार्य देवसूरि तब वहां 'अरीष्टनेमिके जैनमंदिर में थे । किन्तु. इन्होंने वहां शास्त्रार्थ करवा मंजूर नहीं किया। दिगम्बराचार्य नग्मा - वस्था में ही पाटन पहुंचे । सिद्धराजने उनका बड़ा आदर किया । हेमचंद्राचार्य बाद करने को राजी न हुये । इस कारण देवसूरिसे वाद हुआ । सभामें कुमुदचंद्र ने कहा कि कोई स्त्री मुक्ति नहीं पा सकी । सिद्धराजने इससे महाराणीका अपमान हुआ' समझा । उचर सवस्त्र साधु दशासे मोक्षनिषेध करनेके कारण राजमंत्री भी रुष्ट हो गये । सभामें हुल्लड मचगया और कुमुदचंद्रको पराजित तथा उनके प्रतिपक्षी देवसूरिको विजयी ठहरा दिया गया । देवसूरिको अजितसूरि भी कहा गया है और यह 'स्याद्वाद - रत्नाकर' नामक ग्रंथके कर्ता थे । ४
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सिद्धराज के एक मंत्री आलिग नामक भी था । उसने वि० सं० १९९८ में एक जैन मंदिर निर्मापित कराया था और उसका नाम 'राजविहार' रक्खा था। उसके मित्र सज्जन जूनागढ़ के शासक जैन धर्मानुयायी थे । सिद्धराज ने 'आनन्दसूरि और उनके सह भ्राता
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१ - हि वि० भा० ७ पृ० ५९४ । २ - बंप्राजैम्मा०, पृ० २०७१ ३ - हिवि०, भा० ५ पृ० १०५ व बंप्राजेस्मा०, पृ० २०७ - २०८ । ४ - डिजेबा० भाग १ पृ० ३१ ।
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