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संक्षिप्त जैन इतिहास |
राजा और प्रजा दोनों ही संतुष्ट और सुखी थे । एक प्रत्यक्ष दर्शक ने लिखा है कि 'वस्तुपालके राजप्रबन्ध में नीच मनुष्योंने वृणित उपायों द्वारा धनोपार्जन करना छोड़ दिया। बदमाश उसके सम्मुख पीले पड़ जाते थे और भले मानस खूब फलते फूलते थे । सब ही अपने कार्यों को बड़ी नेकनीयती और ईमानदारी से करते थे । वस्तुपालने लुटेरों का अन्त कर दिया और दूधकी दुकानोंके लिये चबूतरे बनवा दिये । पुरानी इमारतोंका उनने जीर्णोद्धार कराया, पेड जमवाये, कुये खुदवाये, बगीचे लगवाये और नगरको फिरसे बनवाया । सब ही जातिपांतिके लोगोंके साथ उसने समानताका व्यवहार किया ।" यद्यपि वह स्वयं जैन धर्मानुयायी थे; किन्तु उन्होंने मुसलमानोंके लिये मसजिदें भी बनवाई थीं ।
एक दफे दिल्लीके सुलतानकी मुल्ला मक्काका जयारतको जाते हुये धोलकासे निकला । वीरधवलकी इच्छा थी कि उसे गिरफ्तार कर लिया जाय, किन्तु वस्तुपाल राजासे सहमत नहीं हुए । उन्होंने मुल्लाकी अच्छी आवभगत की। फल इसका यह हुआ कि दिल्लीके सुलतान और राजा वीरधवलके बीच मैत्रीभाव बढ़ गया और दोनों में संधि होगई । वस्तुपालका आदर भी सुलतानकी दृष्टिमें बढ़ गया । वस्तुपाल और तेजपाल केवल चतुर राजनीतिज्ञ ही नहीं थे, वे वीर सेनापति और सच्चे धर्मात्मा भी थे । इन्होंने अपने राजाके लिये कई लड़ाइयां लड़ी थीं। कैम्बेके सैदको उनने परास्त किया था । दिल्ली के मुहम्मद गोरी सुलतान मुइज्जुद्दीन बहरामशाहपर इन्होंने विजय पाई थी और गोधाके सरदार घुघुलको उनने हत्साहस किया
१ - बम्बई गजेटियर, २-१-१९९ ।
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