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संक्षिप्त जैन इतिहास |
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रनंदि, लोकचंद्र प्रथम, प्रभाचंद्र प्रथम, नेमिचंद्र प्रथम, भानुनंदि,. जयनन्दि ( सिंहनदि ), वसुनन्दि, वीरनन्दि, रत्ननन्दि, इस समयके लगभग हुये थे।' इन आचार्यों का केन्दस्थान उज्जैन के निकट भद्दलपुर थी । किंतु एक ' गुर्वावलि ' में श्री लोहाचार्य दूसरेके उपरांत पूर्वका पट्ट और उत्तरका पट्ट इस तरह दो पट्ट स्थापित हुये बताये गये हैं । और दक्षिण भारत में मान्यता है कि इस समय चार पट्ट स्थापित हुये थे; जिनमें दो दक्षिण भारत में थे, एक कोल्हापुरमें था और एक दिल्लीमें । इन पट्टावलियोंमें परस्पर और इतिहास विरुद्ध इतना कथन है कि इनकी सब ही बातोंको ज्योंका त्यों स्वीकार करलेना कठिन है । "
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जो हो, यह स्पष्ट है कि गुप्त साम्राज्य कालमें जैनधर्मकी: उन्नति विशेष थी । चन्द्रगुप्त विक्रमादित्यकी राजधानी उज्जैन जैन. धर्मका केन्द्र अब भी थी । रत्ननंदिके पांचवें पट्टधर महाकीर्ति भद्दलपु-रसे उज्जैन आगये थे। यह सब आचार्य निर्ग्रथ मुनिवत् रहते थे । गुप्त कालके विद्वानों जैसे अमर सिंह, वराहमिहिर, आदिने भी अपने ग्रंथों में जैनों का उल्लेख किया है । इससे भी उस समय जैनधर्मका उन्नत रूपमें होना प्रगट है । प्राचीन काल से मथुरा, उज्जैन, गिरिनगर, कांचीपुर, पटना आदि नगर जैनोंके केन्द्रस्थान रहे हैं । गुप्तकालमें भी उनको वही महत्व प्राप्त था ।
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१ - जैहि० भा० ६ अंक ७-८ पृ० २९ व इंऐ० भा० २० पृ० ३५१ । २ - इंऐ० भा० २० पृ० ३५२ । ३ - जैहि० भा० ६. अंक ७–८ पृ० २३ । ४- जैग० भा० २२ पृ० ३७ | ५ - रश्रा०, जीवनी, पृ०११४ - १९६ । ६ - इऐ० भा० २० पृ० ३५२ ।
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