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सम्राट् खारवेल।
[३७ कलिङ्गमें वापस आकर खारवेलने फिर जन साधारणके हितकी
सुव ली। उन्होंने तनसुतिय स्थानसे एक तनसुतिय नहर व नहर निकलवाकर अपनी राजधानीको सरजनपद संस्था। सज वना लिया । प्रजाको भी इस नह
रसे सिंचाईका बड़ा सुभीता हुआ। यह नहर उस समयसे तीनसौ वर्ष पहले नन्दराजाके समयमें बनवाई गई थी। उसीका पुनरुद्धार करके खारवेल उसे अपनी राजधानी तक बढ़ा लाये थे। अपने राज्यके छठे वर्षमें उन्होंने दुःखी प्राणियोंकी अनेक प्रकारसे सहायता की थी और पौर एवं जानपद संस्थाओंको अगणित अधिकार देकर प्रसन्न किया था । यह निश्चित रूपसे नहीं कहा जासक्ता कि खारवेलका विवाह
कब हुआ था, किन्तु यह स्पष्ट है कि उनके खारवेलकी रानियां दो विवाह हुये थे। उनकी दोनों रानियोंके व पुत्र लाभ। नाम शिलालेखमें मिलते हैं। एक बजिरघर
वाली कही जाती थी और दूसरी सिंहपथकी सिंधुड़ा नामक थीं। बजिरघर अब मध्यप्रदेशका वैरागढ़ है। खारवेलके समयमें वहांके क्षत्री प्रसिद्ध थे । उन्हींकी राजकुमारीके साथ खरवेलका विवाह हुआ था। एक उड़िया काव्यमें इस घटनाका उल्लेख अनोखी कल्पनामें किया गया है, जिसमें राजकुमारीकी वीरताको खूब दर्शाया गया है। इन्हीं बजिरघरबाली रानीसे खारवेलको अपने राज्यके सातवें वर्षमें संभवतः एक पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई थी। उडिया काव्यसे प्रगट है कि खारवेलने दक्षिण भारतको भी
विजय किया था। खारवेलके शिलालेखमें
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