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संक्षिप्त जैन इतिहास |
काफी था । इससे वहां अहिंसा धर्मकी प्रधानता और ऐसे साधुसंघ बतलाकर कि जिनके अनुयायी भिक्षापात्र नहीं रखते थे, वह हमें जैनधर्म के बहु प्रचार के दर्शन कराते हैं; क्योंकि जैनमतमें ही बौद्धों के अतिरिक्त 'संघ' बनानेकी पृथा है और जैन साधु भिक्षापात्र नहीं - रखते । संकाश्य, श्रावस्ती, राजगृह आदि स्थानोंमें वह स्पष्टतः जैनधर्मका प्रभाव प्रगट करता हैं। फाह्यान लिखता है कि संकाश्यके सम्बन्धमें बौद्धों और जैनोंमें विवाद हुआ । भिक्षु (बौद्ध) निग्रहस्थानपर आरहे थे ।
इससे प्रगट है कि उस समय जैनोंका वहांपर प्राबल्य अधिक था । संकाश्य सम्भवतः जैनोंका प्राचीन तीर्थ था और बहुत करके वह भगवान विमलनाथजीका तपोस्थान था । उसका अपर नाम 'अघहत' (अघहतिया) इसी बात का द्योतक है । यहां पर आज भी अनेक जैन मूर्तियां मिलती हैं । श्रावस्ती में भी बौद्धों और जैन में परस्पर विवाद होने का उल्लेख वह करता है । ब्राह्मणोंसे भी झगड़ा होता था । सारांशतः उस समय संप्रदायोंमें एक दूसरेको नीचा दिखानेकी स्पर्द्धा चल रही थी । उस कालमें हिंदूधर्मका पुनरुत्थान हुआ था । नवीन हिंदू धर्म इसी समय संगठित हुआ और अधिकांश हिंदू पुराणोंकी रचना भी इसी समय हुई थी !
कहते हैं कि चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य वैष्णव संप्रदाय युक्त थे । किंतु फाह्यानके उक्त वर्णन से यहां के राजाका चंद्रगुप्त और जैनधर्म | परम अहिंसा धर्मानुयायी होना प्रगट है । और यह स्पष्ट है कि उस समय यहां चंद्रगुप्त
१ - फाह्यान, पृ० ३५-३६; व पृ० ४०-४५
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