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७४] संक्षिप्त जैन इतिहास । विद्यमान था । उपरान्त इस गणके अनेक भेद देश अथवा आचार्यपरम्परको लक्ष्य करके होगये हैं। उदाहरणतः ‘देशीगण'को ले लीजिये । 'बाहुबलिचरित्र' में इस गणके आचार्योकी प्रसिद्धि देश देशान्तरों (देशदेशनिकरे ) में होनेके कारण इसका नाम देशीगण पड़ा बतलाया है; किंतु मि० गोविन्दपै इस व्याख्याको स्वीकार नहीं करते हैं। वह कहते हैं कि दक्षिण भारतके पश्चिमीयघाट, बालाघाट, कर्णाटक और गोदावरी नदीका मध्यवर्ती प्रदेश 'देश' नामसे प्रसिद्ध है और वहांके ब्राह्मण आज भी 'देशस्थ ब्राह्मण कहलाते हैं। अतः नंदिसंघके आचार्योंका केंद्र इस देश नामक प्रदेशमें रहनेके कारण 'देशीयगण' के नामसे विख्यात हुआ उचित जंचता है । 'पुन्नाट गण' पुन्नाट देशकी अपेक्षा प्रसिद्ध हुआ मिलता ही है। इस प्रकार प्राचीन आचार्य परम्परा आजतक दि० जैनोंमें भी चली आरही है। जब सन् ८०-८१ ई० में जैन संघ दिगंबर और श्वेतांबर इन दो संप्रदायोंमें विभक्त होगया; तब दि० सम्प्रदाय 'मूलसंघ' (Real Saugia) के नामसे प्रसिद्ध हुआ; क्योंकि उसकी मान्यतायें प्राचीन जैनधर्मके अनुसार थीं। किंतु इस नामकरणकी तिथि बतलाना कठिन है।
अब दिगम्बर जैन दृष्टिसे भी संघ भेदपर एक नजर डालिये।
१-बौद्धोंके 'दीर्घनिकाय' (१४८-४९) में भगवान महावीरको गणाचार्य लिखा है। गणधरोंके अस्तित्वसे गणका होना स्वत: सिद्ध है।
२-द्रव्य संग्रह (S. B.J., Vol. I.) भूमिका पृ० ३० ।
३-'महाराष्ट्रीय ज्ञानकोष', भा० १५-'देश' लेख देखो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com