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संक्षिप्त जैन इतिहास |
गये थे । दिगम्बर और श्वेतांबर, दोनों संप्रदायोंके ग्रंथोंसे प्रकट है कि इस कालके लगभग तीर्थों के संबन्ध में दोनों संप्रदायोंमें झगड़ा हुआ था । कुंदकुंदाचार्यने उज्जयंत ( गिरिनार ) पर सरस्वतीकी पाषाण मूर्तिको वाचाल करके नग्न रहनेवाले निर्ग्रथ साधुओंके पक्षको सबल बनाया था ।
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श्वेतांबरों के पूर्वज ( Fore runners ) प्राचीन मूर्तियोंकी आकृतियोंको नहीं बदल पाये थे अर्थात् इस समयतक जैन मूर्तियां बिलकुल वस्त्र चिह्न रहित नग्न बनाई जाती थीं; जैसे कि मथुरा और खण्डगिरिकी गुफाओंवाली प्राचीन मूर्तियोंसे प्रमाणित है । प्राचीन मूर्तियोंको भले ही श्वेतांबर बदलने में असमर्थ रहे हों; किंतु उन्होंने नवीन मूर्तियोंको वस्त्र चिह्नाङ्कित बनाना प्रारम्भ कर दिया था, इसमें संशय नहीं । जैन संघ में हुई इस क्रांतिका कटु परिणाम यह निकला कि वि० सं० १३६ (सन् ८० ई०) में दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदायोंकी जड़ खूब पुख्ता जम गई और उनमें आपसी विरोध पड़ गया । • भद्रबाहु द्वितीय संभवतः इस समय दि० सम्प्रदाय के अध्यक्ष थे । " उपरोक्त वर्णनने स्पष्ट है कि भगवान् महावीरजीके निर्वाण कालसे लेकर ईसवी सन् के प्रारंभिक काल तत्कालीन जैनधर्म | तक के समय में जैनधर्म में बड़ा अंतर पड़ गया था । द्वादशांगवाणी बिलकुल लुप्त होगई थी । उसके स्थानपर नये २ ग्रन्थ आचार्यों द्वारा रचे जाने लगे थे। उधर
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१ - विशेष के लिये देखो 'वीर' वर्ष ४ पृ० ३०४-३०९ । २ - ' प्रत्रचन परीक्षा' प्रकरण १ - जैहि० भा० १३ पृ० २८९ । ३ - ईऐ०, भा० २० पृ० ३४२ । ४ - जैहि० भा० ५- ईऐ०, भा० २० पृ० ३४२-३४३ ।
१३ पृ० २९० ।
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