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सम्राट् खारवेल ।
[ ५५ मिलता है । उससे प्रगट है कि खारवेलके पहले कलिङ्गमें बौद्ध राजा थे । खारवेलने ब्राह्मणोंको साथ लेकर उन्हें मार भगाया और आप स्वयं वहांके राजा बन गये । महान् सेना लेकर उन्होंने दिग्विजयकी और वह सार्वभौम सम्राट् होगये । वह भीम कालवेर वीर चक्रवर्ती कहलाते थे ।
अन्तमें उन्होंने अपने धर्मगुरुके कहने से राज्यका त्याग कर दिया - विष्णु - कर ( खर) को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करके वह वनमें जाकर तपस्या करने लगे । शिलालेखमें उनके राज्यके १३ वें वर्षके उपरांत कोई वर्णन नहीं है। इसका कारण यही है कि थोड़े समय पश्चात् ही वह मुनि होगये थे । उक्त ग्रन्थोंसे भी उनका जैनी होना सिद्ध है । वह श्राबकके व्रतोंका अभ्यास पहले ही करने लगे थे । अन्तमें उनका मुनि होजाना स्वाभाविक था ।
ईस्वी प्रथम शताब्दिमें कलिंग आंध्रवंशके राजाओंके अधिकारमें आगया । उसपर भी जैनधर्मका अस्तित्व वहां ११-१२ वीं शताब्दितक खूब रहा था; किन्तु उपरान्त मुसलमानोंके आक्रमणों एवं जैनेतर संप्रदायोंके प्राबल्यसे वहां जैन धर्मका प्रायः अभाव हो गया । इतने पर भी आज वहां हजारोंकी संख्या में 'सराक' (श्रावक ) लोग मौजूद हैं, जो प्राचीन जैनी हैं, परन्तु अपनेको भूले हुये हैं । उनको पुनः जैन धर्ममें लानेका उद्योग होरहा है। सातवीं शताब्दिमें जब चीनी यात्री हुएनसांग यहां आया था; तब भी उसे क़लिंगमें जैन धर्म उन्नतावस्था में मिला था।
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१ - जविओोसो० भा० १६ पृ० १९९-२०३ । २- बं० वि० स्मा० पृ० ८७-८८ ।
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