________________
संक्षिप्त जैन इतिहास । प्रमाणित है ।' विक्रमादित्य अपने आरम्भिक जीवनमें ब्राह्मणधर्मके अनुयायी थे, किंतु शेष जीवन उन्होंने एक जैन गृहस्थ श्रावकके समान व्यतीत किया था । जैन ग्रन्थोंमें उनका वर्णन खूब मिलता है । 'वैताल पंचविंशतिका' सिंहासन द्वात्रिंशतिका' 'विक्रम प्रबन्ध' आदि ग्रन्थोंमें उनके चारित्रको प्रगट करनेवाली कथायें मिलती हैं। सचमुच वह एक आदर्श जैन गृहस्थ, महान शासक और विद्यारसिक राजा थे। उनके समयमें विद्या और कलाकी विशेष उन्नति हुई थी। कहा जाता है कि विक्रमादित्यने अपनी शक विजयकी स्मृ
तिमें ई० पू० ५८ से एक संवत् भी चलाया विक्रम सम्वत । था और उस विक्रम संवत्का प्रचार जैनोंमें
और उनके द्वारा विशेष हुआ था। किन्तु इतिहाससे पता चलता है कि यह जनश्रुति तथ्यपूर्ण नहीं है; क्योंकि गौतमीपुत्र शातकर्णि, जो विक्रमादित्य प्रमाणित होता है, ने अपने शिलालेखोंमें मंवत् न लिखकर अशोक आदि प्राचीन राजाओंके समान अपने राज्यके वर्ष लिम्व हैं तथा मालवा और राजपूतानासे ऐसे सिक्के ई० पू० प्रथम शताब्दिके मिले हैं, जिनसे मालवगण द्वारा उक्त संवतका प्रचलित होना प्रमाणित है। उन सिक्कोंमें 'मालवगणकी किसी महान् विजय' का उल्लेख है ('मालवानां जय'--'मालवगणस्य जय') यह मालवगण राज्य तब पूर्वीय राजपूतानामें स्थित था। मालूम होता है जिस समय गौतमीपुत्र शातकर्णिने मालवा
१-जविभोसो० भा० १६ पृ० २५३-२५४ ।
२.-जैन पट्टावली और विक्रम प्रबंध देखो । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com