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अन्य राजा और जैन संघ ।
[ ६७ और मौराष्ट्रकी और शकोंपर चढ़ाई की थी, उस समय उक्त गणने उसमें गहरा भाग लिया था और विक्रमादित्यकी महान विजयको अपनी विजय समझकर उसकी स्मृतिमें उक्त सिक्के डाले थे। उन्होंने इस महान विजयके उपलक्ष में संवत भी चलाया, जिसका प्रचार - राजपूताना और मालवा के लोगों में होगया । वही कालान्तर में विक्रम संवत के नामसे प्रसिद्ध होगया ।
विक्रम संवत् व
विक्रम संवत्की उत्पत्ति उक्त प्रकार हुई स्वीकार करनेसे, जिसका स्वीकार करना उचित प्रतीत होता है, जैनोंमें प्रचलित विक्रम संवत् विषयक वीर संवत् । मान्यता अपना बहुत कुछ महत्व खो बैठती है, क्योंकि यह स्पष्ट होजाता है कि विक्रन संवत् न तो विक्रमादित्यके राज्यारोहण कालसे हुआ और न वह उसकी मृत्युका स्मारक है । हां, जैनोंकी तद्विषयक मान्यतामें ऐतिहासिक तथ्यांश अवश्य है; क्योंकि वह इस बातकी द्योतक है कि विक्रमादित्यपर राज्यभार जन्मते ही आगया था और अपने राज्यके १८वें वर्ष ई० पूर्व ५८ में उन्होंने शक विजय की थी. जैसे कि लिखा जाचुका है। उधर विक्रम विषयक जो जैन उल्लेख उपलब्ध हैं उन सबमें यही कहा गया है कि वीरनिर्वाण ४७० बाद विक्रमराजा हुआ और किन्हीं गाथाओं में स्पष्टतः उनका जन्म लिखा है । और यह निश्चित है कि विक्रम संवत् ई० पू० ५८ से विक्रमादित्य (गौतमीपुत्र शातकर्णि ) की शकविजय विषयक घटना के स्मारकरूपमें चला है । अतएव विक्रम संवत्से ४७० वर्ष पूर्व वीर
१ - ज वेभोसो, भा० १६ पृष्ठ २५१-२५४.
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