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सम्राट् खारवेल ।
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महावीरजीके समवशरणसे पवित्र होचुका था; क्योंकि भगवानके समो. शरणका कलिङ्गमें आनेका उल्लेख जैनशास्त्रोंमें मिलता है तथा खारवेलके शिलालेखमें स्पष्ट कहा है कि (पंक्ति १४) इस पर्वतपरसे जैन धर्मका प्रचार हुआ था। इस ही पर्वतपर खारवेल और उनकी रानीने अनेक मंदिर व विहार बनवाये थे। उनमें चारों ओरसे जैन श्रमण और विद्वान् एकत्रित होकर धर्माराधन करते थे। वहांपर खारवेलने सुन्दर संगमरमरके पाषाण-स्तंभ बनवाये थे; जिनमें घंटा लगे हुये थे।
ऐसे स्तंभ मध्यकालके बने हुये नेपालमें आज भी देखनेको मिलते हैं। इस प्रकार सम्राट खारवेलके सुकार्योंसे उस समय खूब ही धर्मप्रभावना हुई थी। जैनधर्मका प्रचार ऋषियोंद्वारा दिगन्तव्यापी हुआ था। मालूम होता है कि खारवेलने कोई धार्मिक महोत्सव कराया था; क्योंकि शिलालेखमें कहा गया है (पंक्ति १६) कि सम्राट् खारवेलने 'कल्याणकों' को देखने, सुनने और उनका अनुभव प्राप्त करनेमें जीवन यापन किया था। ('धमराजा पसंतो सुणतो अनुभवतो कलाणानि') यह महोत्सव आजकलके बिम्बप्रतिष्ठाओंके समय होनेवाले पंच-कल्याणकों के समान ही होते थे, यह कहा नहीं जासत्ता। खारवेल द्वारा निर्मित गुफाओंका मूल्य अत्यधिक है। उनमें भगवान पार्श्वनाथजीकी जीवनलीला सम्बंधी चित्र दर्शनीय हैं। शिलालेखमें 'अर्कासन' नामक गुफाके बनवानेका उल्लेख है। ये सब गुफायें सुंदर और दर्शनीय हैं। यूं तो खारवेलके सुकृत्योंसे जैन धर्मकी विशेष उन्नति हुई ही
थी; किन्तु उनके सदप्रयत्नसे जो द्वादशाङ्ग
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