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संक्षिप्त जैन इतिहास। ममा और धर्मात्मा होना स्वाभाविक है। वे प्रेमाल थी, उदार थीं और शीलसम्पन्ना थीं।
उन्होंने भी भव्य जिनमंदिरोंको बनवाया था ! खारवेलको उन रानियोंसे कितनी संतान पानेका सौभाग्य प्राप्त हुआ, यह कहा नहीं जासकता । किंतु वह उनके समान सुयोग्य सह धर्मिणियोंको पाकर एक आदर्श श्रावक बने थे, इसमें संशय नहीं । बजिरघरवाली रानीके कोखसे जो पुत्र हुआ था, वही संभवतः खारवेलके बाद कलिङ्गका राजा हुआ था। खारवेलका धार्मिक जीवन अनूठा था। जब वह अपनी दिग्वि
जय पूर्ण कर चुके और सारे भारतवर्ष में उनकी खारवेलके जैनधर्म धाक जम गई, तब उन्होंने विशेष रीतिसे प्रभावनाके कार्य। धर्मानुष्ठानके कार्य किये थे। यह उनके
राज्यके तेरहवें वर्ष अर्थात् सन् १७० ई० पू०की बात है। सम्राट् खारवेल कुमारी पर्वत (उदयगिरि) के अर्हत् मंदिरमें जाकर विशेष भक्ति और व्रत उपवास करने में दत्तचित्त हुये थे। इस प्रकार व्रत और उपवासमें लीन होनेका फल यह हुआ था कि वह अपने भवभ्रमणको नष्ट करनेके निकट पहुंच गये थे, क्षीणसंसत हुये थे। श्रावकोंके व्रतोंका पालन उन्होंने सफलतापूर्वक कर लिया था (रत-उवास-खारवेल-सिरिना)। फलतः उन्हें जीव और देहकी भिन्नताका प्रत्यक्ष अनुभव होगया था। भेद. विज्ञानको उन्होंने पालिया था और यह संसारका नाश करनेके लिये पर्याप्त है। अतएव सम्राट् खारवेलको जो धर्मराज और भिक्षुराज
कहा गया है, वह बिलकुल ठीक है । कुमारी पर्वत संभवतः भगवान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com