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सम्राट् स्वारवेल। [४५ थे ही -धर्मके लिये उन्होंने अनेक कार्य किय-दान पुण्य किये. भव्य मंदिर बनवाये और धर्मके लिये लड़ाइयां भी लड़ी। मगधी लड़ाई लड़कर वह ऋषभदेवकी दिव्य मूर्ति कलिङ्ग लाये । उनकी रानीने उनको कलिङ्ग चक्रवर्ती कहा है। खारवेलके पन्द्रह वर्ष कुमार क्रीड़ामें व्यतीत हुये थे। उन्हें
सोलहवें वर्षमें युवराज पद मिला था. यह खारवेलका गार्हस्थ्य लिखा जाचुका है। कुमार कालमें उन्होंने जीवन। विद्या और कलामें दक्षता प्राप्त की थी।
शिलालेखमें लिखा है (पंक्ति २ कि खारवेलने राजनैतिक दण्डविधान (EN) और धर्मतत्वका सुचारु ज्ञान प्राप्त किया था । वह सब ही विद्याओंमें पारंगत थे। खारवेल देखने में प्रभावान और सुन्दर थे। उनके शरीरका रंग बिलकुल गोरा नहीं था। वह प्रशस्त और शुभ लक्षणोंमे युक्त था, जिनका प्रकाश चारों दिशाओंमें फैल रहा था ( चतुरंत लुंठति) । बाल्यावस्थामें वह राजकुमार वर्द्धमान सदृश बताये गये हैं। और सम्राट वेणकी तरह उन्हें एक विजयी सम्राट् लिखा गया है। वस्तुतः खारवेलका गार्हस्थ्य जीवन भी राष्ट्रीय जीवनके समान उन्नत और सुखमय था। वे अपनी दोनों रानियोंके साथ धर्म, अर्थ, और काम पुरुषार्थीका समुचित उपभोग कर रहे थे। बजिरधरवाली रानी उनकी अग्रमहषि ( पटरानी । थीं। दूसरी रानी सिंधुडा संभवतः राजा लालकसकी पुत्री थीं. जो हथीसहसके पौत्र थे । इन रानीके नामपर हाथीगुफाके पास एक 'गिरिगुहा' नामक प्रासाद बनाया गया था। इसे अब रानी नोर कहते हैं । इन रानियोंका खारवेलके समान उन्नत
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