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संक्षिप्त जैन इतिहास। वसी शायद ही कभी हुई है। अहिंसा तत्व मूलमें मनुष्यको शूरवीर बनानेवाला है। किन्तु आजके जैनी उसे कायरताका जनक मान रहे हैं। नौबत यहांतक पहुंची है कि अहिंसाके झूठ भयके कारण जैनी अपनी, अपने बालबच्चों और धन सम्पतिकी रक्षा करने योग्य भी नहीं रहे हैं । किन्तु जैन इतिहासको देखिये; वह कुछ और ही बात बतलाता है । अहिंसा अणुव्रतको पालनेवाले अनेक जैन वीर ऐसे हुये हैं, जिन्होंने देश और धर्मके लिये अगणित युद्ध रचे थे। मौर्य सम्राट चंद्रगुप्तने अपने भुजविक्रमसे अपना साम्राज्य स्थापित किया था। उन्होंने ही यूनानी बादशाह सिल्यूकमको मार भगाकर भारतकी खाधीनताको अक्षुण्ण रक्खा था ।
सम्राट् सम्प्रतिने देश-विदेशमें धर्म-साम्राज्य स्थापित करनेका उद्योग किया था। उसके उत्तराधिकारी शालिसूकने सौराष्ट्रको अपने असिबलसे विजय करके वहां जैनधर्मका प्रचार किया था । इसे उन्होंने अपनी महान् 'धर्मविजय' कहा है ! इसी तरह कलिङ्ग
१-हिन्दू ग्रन्थ 'गर्गसंहिता' के 'युगपुराण' में यह उल्लेख इस प्रकार है:-"तस्मिन् पुष्पपुरे रम्ये जनारामशताकुले । ऋतुकर्मक्षयाक्तः शालिशूको भविष्यति । स राजाकर्मनिरतो दुष्टात्मा प्रियविग्रहः । सौराष्ट्रमर्दयन् घोरं धर्मवादी ह्यधार्मिकः ॥ स्वं ज्येष्ठं भ्रातरं साधु संप्रति प्रथयन् गणैः । ख्यापयिष्यति मोहात्मा विजयं नाम धार्मिकम् ॥" दीवानबहादुर प्रो० के० ध्रुव इसका अर्थ इस प्रकार करते हैं:
“In the beautiful city of Puspapura studded with bundreds of Public parks, there will arise Salisaka intent on the abolition of sacrificial ritual. That wicked king, addicted to wil deeds, taking pleasure in (religious ) squabbles, talking
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