________________
इन्डो वैक्ट्रियन और इन्डो पार्थियन राज्य। [१७ गजकालमें जैन धर्मकी उन्नति विशेष हुई थी । मथुरा उस
समय जैनधर्मका मुख्य केन्द्र था । वहां कुझन साम्राज्यमें जैन पर भगवान पार्श्वनाथजी ( ई० पू० ९. वी. धर्मका उत्कर्ष। शताब्दि ) के समयका एक जैन स्तुप
विद्यमान था । और भी कई स्तूप और जैन मंदिर थे। मथुराके भग्नावशेषोंपर ई० पू० सन् १५० से सन् १०२३ ई. तकके शिलालेख मिले हैं; किन्तु यह भी विदित है कि ई० पू० सन् १५० से भी पहलेका एक जैन मंदिर मथुसमें था; जिसकी वस्तुओंको नये मंदिरोंके काममें लाया गया था। ऐसा मालूम होता है कि जैनियोंका उत्कर्ष वहांपर ईसवी सोलहवीं शताब्दितक रहा था । उपरांत मुसलमानों द्वारा जैनोंका यह नीर्थ
और उसके दर्शनीय प्राचीन स्थान नष्ट कराडाले गये । यहांकी कारीगरी बड़ी मनमोहक और सुन्दर है ।।
इन धर्मायतनोंको राजा और रंक सबने बनवाकर पुन्य संचय किया था । जहां एक ओर कौशिक क्षत्रियों द्वारा निर्मित आयागपटका उल्लेख मिलता है वहां दूसरी ओर नृतक एवं गणिकाओं द्वारा बनवाये गये आयागपट और जैन मंदिर मिलते हैं। इनमें प्रोष्ठल
और साक्य क्षत्रियोंके लिये कालरूप गोतिपुत्रका नाम उल्लेखनीय है। इनकी पुत्री कौशिक वंशकी शिवमित्रा नामक थीं: जिन्होंने जैन मंदिरमें एक आयागपट निर्मित कराया था। इसी प्रकार हारिती पुत्र पालकी स्त्री कौत्सी अमोहनीने अर्हत् पूजाके लिये आर्यवती - १-अहिइ० पृ० ३१८ व कहिइ० पृ० १६७. २-जैस्तूप० पृ० १३. ३-वीर वर्ष ४ पृ० २९७. ४-एई० भा० १ पृ० ३९४-३९६
२
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com