________________ 68 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 13 १०४पण-छ-च्चउ-चउ-अट्ठ य, कमेण पत्तेयमग्गमहिसीओ / असुर-नागाइवंतर-जोइसकप्पदुगिंदाणं // 13 / / विशेषार्थ-जिस तरह मनुष्यलोकमें जिन राजाओंके अनेक रानियाँ होती हैं, उनमें अमुक रानियाँ मुख्य होती हैं, और उसी प्रधानताके कारण ही उन्हें 'पटरानी' कहीं जाती हैं, उसी तरह देवलोकमें भी मुख्य पटरानीको ‘अग्रमहिषी' [मुख्य देवी ] शब्दसे संबोधित किया जाता हैं। __ उनमें भवनपतिनिकायोंमें पहले असुरकुमार निकायके दक्षिणेन्द्र-चमरेन्द्रके तथा उत्तरेन्द्र-बलीन्द्रके प्रत्येकके पांच-पांच अग्रमहिषियाँ होती हैं। शेष नागकुमारादि नवों निकायोंके धरणेन्द्र तथा भूतानंदेन्द्र प्रमुख अठारह इन्द्र हैं, उन हरएक इन्द्रके छः छ: अग्रमहिषियाँ होती हैं। आठ प्रकारके व्यन्तर, आठ प्रकारके वाण व्यन्तर-इस तरह व्यन्तरके सोलह निकायों के उत्तरेन्द्र तथा दक्षिणेन्द्र कुल मिलाकर बत्तीस इन्द्र हैं, उन प्रत्येकके चार अग्रमहिषियाँ होती हैं। तीसरे ज्योतिषी देवलोकके चन्द्र और सूर्य इन दो इन्द्रके भी चार चार अप्रमहिपियाँ होती हैं / और चौथे वैमानिक देवलोकमें सौधर्म देवलोकके सौधर्मेन्द्रकी और दूसरे ईशान देवलोकके ईशानेन्द्रकी आठ-आठ अग्रमहि षियाँ होती हैं। ऊपरके सनत्कुमारादि देवलोकों में देवियोंकी उत्पत्ति होती ही नहीं है, अतः वहाँ परिगृहीता देवी नहीं है परन्तु उस-उस देवलोकके इन्द्रोंको अथवा देवोंको जब विषयसुखकी इच्छा अद्भूत होती है तब उनके उपभोगके लिए सौधर्म और ईशान देवलोक की ही अपरिगृहीता देवियाँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपमें उपयोगी होती हैं। पहलेके दो देवलोकोंसे ऊपरके देवलोकमें देवियोंकी उत्पत्तिका अभाव होनेसे अग्रमहिषियोंका होना संभव नहीं है / [ 13 ] अवतरण वैमानिक देवों और देवियोंकी प्रति देवलोकमें यथासम्भव आयुष्यस्थिति कही / अब प्रतिदेवलोकके प्रत्येक प्रतरमें जघन्योत्कृष्ट आयुष्यस्थिति बतानेके लिए प्रथम किस देवलोकमें कितने प्रतर होते हैं ? उसका वर्णन करते हैंकारण जाना-आना होता है, कितने आयुष्यवाली किस-किस देवलोकमें जाकर देवोंके साथ किस तरह, विषयादि सुखका व्यवहार करती हैं ? यह आगे 168 वी गाथाके प्रसंग पर कहा जाएगा / 104. आयुष्यस्थिति द्वारके प्रकरणमें यह गाथा थोड़ी अप्रस्तुत लगती है, किन्तु मूल ग्रन्थोंमें इसी तरह प्रस्तुत हुई है इसलिए हमें भी स्वीकार करनी चाहिए /