Book Title: Ratisarakumar Charitra Author(s): Kashinath Jain Publisher: Kashinath Jain View full book textPage 9
________________ रतिसार कुमार उन्हें अपना अधिपति मानते थे। बड़े-बड़े पराक्रमी शत्रुओंको उन्होंने अपनी वीर भुजाओंके प्रतापले पराजित कर डाला था। राजाके योग्य सभी उत्तम गुणोंसे युक्त होते हुए, वे बड़े भारी दानीभी थे। जो याचक द्वारपर आया, वही मुँह माँगा दान पाकर निहाल हुआ। कोई उनके द्वारसे निराश होकर नहीं लौटता था। वे इस नीति-वचनको सदा याद रखते थे, कि जिसके द्वारसे अतिथि निराश होकर लौट जाता है, उसे वह अतिथि अपना पाप देकर उसका (गृहस्वामीका ) सारा पुण्य लेकर चलाजाता है। उनके इस अतिथि-सत्कार और दान-शीलताको देख कर ही लोग उनकी उपमा कल्प-वृक्षसे देते थे। वे लक्ष्मी को उचितसे अधिक मान नहीं देते थे। वे यही समझते थे, कि लक्ष्मीका सदुपयोग सत्पात्रको दान करनेमें ही है। जिसने धनके द्वारा धर्म और कीर्त्तिका उपार्जन नहीं किया, उसने व्यर्थ ही जन्म लिया, यही उनका सिद्धान्त था। वे प्राय: लोगोंसे कहा करते थे, कि धन देकर धर्म-सञ्चय करना, काँचके मोल हीरा खरीद लेना है। - ऐसे पुरुष-पुङ्गव भूपतिको विधाताने वैसाही एक पुत्ररत्न भी दिया। उस बालकका नाम उन्होंने रतिसार रखा। कुमार बालकपनसे ही बड़े विद्या-विलासी निकले। उनका वह सुन्दर-सुडौल शरीर, सलोनी सूरत, मोहिनी मूरत, मीठीमीठी बोली और अच्छी-भली रीति-भांति देखकर सभीके चित प्रसन्न हो जाते थे। उनके गुणोंको देख, देख कर राजाको P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak TrustPage Navigation
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