Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 33
________________ . दूसरा परिच्छेद यह कह, सस्त्रियोंका उत्तर सुननेके लिये उत्कण्ठाके साथ कान खड़े किये हुई राजकुमारी सौभाग्यमञ्जरी चुप हो रही। इसी समय प्रियंवदाबोल उठी,-"प्यारी बहन! मैं तुम्हारी सौगन्ध खाकर कहती हूँ, कि मेरे मनमें भी ठीक यही बात आयी थी।" सुताराने भी ऐसा ही उत्तर दिया-मानों इन दोनोंने राजकुमारीकी बात की प्रतिध्वनि की। ___ इस प्रकार परस्पर प्रेमालापमें मिली हुई तीनों सखियोंने शुद्ध मनसे कामदेवकी पूजा की। पूजा करनेके बाद, बाहर आ, कामदेवकी स्तुतिके बहाने, उन तीनों कुमारियोंने कुमारको लक्ष्य कर, मधुर वाणीमें कहा, "हे नाथ! जैसे हमारे मन आपमें स्थिर भावसे टिके हुए हैं ; वे से ही आप भी इस मन्दिरमें स्थिर होकर रहिये।” उनकी इस युक्तिपूर्ण बातको सुनकर चतुर कुमार समझ गये, कि उन्होंने उनको रातके समय यहीं रहनेका इशारा किया है। _ इसके बाद मदन-विडम्बनासे परवश बनी हुई घे कुमारियाँ / अपने हृदयमें सुलगती हुई कामाग्निसे पकाये हुए राग-रस द्वारा कुमारका चित्र अपने चित्तमें अङ्कित कर, कामदेवकी पूजाकी चारुता और दीपकी शोभा देखनेके बहाने बार-बार पीछेकी ओर दृष्टि डालती हुई चली गयीं, उस समयसे उनके हृदयपर पड़ा हुआ हार और मार (कामदेव ) उनके हृदयको और भी जलाने लगा। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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