Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 65
________________ चौथा परिच्छेद उज्ज्वल ज्ञानको कलुषित कर डाला है। इसका मुख चन्द्रमाके समान है, इसमें सन्देह नहीं; क्योंकि इसीको देखकर मेरा विवेकरूपी कमल मुर्मा गया और इसके मुआते ही हलकेसे उज्ज्वल गुण इसे छोड़कर चले गये। इसके अधरमें मधुसे भी अधिक माधुर्य भरा है, इसमें शक नहीं ; क्योंकि इसीका पानकर मुझे ऐसा नशा चढ़ आया, कि मेरा मन सूरियोंको देखकर दूरसे ही भागता है। इस स्त्रीकी प्रफुल्लित हास्ययुक्त और नीलकमलके समान आँखें मेरे तत्त्वविज्ञान-रूपी सूर्यके अस्त हो जानेकी ही सूचना देती है / इसकी शंखके समान गम्भीर और मधुर स्वर निकालनेवाली ग्रीवा मेरे पवित्र कर्मोंकी यात्राकी सूचना देती है। इसके कोमल कमलनालके समान हाथोंमें फंसा हुआ मेरा मन हज़ार कोशिशें करने पर भी नहीं निकलने पाता। इसलिये * मुझ कमज़ोरोंके सरदारको बार-बार धिक्कार है / मैं इस संसाररूपी वनको अनायास ही पार कर जा सकता हूँ; पर स्त्रीके वेणीदण्डको मेरा हृदय नहीं लाँघ सकता। इस संसार-समुद्रको आदमी अनायास ही पार कर जाता; पर इसमें स्त्रीकी नाभिरूपी जो भँवर है, वही बड़ी कठिन है। इस स्त्रीके झनकार करनेवाले नपुरोंमें मन फँसा हुआ होनेके कारण मैं अपना सिर भी ऊँचा नहीं कर सकता।' इस प्रकार सोचते हुए मैं मन-ही-मन अपनेको धिक्कार देही रहा था, कि इसी समय बन्दीजन प्रातः कालकी सूचना देते हुए ऊँचे स्वरसे कहने लगे,-“हे राजन् ___ अब, जागनेका समय हुआ, इसलिये निद्राको त्याग दीजिये। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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