Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 82
________________ पाँचवाँ परिच्छेद स्वभाव मदिराके समान जानना / जैसे मदिरा पीनेके बाद मनुष्य ऐसा बेहोश हो जाता है, कि उसे क्या करना चाहिये और क्या. नहीं, इसका ज्ञान नहीं रह जाता, वैसेही मोहनीय कर्मों के उदयसे मनुष्यको अपना हिताहित नहीं सूझता। इस कर्मकी स्थिति सब कर्मोंसे अधिक 70 कोटानुकोटि सागरोपमकी है। ५-आयु-कर्मके चार भेद हैं:-नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु। इस कर्मका बन्ध दुर्भद्य है। इसीलिये इसकी उपमा वज्र-खलासे दी जाती है। इसकी उत्कृष्ट स्थिति. 33 सागरोपमकी है। ६-नाम-कर्मके प्रकारान्तरसे 42,68, 63 और 103 भेद हैं। गति, जाति,शरीर, अङ्गोपाङ्ग, बन्धन, संघातन, संघयण,संस्था. न, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, पराघात, उपघात, आनुपूर्वी, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, विहायोगति, त्रस, स्थावर, सूक्ष्म, बादर, अपर्याप्त, पर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, सौभाग्य, दौर्भाग्य,स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, अनादेय, यश, अपयश, निर्माण, और तीर्थङ्कर नाम कर्म / इस प्रकार 42 भेद हैं। - गति चार प्रकारकी होती है:-नरकगति, तिथंचगति, मनुष्यगति और देवगति / . जाति पाँच प्रकारकी है:-एके इन्द्रिय, द्वे इन्द्रिय, त्रि इन्द्रिय, चतुरि न्द्रिय, और पञ्च न्द्रिय, . शरीर पांच प्रकार के हैं औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मण। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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