Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 86
________________ पाँचवाँ परिच्छेद मान् मनुष्योंको इस आयुमें प्रमादका कीचड़ नहीं लगाना चाहिये। कहनेका मतलब यह, कि आयुकी चंचलताका विचार कर, धर्मकार्यमें कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये। . इस प्रकार कर्मके विषयमें धर्म-देशना श्रवण कर, तत्त्वावबोध होनेके कारण, वहाँ जितने लोग उपस्थित थे, वे सभी शुभध्यानवाले हो गये / अन्तःपुरकी तीनों स्त्रियों और सुबन्धुने भी महाप्रत ग्रहण कर लिया। और भी बहुतसे मनुष्योंने गृहस्थधर्मको अङ्गीकार किया। इसके बाद सारे जगत्को अपने बन्धुके समान जाननेवाले केवली रतिसारने पृथ्वीके बहुतसे भागोंमें विहार करते हुए अनेक भव्य जीवोंको प्रबोध दिया और आयु पूर्ण होने पर मोक्षको प्राप्त हुए। पाठको!:अब इस छोटीसी कथाकी यहीं समाप्ति होती है। इस सारे चरित्रका पठनकर आपको यह बात भली भांति मालूम हो गयी होगी, कि मनुष्यको जीवन में सुख और दुःख, उदय और अस्त, सम्पत्ति और विपत्तिके प्रसङ आनेपर' उनका अनुभव कर नाही पड़ता है। इन सबका कारण पूर्वकृत कर्म ही है। इसलिये यदि कभी पूर्वकृत कर्मोका उदय होनेसे आप विपत्ति में पड़ जाइये, तो सुबन्धुकी भांति घबराकर हिम्मत न हारिये, बल्कि पुरुषार्थका सहारा लेकर, उस विपत्तिको पूर्वकृत पापका क्षयकरनेवाली समझकर, उसीमें आनन्द अनुभव कीजिये, इसी तरह प्यारा कुटुम्ब, अनेक सन्तान-सन्तति, अपार सम्पत्ति, प्रबल P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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