Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RTYx EEEED 1939047. upcodai.adecisi aoLE काशक ncarnescoko com PRADESH पण्डित काशीनाथ जैन | आदिनाथ चरित्र॥ हामारे यहाँ आदि!!.. नाथ भगवान का सम्पूर्ण चरित्रं मिलता हि। मूल्य 5) P.P. Ac. Gunrathasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wam...morrorearring. Pos प्रतिसार कुमार चरित्र naakootang: ANN Morporation.ormats.om प्रकाशक वृहद् (वड) गच्छीय श्रीपूज्य जैनाचार्य श्रीचन्द्रसिंहसूरीश्वर शिष्य पण्डित काशीनाथ जैन U कलकत्ता 201 हरिसन रोड के "नरसिंह प्रेस" में मैनेजर पण्डित काशीनाथ जैन . द्वारा मुद्रित / डा.श्री. कलामजणार हरि शाम मंदिर श्री महावीर जैन माराधना कन्द, कोषा | प्रथमवार 1000) क. सन् 1923 (मूल्य / / ) AMOPorter - ... P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HAPPY DIDI भूमिका प्रिय पाठकवर्ग! आज आप लोगोंके सामने यह रतिसार कुमार-चरित्र उपस्थित करते हुए हमें बड़ाही मानन्द होता है ; क्योंकि हमें आशा नहीं थी, कि हमारे कृपालु पाठक हमारी इस प्रन्थमालाको इस प्रकार उदारता के साथ अपनायेंगे, कि हमें धड़ाधड़ एक के बाद दूसरी किताब छापकर आप लोगों की भेंट करनी पड़ेगी। वास्तवमें हमने जिस ढंगसे शास्त्रीय कथाओंको सरल, सारस, औपन्यासिक भाषामें लिखवाकर प्रकाशित करना प्रारम्म जिया है, वह हिन्दी-जैन-साहित्यके इतिहासमें एकदम नया उद्योग है और हम यह दावेके साथ कह सकते हैं, कि इन पुस्तकों ले जैनेतर सजन भी यथेष्ट लाभ उठा सकते हैं। इस पुस्तकमें राजकुमार रतिसारका विचित्र और शिक्षाप्रद जीवन-चरित्र उपन्यासके ढंग पर लिखा गया है और स्थानस्थानपर शान्त, वैराग्य और ऋगार आदि सभी रोंका समावेश हुआ है। हमें पूरी आशा है, कि यह पुस्तक बालक, वृद्ध, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवा, स्त्री,-सबका समान भावसे मनोरंजन कर सकेगी। आजकलकी रुचिके अनुसार हमने अपनी इस ग्रन्थमालाके अन्यान्य पुष्पोंको भांति इसमें भी कई सुन्दर चित्र लगा दिये हैं। __ अब हमें अपने उद्योगमें कहांतक सफलता प्राप्त हुई है, इस. का निर्णय स्वयं पाठकगणही कर सकते हैं। हम इस विषयमें कुछ कहना अनावश्यक समझते हैं। जनवरी सन् 1924 "नरसिंह प्रेस" 201 हरिसन रोर कलकत्ता। निवेदककाशीनाथ जैन, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा-H HEI-HTELEAK -2. - -28-02- 2-6-2-8-9-03-6 ...- न्याय, व्याकरण, साहित्य ज्ञाता पूज्यपाद प्रातः स्मर1 णीय गांभिर्यादि गुणगणालंकृत मुनिशिरोमणि . I प्रताप मुनिजी महाराज - पूज्यवर्य ? आपने इस दासका एक समय महान व्यथितावस्थासे उद्धार किया था, प्रायः स्मरण होगा। पूज्य वर्य ? उसीके .. उपलक्षमे यह मेरी छोटीसी. पुस्तिका श्राप श्रीके चरण कमलोंमें सादर समर्पित है। मापका काशीनाथ जैन - . पुति BASIA -आर मा PP. Ac. Gunratnasuri M.S. . Jun Gun Aaradhak Trust Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a Sanzoorf 122 000 fez .... Demoivesexe2 .. . .......! जैनाचार्य जयसूरीश्वरजी महाराज के प्रधान शिष्य मुनिराज श्रीप्रतापमुनिजी Sorrow.com P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Wie P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनु० नं०६१३२ | हिं० उ.१९३ Rec.GIR - ADDA रतिसार-कुमार पहला-अध्याय BASIN हुत दिनोंकी बात है। कितने दिनोंकी बात है, उसे ब इस समय हिसाब लगाकर बतलाना सहज नहीं है। OG बस, इतना ही समझ लीजिये, कि इतने प्राचीन समयकी बात है, कि इतिहास उसका निश्चित वर्ष-सम्बत् बतलानेमें असमर्थ है। उन्हीं दिनों भारतवर्षके नगरोंमें प्रसिद्ध, धन, धान्य और समृद्धिसे पूर्ण, माहिष्मती नामकी एक नगरी थी। उसमें सुभूम नामके एक परम न्यायी, तेजस्वी और प्रजा वत्सल राजा राज्य करते थे। उनके बल, वीर्य और पराक्रमसे वैरी थर-थर काँपते रहते थे। चारों ओर उनकी कीर्ति-चन्द्रिका . फैली हुई थी। देश-देशके राजा-महाराज उनकी आज्ञा मानते हुए P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार उन्हें अपना अधिपति मानते थे। बड़े-बड़े पराक्रमी शत्रुओंको उन्होंने अपनी वीर भुजाओंके प्रतापले पराजित कर डाला था। राजाके योग्य सभी उत्तम गुणोंसे युक्त होते हुए, वे बड़े भारी दानीभी थे। जो याचक द्वारपर आया, वही मुँह माँगा दान पाकर निहाल हुआ। कोई उनके द्वारसे निराश होकर नहीं लौटता था। वे इस नीति-वचनको सदा याद रखते थे, कि जिसके द्वारसे अतिथि निराश होकर लौट जाता है, उसे वह अतिथि अपना पाप देकर उसका (गृहस्वामीका ) सारा पुण्य लेकर चलाजाता है। उनके इस अतिथि-सत्कार और दान-शीलताको देख कर ही लोग उनकी उपमा कल्प-वृक्षसे देते थे। वे लक्ष्मी को उचितसे अधिक मान नहीं देते थे। वे यही समझते थे, कि लक्ष्मीका सदुपयोग सत्पात्रको दान करनेमें ही है। जिसने धनके द्वारा धर्म और कीर्त्तिका उपार्जन नहीं किया, उसने व्यर्थ ही जन्म लिया, यही उनका सिद्धान्त था। वे प्राय: लोगोंसे कहा करते थे, कि धन देकर धर्म-सञ्चय करना, काँचके मोल हीरा खरीद लेना है। - ऐसे पुरुष-पुङ्गव भूपतिको विधाताने वैसाही एक पुत्ररत्न भी दिया। उस बालकका नाम उन्होंने रतिसार रखा। कुमार बालकपनसे ही बड़े विद्या-विलासी निकले। उनका वह सुन्दर-सुडौल शरीर, सलोनी सूरत, मोहिनी मूरत, मीठीमीठी बोली और अच्छी-भली रीति-भांति देखकर सभीके चित प्रसन्न हो जाते थे। उनके गुणोंको देख, देख कर राजाको P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला परिच्छेद अपार आनन्द होता था। वे भली-भाँति समझ गये थे, कि इस पुत्रके द्वारा मेरे सब मनोरथ पूरे होंगे और यह मेरे कुलका नाम विशेष उज्ज्वल करेगा। राजकुमार रतिसारको बचपनसे ही धर्मसे बड़ी प्रीति थी। धर्म अथवा नीतिके विरुद्ध कार्य करनेकी उन्हें कभी प्रवृत्ति नहीं होती थी। उनका अलौकिक-सुन्दर रूप और देवदुर्लभ गुणग्राम देखकर सबके मन मुग्ध हो जाते थे। अपने पुत्रके ऐसे निर्दोष आचरण, निर्मल गुण और पवित्र आहारविहार देखकर ही राजाने उन्हें इच्छानुसार धन व्यय करनेकी आज्ञा दे रखी थी। ___एक दिनकी बात है, कि राजकुमार नगरके मध्यमें चक्कर लगा रहे थे। उनको देखनेके लिये सैकड़ों-हज़ारों नेत्र एकही साथ उनपर पड़ रहे थे। बालक, वृद्ध, युवा, स्त्री-सभी उनका वह रमणीय रूप देख, मन-ही-मन मुग्ध हो रहे थे। इसी समय एक चौराहेके पास पहुँच कर कुमारने देखा, कि एक पुरुष हाथमें एक पताका लिये घूम रहा है। उस पताकाके अग्रमागमें एक पॉटलीसी बँधी है। लोग अचम्भेके साथ उस आदमीको देख-देखकर आपसमें कानाफूसी कर रहे हैं। यह देख, कुमारको भी बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने एक परिचित आदमीके पास आकर पूछा,-“हे भाई! यह आदमी कौन है और इस ध्वजाके अग्रभागमें जो पोटली बंधी हुई है, उसमें कौन सी वस्तु है ?" यह सुन, उस आदमीने कहा,-"कुमार P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार जी! यह आदमी कौन है, सो तो मैं नहीं जानता; पर यह अभी इस नगरके गुणी पुरुषों के पूछने पर कह रहा था, कि इस पोटली में एक ऐसा श्लोक-रत्न है, जो सभी विद्वानोंसे पूजित होने योग्य है और तीनों लोकोंका उपकार करने में समर्थ है। बड़ी लाचारीमें पड़कर मैं आज इसे बेचने चला हूँ। दाम पूछने पर इसने कहा, कि इसका मूल्य लाख मुहरें हैं। जब इसने ऐसा कहा, तब अचम्भेके मारे चारों ओरसे लोग आआकर इसके पास इकट्ठे होने लगे और उस श्लोकको देखनेकी उत्कण्ठा प्रगट करने लगे, जिसका मूल्य इतना बढ़ा-चढ़ा हुआ था। लोगोंकी यह उत्कण्ठा और उत्सुकता देखकर इसने कहा, कि इसको मूल्य देकर ख़रीदे विना कोई नहीं देख सकता। इस पर सब लोग इसकी दिल्लगी उड़ाने और कहने लगे, कि दुनियामें ऐसा कोई बछियाका ताऊ नहीं है, जो चीज़ देखे बिना उसका दाम दे डाले। इसके उत्तरमें इसने कहा, कि भाई ! यह सौदा बड़ा ही अनमोल है। जैसे सभी चीज़ोंके. नमूने दिये जाते हैं , पर सर्व-रोग-नाशक, मृत्यु-भय-हारी अमृतका मुफ्त नमूना नहीं मिलता, वैसे ही जिसके पाठ-मात्रसे ही संसारका सार मिल जाता है, उस अमूल्य श्लोकको मैं तुम्हें योंही कंसे दिखा दूँ ? तुम लोग स्वयं बुद्धिमान हो, मेरा श्लोक देखते ही उसे कण्ठस्थ कर लोगे, फिर मेराश्लोक कौन ख़रीदेगा ? इसी प्रकार लोगोंने लाख कहा; पर इसने किसीको अब तक वह श्लोक नहीं दिखलाया और चारों ओर फेरी लगा रहा है।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला यरिच्छेद __ उस आदमीके मुंहसे यह विचित्र बात सुन, मन-ही-मन बड़ा आश्चर्य अनुभव कर, राजकुमारने अपने मित्रोंकी ओर फिर कर कहा, "भाई ! मेरी तो बड़ी इच्छा हो रही है, कि उस श्लोक-रत्नको ख़रीद लूं। यह आदमी कोई ऐसा-वैसा नहीं मालूम पड़ता। इसमें बडे-बड़े गुण छिपे मालूम होते हैं। जब इसको साधारण बातचीतमें इतना आनन्द है, कि सुन कर चित्त प्रसन्न हो जाता है, तब उस श्लोकमें न जाने कितने भाव भरे होंगे! इसलिये उस श्लोकको ख़रीद लेना ही ठीक है। ___ यह कह, नप-नन्दनने उस श्लोक बेचनेवालेके पास जाकर कहा,-"हे नर-श्रेष्ठ ! तुम अपनी इच्छाके अनुसार लाख मुहरें ले लो और मुझे वह सूक्ति-रत्न दे दो। साथ ही उस श्लोकके विषयमें जितनी जानने योग्य बातें हों, वह सब मुझे बतला दो।" __ यह सुन, प्रीति-रूपी समुद्रकी तरङ्गक समान चञ्चल मुसः कानवाला वह श्लोक-विक्रेता, कुमारके मुख-मार्तण्डको देख, कमलकी तरह विकसित-वदन हो, बोला,---“हे राजकुमार! पहले इस श्लोक-रत्नकी उत्पत्तिका ही हाल सुन लीजिये / इन्द्रकी अमरावती-पुरीको भी लज्जित करनेवाली, लक्ष्मीके क्रीड़ा-काननके समान धन-धान्यसे भरी-पूरी श्रावस्ती नामकी एक नगरी है। जैसे हाथीको अपने बलकी आप ही थाह नहीं लगती, वेसे ही अपनी धन सम्पत्तिकी थाह नहीं जाननेवाला मैं उसी नगरी का एक नामी-गरामी धनवान् मनुष्य था। मेरा नाम सुबन्धु है। मेरे घर लक्ष्मी क्रीड़ा करती रहती थी। घोड़े P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - रतिसार-कुमार हाथियोंके गहनोंकी झनकार सुनकर ऐसा मालूम पड़ता था, मानों नर्तकीके समान नाचती हुई लक्ष्मीके पैरोंके घुघरू बज . रहे हों। बड़ी दूर-दूर तक मेरे सौदागरी मालके जहाज़ जाया करते थे। दुनियामें शायद ही कोई ऐसा राजा या रङ हो, जिसने कभी मुझसे ऋण नहीं लिया हो। हे राजकुमार ! मेरी बहुत बड़ी आयु इसी तरह मौजे मारते हुए कट गयी। धन. धान्य, सोना-चांदी, हीरे-मोती और जगह-ज़मीनके मारे मेरा वैभव सबके दिलों में डाह पैदा करता था। धनके साथ-हीसाथ मुझे परिवारका भी बड़ा सुख था। मेरे कई वेटे-पोते और नाती थे और सब मेरी आज्ञामें रहते थे। एक दिन मैंने रातके पिछले पहर एक सुन्दर वस्त्र आभूषणोंसे सजी हुई स्त्रीको अपने घरसे निकल कर जाते देखा। निद्राके अन्त में ऐसा दुःखस्वप्न देख, मैं उसकी शान्तिका विचार ही कर रहा था, कि इतने में मेरे घरसे साक्षात् अभाग्यके समान धुओं निकलना शुरू हुआ। इसके थोड़े ही देर बाद मेरे दुर्भाग्यको प्रकट करने वाली अग्निकी लपटें निकलने लगीं। इस प्रकार घरमें आग लग जानेके कारण मैंने अपने घरवालोंको जलनेसे बचानेका उपाय करना आरम्भ किया और धन-दौलतकी माया त्याग कर जैसे वैरागी घर छोड़ कर चले जाते हैं, वैसे ही मैं घरसे बाहर निकल पड़ा। इधर मुहल्लेके परोपकारी सज्जनोंने मेरे घरकी "जो सब चीजें आगसे बाहर निकाली थीं, उन्हें चोर और उठाई. गिरे लेकर चलते बने। मेरी सारी सम्पत्ति जल कर खाक हो P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला परिच्छेद गयी। इस प्रकार अपना सर्वस्व जल जाते देखकर मुझे मारे दुःखके मूर्छा आ गयी। लोग मेरे घर-बारकी चिन्ता छोड़, मेरी ही सेवा-सुश्रूषामें लग गये। जव लोगोंके उपचारसे मेरी मूर्छा टूटी, तब मैंने देखा, कि मेरा घर और सारी सम्पत्ति भस्मीभूत हो गयी है। मेरे बाल-बच्चों के रहने का स्थान भी नहीं रह गया! मैं इसी सोच-विचारमें पड़ा था, कि लोग आ-आ कर मुझे ढाढ़स बंधाने लगे और रह-रह कर यही कहने लगे, कि तुम बड़े भाग्यवान् हो, इसीलिये इस भयङ्कर अग्नि में तुम्हारे किसी कुटुम्बवाले प्राणीके प्राण नहीं गये। इसके बाद जब आग बुझ गयी, तब जो सब सोने चाँदीकी चीजें गलकर पिण्डाकार हो गयी थीं, उन्हें मेरे लहनदार व्यापारियोंने थोड़ेथोड़े दामोंमें खरीद लिया। मेरे काग़ज़-पत्र, बही-खाते जलकर राख हो गये थे, इसलिये जिनके यहाँ मेरा पावना था, उन्होंने बार-बार कहनेपर भी मुझे धेला नहीं दिया। घरमें मैंने ज़मीनके अन्दर धन गाड़ रखा था। वहां जाकर मैंने देखा, तो मेरे दुर्भाग्यकी लताओंके समान साँप बैठे नजर आये। लाचार, मैंने सोचा, कि तब तक यहाँके धनवानोंसे ऋण लेकर काम चलाऊँ, जबतक मेरे बाहरके व्यापारियोंके यहाँसे धन नहीं आ जाता। उस समय मेरा बहुतसा माल 'देसावर' गया हुआ था और मेरी ओरसे अनेक स्थानों में लोग व्यापारके निमित्त गये हुए थे। मुझे उन लोगोंके यहाँसे धन प्राप्त होनेकी आशा थी। परन्तु उस समय मेरे भाग्यका सितारा एकबारगी फिरा हुआ था-विधाता वाम हो गया P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार था, इसलिये मैं उधरसे भो निराश ही हुआ / मेरो ओरसे जो सव व्यापारी बाहर भेजे गये थे, उनके माल-सामान चोर-डाकुओंने लूट लिये और सौदागरी मालसे लदा हुआ जो जहाज़ रवाना हुआ था, वह समुद्र में सारे सामानके साथ डूब गया! यह समाचार सुनतेही मेरे देवता कूच कर गये-मैं चारों ओर अंधेरा देखने लगा। ऋणके मारे मैं सिरसे पैर तक लद गया। एक दिन मेरा महाजन ऋणका रुपया माँगनेको आनेवाला था। उस दिन मैं इसी चिन्तामें डूबा हुआ था, कि उसके आनेपर मैं उसे क्या उत्तर दूंगा? सोचते सोचते मैंने यही निश्चय किया, कि यहाँसे चला जाऊँ / .. यही सोचकर मैं अपनी दुःख-मग्ना स्त्रीके पास आ, उससे विदा मांग, अपने निद्रामें पड़े हुए बालकोंको प्यारसे चूम, लम्बी साँस ले, घरसे बाहर निकला। उस समय राह-खर्चके नाम दुःखोंके समूह, सहायकके नाम दोनों हाथ और सवारीके नाम मेरे दोनों पैर ही थे। उस समय रात आधीसे अधिक बीत गयी थी। धीरेधीरे चलते हुए भी मैं थोड़ी ही देर में थक गया और नगरके बाहर एक स्थानपर बैठकर अपने दुर्भाग्यके सम्बन्धमें विचार करने लगा। मैंने सोचा,-'ओह! यह मेरे किस जन्मके पापोंका उदय हुआ, जो मैं इतना बड़ा सम्पत्तिशाली धनवान् होकर भी इस समय राहका भिखारी हो गया हूँ ! जो किसी दिन सैकड़ों मनुष्योंको खिला कर खाता था, आज उसे अपना ही पेट भरना पहाड़ हो, रहा है। हाय ! किसीके पापोंका उदय बारी-बारीसे होता होगा; पर मेरे तो इकट्ठे ही सब पाप फल गये। मेरा पलक मारते P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला परिच्छेद सवस्व नष्ट हो गया! अव मैं क्या करूँ ? पासमें फूटी कौड़ी भी नहीं है। शरीरमें सफर करनेकी शक्ति भी नहीं है। अपने नगरमें रहूँ, तो तगादेवाले ही नाकों दम किये डालते हैं। बड़ी देरतक मैं यही सब बातें सोचता रहा, पर मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ किस रास्तेको पकड़ें-यह मेरी समझ में नहीं आया। लाचार मैंने आत्महत्या करनेका विचार किया और तुरतही वहाँसे उठ कर, नगरके पास ही एक क्रीड़ा-पर्वतपर जा, उस परसे कूदकर जान देनेकी ठानी। इतने में कहींसे यह आवाज़ आयी,-रे मूढ़ ! जैसे अज्ञानी बालक हाथमें चिन्तामणि-रत्न पाकर भी योंही फेंक देता है, वैसेही तू भी इस बड़े भाग्यसे मिले हुए मनुष्य जीवनको व्यर्थ नष्ट न कर।' यह बात सुनतेही मैंने चारों ओर चकित होकर देखना शुरू किया; परन्तु कहीं कोई दिखलाई न दिया। तब मैं फिर कूदकर प्राण देनेको प्रस्तुत हुआ। इसी समय फिर न जाने किसने कहा, कि रे मूढ़ ! तू प्राण न दे। भला विकट शीत नाश करनेवाले कल्प-वृक्षको भी कोई जलाया करता है ? फिर यह बात सुन, मैंने चारों ओर दृष्टि फेरी और दो-चार पग इधर-उधर जाकर भी देखा ; पर कहीं कोई नज़र न आया। तब मैंने इसे अपने मनका कोरा भ्रमही समझा और फिर कूदकर जान देनेको तैयार हुआ। इसीसमय फिर आवाज़ आयी, 'रे मूर्ख ! दुःखकी आँचसे घबराकर तू इन अमूल्य प्राणों को क्यों नष्ट करता है ? भला ऐसा भी कोई मूर्ख होगा, जो राहकी मिट्टी पर इस आशयसे अमृतका छिड़काव करे, कि आँखोंमें धूल न P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार पड़े इस प्रकार बार-बार किसीके रोक-थाम करनेपर भी मैं अन्तमें कूद ही पड़ा; पर उसी समय इतने ज़ोरकी आँधी आयो, कि मैं उसके झोंकेमें पड़कर नीचे गिरनेके बदले उसी जगह गिर कर मूर्छित हो गया। थोड़ी देर बाद जब मेरी बेहोशी दूर हुई, तब मैंने अपनेको उसी पर्वतपर खड़ा देखा और एक ओर एक मुनि बैठे दिखलाई दिये। यह देख, मैंने सोचा,-"कहीं यह स्वप्न तो नहीं है ? मैं भ्रान्तिमें तो नहीं पड़ गया हूँ ?" मैं आश्चर्यमें पड़कर यहीसोच रहा था, कि दयासागर मुनिने कहा, 'मैंने तुझे बार-बार मना किया, तो भी तू अपनी जान देनेको तैयार ही हो गया ? क्या दुःखोंसे बचनेका उपाय मृत्युही है ? नहीं / सुखदुःख तो आत्माके साथ रहते हैं। पूर्व जन्मके कर्मोंके उदयसेही मनुष्य कभी दुःख और कभी सुख पाता है। क्या जान देनेसे तेरे कर्मों का निवारण हो जायगा ? नहीं, इससे तो उलटे और भी नथे कर्मका सञ्चय होगा।' मुनिकी यह बात सुनकर मैं सोचविचारमें पड़ गया। इसी समय एक श्लोक सुनाकर वे मुनि महाराज आकाशकी ओर चले गये। यह देख, मैंने सोचा, कि मैं बड़ा ही भाग्यवान् था, जो मझे उपदेश देनेके लिये ये आकाशगामी मुनि इस रातके समय इस पर्वतपर आ पहुंचे थे। सच ही कहा है, कि साधु-महात्माओंका सहज स्वभाष परोपकार करना ही है। इन्होंने मुझे आज इस पर्वतसे गिरकर मरनेसे बचाया और यह श्लोक सुनाकर मेरे चित्तसे शोक-दुःखको दूर कर दिया। मन-ही-मन इसी बातका विचार करते हुए मैं, करुणासिन्धु मुनि P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला परिच्छेद mmsirmomentummmmm के चरण-कमलोंसे पवित्रकी हुई उस भूमिको बारम्बार प्रणाम कर, उसी श्लोक-रत्नको हृदय में धारणकर, अपने दुःखके बोझ. को हलका करने लगा। तदनन्तर रातके पिछले पहर मैं जल्दीजल्दी पैर बढ़ाता हुआ अपने घर आया। उसी समयसे मै विपत्तिमें भी सुख मानने लगा। चित्तमें पूरी शान्ति आ गयी। इसके बाद कुछ उदार लहनदारोंने मुझे हर तरहले लाचार देख, अपना रुपया छोड़ दिया और तगादा करना बन्द कर दिया / इधर कुछ सजनोंने, जिन्होंने मुझसे रुपया उधार लिया था, आप ही आकर मेरा पावना चुका दिया। बस, मेरे घरवालोंके खानेपीनेका सामान हो गया और मैंने वही श्लोक सुनाकर अपनी स्त्रीको भी अपनी ही तरह दुःखमें सुख माननेकी शिक्षा दी। हालमें मेरी स्त्रीके भाईका विवाह होनेवाला है। मेरी स्त्रीने वहाँ जानेके लिये उत्सुक हो, मुझसे बड़ी विनयके साथ कहा,'स्वामी! मेरे बदनपर एक भी गहना नहीं है, पहननेको अच्छा सा कपड़ा भी नहीं है, सवारीका खर्च भी नहीं है और नेग-जोगमें देने योग्य धन भी मेरे पास नहीं है। इसलिये मैं वहाँ कैसे जाऊँ? मेरी बहनें वहाँ सुन्दर शृङ्गार किये, अच्छे-भले गहने-कपड़े पहने, उत्तम वाहनों पर सवार होकर पहुंचेंगी और तरह-तरहको चीजें वहाँ देनेके लिये ले जायेंगी। उनके सामने मैं भला इस हीन अवस्थामें कैसे जाऊँगी ? अतएव तुम चाहे जो कुछ बेंचकर मेरे मानकी रक्षा करो; क्योंकि बड़ोंका मान प्राणसे भी बढ़कर होता है। यदि इस समय मेरा मान न रहा,तो मेरी मृत्युही SRPROPRITTER COM P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार अच्छी है, क्योंकि मानवाले प्राण दे देते हैं ; पर मान नहीं जाने देते। 2. “विपत्तिकालमें ही स्त्रियोंकी परीक्षा होती है। अज्ञानी और मूर्ख स्त्रियाँ ऐसे दु:खके दिनोंमें भी गहने-कपड़ोंके लिये पतिको तकिया करती हैं। नीतिका यह वचन है, कि आपत्ति-कालमें मित्रों और बान्धवोंकी परीक्षा होती है और वैभवका नाश होने पर स्त्री और सच्चे नौकरोंकी पहचान होती है। यह बात बिल. कुल ही ठीक है। सम्पत्तिका नाश हो जानेपर भी अपने मनमें सन्तोष माननेवाली कोई विरली ही स्त्री होती है। ऐसे समयमें बड़े-बड़े शानियोंके छक्के छूट जाते हैं, फिर स्त्रियोंकी तो बात ही क्या हैं ? अपनी स्त्रीके इस प्रकार बार-बार आग्रह करने पर मैं यही सब बातें सोच रहा था और मन-ही-मन कह रहा था, कि जब यह स्वयं अपनी आँखों मेरी अवस्था देखकर भी ऐसा कह रही है, तब मैं इसे और क्या समझाऊँ-बुझाऊँ ? ऐसी अवस्थामें मुझे क्या करना चाहिये, यह मेरी समझ में नहीं आया। चेहरेका रङ्ग उड़ गया। जी बैठ गया। बैठा-बैठा घरकी चारों ओर नज़र दौड़ा कर मैं देखने लगा, कि कौनसी ऐसी चीज़ बेच दूं, जिससे मेरो स्त्रीके गहने-कपड़ोंका प्रबन्ध हो जाये; परन्तु अपनी देहके सिवा मुझे और कोई चीज़ नहीं दिखाई दी। यह देख, मैं फिर इसी सोचमें पड़ गया, कि अब कहाँ जाऊँ ? क्या कऊँ ? इसी सोचमें पड़े-पड़े मेरा हृदय दुखी हो गया। अन्तमें 'विपत्तिके समय स्मरण करने योग्य उसी श्लोक-रत्नको स्मरण P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार उसने तुरन्त ही वह पोटली खोल, उस श्लोककी पत्रिकाको बाहर निकला और थोड़ी देर तक ध्यानमें मग्न रह, मन-ही-मन उस प्रलोकके अर्थको हृदयंगम कर, ऊँचे स्वरसे कहा,...-mak (पृष्ठ 13) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला परिच्छेद कर, अपनी हठीली स्त्रीको मन-ही-मन धिक्कार देता हुआ, मैं उसी श्लोकको बेच देनेके लिये तैयार हो, घरसे बाहर हुआ। यह श्लोक मेरे लिये माताके समान पवित्र है और मैं इसे कदापि नहीं बेंचता; पर क्या करूँ ? अपनी हठीली स्त्रोके आग्रहके मारे हैरान हूँ।" यह कहते-कहते उस मनुष्यका गला भर आया। आँखोंसे आँसू टपकने लगे। चेहरेसे दुःखकी छाया प्रकट होने लगी। वह मन मारे, मुँह लटकाये, चुपचाप खड़ा रह गया। तब राजकुमार रतिसारने उँगलीके इशारेसे उसे वह श्लोकवाली पोटली खोलनेकी आज्ञा दी। उसने तुरन्त ही वह पोटली खोल, उस श्लोककी पत्रिकाको बाहर निकाला और थोड़ी देर तक ध्यान मग्न रह, मन-ही-मन उस श्लोकके अर्थको हृदयङ्गम कर, ऊँचे स्वरसे कहा, “हे धीर पुरुषो! तुम लोग अपनी समस्त इन्द्रियोंका बल अपने कानों में ही बैंच लाओ; क्योंकि उनमें यह श्लोक-रूपी राजा प्रवेश करना चाहता है।" यह कह, उसने नीचे लिखा हुआ श्लोक पढ़ सुनाया, ''कार्यः सम्पदि नानन्दः पूर्व पुण्यभिदे हि सा। नैवापदि विषादस्तु साहि प्राक् पापपिष्टये // ". ___ अर्थात्-- सम्पत्ति पाकर आनन्दसे मतवाले न बन जाओ; क्योंकि सम्पत्ति पिछले पुण्योंका क्षय करनेवाली है और आपत्ति पाकर मनमें दुःख न मानो; क्योंकि इससे पिछले जन्मोंके / पाप कटते हैं।" P.P.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 रतिसार कुमार - यह श्लोक सुनाकर उसने कहा,-"राजकुमार ! सचमुच इस श्लोकमें बड़ा ही अमूल्य उपदेश भरा है। दुनियामें ऐसे बहुतसे लोग हैं, जो सम्पत्ति पाकर आनन्दसे बावले हो जाते हैं, पर यह कभी नहीं सोचते, कि यह उनके पूर्व जन्मके पुण्योंका परिणाम है। जिस धर्मके प्रभावसे उन्हें सम्पत्ति मिलती है, उसे वे भूलही जाते हैं। रात दिन धनके लिये हाय-हाय करने में ही उनका सारा जीवन व्यतीत हो जाता है। द्रव्योपार्जनको ही वे अपने मनुष्य-जन्मकी सार्थकता समझते हैं। उनको धनका इतना बड़ा नशा चढ़ जाता है, कि उनमें तरह-तरहके मिथ्या अभिमान भर जाते हैं। वे रात-दिन आँखों देखते और कानों सुना करते हैं, कि किसीकी सम्पत्ति अचल होकर नहीं रही-जहाँ अस्त है, वहीं उदय है, जहाँ सम्पत्ति है, वहीं विपत्ति है, तो भी वे इस यातको कभी अपने मनमें नहीं आने देते। पूर्व में पुण्य करनेसे ही यह सम्पत्ति मिली है और इस जन्ममें भी दान-पुण्य करनेसे ही अगले जन्ममें भी सुख होगा, इस शास्त्र-रहस्यको वे जानकर भी नहीं जानते ।ज्ञानी गुरुओंके निर्मल, परित्राणकर और शान्तिदायक उपदेशोंकी ओरसे वे कान वहरे किये रहते हैं। मोह, मद, अविनय, लोभ और विषय-वासना आदि दोष ही उन्हें अच्छे लगते हैं। इसी प्रकार विपत्ति पड़नेपर वे अज्ञानके मारे तरह-तरह के बुरे ध्यानमें पड़ कर, अशुभ कर्मों का उपार्जन किया करते हैं। ऐसे बहुतसे कायर मनुष्य हमें दिखाई देते हैं, जो विद्वान्, गुणी और बड़ी उमरवाले कहलाते हुए भी विपत्तिके समय विह्वल हो PP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला परिच्छेद जाते हैं। इतना ही नहीं, कभी-कभी तो वे मारे व्याकुलताके प्राण तक देनेको तैयार हो जाते हैं। वे यह नहीं सोचते, कि विपत्ति पूर्वकृत पापोंका नाश करनेवाली है और इसे भोगे विना कुशल नहीं होने की। इसीलिये वे देह और इन्द्रियोंकी ममतामें पड़े हुए उन्हींके इशारे पर नाचा करते हैं। वे ज्ञानका रस पानकर, देह और इन्द्रियोंसे विरक्त होकर, बाहरी आधि-व्याधियोंका सहन करनेमें धैर्यका अवलम्बन नहीं करते। इस प्रकार अज्ञानकी अँधेरी रातमें पड़े हुए अनेक मनुष्य, सम्पत्ति और विपत्तिका सच्चा स्वरूप जाने बिना इस भवसागरमें डूबते रहते हैं। ऐसे लोगोंके लिये यह श्लोक गुरुके समान बोध देनेवाला है। इसलिये यह हृदयमें अङ्कित कर रखने और नित्य ध्यान करने योग्य है।" उसकी यह लम्बी चौड़ी बातें सुन, कुमारने एक बार स्वयं उस श्लोकका पाठ किया। सब लोग, उस श्लोकको सुन और उसका भाव समझकर प्रसन्न हो गये। विद्वानोंको तो और भी आनन्द आया। इसके बाद राजकुमार रतिसारने उस सुबन्धु नामक दुःख-दारिद्रय-पीड़ित मनुष्यसे कहा,-“हे सुबन्धु ! तुम मेरे किसी जन्मके बड़े भारी मित्र हो, तभी तुमने मुझे यह श्लोक सुनाया। अब तुम, हाथी, घोड़े, रत्न आदि जो कुछ चीजें तुम्हें दरकार हों, वह मुझसे मांग सकते हो। यह कह, राजकुमारने उसे तरह-तरहके मनोहर वस्त्र, आभूषण, रत्न और हाथी-घोड़े आदि देकर विदा किया और बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने घर लौट आये। एक दीन, दुःखित और आवश्यकतामें पड़े हुए P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार सजनको उन्होंने समय पर सहायता पहुंचायी, यह सोचकर उनके चित्तमें विमल आनन्दकी लहरें उमड़ने लगी और वे सारा दिन अपने मित्रों तथा सहचरोंके साथ इसी विषयकी चर्चा करते रहे / उस श्लोक और उसके बचनेवालेको वे घड़ी-भरको भी न भूले। ___सच है, उदार पुरुष स्वयं भी आत्मानन्द प्राप्त करते हैं और अपनी उदारतासे दोन-दुःखियोंको भी आनन्दित करते हैं। MENTS RSS P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ do दूसरा परिच्छेद / No-... LATO 10.00000 0%AOSC गृह-त्याग -:*:-- OHEROERS न्ध्याके समय, प्रतिदिनके नियमानुसार राजकुमार 0 रतिसार, राजदरबारमें अपने पिताके पास आये। ousao इसी समय राजाके खजांचीने कुमारकी फ़िजलखर्चीकी ओर राजाका ध्यान आकर्षित किया। इतना बेहिसाब धन देकर एक श्लोक खरीदने पर उसे बड़ा अचम्भा हो रहा था। इसीलिये उसने इस ओर राजाकी दृष्टि आकृष्ट की। __' उसके मुंहसे इस अपव्ययकी बात सुनतेही राजाको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने क्रोधसे लाल-लाल नेत्र किये, राजकुमारकी ओर देखते हुए कहा, “कुमार ! यह तुम्हारी कितनी बड़ी मूर्खता है, जो तुमने लाख मुहरें देकर एक श्लोक खरीदा है ! तुम्हें क्या लक्ष्मीसे इतनी चिढ़ हो गयी है, जो तुम उसे इस तरह गलीके ठीकरेकी तरह फेंक रहे हो? बड़े-बड़े दिग्गज कवि, जो पोथेका / पोथा लिखकर रख देते हैं, तुम्हारे यहाँ केवल भोजन और वस्त्र .. लेकर ही टिके हुए हैं, फिर तुम्हें इस तुच्छ श्लोकके लिये लाल . मुहरें खर्च करनेकी क्या आवश्यकता थी ? जो द्रव्य, इस लोक P.P.AC.Sunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार और परलोकमें आनन्द देनेवाला, काम और धर्मका बीज-रूप है, उसे भला कौन बुद्धिमान् मनुष्य यों तृणकी तरह नष्ट करेगा? कला, विक्रम और बुद्धिसे भी जो काम नहीं हो सकता, वह द्रव्यसे सहजही हो जाता है। ऐसे उपयोगी द्रव्यको अपव्ययके कुएमें डालना भला कहाँकी बुद्धिमानी है ? चाहे कृपण ही क्यों न हो; पर यदि मनुष्य धनवान हो, तो बड़े-बड़े महात्मा भी उसकी खुशामद किया करते हैं। देखते नहीं हो, कि देवता भी सुवर्णपर्वतको नित्य घेरे रहते हैं ? आदमी चाहे लाख गुणी और प्रेमी क्यों न हो; पर यदि उसके पास लक्ष्मी नहीं है, तो उसके आश्रित मनुष्य भी उसे उसी तरह छोड़ देते हैं, जैसे रातके समय शोभाहीन कमलोंको भौरे छोड़ देते हैं। इसीलिये तो मनुष्य द्रव्य उपार्जन करनेकी चिन्तामें लीन रहते हैं। तुमसे मूोंके सिवा और कौन इस तरह धनको पानी फेंक सकता है ?" ... पिताकी यह फटकार सुन, पुण्य-रूपी वनमें विहार करनेवाले कोकिलकी भाँति कुमारने मीठी बोली में कहा, "पिताजी! सैकड़ों विद्वानोंमें कोई एकही सत्कवि होता है-सत्काव्य सबको करना नहीं आता। क्योंकि हीरेकी खानसे भी किसी विरले ही भाग्यवानको उत्तम हीरा मिलता है। धर्मकी उत्पत्तिका कारण श्रद्धा है। कामकी उत्पत्तिका कारण प्रेम है। चंचल लक्ष्मी तो दासीके समान है। फिर इसके लिये झानी पुरुष क्यों हाय-हाय करें? इसमें क्यों आसक्त हों ? जिसमें कला है, वीरता है, झान है-वह तो बात करते द्रव्योपार्जन कर लेता है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा परिच्छेद फिर भला कौन बुद्धिमान् द्रव्यको असाध्य-साधन करनेवाला कहेगा? ज्ञानियोंने जिंस द्रव्यको अज्ञान-कृप बतलाया है, उसमें तृष्णाके मारे कौन अपनी आत्माको डाल देगा ? उसमें पड़नेपर तो फिर इसका निकलना मुश्किल हो जायेगा। बड़े-बड़े शानी और विरक्त मुनियोंने जिस ज्ञानको ग्रहण किया है, उसीके उपार्जनका प्रयत्न करना उचित है। भला, इस संसारमें ऐसा कौन है, जिसे लक्ष्मीने एक बार अपनाया और दूसरी बार छोड़ नहीं दिया हो ? लक्ष्मीमें बड़े-बड़े दोष है और उन दोषोंका निवारण ज्ञानसे ही हो सकता है। इस बातसे भला कौन ज्ञानवान् मनुष्य इनकार कर सकता है ? इसलिये बहुतसी लक्ष्मी व्यय करने पर भी यदि अमूल्य ज्ञानका लाभ हो सके, तो अवश्य ग्रहण करना चाहिये; क्योंकि ज्ञान बड़ा ही अनमोल पदार्थ है।" ___ पिताको ऐसा मुंहतोड़ जवाब देकर कुमार रतिसार चुप हो रहे। राजा मन-ही-मन क्रोधके मारे कट गये और भौंहे कमानसी टेढ़ी किये चुप्पी साधे रहे। इसके बाद राजकुमार भी वहाँसे चुपचाप उठ खड़े हुए और भरी सभामें अपना अपमान हुआ समझ कर वे उसी रातको किसी और देशमें चले जानेकी तैयारी करने लगे। इसके बाद जैसे सूर्य कमल-बृन्दको सोता छोड़ कर अस्ताचलको चला जाता है, वैसेही ने भी सबको सोते छोड़ कर घरसे बाहर निकल पड़े। वे बरा. बर घुड़सवारी आदि कसरतें किया करते थे, इसीलिये उन्हें राह चलनेकी थकावट बिलकुल ही नहीं मालूम हुई-लगातार चलते. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार चलते वे बड़ी दूर निकल गये। रातको घने जङ्गलोंकी राह जाते समय हिंसक जन्तु भी उनके शरीरसे निकलते हुए तेजको आग समझ कर उनके पास नहीं आते थे। “यह पुरुष कोई मनुष्य नहीं, बल्कि देवता है , तभी तो इतनी रातको ऐसी हिम्मत और निडरपनेके साथ जंगलकी सैर कर रहा है। यही लोच कर चोर भी उनके पास नहीं आते थे। सच है, पुण्यात्मा पुरुषोंके लिये कोई स्थान अगम्य नहीं है। उनके लिये सहस्त्रों मनुष्योंसे भरी हुई वस्ती और हिंसक जन्तुओंसे भरा हुआ वन-दोनों ही बराबर हैं। - इस प्रकार :रातों-रात सफ़र करते हुए कुमार रतिसार तीन दिनों तक बिना खाये-पीये सफ़र करते हुए चले गये। पूर्व पुण्योंके प्रतापसे उनका बाल भी बांका नहीं हुआ। चौथे दिन वे श्रावस्ती-नगरीके पास आ पहुंचे। उस समय ठीक दोपहरका समय था, इसलिये सिर पर आये सूर्य की तीखी किरणोंसे पीड़ित और कई दिनोंके सफ़रसे अकुलाये हुए कुमार रतिसारने पास ही कामदेवका एक मन्दिर देख, उसीमें विश्राम करना आरम्भ किया। उस मन्दिर में एक स्त्री पुजारिन थी। उसने कुमार रतिसारका वह सुन्दर-सलोना रूप देख कर अपने मनमें सोचा,-"यह तो कोई ऐसा वैसा आदमी नहीं, बल्कि बड़ा ही तेजस्वी पुरुष मालूम पड़ता है। ऐसा विचार कर, वह झटपट बाहर आयी और शुद्ध पात्रमें जल भर लायी। इसके बाद उसने कुमारसे कहा, "हे वीर पुरुष! कृपा कर इस जलको .P.AC. GunratnasurM.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा परिच्छेद ग्रहण कर काममें लाइये।" यह सुन, प्रसन्न मनसे कुमार रतिसारने उसके हाथसे जल-पात्र लेकर ठीक उसी श्रद्धाके साथ उसको पान किया, जैसी श्रद्धासे कोई भव-भ्रमण करके थका हुआ मनुष्य भगवान् तीर्थङ्करकी अमृतभरी देशनाका पान करता है। ___ इसी समय मदमाती कोयलोंकी तरह मीठे स्वरमें गाती हुई कुछ रमयिोंणका सुरीला कण्ठ-स्वर कुमारके कानमें पड़ा। यह सुनते ही कुमारने पूछा, “यह गानेका शब्द कहाँसे आ रहा है ? उस स्त्रीने कहा, "यह श्रावस्ती नामकी नगरी है। यहाँ उन्हीं राजा कृपका राज्य है, जो राजाओंमें बड़े ही गौरव-पूर्ण और यशस्वी माने जाते हैं तथा शत्रुरूपी गजोंका संहार करनेमें सिंहके समान पराक्रम रखते हैं। उनकी कीर्ति चारों दिशाओंमें छायी हुई है। राजाके सौभाग्यमंजरी नामकी एक पुत्री है, जो मृगोंकी सी आँखवाली, सौभाग्य मंजरी और अपनी अद्भुत कान्तिसे इस पृथ्वीको जगमग करनेवाली है। जिन देवताओंने अमृत-कृपके समान उस अलौकिक सौन्दर्यको नहीं देखा, मैं तो उनके भी जीवनको व्यर्थ ही समझती हूँ। इस समय बालकपन-रूपी पहरेदारने उसके शरीरका पहरा यौवनको सौंप दिया है। राजकुमारोके ही समान रूप, गुण और शोलमें प्रशंसनीय दो सहचरियाँ सदा उनके साथ ही रहती हैं। इनमें एक मन्त्री धीरकी लड़की है और दूसरी धन्य नामक P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 रतिसार कुमार सेठकी है। ये दोनों भी ऐसी सुन्दर हैं, कि मालूम पड़ता है, मानों राजकुमारीकी रूप-रचना करने में कहीं कुछ कसर रह गयी है या नहीं, इसी बातकी परीक्षा करनेके लिये विधिने इन दोनोंके सौन्यकी सृष्टिकी है। प्रियंवदा और सुतारा नामकी ये सहेलियाँ सदा-सब कामोंमें राजकुमारीके साथ रहा करती हैं। जैसे रति और कान्ति लक्ष्मीको कभी नहीं त्याग देतीं, वैसे ही ये दोनों भी राजकुमारीको कभी नहीं छोड़तीं। ये तीनों लड़कियाँ मानों तीनों लोकोंका सौन्दर्य लूट लायी हैं और सब कलाओंमें कुशल हैं। वे सदा यहाँ पर कामदेवकी पूजा करनेके लिये आया करती हैं। यह आवाज़ तो कुछ उन्हीं सबकी सी मालूम पड़ती है।" ___ वह मन्दिरकी पुजारिन ऐसा कही रही थी, कि इसी समय कुमारने कामदेवकी पूजा करनेके लिये आती हुई उन चञ्चल नेत्रोंवाली सुन्दरियोंको देखा। उस समूहमें तीन सुन्दरियाँ जो पालकियों पर सवार थीं, अनङ्ग-महाराजकी तीनों *शक्तियोंके समान जान पड़ती थीं। वे कनक-कान्तिमयी कामिनियाँ युवा पुरुषोंके नर रूपी वनको दहन करनेवाली दावाग्निकी तरह लपकी हुई चली आ रही थीं। पुरुषोंके हृदयमें छाये हुए मोहमय अन्धकारमें प्रकाश उत्पन्न करनेवाले चन्द्रमाके समान सुन्दर मुख-मण्डलसे शोभाका विस्तार करती, विवेक-रूपी पुष्पमें लीन सत्पुरुषोंके मन-रूपी भौंरेको - प्रभुशक्ति, मन्त्रशक्ति और उत्साह-शक्ति। P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा परिच्छेद आकर्षित करनेवाले नेत्र-कमलोंसे संसार -समुद्रकी शोभा बढ़ानेवाली, मुनिवरोंके जन्मसे ही प्राप्त उज्ज्वल यशको मलिन करनेवाले कामदेवके दीपकके समान तेजोमय शरीरसे अपूर्व सुन्दरता छिटकाती हुई उन तीनों कन्याओं को पास आते देख, कुमार कामसे पीड़ित हो गये और एक भिन्न प्रकारका विकार अनुभव करने लगे। इधर वे कन्याएँ, सुन्दर कान्ति-रूपी चक्रसे सुशोभित इस नरेन्द्रको देख, आश्चर्यमें पड़कर परस्पर मुस्कराकर बातें करने लगीं। वे कहने लगी,-“एँ! यह पुरुष कौन है ? कहीं हमारीभक्तिसे प्रसन्न होकर स्वयं कामदेव हो तो मन्दिरसे नहीं निकल आये और हमारी राह देख रहे हैं ? अथवा अपनी प्रेमिकाके फेरमें पड़कर कोई देवता ही कामदेवको सेवा करनेको चला आया है ? अथवा हमें वरदान देनेके लिये ही कामदेवने अपनेले अधिक सुन्दर इस नवयुवाको यहाँ पर ला रखा है।" इसी प्रकार नाना प्रकारके तर्क-वितर्क करती और कुमारकी ओर टकटकी लगा कर देखती हुई वे तीनों पालकियोंसे नीचे उतरीं। वस्त्रोंसे भली भांति शरीर ढंका रहने पर भी वे बार-बार अपने अङ्गोंको छिपानेकी चेष्टा कर रही थीं और रह-रह कर उनके पैर फिसले पड़ते थे। इसी तरह वे धीरेधीरे चलती हुई मन्दिरके मध्यभागमें आयीं। कुमारके मुखको बार-बार देखनेकी इच्छा लज्जाके मारे पूरी नहीं होती थी, इसीलिये वे कनखियोंसे उनकी ओर देखने लगीं। उस समय ठीक ऐस ही मालूम पड़ता था, मानों उनकी आँख, कानके पास P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 रतिसार कुमार जाकर पूछ रही हैं, कि कहीं ऐसा रूप भी होते सुना है ? क्रमशः वे भी मदन-विकारसे पीड़ित हो गयीं और उनके मुंह पर पसीना छूटने लगा। अस्तु; काम-बाणसे अकुलाती, कुमारके स्पर्श करनेके लोभसे व्याकुल होती और चित्तकी बेचैनीसे पग-पगपर ठोकरें खाती हुई वे आगे बढ़ीं। इस प्रकार मदनकी मारसे बेचैन होती हुई उन सुन्दरियोंको अपने हृदयमें पधारनेका निमंत्रण देनेके लिये कुमारने भी नील कमलकी मालाके समान अपनी दृष्टिका उपहार उन्हें बड़े प्रेमसे दिया। बड़ी-बड़ी मुश्किलोंसे कुमारकी नज़रें बचाती हुई वे तीनों सखियाँ अपने हृदय कुमारको दानकर मन्दिरके अन्दर आयीं। उस समय राजकुमारोने विरहके भयसे व्याकुल होकर अपनी सखियोंसे हँसते हुए कहा,-"प्यारी सखियो ! हम सब लड़कपनसे आजतक प्रेमके वन्धनमें बँधकर सदा एक साथ रहती चली आयीं-कभी एक दूसरीसे अलग नहीं हुई। परन्तु अब हमारे पिता न जाने हमारी शादी कहाँ-कहाँ करेंगे; क्योंकि हमारी जाति भिन्न-भिन्न हैं। फिर जब हम दूसरी-दूसरी जगह चली जायेंगी, तब हमारा मिलना कैसे हो सकेगा ? इसलिये यदि हम तीनों सदा एक साथ रहना चाहती हों, तो हमें इसी नेत्रानन्ददायक कुमारके साथ एकही संग व्याह. कर लेना चाहिये / इसीलिये मेरी राय है, कि आज रातको चुपचाप सबकी नज़र बचाकर हम यहाँ चली आवें और इसीको अपना प्रिय पति बनावें, जिसमें फिर कभी हमारा वियोग न हो। . .......... .P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . दूसरा परिच्छेद यह कह, सस्त्रियोंका उत्तर सुननेके लिये उत्कण्ठाके साथ कान खड़े किये हुई राजकुमारी सौभाग्यमञ्जरी चुप हो रही। इसी समय प्रियंवदाबोल उठी,-"प्यारी बहन! मैं तुम्हारी सौगन्ध खाकर कहती हूँ, कि मेरे मनमें भी ठीक यही बात आयी थी।" सुताराने भी ऐसा ही उत्तर दिया-मानों इन दोनोंने राजकुमारीकी बात की प्रतिध्वनि की। ___ इस प्रकार परस्पर प्रेमालापमें मिली हुई तीनों सखियोंने शुद्ध मनसे कामदेवकी पूजा की। पूजा करनेके बाद, बाहर आ, कामदेवकी स्तुतिके बहाने, उन तीनों कुमारियोंने कुमारको लक्ष्य कर, मधुर वाणीमें कहा, "हे नाथ! जैसे हमारे मन आपमें स्थिर भावसे टिके हुए हैं ; वे से ही आप भी इस मन्दिरमें स्थिर होकर रहिये।” उनकी इस युक्तिपूर्ण बातको सुनकर चतुर कुमार समझ गये, कि उन्होंने उनको रातके समय यहीं रहनेका इशारा किया है। _ इसके बाद मदन-विडम्बनासे परवश बनी हुई घे कुमारियाँ / अपने हृदयमें सुलगती हुई कामाग्निसे पकाये हुए राग-रस द्वारा कुमारका चित्र अपने चित्तमें अङ्कित कर, कामदेवकी पूजाकी चारुता और दीपकी शोभा देखनेके बहाने बार-बार पीछेकी ओर दृष्टि डालती हुई चली गयीं, उस समयसे उनके हृदयपर पड़ा हुआ हार और मार (कामदेव ) उनके हृदयको और भी जलाने लगा। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा परिच्छेद विवाह tw ध र अनङ्ग-देवके अनुल्लंघनीय शासनके अधीन बनेहुए कुमार, दुर्निवार मोहमें पड़े हुए बड़ी देर तक वहीं dha बैठे रह गये। इसके बाद यह सोचकर, कि यह सुन्दर पुरुष कामदेवका कोई बड़ा भारी भक्त है, उस मन्दिरकी पुजारिन उन्हें प्रसादके लड्डु, आदि दे गयी। कुमारने भी चार दिनोंके भूखे होनेके कारण उन्हीं लड्डुओंले अपनी भूख बुझायी और कामदेवके प्रसादके बचे हुए ताम्बूल, पुष्प और चन्दनके विलेपनको धारण कर वे साक्षात् कामदेवकी भाँति शोभित होने लगेगा / 4. क्रमशः सूर्य अस्ताचलको चले गये, रात्रिका अन्धकार बढ़ने लगा। चारों ओर घोर अन्धेरा छा गया। इसके बाद जब सारे नगरके लोग निद्राकी गोदमें विश्राम करने लगे, तब आधीरातके समय वे तीनों सखियाँ चुपचाप-अपने गहनोंका भी शब्द न होने देते हुए-विवाहकी समस्त सामग्रियाँ साथ लिये हुई P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा परिच्छेद 27 कामदेवके मन्दिरकी ओर चलीं। उस समय उनके हृदय में भी कुमारकी ही तरह यह सन्देह हो रहा था, कि कहीं वह पुरुष अन्यत्र तो नहीं चला गया ? इधर कुमार भी यही सोच रहे थे, कि कहीं वे नहीं आयीं, तो फिर मेरी यह तपस्या किस काम आयेगी ? पर उस समय दोनों ओरके आनन्दकी सीमा न रही, जब एक दूसरेने अपने प्रेमपात्रको आँखों देख लिया। सखियाँ कुमारको देख, जितनी आनन्दित हुई, कुमार भी उन्हें देखकर उतनेही आनन्दित हुए। ...तदनन्तर बड़े प्रेमसे आग सुलगायी गयी-उस समय उस अग्निकी ज्वाला ऐसी मालूम पड़ो, मानों उन तीनोंने अपने हृक्ष्य. . की विरहाग्नि बाहर निकालकर रख दी हो। तदनन्तर विवाहके समय किये जानेवाले कितने ही कृत्य करके उन तीनों कन्याओंने राजकुमारके साथ अपना विवाह कर लिया। विवाहके बाद परस्पर प्रेमालाप होने लगा। रातभर उनमेंसे कोई सोयाही नहीं-सारी रात रंग-रस और प्रेमकी बातें होती रहीं। अन्तमें जब रात बीत गयी ओर प्रभात हो चला, तब वे नवविवाहिता स्त्रियाँ अपने खामीले आज्ञा ले, अपने-अपने घर चली गयीं और चन्द्र-विरहिणी कुमुदिनीकी भाँति सो रहीं। पुनः सूर्योदय होनेके भयसे भगी हुई निद्राने कमलोंको छोड़कर कुमारके नेत्र-कमलोकी शरण ली। 17 तदनन्तर जब रात्रिकी तरह अपनी देहको भीनाशवान् समझ कर बुद्धिमान् पुरुषगण धर्मध्यान करने लगे; जब कमलोंकी गयी * P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 ___ रतिसार कुमार हई शोभाको पुनः लौटते देख, लक्ष्मीको चञ्चल समझकर, हृदय में सन्तोष धारण किये हुए विद्वान् पुरुष दान करने लगे ; जिसका संयोग होता है, उसका वियोग भी अवश्यम्भावी है इस बातको बतलानेवाले चक्रवाक-पक्षीको देखकर जब साधु पुरुष धर्मदेशना सुनाने लगे; जब कमलोंपर मँडराते हुए भौरे मानों यही कहने लगे, कि समय आनेपर सोये हुए मनुष्यको भी मेरी ही तरह लक्ष्मी प्राप्त होती है, इसलिये उसके लिये कष्ट उठानेकीकोई आवश्यकता नहीं ; जब सूर्यने उसी तरह संसारके अन्धकारका नाश कर दिया, जिस तरह तीर्थङ्कर अपने चरणों द्वारा पृथ्वीको पवित्र कर सारे संसारके पाप-तापका नाश कर देते हैं। जब ज्ञानी मनुष्य यही जानकर ज्ञानका अभ्यास करने में लीन हो गये, कि ज्ञानही सारी सिद्धियोंका मूल है : तब उसी प्रभातकालमें डरती-डरती महलकी पहरेदारिनोंने राजासे आकर कहा,"महाराज! राजकुमारी सौभाग्यमञ्जरी आज अभीतक सोकर नहीं उठी हैं। साथ ही यह बात भी बड़े अचम्भेकी है, कि उनके शरीर पर विवाहके चिह्न दिखलाई दे रहे हैं।" - इसी समय मन्त्री और सेठने भी राजासे आकर कहा, कि आज रातको न जाने किसने छिपे-छिपे मेरी कन्याके साथ विवाह कर लिया। यह समाचार सुनकर राजा बड़ी चिन्तामें पड़ गये। उन्हें यह सोचकर बड़ा भारी क्रोध हुआ, कि उनके राज्यमें आकर न जाने कौन ऐसी अनहोनी बात कर गया! जिस समय राजा इस विचारमें पड़े हुए चिन्तामें चर हो रहे थे, उसी समय एक P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा परिच्छेद 26 आदमीने आगे बढ़कर कहा,-"महाराज! आज कामदेवके मन्दिर में एक ऐसा नवयुवक सोया हुआ दिखाई दिया है,जो बड़ा ही सुन्दर है और जिसके शरीरपर हालही में विवाह होनेके चिह्न दिखाई पड़े हैं। यह सुनतेही क्रोधाकुल राजाने कोतवालको बुलाकर हुक्म दिया,-"कोतवाल ! तुमअभी जाकर उस आदमी. को पकड़कर यहाँ ले आओ।" राजाकी आज्ञा पाकर कोतवाल तुरत वहाँ पहुँचा और उस तेजस्वी तथा बलवान् कुमारको देख, डरा हुआ लौट आकर राजासे बोला,-"महाराज! वह तो कोई बड़ाही खानदानी आदमी मालूम पड़ता है। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें मानों जगत्को तृणवत् देख रही हैं। उसके शरीरकी चमक सूर्यकीसी मालूम पड़ती है। उसका रूप ऐसा सुन्दर है, कि देवता भी उसको देखकर मुग्ध हो जायेंगे और देवियाँ भी उसकी दासी होनेकी इच्छा करेंगी। वह ऐसा अपूर्व सुन्दर पुरुष है, उसकी दृष्टिमें ऐसी मोहकता भरी है, उसकी चाल-ढल ऐसी मनोहर है, कि इन्द्र भी उसका आदर करेंगे, ऐसा मालूम पड़ता है। यह सब देखकर मेरी तो यही धारणा हुई है, कि वह कोई सामान्य पुरुष . नहीं है। वह अकेला है और मेरे पास बहुतसे वीर सिपाही हैं, तोभी जैसे तृणोंका समूह एक छोटी सीआगकी चिनगारीको नहीं पकड़ सकता, वैसेही मैं भी उसे पकड़कर नहीं ला सकता।" .. ही कोतवालकी यह बात सुन, अभिमानी राजाने उस आगन्तुक कुमारको पकड़नेके लियेबड़ी भारी सेनाकेसाथ सेनापतिको उसी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. * Jun Gun Aaradhak Trust Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार समय रवाना किया। सेनापति भी बहुतसे पैदल सिपाही, रथी और घुड़सवार सैनिकोंके साथ हाथ में खङ्ग लिये बड़े तमक तोव के साथ चले, मानों उन्हें कोई बड़ा भारी किला जीतना हो। सेनापतिके आनेके पहलेही बहुतसे आद. मियोंने कुमारके पास पहुँच कर कहा, कि तुम्हें गिरफ्तार करनेके लिये बहुत बड़ी सेनाके साथ सेनापति चले आ रहे हैं। परन्तु यह समाचार पाकर भी कुमारका एक रोआँ नहीं कम्पित हुआ। थोड़ी ही देर बाद राजाके शूर-वीर सिपाहियोंने कामदेवके उस मन्दिरको ठीक उसी तरह घेर लिया, जैसे कर कर्म आत्माको घर लेते हैं। उन अकड़बेग सिपाहियोंने कुमारको ओर जब टेढ़ी गर्दन करके नज़र फेरी, तब ठीक ऐसाही मालम पड़ा, मानों बहुतले जुगनू सूरजकी ओर देख रहे हों। कुमारको देखतेही सब सिपाही “पकड़ो-पकड़ो" की आवाज़ लगाने लगे। यह कहते हुए वे सब प्रलयकालके पवनके समान बड़े वेगसे कुमारकी ओर दौड़ पड़े। परन्तु मेरु-पर्वतके समान अचल बने हुए कुमारको इससे तनिक भी क्षोभ नहीं हुआ। वे ठीक वैसेही निश्चिन्त रहे, जैसे भड़ौच-नगरके मैदानमें चारों ओर वीर पुरुषोंके शस्त्र चलते रहने पर भी श्रीपालकुमार तनिक भी नहीं घबराते थे, सच है, धीर पुरुषोंका मन सम्पत्ति और विपत्तिमें एकसाही बना रहता है। विपत्ति आनेपर उन्हें तनिक भी मानसिक कष्ट नहीं होता। इसी प्रकार स्थानके त्याग, प्रियाके अनुराग और भयकी प्राप्ति आदिसे भी उस श्लोक-रत्नको सदा स्मरण रखनेवाले कुमारका P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा परिच्छेद 31 मन ज़रा भी चञ्चल नहीं हुआ। इतने में क्रोधसे गर्वमें भरे हुए जो बहादुर सिपाही कुमारको पकड़कर ले जानेके लिये आये थे, वे सबके सब अन्धे हो गये-उन्हें अपना हाथ तक भी पसारे नहीं सूझाने लगा। ऐसी अवस्था हो जानेके कारण वे ओपसमें ही एक दूसरेपर गिर पड़ने लगे और अपनेही आदमियोंको शत्रु समझ कर आपस में ही युद्ध करने लगे। कोई-कोई तो मन्दिरको पाषाण प्रतिमाकोही कुमार समझकर पीटने लगे और कहने लगे,कि तूने चोरीसे राजकुमारी और उसकी सखियोंके साथ क्यों शादी की ? कोई मन्दिरमें लटकते हुए चँवरको ही कुमारका केश समझ कर, पकडकर नोचने और गालियां बकने लगा। कोई मन्दिरके पत्थरके बने हुए हाथीकी रॉडको ही कुमारका हाथ समझ, पकड़कर खींचने और क्रोधसे दांत पीसते हुए जोर आज़माने लगा। इस प्रकार उन अन्धे सिपाहियों की विचित्र हरकतें देख-देखकर कुमार मन-ही-मन हँसने लगे। जब राजाने अपने सिपाहियोंकी यह हालत सुनी, तब तुरत अपने मन्त्रीको बुलाकर कहा,-"वह आदमी कोई मामूली नहीं मालूम पड़ता, इसलिये तुम वहाँ जाकर उसे बड़े आदरके साथ यहाँ ले आओ।" - राजाकी आज्ञा पा, मन्त्री, उसी समय घोड़ेपर सवार हो, वहाँ पहुँचे और अपने सिपाहियोंसे बोले, कि इस वीर पुरुषके साथ तुम लोग युद्ध मत करो। मन्त्रीकी यह आझा पातही सब ... सिपाही शान्त हो गये और उनकी आंखें भी पहलेकी ही भांति P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार हो गयीं-उन्हें सब कुछ साफ़ दिखाई देने लगा। वे यह जान कर बढ़े ही लजित हुए, कि इतनी देरतक वे आपसमें ही एक दूसरेसे लड़ रहे थे। इसके बाद मन्त्री, घोड़ेसे नीचे उतर कर. मन्दिरमें गये और कुमारके पास पहुँचकर बड़ी विनयके साथ कहने लगे,-"हे वीर-शिरोमणि! हे गम्भीर गुणनिधि ! तुम्हारे मुखचन्द्रको देखनेके लिये राजाके नेत्र चकोरकी भाँति तुम्हारी राह देख रहे हैं।" मन्त्रीकी बातका कोई जबाब न दे, कुमार तुरत ही राजाके पास जानेके लिये उठ खड़े हुए और एक अच्छेसे रथ पर सवार हो, मन्त्रीके साथ-साथ राजमहलके पास आ पहुँचे। - जिस समय कुमार राजसभामें पहुँचे, उस समय उनकी वह निराली शोभा देख, राजाने अपने मनमें विचार किया,"अहा! इस कान्तिमान् वीर पुरुषका एक बार दर्शन करने वाला मनुष्य भी धन्य और सत्पुरुषों का मान्य है। फिर जिसका यह बन्धु होगा, उसका क्या कहना है ? कामदेवके मित्रके समान इस पुरुषको जो स्त्री हृदयसे प्यार करेगी; उसका जन्म सफल हो जायेगा और फिर वह किसी दूसरेको अपना हृदय नहीं दे सकेगी।" इस प्रकार कुमारको देखते ही ध्यानमें लीन बने हुए राजाके पास आकर कुमारने बड़े आदरके . साथ मुकुट : उतार कर राजाको प्रणाम किया। उसी समय. राजाने अपनी दोनों भुझायें फैलाये हुए आसन से उठ कर कहा, "हे सुगुणपुष्पमालाके धारण करने वाले! . आओ और उत्सुकताके साथ P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार 1049F-. capa इस प्रकार मदनकी मारसे बेचैने होती हुई उन सुन्दरियोंको अपने / हृदयमें पधारनेका निमन्त्रण देनेके लिये कुमारने भी नील कमलकी मालाके समान अपनी दृष्टिका उपहार उन्हें बड़े प्रेमसे दिया। Narsingh Press. Calcutta. - (पृष्ठ 24) / P.P.AC. Gunratnasuri.M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा परिच्छेद मेरे अंगोंका आलिङ्गन करो, जिससे ये अङ्ग तुम्हारे स्पर्श-रूपी अमृतका पान कर रसनेन्द्रियको लजित कर दें।" यह कह राजा नीचे उतर आये और कुमारको गलेसे लगाकर अपने साथ सिंहासन तक ले आये तथा उन्हें गोदमें बैठाकर कहने लगे,-'हे वीर श्रेष्ठ ! अपने स्फटिकके समान उज्वल गुणोंसे तुमने किस कुलको सब कुलोंका आभूषण बना रखा है ? अभिधान-रूपी अमृतके कलशले किन अक्षरोंको लेकर तुम संसारके दुःखोंसे जलते हुए सजनोंके मनको सींच रहे हो? हमारे राज्यके अपूर्व-भाग्यसे आकर्षित होकर तुमने अपने वियोगले किस देशको दुःखित किया है ? तुम्हारी वेश-भूषा देखकर मालूम पड़ता है, कि तुमने हालमें ही विवाह किया है। पर यह तो कहो, तुमने किस कन्या के जीवन, जन्म और शरीरको सफल किया है ? तुम्हारा रूप ऐसा मन-लुभावना होने पर भी मेरे सिपाही क्यों दुम्हें देख कर वैसे ही अन्धे हो गये; जैसे सूर्यको देख कर उल्लू अन्धे हो जाते हैं।" राजा की यह बात सुन, कुमारने उनसे अपना हाल ज्योंका त्यों कह सुनाया और अन्तमें कहा,-"आपके सिपाही क्यों अन्धे हो गये, यह मुझे नहीं मालूम। ___ इसके बाद राजा, मन्त्री और सेठने अपनी-अपनी कन्यामोंके विवाह बड़ी धूम-धामके साथ किये। उसी समय श्लोक अर्पण करने के कारण बन्धुके समान, प्रीतिमान् बने हुए सुबन्धुने सुना, कि कुमार उसके नगरमें आये हैं। यह सुन, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 रतिसार कुमार वह भी वहाँ आ पहुँचा और विवाहके आनन्द में वृद्धि करने लगा। विवाहोत्सवकी समाप्तिके बाद सुबन्धुने राजासे कहा,-"महाराज! इस समय मेरे पास जो कुछ धन-दौलत है, वह सब इन्हीं कुमार साहबकी कृपासे प्राप्त हुई है।" यह सुन राजाको बड़ा ही आनन्द हुआ। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा परिच्छेद 50000 3 . C पूर्व-भव మంది Rec98 क दिन तीसरे पहर जब राजा, कुमारके साथ बैठे - हुए, उनसे प्रीतिके साथ वार्तालाप कर रहे थे, 05 उसी समयमालीने आकर बड़ी विनयके साथ कहा,"महाराज! आज धर्मके प्रचारक एक चारण-मुनि आकाशसे उतर कर आपके बागीचेमें कायोत्सर्ग किये हुए टिके हैं।" ___यह समाचार सुन, राजाने मालोको खूब इनाम दिया और बड़ी उत्कण्ठाके साथ कुमारको संग लिये हुए मुनिकी वन्दना करने चले। उद्यानमें पहुँच कर राजा और कुमारने मुनिकी वन्दना की और चुपचाप एक ओर बैठ गये। तीनों ज्ञानके धारण करने वाले मुनीश्वरने प्रणाम करने वाले राजा और कुमारको भव्य जीव जान, कायोत्सर्गकी क्रिया त्याग दी और संसार रूपी वनके दावानलसे जलते हुए जीवोंको शान्ति देने वाली तथा मुक्ति-मगरका द्वार खोलने वाली सुधा-समान देशना देनी भारम्भ की। , .. .. . P.P.AC.Gunratnasuri M.S. - Jun Gun Aaradhak Trust Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार भने पृथ्वा लोग क र श देशना समाप्त होने पर राजकुमारने मुनीश्वरको प्रणाम कर, सुबन्धुके और अपने कर्मकी विचित्रताका कारण रूप पूर्वभव-सम्बन्धी वृत्तान्त सुननेकी इच्छा प्रगट की। यह सुन, मुनीश्वरने किरणोंके समान चमकते हुए दाँतों के बीच सरस्वती के हिंडोलेके समान जिह्वाको लाकर यों कहना आरम्भ किया। ___"पूर्व समयमें पृथ्वीके सब नगरोंमें श्रेष्ट हस्तिपुर नामका एक नगर था। उस नगरके लोग कीर्ति रूपी जलमें स्नान कर लक्ष्मीका सेवन कर रहे थे। उल नगरमें शत्रुओंको त्रास देनेवाले सुमित्र नामके एक राजा रहते थे। राजाकी प्रताप वल्लीके सामने सूर्य भी फूल सा दीखता था। उनकी कलाओं और गुणोंका सङ्कत करने वाला तथा विश्वका आभूषणस्वरूप विश्वसेन नामका एक पुत्र भी उनके था। कुमारके चित्तमें इतनी दया थी, कि वे गर्वसे फुफकार छोड़ते हुए सर्प को भी दुष्ट दष्टिसे नहीं देखते थे। दया-रूपिणी हस्तिनाके लिये विन्ध्याचलके समान वे कुमार अन्यान्य-वल्लीके अङ्कर-रूपी चोर-डाकुओं पर भी कभी वधकी आज्ञा नहीं जारी करते थे चाहे अपराधी हो या क्रोधित शत्रु ; पर राजकुमार इतने विश्ववत्सल थे, कि किसी पर द्वेष नहीं रखते थे। कलासार, शूर, वीर और जय नामके चार मित्र कुमारके बड़े ही प्रिय थे। इनमें पहला मन्त्रोका लड़का, दूसरा एक क्षत्रीका पुत्र, तीसरा वेश्यका पुत्र और चौथा वैद्यका पुत्र था। जैसे बुद्धिमान् पुरु P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा परिच्छेद षोंकी आत्मा चार प्रकारके.धर्मों के साथ क्रीड़ा करती है, वैसेही कुमार भी अपने इन चारों मित्रोंके साथ खेल-कूद किया करते थे। __ "एक दिन वे दयालु कुमार अपना दिल बहलानेके लिये बाग़ीचेकी ओर चले जा रहे थे। इसी समय उन्होंने एक स्थान पर शूलीके नीचे खड़ा एक पुरुष देखा, जिसके पास ही चण्डाल भी खड़ा था। कुमारने यह देखते ही उस चाण्डालसे पूछा, क्यों भाई ! इस आदमीने ऐसा कौनसा अपराध किया है, जिसके लिये इसे इतनी बड़ी सज़ा दी जा रही है ?" यह सुन उस चाण्डालने कहा,-"इसने आपकी माताके चमकीले और मूल्यवान् रनोंके आभूषण चुराये है, इसीलिये राजाने इसे शूली पर चढ़ानेका दण्ड दिया है।” कुमारने कहा-"जब इसने मेरी ही माता के गहने चुराये है, तब तो इसे मेरीही मरजीके मुताबिक सजा मिलनी चाहिये।" यह कह, उन्होंने उस आदमीको चाण्डालसे छुड़ाकर अपने साथ ले लिया और उसे इस प्रकार शिक्षा देनी आरम्भ की,-"देखो, अन्यायसे ग्रहण की हुई लक्ष्मी सर्पके मणिकी भाँति मोहसे मत्त बने हुए मनुष्योंको निश्चय ही मृत्यु देने वाली है। इसलिये मनुष्यको चाहिये, कि लक्ष्मीको आकर्षित करनेवाले मन्त्रके समान; आपत्तिको छुड़ाने वाले यत्नके समान, और धर्मके जीवित रूपके समान, न्यायमें अपनी मति सदैव लगाये रखे।” इस प्रकार शिक्षा देकर तथा बहुत से उत्तम वस्त्र आदि देकर कुमारने उस चोरको छोड़ दिया। _"एक दिन कुमार राजाके पास चले जा रहे थे, इसी समय P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - रतिसार कुमार उन्होंने देखा, कि राजगृहके आँगनमें प्रजाका समूह इकट्ठा हो रहा है। कुमारने पूछा,-'यह क्या मामला है ?' यह सुन, भक्तिकलामें परम प्रवीण कोतवालने हाथ जोड़े उत्तर दिया,"राजकुमार ? यह ताम्रलिप्ति-नगरका राजा विक्रमसेन है। इस कपटी राजाने अपनी सेनाके द्वारा हमारे देशका ठीक उसी तरह सत्यानाश करवाया है, जैसे बाज़ पक्षियोंका नाश करता है। इसने इस नगरमें अपने गुप्तचर भेज कर जयलक्ष्मीके लीला-पर्वतके समान हमारे हाथियोंको जहर देकर मरवा डाला है। राजकुमार ! हमारा इसकासा भयङ्कर शत्रु इस दुनियामें दूसरा नहीं है। वीरसेन नामक हमारे सेनापतिने इसे छलसे पकड़ कर यहाँ ला पहुँचाया है। अब हमारे राजा साहबने हमें आज्ञा दी है, कि इस अपराधोंके समुद्रको मारकर ढेर कर दिया जाये। यह सुनते ही कुमारका चेहरा क्रोधसे तमतमा उठा और उनके हाथकी चमकती हुई तलवार कालके कटाक्षकी भाँति नाच उठी। देखनेवालोंने सोचा, कि कुमार स्वयं इस अपराधीको मारेंगे। ताम्रलिप्ति नगरके राजाने भी कुमारको इस प्रकार वीर-वेशमें अपनी ओर आते देख सोचा, कि बस अब मेरी मृत्यु.मा पहुँची। भयके मारे उसकी आँखें पथरा गयीं; परन्तु कुमारने उसके पास पहुँच, कृपा. से आँखोंमें आँसू भर, प्रेमसे रोमाञ्चित हो, निःस्वार्थ बन्धु समान उस राजाके बन्धन अपनी तलवारसे काट डाले। इसक बाद मनकी तरह तीव्र गति वाला और मनको आनन्द देने P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा परिच्छेद 36 वाला एक घोड़ा मँगवा कर राजकुमारने उस राजाको उसी पर सवार हो, चले जानेको कहा। वह भी अपनी जान लेकर तुरत चल दिया। ..... .... ... “यह समाचार सुन, राजा बड़े क्रोधित हुए- उनके चेहरेकी कान्ती फीकी पड़ गयी। उन्होंने मेघकी तरह गरजकर कुमारसे कहा,-'यदि एक मनुष्यको मार डालनेसे बहुतसे मनुष्योंको सुख होता हो, तो वैसे मनुष्यको बड़े दयालू चित्तवाले और शुद्ध बुद्धिवाले मनुष्य भी बिना मारे नहीं छोड़ते। रे पापी तेरी यह कृपा कुएँमें क्यों नहीं गिर गयी, जो तूने एक दुष्ट शत्रु को सस्ते छोड़कर सारे देशका सत्यानाश कराया ? सारे देशको तबाह करनेवाले शत्रु पर दया करके तू स्वयं ही मेरा शत्रु हो गया, इसलिये तू अभी मेरे देशसे निकल जा, कदापि मेरे राज्यके भीतर पैर न रखना।" .. --- "राजाके ऐसे वचन सुन, हर्षके साथ कुमारने विद्वानोंको भी चकित करनेवाला यह उत्तर दिया,-'पिताजी ! श्वास लेते, हँसते, चलते और अन्यान्य क्रियाएँ करते समय कौन मनुष्य हज़ारों प्राणियोंकी हत्या नहीं कर डालता? इससे क्या एक प्राणीके वधसे हज़ारों को सुख होता है ? यदि यही बात है, तो आपही कहें, बुद्धिमान् मनुष्योंको बहुतसे लोगोंकी भलाईके लिये किसको मारना चाहिये और दयालू पुरुषोंको किसपर दया करनी चाहिये ? महाराज ! मेरा तो यही मत है, कि दुःखमें पड़े हुए किसी भी प्राणीकी रक्षा करनी चाहिये, चाहे वह अपना P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 रतिसार कुमार शत्रु हो या मित्र / जो शत्रु ओंके उपद्रव सहन कर लेता है, वह मोक्षका अधिकारी होता है, फिर जो शत्रु पर उपकार करता है, उसकी गतिका तो पूछना ही क्या है ? इस लिये पिताजी! यदि आप द्वषको दिलसे दूर कर विचार करें, तो आपको मालूम होगा, कि मैंने कोई बुरा काम नहीं किया। मैं तो आपके चरण कमलों का भ्रमर हूँ-मुझे आप क्यों अपना शत्रु समझ रहे हैं ? आपने जो मुझे यह आज्ञा दी, कि मेरी भूमिपर पैर न रखो, इसे मैं सिर-आँखोंपर चढ़ाता हूँ; क्योंकि पिताकी आज्ञा नहीं . माननेवाला पुत्र बड़ा भारी पातकी माना जाता है।" “यह कह, महावीर राजकुमार, जो पुरुषोंमें रत्नके समान थे, ठीक उसी तरह परदेश जानेके लिये तैयार हो गये, जैसे हंस वर्षाकालमें कमल-वनसे प्रस्थान कर जाता है। देश-त्याग करने के लिये कुमारको तैयार होते देख नगरके रहनेवाले बड़े दुखी होने लगे। जहां-तहां लोग यही चर्चा करते हुए दीख पड़ने लगे, कि कृपामय प्राण, परत्राणमें तत्पर बुद्धि रखनेवाले हमारे हृदयाधार कुमार कहां जारहे हैं ? शत्रु ओंसे सताये जानेवालोके माता-पिताकी तरह रक्षा करनेवाले और सारे जगत्के जीवनके समान कुमार भला कहाँ जानेको तैयार हो रहे है ! जा सारे संसारको अपना कुटुम्ब मानते हैं, जिनका चरित्र बड़ा हा पवित्र और उदार है, वे कुमार भला हमें छोड़ कर कहाँ चल जाते हैं ? जैसे प्राणोंसे शरीरकी शोभा है, वैसेही उनसे यह नगर सुशोभित है। फिर वे हम सबको छोड़कर कहाँ चले P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा परिच्छेद जारहे हैं ? इस प्रकार रो-रोकर अपने हृदयका दुःख प्रकट करने वाले नगर-निवासियोंको दृष्टिमें अन्धकार उत्पन्न करते और उनकी चेतना लुप्त करते हुए कुमार नगरसे बाहर निकल पड़े। उस गुणोंकी पिटारीके समान प्राणोपम प्रिय वीर पुरुषके नगरसे बाहर होतेही लोग आँसुओंकी नदीमें नहाने लगे। बहुतसे नगरनिवासी तो उनके पीछे-पीछे चल पड़े; पर तुरतही राजाके डरके मारे लौट आये-हाँ, राजकुमारके पूर्वोक्त चारों मित्रोंने उनका साथ नहीं छोड़ा-वे उनके साथही चलने लगे। पृथ्वी के जिस भागमें कुमारके चरण पड़ते, वही सूर्यके आगमनसे प्रकाशित पृथ्वीकी तरह अपूर्व शोभा धारण कर लेता था। इधर पृथ्वीके जिस भागको उन्होंने त्याग दिया, वह सारी शोभाओंसे रहित हो गया। / .. "इस प्रकार अनेक देशों और बनोंको पार करते हुए कुमार पांचवें दिन एक नगरके पास आ पहुँचे और एक सरोवरके निकट विश्राम करनेके लिये बैठ गये। इसी समय क्षत्रिय-पुत्र शूर और वणिक -पुत्र वीर दोनों ही झटपट एक गांवमें चले गये और वहाँसे कुछ खाने-पीने की चीजें ले आये। इतने में मंत्रीपुत्र कलासार और वैद्य-पुत्र जयने कुमार विश्वसेनकी देवपूजाका सारा सामान ठीक कर दिया। पूजा समाप्त होनेके अनन्तर जब राजकुमार भोजन करनेके लिये तैयार हुए, तब किसी अतिथिके आनेकी राह देखने लगे। इसी समय एक महीने भरके उपवासी मुनि दिखाई पड़े। सच है, 'धन्यानां फलन्त्याशु P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 रतिसार कुमार मनोरथाः' (धन्य पुरुषोंके मनोरथ तत्काल फलीभूत होते हैं) मुनिको देखते ही सुचतुर राजकुमार और उनके चारों मित्रोंने उनसे भोजन करनेके लिये आग्रह किया। यद्यपि राजकुमारके मित्र भूखसे तड़प रहे थे, तथापि अपने मित्रकी उदारता देख, उन्होंने भी मुनि महाराजको भोजन कराने में बड़ा उत्साह दिखलाया और सबके सब कहने लगे, कि ऐसे समय ऐसे सुपात्रके दर्शन भी बड़े भाग्यसे होते हैं, इसलिये इन्हें शीघ्रही भोजन कराना चाहिये। उन लोगोंका यह आग्रह और उत्साह देख, मुनि महाराजने इस आहारको निर्दोष समझकर ग्रहण करना स्वीकार किया। तब कुमार मुनि महाराजके आगे अन्न परोसने लगे। जब वे आधा भोजन मुनिको दे चुके, तब क्षत्रिय-पुत्र शूरने यह मतलब-भरी बात कही,-'कुँअर जी! भूखे मनुष्यों पर आपकी सी दया शायद ही कोई दिखलाता होगा / " उसका मतलब समझकर मुनिने बार-बार नाहीं करनी आरम्भ की, तो भी कुमार विश्वसेनने उन्हें एक मनुष्यका पूरा भोजन खिला दिया। जब वे खा-पीकर लौटने लगे, तब कुमारने उनकी पीठ पर दादका निशान देखा। मुनिको यह रोग हुआ देख, कुमारको इस रोगकी शान्तिको चिन्ता उत्पन्न हुई और उन्होंने मुनिसे वहीं रहनेकी प्रार्थना की। इसके बाद सब मित्रोंने एकही साथ भोजन किया। भोजन करनेके बाद कुमारने वैद्यके लड़केसे मुनिका रोग दूर करनेको कहा। इसके बाद और तीनों मित्रोंने भी उले इस विषयमें उत्साहित किया। राजपुत्र विश्व P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा परिच्छेद सेन और कुलासार मुनिकी शुश्रूषा करने लगे और शूर तथा वीर वनमें जाकर औषधे ले आये। जयने उन सब औषधों को कूट-पीसकर मुनिके शरीर पर लगाया। इस प्रकार दवादारू होनेसे क्रमशः मुनिका रोग दूर हो गया और वे सन्तुष्ट चित्तसे वनमें विहार करने चले गये। उनके जानेके बादही ये पाँचो मित्र भी वहाँसे चल पड़े। ... “इसके बाद सूर्यास्तके समय वे लोग एक जंगलमें आ पहुँचे। रात हो जानेके कारण उन लोगोंने वहीं विश्राम करनेका विचार किया और आपसमें यह नियम किया, कि जबतक कुमार सोते रहें। तबतक चारों मित्र बारी-बारीसे पहरा देते रहें। इस प्रकार निश्चय हो जानेपर राजकुमार सो रहे। रातके तीसरे पहर में जयके पहरेकी बारी आयी। आलस्यके मारे वह पहरेमें चूक गया और सो रहा। इसी समय दैवयोगसे उस वनमें दावाग्नि उत्पन्न हुई / उस समय आगसे जलते हुए बाँसकी फट. फटाहट सुनकर एकाएक कुमारकी नीद वैसेही टूट गयी। जैसे प्रमादमें सोया हुआ तत्वज्ञानी पुरुष लोगो के शोकमय शन्दों को सुनकर जाग पड़ता है। जाग कर कुमारने जो इधर-उधर दृष्टि फेरी,तो देखा, कि अग्नि लपटो के रूपमें अपनी जीभ लपलपाती हुई उस सारे जंगलको भस्म करनेके लिये चारो ओर नाचती फिरती है। यह विचित्र घटना देख,सव मित्र झटपट उठ खड़े हुए और वहाँसे भाग चलनेका विचार करने लगे। इसी समय दावानलने ऐसी दशा उत्पन्न कर दी, मानो वे सबके सब बन्द P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 रतिसार कुमार दरवाज़ेवाले किले में कैद हो गये हों। कुमारने वहाँसे निकल भामना तो चाहा, पर कहींसे भागनेकी राह न देख, वे ठीक उसी तरह चारों ओर दौड़ने लगे,जैसे मिथ्यावृष्टि पुरुष संसारके विषयों के पीछे दौड़ते फिरते हैं। जैसे मोह कदाग्रहके सहारे अभव्य मनुष्यों को अन्धा बना देता है, वैसेही उस महा भयानक दावाग्निके धुंएने कूमारको अन्धा बना दिया जैसे टापूके बीचमें पड़ा हुआ मनुष्य चारो ओर जल-ही-जल देखकर घबरा उठता है, वैसेही चारों ओर फैलती हुई आगको देखकर कुमार सब ओर विपत्ति ही विपत्ति देखने लगे। उस समय जैसे शुभात्माके पीछे-पीछे पुरुषार्थका उदय भी आया करता है। वैसेही उनके मित्र भी उनके पीछे-पीछे चलने लगे। जैसे शरीरमें कठिन पीड़ा होनेपर पाँचों इन्द्रियाँ व्याकुल हो जाती हैं वैसेही धधकती हुई दावाग्निकी ज्वाला से वे पाँचों मित्र व्याकुल हो गये। क्रमशः पास आते-आते अग्नि कुमारके वस्त्र और केशको अपनी ज्वालारूपिणी भुजा फैलाकर स्पर्श करने लगी। कुमार भी हाथ मारकर आग बुझाने लगे। उस समय ऐसा मालूम पड़ता था, मानों और कहीं जानेमें असमर्थ होकर मनुष्यके मांसकी लोभिनी वह अनि यहीं आ पहुँची है। क्रमशः अग्नि अपनी ज्वाला-जिह्वा फैलाकर उन बेचारों को चाटने लगी। अग्निके भयके मारे वे बेचारे अपने अंगप्रत्यङ्ग को ऐसा सिकोड़ने लगे, मालूम पड़ता था,मानों प्रत्येक अङ्ग दूसरे अङमें समा जानेकी इच्छा कर रहा हो जब उन्होंने देखा, कि आगने चारों ओरसे निकलनेकी राह P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार - - 'यह सुनते ही वीर और जयने कुमार के पैर पकड़ लिये और कलासार तथा शूरने उनके हाथ थाम लिये / इसी समय बड़े जोरकी आँधी उठी और दावाग्निको हराकर उसके हाथसे उन पाँचों मित्रोंको छुड़ा कर आकाशकी और ले चली। (पृष्ठ 45 ) ___Narsingh Press. Calcutta. PP Ac Gunratnasuri M.S Jun Gun Aaradhak Trust Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा परिच्छेद बन्द कर दी है, तब वे अपने जीवनसे एकबारही निराश हो गये। उस समय राजकुमार विश्वसेनने कहा-मित्रो! मुझे तो अब ऐसा मालूम पड़ता है, मानो हवा मुझे ऊपरको खींचे लिये जाती है, इसलिये तुम सब मुझे ढ़भावसे आलिङ्गनकर लो; क्योंकि मर जानेपर हमारी एक दूसरेसे वियोग न होना चाहिये।' यह सुनते ही वीर और जयने कुमारके पैर पकड़ लिये और कलासार तथा शूरने उनके हाथ थाम लिये। इसी समय बड़े जोरकी आंधी उठी और दावाग्निको हराकर उसके हाथले उन पाँचों मित्रोंको छुड़ा कर आकाशकी ओर ले चली। उस समय वे पुरुष-रत्न आकाशसे नीचेकी ओर दावानलसे दग्ध होते हुए जन्तुओंके समूहको कुछ उसी दष्ठिसे देखने लगे, जैसी दृष्टिसे योगीजन संसारको देखा करते हैं। थोड़ी ही देर में वे,एक ऐसे स्थानमें आ पहुँचे, जहाँ दावानलका नामोनिशान भी नहीं था। उस समय उन्हें ऐसा मालूम पड़ा, मानों वे अभी सोकर उठे हों। वे मन-ही-मन आश्चर्यमें पड़कर एक दूसरेसे पूछने लगे, कि यह क्या मामला हुआ ? वे इसी विचारमें थे, कि तुरतही वहाँ एक दे दीप्यमान मूर्तिवाला देव प्रकट हुआ। प्रकट होते ही उस देवने अपने मुखरूपी कमलसे हंसका सा मधुर स्वर प्रकट करते हुए बड़ी नम्रताके साथ कहा,-“हे राजकुमार! आपने बड़ी दया करके जिस चोरको मृत्युके मुँहसे बचाया था, मैं वही चोर हू और आपकी शिक्षासे सद्धर्मका. अङ्गीकार कर इस दशाको प्राप्त हुआ हूँ। अपने अवधि:ज्ञानके द्वारा आपको विपत्तिमें पड़ा, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार जानकर मैंने आपके जीवन-दान-रूपी ऋणको अदा करनेका यहां अच्छा अवसर समझा और झट आपके पास आ पहुँचा।' यह कह, उस देवने राजकुमार और उनके मित्रोंके शरीरका श्रम और ताप अपने कर-कमलके स्पर्शसे दूर कर दिया। इसके बाद उस देवताने उन्हें यह आशीर्वाद दिया, कि आजसे तुम्हें कभी किसी तरहकी विपत्तिमें नहीं पड़ना पड़ेगा। यह कह, वह देव अपने प्रकाशसे आकाशको प्रकाशमान करता हुआ अन्तर्धान हो गया। ..... . . .... / इसके बाद जब सवेरा हुआ और कमलके धोखेमें पड़ कर भौंरे उन्होंके मुख-कमलोंके पास आ-आकर गुनगुनाने लगे, तब वेभी रातकी बातें याद करते हुए वनके भीतर घुसे। क्रमशः सूर्यको प्रखरता बढ़ती चली गयी। उसी समय उन्होंने वनके मध्य भागमें घबराकर भागते हुए बनैले सुअरोंका झुण्ड देखा / उनके पीछे सूअरोंका सरदार चला जा रहा था, जो कभी युद्धके लिये दौड़ता और कभी भागते हुए सूअरोंकी ओर देखने लगता था। उसके पीछे-पीछे हाथमें धनुष लिये और मस्तकपर, मुकुट धारण किये हुए एक घुड़सवारको देखकर कुमार अनुमानसे ही सब कुछ समझ गये और बड़े ऊँचे स्वरसे कहने लगे,-'हे महाभाग! तुम्हारी चाल-ढाल और वेश-भूषा देखकर मैं समझ गया, कि तुम कहींके राजा हो, इसीलिये मैं कहता हूँ,कि राजा, साहब! जब मुंहमें तृण दाबकर सामने आनेवाले शत्रु को भी राजागण नहीं मारते, तब फिर जो सदा तृण हो भक्षण करते है। C.SunratnasuriM. Jun Gun Aaradhak Trust Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा परिच्छेद उन निरपराध पशुओंको तुम क्यों मारते हो ? अपने अङ्गोंको जो कभी धो-मांज कर साफ़ नहीं करते, जो सदा वनमें रहते और बड़े सदाचारी हैं, वे पशु मुनियोंकी भाँति विवेकी पुरुषों के लिये अवध्य हैं ; क्योंकि जो इस जन्ममें पशुओंका वध करता है, वह अगले जन्ममें उन्हीं पशुओंके द्वारा मारा जाता है। इस लिये बुद्धिमान् मनुष्य तो बध्य जीवोंको भी नहीं मारते और वैरको अपने पास भी नहीं फटकने देते। भला यह आत्मा किसकिस योनि या कुलमें नहीं गयी है ? भाई ! यह तो सब योनियों और कुलोंमें हो आयी है। * इसलिये सभी जीव एक दूसरेके बन्धुके समान हैं, फिर कौन किसका वध्य हो सकता है ? अतएव! राजन् ! तुम क्षत्रिय-धर्मकी नीतिके सौजन्यसे उत्पन्न दयाके वशमें होकर सब पशुओंकी रक्षा करो।' . . .. "राजकुमारकी ये धर्मसे भरी बातें सुन, हर्षित होकर वह पुरुष घोड़ेसे नीचे उतर पड़ा और कुमारके पैरोंपर गिरकर कहने लगा;-राजकुमार ! मैं आपका दास हूँ। यद्यपि मैने अनेक जन्तुओंका वध करके बड़ा भारी अपराध किया है, तथापि आपकेसे क्षमासागरसे यह कहनेकी मैं ज़रूरत नहीं समझता, कि आप मुझे क्षमा करें। मेरे पापोंका समूह तो आपके दर्शनोंसे ही नष्ट हो गया, इसीलिये मैं साक्षात् क्षमा नहीं मांगता; क्योंकि त्रिदोष-व्याधिवालेको औषधि देकर क्या होगा ?/मरजी ! ... न सा जाइ न सा जोनी न तं टाणं न त कुलं / ......... न जावा म मुभा जथ्थ सव्वे जीवा गन्त सो॥ : P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र रतिसार कुमार मैं वही ताम्रलिप्तिका राजा हूँ, जो कैदी होकर आपके पिताके दरबारमें गया और बन्धनमें पड़कर पृथ्वीपर पड़ा हुआ था। उस समय आपनेही मुझे कैदसे छुड़ाकर ठीक पिताके समान मेरे प्रति आचरण किया था। अब आप जैसे पिताके सामने मेरा राज्य और ऐश्वर्य भोग करना उचित नहीं प्रतीत होता, इसलिये आप कृपाकर मेरे साथ चलें और ताम्रलिप्ति-नगरका राज्य स्वीकार करें।" "कुमारने यह जानकर, कि यह तो वही ताम्रलिप्तिका राजा है, उस पुरुषको अपने पैरोंपरसे उठाकर हर्ष के साथ हृदयसे लगा लिया। इसके बाद जब उस राजाने कुमारले घर-बार छोड़नेका कारण पूछा, तब कुमारने उसे अपना सारा हाल ज्योंका त्यों सुना दिया। इसी समय राजाकी घुड़सवार सेना भी वहाँ आ पहुँची और उसने सब मित्रोंको सुन्दर घोड़ोंपर सवार करा अपने साथ चलनेको कहा। जब सब लोग ताम्रलिप्तिमें आ पहुँचे, तब वहाँके राजाने बड़े आग्रह और आदरके साथ कुमारको अपने सिंहासनपर बैठाया तथा स्वयं छड़ीबरदार बनकर उनके आगे खड़ा हो गया। तदनन्तर उसने अपने सब सेवकोंको राजकुमारको प्रणाम करनेकी आज्ञा दी। उस दिनसे राजकुमार विश्वसेनही वहाँके राजा हो गये और अनेक राजा उनके चरणोंकी सेवा करने लगे। बहुत दिनोंतक वे वहीं रह गये। : "अपने गुप्तचरोंके मुंहसे कुमार विश्वसेनके सारे चरित्र श्रवणकर उनके पिता राजा सुमित्रने सोचा, कि सचमुच कुमार बड़ा ही पुण्यात्मा जीव है। इसके बाद राजाको वैराग्य उत्पन्न P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा परिच्छेद हुआ और उन्होंने योग धारण करनेके विचारसे अपने इन्द्रके समान प्रतापी पुत्रको बुलवाकर अपनी गद्दीपर बैठाया। जिनके चित्र उनके हृदयपर खिंचे हुए थे, उन अपने चारों मित्रोंके साथ पुण्यात्मा विश्वसेनने बहुत दिनोंतक हस्तिपुरमें राज्य किया। सारी पृथ्वीका ऐश्वर्य भोग करनेके अनन्तर मृत्युको प्राप्त होकर वे पांचों मित्र नवें (आनन्त ) देवलोकमें चले गये। वहाँ भी उनकी मित्रता ज्यों-की-त्यों बनी रही। स्वर्गके समस्त सुखामृतका पानकर पुनः संसारके सुखोंका स्वाद लेनेके विचारसे ही मानों वे फिर संसारमें आ पहुंचे हैं। हे रतिसार कुमार ! उन पांचों मित्रोंमें तुम्हीं तो विश्वसेन हो और तुम्हारा मित्र सुबन्धु उसी क्षत्रिय-पुत्र शूरका अवतार है। जय, वीर और कलाखारके जीव ही क्रमशः सौभाग्यमंजरी, प्रियंवदा और सुताराके रूपमें उत्पन्न हुए हैं। तुम पाँचोंकी वही मित्रता आजतक ज्योंकी-त्यों बनी हुई है। वही पूर्वभवका प्रेम आजतक राज्य कर रहा है। जय, वीर और कलासारको उन मुनिवरको अन्नदान करते समय कुछ मोह हुआ था, इसीलिये वे इस भवमें स्त्री हुए हैं। उन तीनों मित्रोंके मनकी बात जाने विनाही तुमने मुनिको अन्नदान दिया, इसलिये तुमने आहार-अन्तराय-कर्म उपार्जन किया। इसी कारण तुम्हें तीन दिन भूखों रहना पड़ा। जब तुम आधा भोजन मुनिको दे चुके, तब शूरने यह कह कर तुम्हें रोका, कि कुमार! भूखों पर तुम्हारे समान दया शायद ही और कोई करता होगा। इसी मतलब-भरी बातके कहनेके P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .50 रतिसार कुमार कारण सुबन्धुको इस जन्ममें पूरा सुख नहीं हुआ और जैसे कोई किसी पक्षीके मुँहले आधा खाया हुआ फल छीन ले, उसी तरह उसकी लक्ष्मी छिन गयी। तुमने सारा भव-भ्रमण मिटानेवाला यह काम किया, कि उन मुलिके शरीरका रोग दूर करवाया। इसीलिये तुमको ऐसी श्रेष्ठ सम्पत्ति प्राप्त हुई है। पूर्वभवमें तुमने दुष्टोंपर भी दया दिखलायी थी और बहुतेरे जीवोंको मृत्युके मुँहमें पड़नेसे बचाया था, इसीलिये इस भवमें तुम्हारे साथ कोई शत्रु ता नहीं करता और जो थोड़ा-बहुत विरोध भी करता है, वह युद्ध करते समय तुम्हारे सामने अन्धा हो जाता है। जिन प्राणियोंके पास पुण्यकी पूँजी है, वे क्या-क्या आश्चर्य नहीं प्रकट कर दिखाते? पुण्यके प्रतापसे प्राणियों के सारे मनोरथ सफल हो जाते हैं, क्योंकि पुण्यको पाकर ही देवता भी आश्चर्यके खजाने बन जाते हैं।” ..इस प्रकार मुनि महाराजके मुंहसे अपने पूर्वभवका वृत्तान्त श्रवण कर, रतिसार कुमार बड़े ही आनन्दित हुए। उस समय राजाने अपना मुकुट नीचा कर, मुनिसे पूछा,-"महाराज! शरीरके लक्षणोंसे तो आप पृथ्वीपति मालूम पड़ते हैं। आपके शरीर पर आज भीसुन्दर तारुण्य झलक रहा है। अभी तो आपकी अवस्था तरुण तरुणियोंके बीचमें रहनेकी है। ऐसी अवस्थामें ही आपने क्यों राज्य त्याग कर अपनी आत्माको तपमें लगा रखा है ?" - यह सुन, अपनी मनोहर वाणीसे मृदङ्गकोसी मधुर ध्वनि उत्पन्न करते हुए मुनि महाराजने कहा,-"चाहे बुढ़ापा हो या CATEGDatnastroM Jun Gun Aaradhak Trust Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा परिच्छेद www जवानी-किसी अवस्थामें क्षणभरके लिये भी जोतप बन पड़े, वही यथार्थ है; क्योंकि यह जीवन ऐसा चञ्चल है, कि कब मृत्यु सिरपर आ घहरायेगी, इसका कोई ठिकाना नहीं है। मनुष्यको आयुका कुछ निश्चय नहीं है, इसीलिये कोई . यह नहीं जानता, कि कब उसकी मृत्यु होगी। इसके सिवा वृद्धावस्थामें मनुष्यको शक्ति नहीं रहती और विना शक्तिके तपस्या नहीं बन आती / इसलिये बुढ़ापेके आसरे तपको मुलतवी कौल रखने जाये ? जो मनुष्य शक्तिके द्वारा होनेवाले कार्योंको वृद्धावस्थामें करना. प्रारम्भ करते हैं,उनकी बुद्धि उनपर श्वेत केशोंके मिससे परिहास करती है। जिस मनुष्यको मृत्युकी सहचरी जरावस्था दबा लेती है, उसकी धर्मबुद्धि फलदायिनी नहीं होती और यह तारुण्य मोह-रूपी मतवाले हाथीको बाँधनेवाला वृक्ष है, इसलिये कुकर्मों की पंक्तिसे शोभायमान यह तारुण्य किस पुरुषको मदसे नहीं भर देता ? जिस उपायसे मेरे विवेक-रूपी सिंहने इस तारुण्य-वृक्षको अपना लीला-स्थान बना लिया है, वह अपूर्व है / इस विषयका एक दृष्टान्त सुनो- ..... ... . _ "सूर्यपुर नामका एक नगर है, जिसमें आस्तिक मनुष्य धर्मराजाके कीड़ा करने योग्य कल्पवृक्षके वनकी शोभा धारण किये हुए हैं। किसी समय उस नगरमें महेन्द्र नामके एक बड़े प्रसिद्ध राजा रहते थे। वे बाहरी और भीतरी दोनों प्रकारके शत्रु ओंको जीतनेवाले शास्त्रों और शास्त्रोंमें बड़े ही निपुण थे उनके एक पुत्र भी था, जिसका नाम चन्द्रयशा था। राजाने P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 रतिसार कुमार अपने पुत्रको अच्छे गुरुके हाथोंमें देकर भली भांति कुलोचित शिक्षा दिलवायी थी। अधिक कहनेसे क्या ? मैंही वह चन्द्र... यशा हूँ। जब मैं सोलह वर्षका हुआ, तब संसारके तापसे दुःखित होकर मेरे पिताने मुझे एकान्तमें बुलाकर अमृत-भरी वाणीमें कहा,-'पुत्र ! यह राज्य संसाररूपी दुर्गम मार्गोका चौरस्ता है। इसमें घूमनेवाले मनुष्यको पिशाचिनी सम्पत्तियाँ पद-पदपर गिरानेकी चेष्टा करती हैं। मणि और रत्न आदि पदार्थ मोह-रूपी राजाके दीपक हैं / लोभमें पड़े हुए मनुष्य इनकी चमक देख, पतङ्गकी तरह इनपर लपकते और अधोगतिको प्राप्त होते हैं। जो लोग बोधकी नावपर सवार होकर संसारसमुद्रके पार जाना चाहते हैं, वे हाथियोंको रास्ता रोकनेवाले पर्वत समझकर दूरसे ही त्याग कर देते हैं। संसार-रूपी इस जंगलमें मृगके समान चंचल और मोह-लक्ष्मीके कटाक्षके सदृश इन अश्वोंको तो पुण्यात्मा पुरुष देखते तक नहीं। यह छत्र मोहरूपी राजाका चलता-फिरता मण्डप है और इसके नीचे छायाके बहाने इसके पाप-रूपी सेवक टिके रहते हैं। यह छत्र विवेकरूपी सूर्यके प्रकाशको अन्तरायके द्वारा पास नहीं आने देता; इसी लिये पण्डितगण ऐसी जड़तासे भरे हुए इस छत्रका सेवन नहीं करते। इस संसार-रूपी समुद्र में स्त्रियाँ अगाध जलके नीचे रहनेवाले रत्नोंके समान हैं। इसीलिये जो इनका पाणिग्रहण करता है, वह फिर बाहर नहीं निकल सकता और डूब जाता है। ऐसे विचित्र संसारको छोड़नेमें अशक होने पर un Aaradhak Trust Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा परिच्छेद “पण्डितगण इसमें अनुरक्त हुए बिनाही इसका ठीक उसी प्रकार सेवन करते हैं, जैसे जाड़ेसे ठिठुरते हुए मनुष्य अग्निका दूरसेही सेवन करते हैं। इसलिये हे पुत्र! मैं तो अब इस मोहजालसे निकल भागना चाहता हूँ क्योंकि अपने कुलकी यही रीति है, कि जबतक पुत्र जवान नहीं हो जाता, तभीतक राजसिंहासन "पर बैठा जाता है। अतएव हे वत्स ! जैसे मेरे पिता मुझे राज्य सौंपकर संसारसे मुक्त हुए थे, वैसेही मैं भी तुम्हें गद्दीपर विठाकर मोह-रूपी वीरके कैदखानेके समान इस संसारसे छुटकारा पाना चाहता हूँ।' यह कह, मेरे पिताने मुझे वल-पूर्वक राजगद्दी पर बिठा दिया और आप तपलक्ष्मीके साक्षात् यौवनरूपी वनमें चले गये। इसके बाद मैं पिताकी शिक्षाके अनुसार राज्यका पालन करने लगा। मैंने रत्नावली नामकी एक राजकुमारीसे विवाह ‘किया। वह मुझे प्राणोंसे भी बढ़कर प्यारी थी। मैं समझता था, कि यह स्त्री मुझे संसारके फन्देमें फंसानेवाली है, तो भी जैसे दलदल में फंसा हुआ हाथी नहीं निकल सकता, वैसेही मैं उसमें फंसे हुए अपने मनको नहीं हटा सका / उसमें मेरा मन ऐसा जा फंसा, कि मेरी राज्यलक्ष्मीके मुख्य और सुन्दर हाथी भी उसे वहाँसे खींचकर नहीं हटा सकते थे / कामदेव-रूपी पिशाचके पंजे में फंसा हुआ मेरा मन ऐसा उच्छृङ्खल हो गया, कि बड़े-बड़े मंत्री भी उसे फेर न सके। मेरा मन सोलह आने स्त्रीके वशमें हो गया, यह देखकर बढ़े मन्त्रीके मनमें रह-रहकर यही P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार बात आती थी, कि ईर्ष्याके मारे मेरी राज्यलक्ष्मी अब दूसरोंके हाथमें जाया चाहती है। मेरे मनमें उस मानवती महिलाने ऐसा अड्डा जमा लिया, कि डरके मारे मेरे धर्मगुरु भी उसमें प्रवेश नहीं कर सकते थे / इस प्रकार अनन्य-मनसे उसी स्त्रीको देखते रहने में ही अपनी आत्माको धन्य मानता हुआ मैं कामदेवकी उपासनाकोही मोक्षपद समझने लगा। एक दिन सोते समय मैंने स्वप्नमें देखा, कि मेरी आत्मा मुक्तागिरिके शिखरपर घूम रही है। उसी समय मेरी स्त्रीकी नींद टूट गयी और मैं भी जग पड़ा। जागकर मैं सोचने लगा, कि यह स्वप्न तो बड़ा ही अच्छा है-इससे तो यही सूचित होता है, कि मुझे मुक्ति मिलने वाली है। परन्तु मुझ स्त्रीके प्रेममें फंसे हुए मनुष्यके लिये यह आशा तो दुराशामात्र ही है। यह विचार मनमें उठते ही मैंने सोचा,-'इस स्त्रीकी कान्ति सोनेकी चमकको भी मात करनेवाली है, इसकी मस्तानी चाल गजगमनको भी लज्जित किये देती है, इसका एक-एक कटाक्ष मनुष्यको अपना दास बना लेता है, इसके नखोंके सामने मणियाँ भी काचके टुकड़ोंके समान मालूम पड़ती हैं, इसके मुँहकी सुगन्ध कपूर और कस्तूरीकी महकके समान मालूम होती है, इसके दाँतोंकी चमक बिजलीसे भी बढ़कर है। इसने मेरे हृदयको ऐसा लुभा लिया है, कि राज्यभोगमें भी मेरा मन नहीं लगता; पर इसके जादको मैं अपने सिरसे क्योंकर उतार डाल ? इस स्त्रीके केश महानीलमणिकी शोभा दिखलाते हैं, क्योंकि इसने मेरे हृदय में घर बनाकर मेरे दूधसे भी P.P.AC.Gunratnasuri M.S.. Jun Gun Aaradhak Trust Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा परिच्छेद उज्ज्वल ज्ञानको कलुषित कर डाला है। इसका मुख चन्द्रमाके समान है, इसमें सन्देह नहीं; क्योंकि इसीको देखकर मेरा विवेकरूपी कमल मुर्मा गया और इसके मुआते ही हलकेसे उज्ज्वल गुण इसे छोड़कर चले गये। इसके अधरमें मधुसे भी अधिक माधुर्य भरा है, इसमें शक नहीं ; क्योंकि इसीका पानकर मुझे ऐसा नशा चढ़ आया, कि मेरा मन सूरियोंको देखकर दूरसे ही भागता है। इस स्त्रीकी प्रफुल्लित हास्ययुक्त और नीलकमलके समान आँखें मेरे तत्त्वविज्ञान-रूपी सूर्यके अस्त हो जानेकी ही सूचना देती है / इसकी शंखके समान गम्भीर और मधुर स्वर निकालनेवाली ग्रीवा मेरे पवित्र कर्मोंकी यात्राकी सूचना देती है। इसके कोमल कमलनालके समान हाथोंमें फंसा हुआ मेरा मन हज़ार कोशिशें करने पर भी नहीं निकलने पाता। इसलिये * मुझ कमज़ोरोंके सरदारको बार-बार धिक्कार है / मैं इस संसाररूपी वनको अनायास ही पार कर जा सकता हूँ; पर स्त्रीके वेणीदण्डको मेरा हृदय नहीं लाँघ सकता। इस संसार-समुद्रको आदमी अनायास ही पार कर जाता; पर इसमें स्त्रीकी नाभिरूपी जो भँवर है, वही बड़ी कठिन है। इस स्त्रीके झनकार करनेवाले नपुरोंमें मन फँसा हुआ होनेके कारण मैं अपना सिर भी ऊँचा नहीं कर सकता।' इस प्रकार सोचते हुए मैं मन-ही-मन अपनेको धिक्कार देही रहा था, कि इसी समय बन्दीजन प्रातः कालकी सूचना देते हुए ऊँचे स्वरसे कहने लगे,-“हे राजन् ___ अब, जागनेका समय हुआ, इसलिये निद्राको त्याग दीजिये। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार जैसे सद्गुरु अज्ञानका नाश करनेके लिये तत्पर होते हैं, वैसेही सूर्य अपनी किरणोंके द्वारा अन्धकारका नाश करनेके लिये उदित हो चुके हैं।" . इस प्रकार मुक्तिकी सूचना देनेवाली उपश्रुतिके समान वन्दीजनोंकी वाणी सुनकर मुझे बड़ा ही आनन्द हुआ और मैं शय्या त्याग कर उठ बैठा / उस समय उस जागी हुई स्त्रीने मुझे पहलेसेही जगा जानकर लजाके मारे सिर नीचा कर लिया और कुछ भी नहीं बोली। उस समय मेरा अन्तर्चक्षु अगाध बोधरूपी क्षीर-समुद्र में निमग्न हो रहा था, इसीलिये मैंने भी उसे प्यारसे नहीं पुकारा। इसी समय प्रतीहारीने मेरे सामने आ, मुझे हर्षसे प्रणाम किया और कहा,-'हे देव! मंत्री मतिसागरने कहला भेजा है, कि श्रीमान्के सेवकगण चिरकालसे श्रीमान्के दर्शनोंके लिये उत्सुक हो रहे हैं।' यह सुन, प्रातःकालिक क्रियाओंसे निवृत्ति होकर मैं अपने सेवकोंसे भरे हुए दरबारमें गया। उस समय अपनेको प्रणाम करनेवाले राजाओंको अपनी ओर देखते समय मैंने एकके हाथमें कमल देखा। उसी समय मुझे कमलके समान दृष्टिवाली प्रिया याद आ गयी। इसीसे दरबार में बैट हुए विद्वानोंके अमृतके समान वचनोंकी तर लहरें मारती रहन पर भी प्रियाके विरहसे पीड़ित होनेके कारण मेरे मनमें तनिक भी आनन्द उत्पन्न नहीं हुआ। इसीलिये मैंने ज्योंही अपनी आँखें रनिवासकी तरफ़ फेरी, त्योंही उधरसे एक पुरुष जल्दाजल्दी पैर बढ़ाता हुआ आता दिखाई दिया। उस पुरुषका शरार P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा परिच्छेद वडाही सुन्दर और सुडौल था। उसकी देहकी कान्ति चारों ओर जगमग ज्योति फैला रही थी। वह खूब कसे हुए कपड़े पहने हुए था। उसकी कमरमें फेंटा बँधा हुआ था। साथही म्यानमें बँधी तलवार भी लटक रही थी। उसकी छाती पर भुजाली खुसी हुई थी और दाहिने हाथमें ताम्बूलपात्र लिये हुए था। उसने बायें हाथसे मेरी मतवाली स्त्रीको आलिङ्गन कर रखा था, इसीलिये वह बड़े धेर्यके साथ मेरी ओर अवज्ञा-भरी दृष्टिसे देख रहा था। यह दृश्य देखतेही मेरे नेत्र क्रोधसे लाल हो गये और मैं झटपट कह उठा,-'अरे ! यह कौन है ? और मेरी स्त्रीको कहाँ लिये जा रहा है ?' मेरे मुंहसे यह बात निकलतेही उस स्त्रीने झटपट उस पुरुषको खड़ा कर दिया और घृणाभरी हँसी हँसकर मुझसे कहा,-'तुम बड़े भारी पापी हो। तुमने इतने दिनोंतक मुझे कैदखाने में बन्द कर रखा था। आज मैं तुम्हारी छातीपर पैर रखकर चली जाती हूँ।' स्त्रीकी यह बात सुनतेही मैंने क्रोधातुर होकर अपने सिपाहियोंको आज्ञा दी, कि अभी इस पुरुषको पकड़कर मार डालो। ___ "मेरी बात पूरी होनेके पहलेही वह पुरुष पलक मारते हवासे बातें करता हुआ मेरी स्त्रीको साथ लिये हुए उसी समय वहाँसे रफ़ चक्कर हो गया। 'यह गया, वह भागा' कहते हुए मेरे सिपाही उसके पीछे-पीछे बड़ी दूर तक चले गये ; पर उसे गिरफ्तार न कर सके। इसके बाद जैसे मन इन्द्रियोंके पीछे-पीछे जाता है। वैसेही मैं भी हारे-थके घुड़सवारोंको साथ लिये P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार हुए उनके पीछे-पीछे चला। उस पुरुषको ढूँढता हुआ जब मैं शहरके बाहर पहुँचा, तब मैंने वहाँ पर एक ऐसी सेना तैयार देखी, जिसके सिपाहीनीचेसे ऊपरतक सुनहले गहनोंसे लदे हुए थे। उस सेनाके मध्यमें एक हाथी पर मैंने उस पुरुषके साथ उस स्त्रीको बैठी हुई देखा। स्त्री उस पुरुषकी बायीं जाँघ पर बैठी हुई उसके गलेमें बाँह डाले हुई थी। स्त्री-चरित्रकी पूरी जानकार उस स्त्रीने मुझे दूरपर खड़ा देखकर उस पुरुषको कलेजेसे लगाते हुए मुझे बायें हाथका अंगूठा दिखा दिया! - "यह देखकर मैं अपने जीमें बेतरह झेपा और सोचने लगा,'ओह ! ये स्त्रियां मोहकी महिमाकी महोदधि हैं। ये गुणमें मदिरासे भी बढ़ी-चढ़ी हैं, क्योंकि मदिरा तो पीनेपर मनुष्यको दुःख देती है , पर ये लोक-परलोक दोनों बिगाड़नेवाली स्त्रियाँ तो दर्शनमात्रसेही पुरुषको पागल बना डालती हैं। परोपकारका नाश करनेवाली ये स्त्रियाँ विषके ही समान हैं ; क्योंकि इस जहरकी लहर मरने पर भी नहीं उतरती / उनलोगोंकी यह बड़ी भारी भूल है ; जो इन विषकी पुड़ियाओंकी चन्द्रमा आदिसे उपमा दिया करते हैं / यथार्थ में इनका असली रूप जड़-मनुष्योंको मालूम ही नहीं हो सकता / ये स्त्रियाँ विश्वासघात करने में अव्वल नम्बरकी उस्तानो हैं, क्योंकि ये युरुषके गले में बांह डाल, प्रेम प्रकट कर, उसे नरकके कुएँमें ही ढकेलती हैं। ओह ! इन्हें अबला समझकर कभी कोई इनसे हाथ न मिलाये ; क्योंकि ये पुरुषका प्राण-हरण करनेवाली और उसे धोखा देनेवाली है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार स्त्री उस पुरुषकी बाँयी जाँच पर बैठी हुई उसके गले में बाँह डाले हुई थी। स्त्री-चरित्रकी पूरी जानकार उस स्त्रीने मुझे दूरपर खड़ा देखकर उस पुरुषको कलेजेसे लगाते हुए मुझे वाँयें हाथका अँगूठा दिखा दिया ! (पृष्ठ 58) P.P. Marsingh Press, Caloutts. Jun Gun Aaradhak Trust Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा परिच्छेद जिस स्त्री पर मैं इस प्रकार जान दे रहा था, उसने आज मुझे उसी तरह ग्लानिमें डाला, जैसे पश्चिम दिशा सूर्यके लिये ग्लानिका कारण होती है। अभी उसके करते मेरी क्या-क्या गति होनेको है. सो कौन जाने ? जैसे अन्धकारके साथ मैत्री करनेके कारण उल्ल सूर्यसे मुंह छिपाता है, वैसेही मैं भी इस राक्षसीके प्रेममें अन्धा होकर इतने दिनोंतक मोक्षका भी निरादर करता रहा। यद्यपि इस समय मुझे वैराग्य उत्पन्न हुआ है, तथापि मैं अपने अपमानका बदला चुकाये बिना न मानूंगा; क्योंकि मानी पुरुष चुपचाप अपमान सहन कर लेना, अपने कुलमें कलङ्क लगाना समझते हैं। जो शत्रु अपनी छातीपर पैर रखे, उसे तत्काल पटककर मार डालना चाहिये ; क्योंकि अपमानित होने पर भी जो बिना सींग-पूँछ हिलाये चुपचाप रह जाता है, वह. मिट्टीके ढेलेसे भी गया-बीता है। क्षुद्र प्राणी भी अपना अपमान करनेवालेको तङ्ग किये बिना नहीं रहते। मधुमक्खियाँ अपने मधुको चुरानेवालोंको बेहद दुःख देती हैं। सूर्य पृथ्वीका सारा रस खींच ले जाता है; पर वह उससे बदला नहीं ले सकती, इसीलिये उसकी छाती क्रोध और अपमानसे फट जाती है। माताएँ भी ऐसे पुत्रोंको त्याग देती हैं, जो दूसरोंका अपमान सह लेते हैं। विन्ध्याटवी ऐसे हाथियोंको अपने पास भी नहीं रखती, जो कमज़ोर आदमियोंके द्वारा बाँध लिये जाते हैं। इसलिये इस अपमानके समुद्रको तलवारकी नावसे पार करके ही मैं संसार सागरसे पार उतरनेके लिये व्रत-रूपी नौकाका आश्रय ग्रहण P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार करूँगा। यदि अपमानका बदला लिये विनाही मैं व्रत ग्रहण कर लूंगा। तो लोग मेरे पूर्वजोंके विषयमें भी यही शङ्का करेंगे, कि उन्होंने भी इसी तरह अपमानित होकर व्रत लिया होगा।' -“मैं इसी प्रकार त्याग और बदलेके भावोंसे भरा हुआ विचार कर ही रहा था, कि इसी समय मेरा मंत्री मेरी सारी सेना लिये हुए वहाँ आ पहुँचा। उसी समय दोनों सेनाओंमें भय. ङ्कर युद्ध छिड़ गया। अपनी मृत्युका भय भूलकर हाथी हाथीके साथ, घोड़े घोड़े के साथ, रथी रथीके साथ और पैदल सिपाही पैदलोंके साथ भिड़ गये। वीर सिपाही जानपर खेलकर लड़ाई करने लगे। दोनों हो सेनाओंमें चले हुए जवान थे, इसलिये "धनुष कट जाते, तलवारें टूट पड़तों, पर शूरतासे लबालब भरे हुए सिपाही न मरे, न कटे! खूब जमकर लड़ाई होने लगी। धीरे-धीरे वहाँ रक्तकी नदीसी प्रवाहित हो चली / अवके वीरोंके रुण्ड-मुण्ड उस नदीमें कच्छ-मच्छसे उतराने लगे। बड़ी देर बाद मेरी सेनाके पैर उखड़नेके लक्षण दीखने लगे। तव क्रोधसे भरकर एक हाथी पर सवार हो, मैं उस पुरुषके साथ द्वन्द-युद्ध करने चला और उसके सामने आ पहुँचा / बात कीबातमें मैंने बाणोंकी बौछारसे उसको सारी सेना समेत ढक दिया ; पर उसने भी बड़ी बहादुरीके साथ मेरे बाणोंको काटते हुए अपनी और अपनी सेनाकी रक्षा की। इधर उसके चलाये हुए बाणोंने मेरी लेनाका देखते-देखते सफाया कर दिया। मैं जो सब अस्त्र चलाता, उन्हें वह ठीक उसी तरह काट देता था, P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा परिच्छेद जैसे केवल-झानी तत्काल उत्पन्न हुए कर्मोंका छेदन कर डालता है। कुछ ही क्षण वाद उसके तीरसे मेरा हाथी घायल हो गया। मेरे सारे अस्त्र-शस्त्र बेकार हो गये। तब लाचार मैं मुष्टियुद्ध करनेके ही इरादेसे छलांग मार कर उसके हाथीकी गरदन पर चढ़ बैठा। इतनेमें उसने मुझे उठाकर पत्थरके ढेलेकी तरह दूर फेंक दिया। "इसके बाद उस स्त्रीको लिये हुए उस राजाने मेरे नगरमें प्रवेश किया। इस घोर अपमानसे व्याकुल होकर मैं मृत्युको ही सबसे बढ़कर प्रिय समझने लगा और बार-बार यही मनाने लगा, कि यदि किसी जन्ममें मुझसे कोई पुण्य बन पड़ा हो, तो उसके प्रतापसे अगले जन्ममें मेरा किसी स्त्रीसे सम्पर्क न हो; क्योंकि ये सन्मार्गका भङ्ग करनेवाली हैं। यही मनाता हुआ मैं एक कुएँ में जा गिरा। उस कुएँमें गिरते ही मेरी आत्माने अप-. नेको पहलेकी ही तरह सिंहासन पर बैठा हुआ देखा / युद्धौ क्रोधसे लड़ते हुए मेरे जिन वीरोंने वीर-गति प्राप्त की थी, उन सब घायल और मरे हुए सिपाहियोंको भी मैंने अक्षत शरीरसे अपने पास खड़ा देखा। जो हाथी और घोड़े रणमें मारे गये थे, उनके शब्द भी हस्तिशाला और अश्वशालासे आते सुनाई पड़े। इसके सिवा अन्तःपुरमें वही स्त्री अपनी सखियोंके साथ नित्य नैमित्तिक कार्य करती हुई दिखाई दी। इस प्रकार अद्भुत आश्चर्य देखकर मेरा मन चञ्चल हो उठा। इसी समय अपने मनोहर तेजसे सूर्यको मी मन्द करनेवाला एक देव मेरे सामने प्रकट हुआ। उसे देखते P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिलार कुमार ही मुझे तत्काल जाति-स्मरण हो आया और मैं सोचने लगा,"अहा ! यह तो मेरा वही पुराना मित्र है, जिसके साथ मैंने चिरकाल-पर्यन्त व्रतपालन करते हुए अक्षय स्वर्गलक्ष्मीका उपभोग किया था। इसके बाद जब मैं स्वर्गसे चलने लगा, तब मैंने अपने इस मित्रको आलिङ्गन कर, कहा था, कि हे मित्र! जब मैं संसारकी मोहमायामें पड़कर एकदम अज्ञानी बन जाऊँ, तब तुम आकर मेरा उद्धार करना। मेरी उसी प्रार्थनाके अनुसार मेरा यह बन्ध इस समय बोध देनेके लिये यह नाटक दिखलाता हुआ मेरे पास आया है। यही सोचकर मैंने बड़े प्रेमसे अपने उस मित्रका आदर किया। उसी समय वह देवता अन्तर्धान हो गया। इसके बाद मैंने कुएँसे बाहर आकर इस संसाररूपी वनसे पार होनेके लिये तत्काल दीक्षा ग्रहण कर ली।" मुनिका यह अपूर्व आत्मचरित्र श्रवणकर, राजाको संसारसे बड़ा भय उत्पन्न हुआ और उन्होंने अपने दामाद कुमार रतिसारको ही गद्दीपर बिठाकर व्रत ग्रहण कर लिया। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DNA पाँचवाँ परिच्छेद केवल-ज्ञानकी प्राप्ति। - :NC.co: स राज्यपर दयामय कुमार रतिसारके बैठते ही वह प्रकार शोभायमान दिखाई देने लगा, जैसे सूर्यके द्वारा आकाश सुन्दर दिखाई देता है / राजा रतिसारने सिंहासन पर बैठते ही नगरमें यह ढिंढोरा फिरवाया, कि इस राज्यके अन्दर रहनेवाला जो कोई मनुष्य किसी दूसरे मनुष्यका नाश करेगा, वह राजाका ही ध्वंस करनेवाला समझा जायेगा। राजाकी आज्ञा भङ्ग करनेवाला वध करने योग्य है, इसलिये जो कोई परस्पर द्रोह करेगा, वह राजाका द्रोही समभा जाकर फाँसीपर लटका दिया जायेगा। - इस प्रकार राजा रतिसारके पुण्य-प्रभावसे उस देशके निवासी परस्पर वैर और शत्रुता त्यागकर बड़े अमन-चैनसे दिन बिताने लगे। किसीको किसीसे भय न रहा / राज्यकी सारी स्त्रियाँ शीलवती और पतिव्रता हो गयीं-सभी लोग सदा सच बोलने लगे।चोरोंका तो कहीं नामोनिशान भी न रहा / खेल-कूद करने. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार। वाले चंचल लड़कोंमें भी लड़ाई-दंगा और मार-पीट नहीं होती थी। सभी युवतियाँ एक दूसरीसे स्नेह रखती-कोई कभी किसीसे झगड़ा नहीं करती थी। पशु भी अपना सींग चलाना भूल गये / भोगके स्थान-रूपी शरीरमें व्याधियोंकी भी वृद्धि नहीं होने पाती थी। मतवाले भूत-पिशाच भी कभी किसीको कष्ट नहीं देते थे। अग्नि भी चूल्हे और ईधनके भीतर मर्यादा बांधकर रहने लगी। पथिकोंकी थकावट दूर करनेवाली शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु सदा प्रवाहित होती रहती थी। सरोवरोंसे भोकृषिका काम बड़े मज़ेसे लिया जाने लगा। मेघ सदा समयपर.ही वर्षा करने लगे। पृथ्वी ऐसी रसवती हो गयी, कि एक बार सिंचन करनेसे ही दूनी फ़सल देदेती थी। सूर्य भी उस राज्यपर उतनी ही किरण . फैलाता था, जितनीले अन्धकारका नाश होना सम्भव था। इक प्रकार पुण्यात्मा राजा रतिसारके प्रभावसे उस देशके रहनेवाले हर प्रकारसे सुखी हो गये और अन्यान्य राजा लोग भी उन्हींका अनुकरणकर अपने देशका शासन और पालन करने लगे। माहिष्मतीके राजा, राजा रतिसारके पिता, सुभूमने अपने पुत्रके इस वैभव और प्रतापका हाल सुन, उन्हें अपने यहाँ बुलवा लिया और उन्होंको राज्य सौंप, आप परलोककी चिन्तामें लग गये। इस प्रकार जिस-जिस देशमें चन्द्रके समान राजा रतिसारका शासन फैला, उस-उस देशका अन्धकार नष्ट होने लगा। क्रमसे सारी पृथ्वीपर उनका राज्य फैल गया और सब लोग धर्म-कर्ममें तत्पर हो गये। इस प्रकार बहुत दिनों तक राज्य P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवाँ पारच्छेद 65 करते हुए राजा रतिसारने पृथ्वीके लोगोंके लिये नरकका दरवाज़ा बन्द करा दिया और स्वर्गका फाटक खुलवा दिया। एक समयकी बात है, कि राजा रतिसार अपने विलासमन्दिर में अपनी तीनों प्रियतमाओंके साथ बैठे हुए प्रेमालाप कर रहे थे। इसी समय प्रिया सौभाग्यमअरीके मुखड़ेकी ओर देखते हुए उन्होंने कहा, "हे चन्द्रमुखी! तुम्हारे मुखपर यह चन्दनकी बिंदी नहीं सोहती, इसलिये लाओ, मैं इसे मिटाकर कस्तूरीका तिलक लगा दूँ / " यह कह, सात्विक स्वेदसे भीगी हुई अंगुलीसे राजा रतिलारने सौभाग्यमञ्जरीकी सुन्दर कान्तिको बढ़ानेवाली यह बिन्दी पोंछ डाली, बिन्दी पुछ जानेपर और सभी शृङ्गार मौजूद रहते हुए भी रानी सौभाग्यमञ्जरीका मुखड़ा वैसाही फीका दिखाई देने लगा, जैसे सब ताराओंके. मौजूद रहते हुए भी चन्द्रमाके बिना रात्रि फीकी दिखाई देती है। यह देख, राजा रतिसारने अपने मनमें विचार किया,-"आहा ! जब एक बिन्दीके पुंछ आनेसे यह ऐसी शोभाहीन दिखाई देती है, तब अन्य विशेष आभूषणोंके न रहनेपर यह कैसी दिखाई देगी ?" ऐसा विचार मनमें उत्पन्न होते ही उनके हृदय-समुद्रमें वैराग्यकी लहरें उठने लगी और उन्होंने रानीके सब गहने उतरवा दिये। पहले शिरोरत्न :उतरा, जिसके बिना सारा शरीर रात्रिके समय बिना दीपकके मकानके समान मालूम पड़ने लगा। जब दोनों कानोंके कुण्डल उतर गये, तब वह सूर्य-चन्द्रहीम आकाशके समान मालूम पहने लगी। हार उतर जानेपर वह बिना तोरणके देवगृहके P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Sun Gun Aaradhak Trust Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार समान दीखने लगी। बाजूबन्द उतर जानेपर उसका शरीर कमलहीन सरोवरके समान दिखाई देने लगा। हाथोंके कंगन खोल देनेपर वह बिना लताओंके वृक्षके सदृश मालूम पड़े। चरणोंके आभषण खोल डालनेपर वे चरण हंस-रहित कमलिनीके समान मालूम पड़ने लगे। इस प्रकार सारे जगमगाते हुए आभूषणोंके उतर जानेपर रानी पत्र-पुष्पहीन फाल्गुनमासकी लताके समान हो गयी।. .. , 'यह दृश्य देख, राजा अपने मनमें विचार करने लगे,-"जैसे बिना नहाये किसीके अङ्ग शुद्ध नहीं होते, वैसेही बिना आभूषणोंके कोई भी स्त्री शोभायमान नहीं दीखती। औरोंकी तो बात ही क्या है ? आत्मा भी कर्मोंका मल धोये बिना और ज्ञान, चारित्र तथा दर्शनके अलङ्कारों बिना नहीं सोहती। इसलिये कर्मोसे मलिन बने हुए शरीरको शृङ्गार करके सजाना, मयूरके नृत्यके समान है, जिसका भीतरी भाग पंखोंकी दिखाऊ शोभाके भीतर छिप जाता है। शरीरपर आभूषण धारण करनेसे आत्माका शृङ्गार नहीं होता। इसके विपरीत, जैसे सूर्यकी किरणोंसे सारा आकाश शोभायमान दीखता है, वैसेही आत्माके आभूषणसे सभी अङ्गोंमें शोभा फलकने लगती है। इसलिये मैं भी इस शरीरके भूषण-रूप आत्माको कर्म-मलसे निर्मल बना कर उसे ज्ञान, दर्शन और चारित्र-रूपी आभूषणोंसे भूषित करूँगा।" - इस प्रकारके विचारमें पड़े हुए राजाकी मनोवृत्तियाँ मात्माके मन्दर स्थित हो रहीं और जैसे बिना हवाके मकानमें दीपक स्थिर P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां परिच्छेद ही रहता है, वैसेही स्थिर होकर प्रकाश फैलाने लगीं। इसके बाद घातिकर्माको जलानेवाली दावाग्निके समान शुक्लध्यान प्रकट हुआ और तीनों लोक तथा तीनों कालको दर्पणके समान प्रकट कर दिखानेवाला केवल-ज्ञान उत्पन हुआ। - उस समय शासनदेवताने उन्हें मुनि-वेश धारण कराया और सुवर्ण-कमलके आसनपर पधराया। तदनन्तर सभी सुरासुर फुल बरसाते हुए उन्हें प्रणाम करने लगे। यह अद्भ त चरित्र देख, राजाके अन्तःपुरके सभी मनुष्य चकित हो गये और स्त्रियाँ, "हे नाथ! यह क्या मामला है ?" यह पूछती हुई, हाथ जोड़े, उत्तरकी प्रतीक्षा करने लगीं। उसी समय रतिसार केवलीने अपने दांतोंकी चमकसे मूर्तिमान पुण्यका विस्तार करनेवाली और पापकी जड़-मूलसे उखाड़ फेकनेवाली यह देशना सुनायी: "अहा! महाउद्धत और मर्मविद् कर्मरूप राजाके वशमें आकर प्राणी संसारका दास हो जाता है और इससे हरदम नाना प्रकारकी विडम्बनाओंमें पड़ता रहता है। हे सन्त पुरुषों! संसारके कारण-रूप ये कर्म अनादिकालसे आत्माके साथ लगे हुए हैं। नाम और भेदसे ये कर्म आठ प्रकारके हैं, इन्हें भली भांति समझ लेना चाहिये। इनके नाम क्रमसे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय हैं। , १-प्रथम ज्ञानावरणीय कर्मके-मतिक्षान्नावरणीय, श्रुतमानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मनः पर्यायशानावरणीय और P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार केवलज्ञानावरणीय-ये पांच भेद हैं। जैसे निमेल दृष्टि वस्त्रसे ढंक जानेपर कम देखती है, वैसेही यह आत्मा भी ज्ञानावरणीय कर्मसे ढंक जाती है। इसलिये इस कर्मको वस्त्रपट के समान समझनाचाहिये / इल कर्मकी स्थितितीसकोटानुकोटि सागरोपम की है। इसके बाद भी आत्मा यदि पापाचरण करती है, तो पुनः उन कर्मोंका सञ्चय करती है। २-दूसरे दर्शनावरणीय कर्मके, पांच निद्रा और चक्षुदर्शनावरणीय आदि नौ भेद हैं। जिसमें स्वल्प यत्नसे शब्द करतेही सुखसे प्रबोध हो सके, वह निद्रा है। जो निद्रा वहुत ठोंक-पीट पर करने मुश्किलसे टूटती है, उसे निद्रानिद्रा कहते हैं। जो नींद खड़े होने या बैठनेकी हालतमें भी आ जाती है, उसे प्रचला कहते हैं। जो नींद राह चलते भी आ जाती है, वह प्रचलाप्रचला कहलाती है। दिनमें या रातमें जागते समय जिस कामकी चिन्ता की जाये, वह काम निद्रावश होनेपर भी करना, स्त्यानर्द्धि नामक पाँचवाँ भेदं जानना। यह स्त्यानर्द्धि-निद्रा प्राणीके क्लिष्ट कोक उदयसे प्राप्त होती है। चक्षुले पदार्थको साधारण रीतिसे देखना, चक्षुदर्शन कहलाता है और वह जिस कर्मके उदयसे आवृत होता है, वह चक्षुदर्शनावरण नामका छठा भेद है। चक्षुके सिवा अन्य इन्द्रियोंका जिससे आवरण होता है, वह भचक्षुदर्शनावरण नामका सातवाँ भेद है। - रूपी द्रव्यफी मर्यादाकोही अवधि कहते हैं। उसीका दर्शन P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचा परिच्छेद अवधिदर्शन कहलाता है। अथवा इन्द्रियोंकी सहायताके बिना ही असे वोध उत्पन्न होता है, उसे अवधि कहते हैं। उसीके द्वारा सामान्य अर्थका ग्रहण करना दर्शन हुआ। वही दर्शन अवधिदर्शन कहलाता है। जिस कर्मके उदयले इस दर्शनका आवरण होता है, वह अवधिदर्शनावरण कहलाता है। यह आठवाँ भेद है। लोकालोकके लब द्रव्योंका सामान्यरूपसे अववोध होना, केवल-दर्शन कहलाता है। इसका जो आवरण करता है, वह केवलदर्शनावरण नामक नवाँ भेद है। 'जैसे राजदर्शनकी इच्छा रखनेवाले मनुष्यको यदि पहरेदार राजासे नहीं मिलने देना चाहे, तो हज़ार रुकावटें डाल देता है , वैसेही दर्शनावरण कर्मसे बंधा हुआ जीव किसी वस्तुको यथार्थ रूपमें नहीं देख पाता। इसलिये इस कर्मको ठीक पहरेदारके समान जानना चाहिये। इसकी स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम की है। ३-वेदनीय कर्मके दो भेद हैं। (1) शातावेदनीय और(२) अशातावेदनोय। तिर्यंच और नरकगतिमें प्रायः अशातावेदनीयका उदय होता है तथा मनुष्य और देवगतिमें शातावेदनीयका। जैसे शहद लपेटी हुई खङ्ग-धारा चाटनेमें पहले मीठी मालूम होती है और इससे जीव अपने मनमें लुख मानता है; पर जब खङ्ग'धारासे जिह्वा कट जाती है, तब दुःख अनुभव करता है, वैसेही पाँचों इन्द्रियोंके अनुकूल विषयोंकी प्राप्तिले मनुष्य अपने सुख मानता है और उनके नहीं पानेसे विरह-दुःख पाता है। यही P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70. रतिसार कुमार raamannaamanar on-vvv vNNN ~ ~ ~ ~nr शातावेदनीय कर्म है। यह सुख-दुःख दोनोंका कर्ता है। इसी लिये इसकी उपमा मधुलिप्त खग-धारासे दी जाती है। इसकी स्थिति तीस कोटानुकोटि सागरोपमकी है। / ४-मोहनीय कर्म दो प्रकारके होते हैं। (1) दर्शनमोह___ नोय और ( 2 ) चारित्र-मोहनीय। इनमें प्रथम दर्शन-मोहनीय- के तीन भेद हैं:-१. सम्यगदर्शनमोहनीय, 2, मिश्रदर्शनमोहनीय .. और 3 मिथ्यात्वदर्शनमोहनीय / चारित्र-मोहनीय पश्चीस प्रकारका होता है:-क्रोध, मान, माया, लोभ-ये चार प्रकारके कषाय हैं। इनमेंसे प्रत्येक कषायके संज्वलन, प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान और अनन्तानुबन्धये चार-चार भेद हैं। इनमें संज्वलन-कषायकी स्थिति एक पक्षकी है। प्रत्याख्यान कषायकी स्थिति चार मास तक रहती है। अप्रत्याख्यान एक सालतक रहता है / अनन्तानुबन्ध जीवन भर बना रहता है। ये चारों प्रकारके कषाय सेवन करनेवाले प्राणियोंके भवान्तरमें वीतरागपन, यतिपन, श्राद्धपन और सम्यक्त्वका नाश करते हैं और क्रमसे अमरत्व, मनुष्यत्व, तिर्यक्त्व और नारकीपन प्रदान करते हैं। इस तरह सोलह कषाय हुए। इनके सिवा हास्य, भय, शोक, जुगुप्सा, रति, अरति, पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद-ये नवों कषाय भी है। सब मिलाकर 25 भेद हुए। __ इस प्रकार मोहनीय कर्मके 28 भेद है। ये कर्म चिरकालपर्यन्त भव्य प्राणियोंके लिये भी दर्जय होते हैं। इन कमोका P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवाँ परिच्छेद स्वभाव मदिराके समान जानना / जैसे मदिरा पीनेके बाद मनुष्य ऐसा बेहोश हो जाता है, कि उसे क्या करना चाहिये और क्या. नहीं, इसका ज्ञान नहीं रह जाता, वैसेही मोहनीय कर्मों के उदयसे मनुष्यको अपना हिताहित नहीं सूझता। इस कर्मकी स्थिति सब कर्मोंसे अधिक 70 कोटानुकोटि सागरोपमकी है। ५-आयु-कर्मके चार भेद हैं:-नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु। इस कर्मका बन्ध दुर्भद्य है। इसीलिये इसकी उपमा वज्र-खलासे दी जाती है। इसकी उत्कृष्ट स्थिति. 33 सागरोपमकी है। ६-नाम-कर्मके प्रकारान्तरसे 42,68, 63 और 103 भेद हैं। गति, जाति,शरीर, अङ्गोपाङ्ग, बन्धन, संघातन, संघयण,संस्था. न, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, पराघात, उपघात, आनुपूर्वी, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, विहायोगति, त्रस, स्थावर, सूक्ष्म, बादर, अपर्याप्त, पर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, सौभाग्य, दौर्भाग्य,स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, अनादेय, यश, अपयश, निर्माण, और तीर्थङ्कर नाम कर्म / इस प्रकार 42 भेद हैं। - गति चार प्रकारकी होती है:-नरकगति, तिथंचगति, मनुष्यगति और देवगति / . जाति पाँच प्रकारकी है:-एके इन्द्रिय, द्वे इन्द्रिय, त्रि इन्द्रिय, चतुरि न्द्रिय, और पञ्च न्द्रिय, . शरीर पांच प्रकार के हैं औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मण। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार अङ्गोपाङ्ग ये हैं-शीर्ष, पृष्ठभाग, हृदय, उदर, उरुद्वव, करद्धय, ये आठों अङ्ग हैं। इनके साथ लगे हुए घुटने और अँगुली आदि उपाङ्ग हैं ! इनमें जो रेखा, नख, केश आदि हैं, वेही अङ्गो पार हैं। इनमें जो आदिके तीन शरीरके होते हैं, इससे उनके तीन भेद हैंऔदारिक अङ्गोपाङ्ग, वैक्रिय अङ्गोपाङ्ग और आहारक अङ्गोपाङ्ग। * संघयण छः प्रकारके होते हैं:-वनऋषभनाराच संघयण, ऋषभनाराच संघयण, नाराच संघयण, अर्द्धनाराच संघयण, कीलिका संघयण, सेवार्त संघयण / / संस्थान छः हैं:-समचतुरस्त्र संस्थान, न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान, सादिसंस्थान, वामन संस्थान, कुञ्ज संस्थान, हुण्डक संस्थान, इन छहों संस्थानोंका सम्भव औदारिक शरीरसे है, . औरोंका कम होता है। 1. आनुपूर्वी चार प्रकारकी है:-नरकानुपूर्वी, तियेचानुपूर्वा, मनुष्यानुपूर्वा, और देवानुपूर्वी / . विहायोगति दो हैं:-शुभ विहायोगति और अशुभ बिहायोगति। . . इस प्रकार 35 भेदोंके साथ ऊपर गिनाये हुए 42 मेस जससे लेकर अपयश पर्यन्त 20 भेद तथा वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, उपघात, पराघात, आतप, अगुरुलघ, उच्छवास, उद्योत, निमाण और तीर्थङ्कर ये 12 भेद मिलाकर कुल 67 भेद होते हैं / - बन्धन पाँच प्रकारके होते हैं:-औदारिक बन्धन, वैक्रिय बन्धन, आहारक बन्धन, तेजस बन्धन, और कार्मण बन्धन / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाचवा परिच्छेद संघातन पाँच हैं:-औदारिक संघातन, वैक्रिय संघातन, आहारक संघातन, तेजस संघातन और कार्मण संघातन / येश भेद और वर्ण, गन्ध,रस और स्पर्श-इन चारों भेदोंके बदले पाँच वर्ण (कृष्णवर्ण, नीलवर्ण, रक्तवर्ण, पीतवर्ण, शुक्लवर्ण); दो गन्ध ( सुरभिगन्ध, दुरभिगन्ध ); रस पाँच ( तिक्त रस, कटुरस,कषायरल, आमरस,मधुररस); आठ स्पर्श(कर्कश स्पर्श, मृदुस्पर्श गुरु स्पर्श, लघुस्पर्श, शीत स्पर्श, उष्ण स्पर्श, स्निग्धस्पर्श और रुक्ष स्पर्श)-थे वीस भेद गिनने चाहिये। इस प्रकार 67 के साथ 26 भेद और बढ़ जानेले 63 भेद हो जाते हैं। ऊपर बन्धनके 5 भेद बतलाये गये हैं। किसी-किसी ग्रन्थमें प्रकारान्तरसे इसके पन्द्रह भेद गिनाये गये हैं, जिलसे कुल 103 भेद होते हैं। - जैसे चित्रकार सुन्दर-सुन्दर चित्र अडित करता है, वैसेही नाम-कर्मकीप्रकृतिके उक्ष्यसे जीव तरह-तरहके रूप आदि धारण करता है, जिससे इस कर्मकी उपमा चित्रकारसे दी जाती है। इसकी उत्कृष्ट स्थिति 20 कोटानुकोटि सागरोपमकी हैं। ____७-गोत्र-कर्मके दो भेद होते हैं: -१उच्च गोत्र और 2 नीच गोत्र / जैसे कुम्हार मिट्टीके पिण्डसे घड़ा बनाता है, जो मडलकार्यके लिये स्थापित होकर पूजित होता है तथा शराब आदि रखनेसे निन्दित हो जाता है, वैसेही उच्चगोत्र-कर्मके उदय होनेसे जीव विशिष्ट जाति आदि गुणोंसे बद्धि-हीन होनेपर भी पूजित होता है और नीचगोत्र-कर्मके उदयसे बुद्धिमान् होनेपर भी जीव P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 रतिसार कुमार - श्रेष्ठता नहीं लाभ करता। इसका यही हाल समझना चाहिये। इसकी स्थिति 20 कोटानुकोटि सागरोपम की है। ८-अन्तराय-कर्मके पाँच भेद हैं:-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, और वीर्यान्तराय / इस कर्मकी उपमा राजाके भण्डारीसे दी जाती है / इसकी स्थिति 30 कोटा नुकोटि:सागरोपमकी है। ___"इस प्रकार यद्यपि यहाँ थोड़े ही कहा गया, पर यह कर्मरूपी महारोग बहुत दिनोंतक साथ लगा रहता है, इसलिये सत्पुरुषोंको चाहिये, कि प्रमाद-रहित होकर शुद्धध्यान-रूपी औषधसे इसे शान्त करें। शुद्ध-ध्यान सब सुखोंका मूल वीज है। विषय-कषायसे विरक्त बने हुए, सन्तोषसे प्रेम रखनेवाले पुरुषोंकोही यह प्राप्त होता है। इसलिये सब प्राणियोंको इस गुणको धारणकर शुद्धध्यान प्राप्त करनेका प्रयत्न करना चाहिये। __ "इसके सिवा सद्वाक्यसे बढ़कर दूसरा कोई वशीकरण मंत्र नहीं है। कलासे बढ़कर दूसरा कोई द्रव्य नहीं है। अहिंसासे . बढ़कर दूसरा धर्म नहीं है और सन्तोषके सिवा और कोई सुख नहीं है। इन सेव्य और सार-भूत गुणोंकी जननी विरति है / केवलियोंने सर्व विरति और देश-विरति नामके दो विभाग इसके किये हैं। विवेकी, मतिमान् और सुखकी इच्छा रखमेवाले पुरुषोंको इस विरतिको ग्रहण करनेमें- इस सत्कर्ममें-कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये, नहीं तो बड़े-बड़े विघ्न होते हैं। क्षणमात्रकी आयु भी करोड़ों रत्न देनेपर नहीं मिल सकती, इसलिये बुद्धि P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवाँ परिच्छेद मान् मनुष्योंको इस आयुमें प्रमादका कीचड़ नहीं लगाना चाहिये। कहनेका मतलब यह, कि आयुकी चंचलताका विचार कर, धर्मकार्यमें कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये। . इस प्रकार कर्मके विषयमें धर्म-देशना श्रवण कर, तत्त्वावबोध होनेके कारण, वहाँ जितने लोग उपस्थित थे, वे सभी शुभध्यानवाले हो गये / अन्तःपुरकी तीनों स्त्रियों और सुबन्धुने भी महाप्रत ग्रहण कर लिया। और भी बहुतसे मनुष्योंने गृहस्थधर्मको अङ्गीकार किया। इसके बाद सारे जगत्को अपने बन्धुके समान जाननेवाले केवली रतिसारने पृथ्वीके बहुतसे भागोंमें विहार करते हुए अनेक भव्य जीवोंको प्रबोध दिया और आयु पूर्ण होने पर मोक्षको प्राप्त हुए। पाठको!:अब इस छोटीसी कथाकी यहीं समाप्ति होती है। इस सारे चरित्रका पठनकर आपको यह बात भली भांति मालूम हो गयी होगी, कि मनुष्यको जीवन में सुख और दुःख, उदय और अस्त, सम्पत्ति और विपत्तिके प्रसङ आनेपर' उनका अनुभव कर नाही पड़ता है। इन सबका कारण पूर्वकृत कर्म ही है। इसलिये यदि कभी पूर्वकृत कर्मोका उदय होनेसे आप विपत्ति में पड़ जाइये, तो सुबन्धुकी भांति घबराकर हिम्मत न हारिये, बल्कि पुरुषार्थका सहारा लेकर, उस विपत्तिको पूर्वकृत पापका क्षयकरनेवाली समझकर, उसीमें आनन्द अनुभव कीजिये, इसी तरह प्यारा कुटुम्ब, अनेक सन्तान-सन्तति, अपार सम्पत्ति, प्रबल P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार अधिकार आदि सुख-सम्पत्तिके कारण उपस्थित होनेपर अविवेकी और अभिमानी न बन जाइये ; बल्कि इन सबको पूर्वमें किये हुए, धर्मकृत्योंका फल समझकर ऐले उपकारी धर्मको नहीं भूलते हुए, उसीमें चित्त लगाये रहिये। साथही चारण-मुनिने सुबन्धुको जो श्लोक बतलाया था, उसे भी अपने हृदय पट पर लिख लीजिये। सुपात्रको दिया हुआ दान सौभाग्य देनेवाला, आरोग्य देनेवाला, उत्तम भोगका निधान, गुणोंका स्थान, कान्तिका प्रसारक और वैरिको वशमें ले आनेवाला है। इसी दानके प्रभावसे रतिसार कुमारको भी सुख, सम्पत्ति, कान्ति और पराक्रम आदि विभूतियाँ प्राप्त हुई। यही देख और यही सोचकर कि इन्हींकेले अन्य असंख्य मनुष्योंने भी दानके प्रभावसे संसारके बन्धन काट डाले हैं, आप लोग भी सुकृत्यमें लीन रहते हुए अकृत्यका त्याग करें। इस प्रकार करनेपर आपका यह चरित्र-पठन करना सफल होगा। समाप्त P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्ति के समय मनोरञ्जन करने योग्य हिन्दी जैन साहित्य की सर्वोत्तम पुस्तकें Darpan आदिनाथ चरित इस पुस्तकमें जैनोंके पहले तीर्थङ्कर भगवान आदिनाथ स्वामीका सम्पूर्ण जीवन चरित्र दिया गया है, इसको साधन्त पढ़ जानेसे जैनधर्मका पूर्ण तत्व मालूम हो जाता है, भाषा भी ऐसी सरल शैली से लिखी गई है, कि साधारण हिन्दी जानने वाला बालक भी बड़ी आसानीके साथ पढ़ सकता है, सचित्र होनेके कारण पुस्तक खिल उठी है, अगर आप जैन धर्म के प्राचीन रीति रिवाजों को जानना चाहते हैं, समाज का भला और अपनी सन्तानों को जैन धर्मको शिक्षा प्रदान करना चाहते हैं। तो इस पुस्तक को मंगवाने के लिए आज ही आर्डर दीजिये। मूल्य सजिल्द का 5) अजिल्द का 4) डाकखर्च अलग। . शांतिनाथ चरित्र इस पुस्तकमें जैनोंके सोलहवें तीर्थङ्कर भगवान शान्तिनाथ स्वामीका चरित्र ( संपूर्ण बारह भवों का ) मय चित्रोंके दिया गया है। इस पुस्तक का संस्कृत पुस्तक से हिन्दी अनुवाद किया गया है। अगर भाप सामायिक पौषध आदि धर्म क्रियाके समय ज्ञान-ध्यान करना चाहते हैं, तो इस पुस्तकको अवश्य मॅग P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाइये / बड़ी खूबी यह की गई है, कि प्रत्येक कथापर एक-एक हाफटोन चित्र दिया गया है, जिनके अवलोकन मात्रसे मूलका आशय चित्तपर अंकित हो जाता है। अध्यात्म अनुभव योग प्रकाश इस पुस्तकमें योग सम्बन्धी सर्व विषयोंकी व्यक्तता की गई है, योगके विषयको समझानेवाली, ऐसी सरल पुस्तक कहीं नहीं प्रकाशित हुई / इस ग्रन्थ-रत्नके कर्ता एक प्रखर विद्वान जैनाचार्य हैं, जिन्होंने निष्पक्षपात गृष्टिसे प्रत्येक विषयोंको खूब अच्छी तरह खोल-खोल कर समझा दिया है / मूल्य अजिल्द // ) सजिल्द 4 // ) सती चन्दनबाला इस पुस्तकमें सुश्राविका सती-शिरोमणी चन्दबाला का चरित्र बड़ीही मनोहर भाषा में लिखा गया है, चन्दनबाला को सतीत्व की रक्षा करने के लिये जो-जो विपत्तिय सहनी पड़ी हैं और सतीत्व के प्रभाव से उसके जीवन में जो-जो घटनायें हो गई है, सो इस पुस्तक में खूब अच्छी तरह खोल कर समझाई गई हैं, जैनी व अजैनी सब को यह पुस्तक देखनी चाहिये / इस जीतनीको प्रत्येक कुल लक्ष्मियों को पढ़ना चाहिये / पुस्तक की छपाई सफाई बड़ी ही नयनाभिराम है। स्थान स्थानपर नयनानन्दकर उत्तमोत्तम छ चित्र दिये गये हैं, जिनसे सारी पुस्तक खिल उठी है। जैनसंप्रदाय में यह एक नवीन शैली निकाली गई है। मूल्य // 3) आने / डाक खर्च अलग। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नलदमयंती इस पुस्तकमे नल और दमयन्तीकी जीवनी मय चित्रोंके दो गई है, इस पुस्तक में पतिव्रता-धर्म-सूचक ज्ञानका भण्डार भर दिया गया है, जिसे पढ़कर स्त्रियों को अपने आपेका ख़याल हो आता है। इस पुस्तक को प्रत्येक बालक, युवा और वृद्ध ___नारियों को अवश्य देखना चाहिये ; मूल्य // ) डाकखर्च अलग। सुदर्शन सेठ जैन समाज में ऐसा कोई पुरुष न होगा जिसने सुदर्शन सेठकी जीवनी न सुनी हो / पूर्व के महापुरुषों ने शील की रक्षा के लिये प्राणत्याग करना स्वीकार किया पर शील को त्यागना नहीं स्वीकार किया, इसी विषय पर सुदर्शन सेठ के जीवन में अनेकानेक घटनायें हो गई हैं, जिनके पढ़ने से प्रत्येक नर नारी को अपने शील के विषय में ख़याल हो आता है। अगर आप अपनी समाज के लोगों को कुसल से बचाना चाहते हैं और अपने समाज में शीलका महत्व बतलाना चाहते हैं, तो इस पुस्तक को अवश्य मँगवाइये / मूल्य // 3) डाकखर्च अलग। कयवन्ना सेठ इस पुस्तकमें कयवना सेठ की जीवनी दी गई है। सचित्र होने के कारण कयवन्ना सेठ की अनोखी घटना आँखों के सामने दिख आती है। चारित्र सुधार के विषय में यह पुस्तक अतीव लाभदायक हैं। मूल्य // ) डाक खर्च अलग। . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसार कुमार . इस पुस्तक में रतिसार कुमार का चरित्र अतीव सरल और सुन्दर भाषा में लिखा गया है। प्रत्येक नर नारी को इस पुस्तक को अवश्य देखना चाहिये / पुस्तक की छपाई सफाई बड़ी ही नयनाभिराम है. चित्रोंके, कारण रतिसार कुमार का चरित्र अपनी आँखों के सामने दिख आता है। मूल्य // ) डाक खर्च अलग। ज्योतिषसार .. पुस्तक का विषय नाम से ही मालूम हो जाता है, ग्रन्थक ने भी इस छोटीसी पुस्तक में सारे ज्योतिष शास्त्र का निचोड़ भर दिया है। - अगर आपको नये कारोबार, नये मकान बनवानेके, विदेश जानेके, देव प्रतिष्ठा, नई दीक्षा, आदि प्रत्येक शुभ कार्योके मुहूर्त देखने हों तो आज ही "ज्योतिषसार" मंगवाने आडंर दीजिये। - स्घरोदय ज्ञानका विवरण भी दिया गया है। वर्तमान समय में मनुष्यमात्र के लिये स्वरोदय ज्ञानकी पूर्ण आवश्यकता हुआ करती है, अतएव स्वरोदय ज्ञान का भी खूब खुलासा दे दिया है, मूल्य // ) डाक खर्च अलग। . मिलनेका पता-पंडित काशीनाथ जैन . 27... प्रिंटर, पब्लिशर एण्ड बुकसेलर : P.P. Ac. Gun नरसिंह प्रेस, 201, हरीसन रोड, कलकत्ता / Aaradnak t?ust