SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौथा परिच्छेद 36 वाला एक घोड़ा मँगवा कर राजकुमारने उस राजाको उसी पर सवार हो, चले जानेको कहा। वह भी अपनी जान लेकर तुरत चल दिया। ..... .... ... “यह समाचार सुन, राजा बड़े क्रोधित हुए- उनके चेहरेकी कान्ती फीकी पड़ गयी। उन्होंने मेघकी तरह गरजकर कुमारसे कहा,-'यदि एक मनुष्यको मार डालनेसे बहुतसे मनुष्योंको सुख होता हो, तो वैसे मनुष्यको बड़े दयालू चित्तवाले और शुद्ध बुद्धिवाले मनुष्य भी बिना मारे नहीं छोड़ते। रे पापी तेरी यह कृपा कुएँमें क्यों नहीं गिर गयी, जो तूने एक दुष्ट शत्रु को सस्ते छोड़कर सारे देशका सत्यानाश कराया ? सारे देशको तबाह करनेवाले शत्रु पर दया करके तू स्वयं ही मेरा शत्रु हो गया, इसलिये तू अभी मेरे देशसे निकल जा, कदापि मेरे राज्यके भीतर पैर न रखना।" .. --- "राजाके ऐसे वचन सुन, हर्षके साथ कुमारने विद्वानोंको भी चकित करनेवाला यह उत्तर दिया,-'पिताजी ! श्वास लेते, हँसते, चलते और अन्यान्य क्रियाएँ करते समय कौन मनुष्य हज़ारों प्राणियोंकी हत्या नहीं कर डालता? इससे क्या एक प्राणीके वधसे हज़ारों को सुख होता है ? यदि यही बात है, तो आपही कहें, बुद्धिमान् मनुष्योंको बहुतसे लोगोंकी भलाईके लिये किसको मारना चाहिये और दयालू पुरुषोंको किसपर दया करनी चाहिये ? महाराज ! मेरा तो यही मत है, कि दुःखमें पड़े हुए किसी भी प्राणीकी रक्षा करनी चाहिये, चाहे वह अपना P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036478
Book TitleRatisarakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherKashinath Jain
Publication Year1923
Total Pages91
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy