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________________ चौथा परिच्छेद वडाही सुन्दर और सुडौल था। उसकी देहकी कान्ति चारों ओर जगमग ज्योति फैला रही थी। वह खूब कसे हुए कपड़े पहने हुए था। उसकी कमरमें फेंटा बँधा हुआ था। साथही म्यानमें बँधी तलवार भी लटक रही थी। उसकी छाती पर भुजाली खुसी हुई थी और दाहिने हाथमें ताम्बूलपात्र लिये हुए था। उसने बायें हाथसे मेरी मतवाली स्त्रीको आलिङ्गन कर रखा था, इसीलिये वह बड़े धेर्यके साथ मेरी ओर अवज्ञा-भरी दृष्टिसे देख रहा था। यह दृश्य देखतेही मेरे नेत्र क्रोधसे लाल हो गये और मैं झटपट कह उठा,-'अरे ! यह कौन है ? और मेरी स्त्रीको कहाँ लिये जा रहा है ?' मेरे मुंहसे यह बात निकलतेही उस स्त्रीने झटपट उस पुरुषको खड़ा कर दिया और घृणाभरी हँसी हँसकर मुझसे कहा,-'तुम बड़े भारी पापी हो। तुमने इतने दिनोंतक मुझे कैदखाने में बन्द कर रखा था। आज मैं तुम्हारी छातीपर पैर रखकर चली जाती हूँ।' स्त्रीकी यह बात सुनतेही मैंने क्रोधातुर होकर अपने सिपाहियोंको आज्ञा दी, कि अभी इस पुरुषको पकड़कर मार डालो। ___ "मेरी बात पूरी होनेके पहलेही वह पुरुष पलक मारते हवासे बातें करता हुआ मेरी स्त्रीको साथ लिये हुए उसी समय वहाँसे रफ़ चक्कर हो गया। 'यह गया, वह भागा' कहते हुए मेरे सिपाही उसके पीछे-पीछे बड़ी दूर तक चले गये ; पर उसे गिरफ्तार न कर सके। इसके बाद जैसे मन इन्द्रियोंके पीछे-पीछे जाता है। वैसेही मैं भी हारे-थके घुड़सवारोंको साथ लिये P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036478
Book TitleRatisarakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherKashinath Jain
Publication Year1923
Total Pages91
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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